अपने लिए लिखा बड़ा बेतरतीब होता है. और अनएडिटेड डाल रहा हूँ. क्या डाकिये को ख़त लिखने का हक़ नहीं.
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई ग़म ना हो?
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?
अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.
मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
ख़ैर ये सब कोई आध्यात्मिक ज्ञान की सीढियां नहीं रहें हैं मेरे लिए. अगर कुछ है तो जस्ट अपोजिट है. ब्लैक होल का काउन्टर-पार्ट वार्म होल सरीखा अवश्यम्भावी (उदाहरण की नकारात्मकता और सकारात्मकता से मायने नहीं हैं, बस ब्लैक होल ज़्यादा प्रचलित है इसलिए) मेरी पूजा में हवन और अगरबत्ती की खुश्बू नहीं आती. उसमें शमशान, चमगादड़, नर कंकाल और अमावस्या की बातें हैं.
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.
कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?
अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.
मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
कुछ इस तरह क्रमिक विकास हुआ है चीज़ों का...
सिगरेट >> शराब >> सेल्फ पिटी >> तन्हाईयाँ >> आत्महत्या की चाह >> जीना और बस जीना
..अब तो बस...
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.
कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
'जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.'
...तब जबकि ये दुनियाँ मेरे होने पर ही है. कम से कम मुझ इंडीविज़ुअल के लिए तो तब तक ही है. में आपके बारे में निश्चित नहीं हूँ."
जो एक चीज़ आपको सबसे अलग करती है वो शिल्प है. पढ़ते वक़्त लगता है की ऐसा विलक्षण कहन हमारा क्यों नहीं है. ये भी शक होता है की ये ओढ़ी हुई हो, आप तो जानते ही हैं हममें वो गुण अगर नहीं होता तो सबसे सुविधाजनक उसे उड़ाया हुआ बता देना होता है. हर लाइन पढने के बाद कुछ रुसी क्लासिक्स याद आती है. जल्दबाजी में नहीं कह रहा लेकिन बस यही की इसी शिल्प के कारण आप आम लिखने वाले से एक पायदान ऊपर नज़र आते हो. मुझे पता है जब आप मैगी बना रहे होते हो, वो मैगी जोंक की तरह लरजती है आपको लगता है हम भी रेंग ही तो रहे हैं. और उसका फटा पैकेट सर्वहारा समाज की तरह डस्टबिन में थोड़ी खोखली हवा और अपने अन्दर का खालीपन पे हांफ रहा होता है.
ReplyDeletesaagar ki baat se sehmat hain.... aapko padhnaa humesha hi yun hota hai jaise life ko "printscreen" command deke freeze kar liyaa gya ho aur phir zoom in karke ek naye microscope se dekha jaa raha ho...matra sookhshmta se hi nahin balki ek naye nazariye se bhi...
ReplyDelete@saagar... maggie waali baat khoob kahi aapne.... aapko padhna bhi kuch khaas hota hai... kaledoscopic view mein hoti hai zindagi aapki lekhani mein... kaledoscope jo sach dikhata hai naa ki bhramm.... rang kuch itne surkh hote hain ki har rang aankh mein chubhne lagta hai... aur elements ya characters black nd white mein nazar aane lagte hain...
होता है जिंदगी में मिसफीटी का अहसास अक्सर होता है ..एक सुबह आप उठे है सब कुछ दुरस्त है ....जिंदगी ...मौसम...सारे लोन की इ म आई तय वक़्त पर जा चुकी है ..यार दोस्त खुश है ....गाड़ी में जगजीत सिंह आप की फेवरेट ग़ज़ल गुनगुना रहे है ....एक ट्रक तेजी से आपको छू कर गुजरता है ..आप तेज़ी से ब्रेक लगाते है ...सड़क के किनारे खड़े अपनी पीठ पे स्कूली बस्ता टाँगे बच्चे से आपकी निगाह मिलती है .....आपकी सोच उस एक लम्हे से बदल जाती है ,आप औकात में आ गये है !
ReplyDeleteसुबह वाल्क पे निकले है पार्क में कालोनी में आवारा घूमने वाली कुतिया एक बेंच के नीचे अपने जन्मे बच्चो के साथ लेटी है ...उसके पुराने बड़े हो गए बच्चे आस पास मंडराते है तो फिर गुर्राती है ..दुश्मनी की एक नयी लकीर...आप इस सोच में है ये कब ओर कहाँ अपना पेट भरेगी ....कैसे इन बच्चो को छोड़ कर जायेगी .सर्वाइवल ऑफ़ फिटेस्ट !!!
आप 'आल इंडिया" में नौकरी करने वाले एक कपल से मिलते है जो छुट्टियों में आदिवासी इलाके में क्लिनिक चलाने जाता है ...आपको अपनी कमतरी का अहसास होता है ...अपनी जरूरते सहूलियत वाली स्टेज तक पहुँचते पहुँचते अपने कई साल गुजार दिए है ..पर पिछले कई साल सिर्फ आपके अपने लिए है .
आपकी बैचेनिया सर उठाती है आप जानते है ये कुछ दिन जिंदा रहेगी........
चोरास्सी लाख योनियों के बाद मानव जीवन ....आपके इत्ते साल गुजर गए ओर आपने कोई तीर नहीं मारा है.....
हर आदमी की अपनी बैचेनिया है ....अलग अलग समय पर इतनी की घाल मेल हो जाता है ....मेरा एक दोस्त मुझसे कहता है....तुम साले कवि शायर का ज़मीर बड़ी जल्दी जागता है...ओर कागजो की बाउंड्री कभी क्रोस नहीं करता है ........
ReplyDeleteजानते हो कभी कभी सोचता हूँ ....वो ठीक कहता है
@Anurag sir:
ReplyDeleteचीज़ें याद नहीं रहती, नहीं तो 'पहुंचेली' का एक सवाल के जवाब में दिए वक्तव्य को आपके समर्थन में कोट ज़रूर करता. जहाँ पर लेखक और कवि के बारे में पहुंचेली का भी यही विचार है. और आप उससे सहमत हुए बिना नहीं रह सकते. में कई बार 'अपनी वाली से' कहता हूँ कि दिक्कत ये है कि मुझे पता है सब झूठ है, सब कुछ. पर उससे भी बड़ी दिक्कत ये है कि ये नहीं पता सच क्या है. और वो उदास हो जाती है. सोचता हूँ कि क्या उसकी उदासियाँ भी झूठ हैं? अपूर्व कहता है कि हम ऐसे लोग हैं जो बग़ावत नहीं कर सकते. हम से उसका मतलब 'कवि' प्रजाति ही हो. और आप उससे भी सहमत हुए बिना नहीं रह सकते. वीर रस की कवितायें अब लिखी नहीं जाती. और लिखी भी जाएँ तो इश्वर से और उसकी सत्ता से बग़ावत करने के लिए उतना पोटेंशियल नहीं होगा उनमें. बहरहाल पत्थर तबियत से उछालने की कोशिशें जारी रहेंगी.
@अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
ReplyDeleteक्यों याद दिला दी उस आरज़ू की...... ५ बार तो देख ही लिया था.....
बाकि मिसफिट तो कई लोग है...... जिसमे से एक मैं भी हूँ.
एक बात याद आयी दर्पण शेयर करना चाहूँगा..मेरे एक ज़हीन और इमोशनल किस्म के दोस्त साहब जिनकी जिंदगी के बारे मे राय कुछ-कुछ ऐसी ही होती जा रही थी..लगने लगा था कि खुशी(/मोक्ष?) और उनके बीच की सबसे बड़ी रुकावट जिंदगी खुद है..जिन्हे फलसफाना तरीके से जिंदगी को लातन भेजने मे एक रुहानी सा सुकूं नजर आता था (जाहिरन अपनी जिंदगी के खमीर से उठती महक की वजह से)..उनके फ़ादर जो इत्तेफ़ाकन डाक्टर थे..एक दिन उन्हे हस्पताल के विजिट पर कैंसर सर्जरी के वार्ड लेते गये अपने संग..खुद उन काबिल दोस्त के मुताबिक जिंदगी का असल मतलब उन्होने उस वक्त जाना..तमाम बेफ़िक्र ऐबों कुटेबों गुटखा/सेगरेट के शौक के एवज सेहत को गिरवी रख चुके पेशेंट्स जो जिंदगी और मौत की खाई मे झांकने के बाद जिंदगी के असल मायना समझने लगे थे (ओरल कैंसर का प्लाइट समझते हो ना?)...ऑप्रेशन के रास्ते अपना जबड़ा चेहरे से खो चुका एक बेहद कमसिन लड़्का जिनके लिये अब जिंदगी कोई म्यूट बोरिंग डाक्यूमेटरी रह जाने वाली थी (जिनके बीच हम उबासियाँ लेते हुए बेसबरी से ’द एंड’ का इंतजार करते रहते हैं, यू नो) उससे पूछने पर कि क्या अब भी वो जिंदगी का उतना ही तलबगार है क्या, मेरे दोस्त के मुताबिक उसके बेजुबां चेहरे की बोलती आंखों मे छुपे जवाब की शिद्दत रोंगटे खड़े करने वाली थी..कहने का मलतब है कि ये बड़ी कमीनी चीज है..और जब तक हम अपनी दिमागी फ़ैंटेसी की परवाज के नशे मे होते हैं..जीवन मृत्यु मोक्ष सफलता कुंडलिनी वार्महोल यह सब हमारे दिमाग की फलसफाना रेसिपी का हिस्सा रहते हैं..मगर हकीकत के काढ़े का स्वाद बेहद जुदा होता है..जिंदगी को गर्क करने की ख्वाहिश इस दुनिया की सबसे बड़ी विलासिता है..जिसे कोई भी अफ़ोर्ड नही कर सकता और हर कोई कर सकता है..मै अपने जरा से तजुर्बे से बस यही कहूंगा डियर कि मिसफ़िट वाली लाइन लिटरेटिक तरीके से कितनी भी हांटिग क्यों न हो मगर दुनिया मे मिसफिट जैसे किसी कोट का कोई वजूद नही होता...अपने आस-पास देखेंगे कि दुनिया मे हर संभव वैराइटी और मुश्किल से मुश्किल नमूनों के लिये भी उतनी ही जगह निकल आती है जितनी कि सब के लिये..लाइफ़ बड़ी एकॉमोडेटिग औरत है अगर हम थोड़ा सा कोआपरेट करें तो..दरअसल यह मिस्फ़िट दुनिया से नही होती..हमारे अपने दिमाग के बनाये हुए किसी खयाली फ्रेम से होती है..हम आइडियल या हैपी लाइफ़ के किसी बिजूके की तर्ज पर खुद के लिये एक फ्रेम अपने ख्यालों मे गढ़ते हैं खुद के लिये..और हमारी जिंदगी खुद को अपने बनाये फ्रेम मे फ़िट करने मे गुजरती है..आइरॉनी इतनी है कि जब हमारी जिंदगी कुछ-कुछ उस फ्रेम मे फिट होने लगती हैं..हमारा शिकस्आलूदा दिमाग और हमारी इर्रेशनल हसरतें ुस फ्रेम को खुद-ब-खुद थोड़ा और तंग कर देती हैं..मिसफिट हमेशा मौजूद रहती है..हमारे खयालों मे...बाकी बस छोटा मुंह बड़ी बात कहने की जुर्रत करूंगा कि जब हमें अपने दर्द असहनीय और अपने गम बेहद वजनी दिखायी देने लगते हैं..तब शायद हमें दूसरों के दर्द का अंदाजा नही होता या अपने आसपास दिखने वाले तमाम लोगों की झुकी हुई पीठें अंडरएस्टीमेट कर रहे होते हैं..सुना है ना
ReplyDeleteदुनिया मे कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है
औरों का गम देखा तो, मै अपना ग़म भूल गया..
कम-स-कम अपना तो यही किस्सा है दोस्त..
पुनश्च: कभी ऐसा होता है कि पोस्ट पढ़ कर आप तारीफ़ें करने के तलबगार होते हों मगर कमेंट पढ़ने के बाद तारीफ़ों के खजाने कमेंट्स पे ही लुटा देने की ख्वाहिश होती है...ऐसा ही लगा सागर और अनुराग जी के कमेंट पढ़ कर..कि जो अगर तुर्की का खलीफ़ा होता तो दोनो के नाम चार-पांच रियासतों का रुक्का लिख देता..मगर यहां किसी दुआओं की दौलत के बादशाह फटेहाल फकीर की तरह ढेरों दुआएं देता हूं पोस्ट लिखने वाले और दोनो कमेंट्स करने वालों के नाम..मरहबा!!
"अपूर्व कहता है कि हम ऐसे लोग हैं जो बग़ावत नहीं कर सकते. हम से उसका मतलब 'कवि' प्रजाति ही हो"
ReplyDelete@दर्पण: यह बगावत न कर पाने वाली बात किसी प्रजाति (कवि या और कुछ) के लिये नही वरन ’हम’ लोगों के लिये ही कही मैने..मसलन मै और तुम..कवि-शायरों मे तमाम बगावती मिल जायेंगे..और शेरो-शायरी से बाहर की दुनिया मे हर कोई बगावती हो यह सरासर गलत होगा...
बस एक चीज है कि जरूरतमंद-बगावती, फितरतन-बगावती, इत्तेफ़ाकन-बगावती, शौकिया बगावती, रवायतन-बगावती..यह सब तमाम जिंसें हैं बगावत के वैराइटी-शॉप की..इनमे फर्क समझ आना..और अपनी कैटेगरी डिफ़ाइन कर पाना बड़ा जरूरी है..और सबसे मुश्किल भी..
बाकी इतना याद रह गया है किसी गाने की लाइन जैसा..बर्बादियों का शोक मनाना फिजूल था, बर्बादियों क जश्न मनाता चला गया जैसा कुछ
@अपूर्व: तुम सच में अपूर्व हो... मेरे पास भी कोई रियासत नहीं वरना सारी तुम्हारे नाम कर देता भाई...
ReplyDelete@ अपूर्व आपकी बात बहुत हद तक सही है, इन्फेक्ट पोस्ट का फ्लेवर भी वही है, हाँ थोड़ी मानसिक बेचेनियों का बेतरतीबपन ज़रूर है, (इन्फेक्ट ये मानसिक द्वन्द में, अपने से लड़ते हुए लिखी गयी पोस्ट है, जो एक फ्रेम ऑव माइंड में आदमी सोचता है, जैसे दोस्तों के साथ पहले इस बात पे 'बात' है कि ज़िन्दगी बड़ी कमीनी चीज़ है, और मैं अज़ीज़ आ गया हूँ इससे, और उसके तुरन्त बाद 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' के वीकेंड कलेक्शन की डिस्कशन है.)
ReplyDeleteदुनिया में मिसफिट होने की बात को तो मैं नकारता ही हूँ दोस्त, जैसा कि मैं अंत में खुद कहता हूँ कि अगर आपके होने से दुनियाँ है तो आप मिसफिट कैसे हो सकते हो दुनियाँ में? (बेशक इस निष्कर्ष तक पहुंचने में सीधा-सपाट रास्ता नहीं मिल पाया था विचारों को.)
और जहाँ तक 'कुण्डलिनी' 'वार्म-होल' 'इश्वर' कि सत्ता है कि बात है या उसके ग्लैमराईजैशन कि बात है उस चीज़ के बारे में भी बहुत हद तक यही विचार हैं, असल में अंत में पोस्ट आपनी अति नकारात्मकता के ऑरा के बावजूद जीवन को 'एकोमोडेटिंग-औरत' की तरह स्वीकार करती हुई सी लगती है. (वैसे तो मुझे अपनी पोस्ट को लिख देने के बाद जस्टिफाई करने का कोई हक शायद नहीं पर चूंकि ये 'विचारों' का कौंधना टाईप पोस्ट थी इसलिए इसे अपने से अलग हटकर देख रहा हूँ, जैसे किसी और ने लिखी हो, और इसीलिए लेखक की उस वक्त की मनः स्थिति की विवेचना.....)
...जानता हूँ साग़र के ये शब्द तारीफ़ में ही कहे गए थे और मैंने इन्हें अन्यथा नहीं लिया किन्तु अक्षरश : देखूं तो भी सत्य ही है की ."ये भी शक होता है की ये ओढ़ी हुई हो."
"अपूर्व कहता है कि हम ऐसे लोग हैं जो बग़ावत नहीं कर सकते. हम से उसका मतलब 'कवि' प्रजाति ही हो"
आपसे 'उस' वक्त हुई बातों का अर्थ समझ आ गया था, और बड़ी 'काल्म' करने वाली बातें की थीं आपने, सच ! बस कोट-मिस्कोट करने का सा मन हुआ लेकिन लिमिट में रहकर ("एक्सटेंड योर लिमिट बट बी इन लिमिट" की तर्ज़ पर ! :-P) तभी 'हम से उसका मतलब.' कहा
@अपूर्व, पंकज: रियासतें आदि बाटें तो हमें अवश्य बुलायें, हमारे यहाँ रियासतों को तस्सली-बख्श उजाड़ा जाता है. :-P
Himmat nahi ho rahi thi yahan comment karne ki.....bas itna kahenge ki aap saaare kamaal log ho.... aaj bhi uski Manufacturing unit ka production badhiyan hai...Milavat nahi hoti wahan :-)
ReplyDeletepata nahi hai par kosis bhi to nahi ki pata karne ki..phir pata karke kya ho jana hai.........kabhi kabhi kaan marod ke dimag ko switch off kar dene ka man karta hai.......khair ...... fit faat fataat........
ReplyDeletewajan bad jaane ke kaaran to nahi hain ye haal
( sun raha hoon aadmi ko dhire dhire kapde misfit hote jaaenge..ya kapdon ko aadmi....
chrrrrrrrrrrrrrrrrr..................
kya baat hai!!
ReplyDelete