कत्बा
786
यहाँ सआदत हसन मंटो दफन है.
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी के
सारे अस्रारो-रूमूज़ दफ़्न हैं -
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या ख़ुदा।
सआदत हसन मंटो
18 अगस्त, 1954
पसमंज़र
आज की ताज़ा खबर आपने सुनी ?
कोरिया की ?
जी नहीं।
बेगम जूनागढ़ की ?
जी नहीं।
क़ल्तो-गारत की किसी नई वारदात की ?
जी नहीं... सआदत हसन मंटो की
क्यों ... ? मर गया ?
जी नहीं। कल गिरफ्तार कर लिया गया।
फहाशी (अश्लील) के सिलसिले में ?
जी हां... पुलिस ने उसकी खाना-तलाशी भी ली।
कोकीन या नाजाइज़ शराब वगैरह निकली ?
नहीं... अखबारों में लिखा था कि उसके मकान से कोई नाजाइज चीज़ बरामद नहीं हुई।
लेकिन उसका वुजूद बज़ाते-खुद (अपने आप में) नाजाइज़ है।
जी हां... कम-अज-कम हुकूमत तो यही समझती है।
फिर उसे बरामद क्यों न किया गया ?
यह बरामद और दरामद का मामला हुकूमत के अपने हाथों में है जिसे चाहे बरामद करे, जिसे चाहे दरामद करे ! सच पूछिए तो यह काम हुकूमतों ही के हाथों में होना चाहिए। वो इसका सलीका जानती हैं।
इसमें क्या शक है...।
तो क्या खयाल है आपको... ? इस मर्तबा तो मंटो को फांसी की सज़ा जरूर मिलनी चाहिए...
मिल जाए तो अच्छा है। रोज़ का टंटा खत्म हो।
आपने ठीक कहा है। ‘ठंडा गोश्त‘ के बारे में हाई कोर्ट ने उसके खिलाफ जो फैसला दिया है, इसके बाद तो उस कमबख्त को खुद-ब-खुद मर जाना चाहिए था... मेरा मतलब है कि खुदकुशी कर लेनी चाहिए थी।
अगर वह इस कोशिश में नाकाम रहता...
...तो उस पर यकीनन मुकदमा चलता कि उसने अपनी जान लेने की कोशिश की।
मेरा ख्याल है, यही वजह है कि वह खुदकुशी से बाज़ रहा। वगरना वह बाज़ रहने वाला आदमी नहीं।
तो आपको मतलब है कि वह फहाशी जारी रखेगा ?
अजी हज़रत ! वह उस पर पांचवां मुकदमा है। अगर उसे बाज़ रहना होता तो पहले मुकदमे के बाद ही ताइब (तौबा करने वाला) होकर कोई शरीफाना काम शुरू कर देता। मिसाल के तौर पर गवर्नमेंट की मुलाज़िमत कर लेता या घी बेचता, या महल्ला पीर गीलानियां के गुलाम अहमद साहिब की तरह कोई दवा ईजार कर लेता।
जी हां, ऐसे सैकड़ों शरीफाना काम हैं। मगर वह परले दर्जे का हठधर्म है। लिखेगा और जरूर लिखेगा।
मालूम है आपको, इसका अंजाम क्या होगा ?
कुछ बुरा ही नज़र आता है।
छः मुकदमे पर पर पंजाब में चल रहे होंगे, दस सिंध में, चार सूबा सरहद में, तीन मशरिकी पाकिस्तान में... वह इनकी ताब न लाकर पागल हो जाएगा।
दो मर्तबा पागल हो चुका है।
यह उसकी दूरअंदेशी थी... वह रिहर्सल कर रहा था ताकि सचमुच पागल हो जाए तो पागलखाने में आराम से रहे।
पागल होकर क्या करेगा ?
पागलों को होशमंद बनाने की कोशिश करेगा।
यह भी जुर्म है ?
मालूम नहीं। यह तो कोई वकील ही बता सकता है कि ताज़ीराते-पाकिस्तान में इसके लिए कोई दफ़ा मौजूद है या नहीं।
होनी चाहिए। पागलों को होशमंद बनाना दफा 292 की रोशनी में तो बहुत खतरनाक जुर्म मालूम होता है।
दफा 292 के बारे में तो अब हाई कोर्ट ने ‘ठंडा गोश्त‘ को फैसला करते हुए साफ तौर पर कह दिया है कि कानून को मुसन्निफ़ की नीयत से कोई वास्ता नहीं। वह नेक हो या बद, कानून को तो सिर्फ यह देखना है मैलान (अभिरूचि) क्या है?
इसलिए तो मैं अर्ज कर रहा था कि पागलों को होशमंद बनाने के फेल में नीयत कैसी भी हो, उसके मैलान को ज़ेरे-ग़ौर करना पड़ेगा, और ज़ाहिर है इस फेल (काम) में मैलान किसी सूरत में भी बेज़रर (जिससे कोई हानि न हो) करार नहीं दिया जा सकता।
ये कानूनी मूशिगाफियां (बाल की खाल निकालना) हैं। इनसे हमें दूर रहना चाहिए।
आपने बहुत अच्छा किया जो बर्वक्त तबीह (चेतावनी देना) कर दी क्योंकि ऐसी बातें के मुताल्लिक़ सोचना ही अज़खुद एक बड़ा संगीन जुर्म है।
लेकिन हज़रत, मैं सोचता हूं, अगर मंटो सचमुच पागल हो गया तो उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा ?
उसके बीवी-बच्चे जाएं जहन्नम में। कानून को उनसे क्या वास्ता।
दुरूस्त है लेकिन हुकूमत क्या उनकी मदद नहीं करेगी ?
हां, हुकूमत की बात जुदा है। मेरा ख्याल है कि उसे मदद करनी चाहिए। और कुछ नहीं तो अखबारों में तो इस बात का ऐलान कर देना चाहिए कि वाह इसके मुताल्लिक गौर कर रही है।
जब तक गौर होगा, तब तक मामला साफ हो जाएगा।
ज़ाहिर है। अब तक होता तो ऐसा ही रहा है।
लानत भेजिए मंटो और उसके बीवी-बच्चों पर। आप यह बताइए, हाई कोर्ट के फैसले का उर्दू अदब पर क्या असर होगा ?
उर्दू अदब पर भी लानत भेजिए।
नहीं साहिब, ऐसा न कहिए... सुना है अदब कौम को बहुत बड़ा सरमाया होता है।
होगा भाई... हम तो उसे सरमाया मानते हैं को नकदी की सूरत में बैंक में पड़ा हो।
लाख रूपए की बात कही आपने... तो मोमिन, मीर, अहसन, शौक, सादी, हाफिज वगैरह सब दफ़ा 292 साफ कर देगी ?
करना चाहिए वर्ना उसके वुजूद का मतलब ही क्या है ?
ये जितने अदीब और शाइर बने फिरते हैं अब इनको चाहिए कि होश में आएं और कोई शरीफाना पेश इख्तियार करें।
लीडर बन जाएं।
सिर्फ मुस्लिम लीग के ?
जी हां, मेरा मतलब यही था। किसी और लीग का लीडर बनना फहश है।
बेहद फहश।
लीडरी के अलावा और भी शरीफाना पेशे मौजूद हैं... डाकखाने के बाहर बैठकर पाकीज़ा इबारत में खतूतनवीसी (खत लिखना) करें। दीवारों पर इशितहार लिखें। बेरोज़गारों के दफ़्तर में क्लर्क हो जाएं, नया-नया मुल्क बना है... हज़ारों आसामियां खाली हैं, कहीं भी समा जाएं....।
जी हां... इतनी खाली ज़मीन पड़ी है।
हुकूमत सोच रही है कि तवाइफों और रंडियों के लिए रावी के पास एक बस्ती बना दे ताकि शहर की गलाज़त दूर हो। क्यों न इन शायरों, अफसानानिगारों और अदीबों (साहित्यकार) को भी उनमं शामिल कर लिया जाए ?
बहुत अच्छा ख्याल है, ये लोग वहां खुश रहेंगे।
लेकिन अंजाम क्या होगा ?
अंजाम की कौन सोचता है... जो होना होगा, हो जाएगा।
हां... वहां पड़े झक मारते रहेंगे...लोहे को लोहा काटता है, फहाशी को फहाशी काटती रहेगी।
बड़ा दिलचस्प सिलसिला रहेगा।
मंटो को तो खासतौर पर वहां अपनी दिलचस्पी का मनभाता सामान मिल जाएगा।
लेकिन वह कमबख्त उनका मुजरा सुनने के बजाय उन पर लिखेगा। कई सौगंधियां, कई सुल्तानाएं पेश करेगा।
और कई खुशिया (मंटो के अफसाने खुशिया का पात्र), कई ढोंडू...
मालूम नहीं, कमबख्त को ऐसे गिरे हुए इंसानों को उठाने मंे क्या मज़ा आता है। सारी दुनिया उन्हें ज़लील और हकीर समझती है मग रवह उनको सीने से लगाता है, उनको प्यार करता है।
उसकी बहन इस्मत ने उसके मुताल्लिक कुछ ठीक ही कहा था कि मंटो को अजीबो-गरीब तहलका डाल देनेवाली और सोतों को चैंका देनेवाली चीज़ों से बड़ी रगबत है। वह सोचता है, अगर बहुत से लोग सफेद कपड़े पहने बैठे हों, और कोई कीचड़ मलकर वहां चला जाए तो सब हक्का-बक्का रह जाएंगे... सब लोग रो-पीट रहे हों, वहां एक ऊंचा कहकहा लगा दो तो सब दम साधकर टुकर-टुकर मुंह देखने लगेंगे। बस धाक बैठ जाएगी, सिक्का जम जाएगा।
उसका भाई मुम्ताज़ हुसैन कहता है: वह नेकी की तलाश में निकलता है और उसकी एक किरन ऐसे इंसान के पेट से निकालता है कि जिसके बारे में आप इस किस्म की कोई तवक्क़ो ही नहीं रखते। यह है मंटो का कारनामा।
यह बड़ी लग्व (बहुत बुरी, वाहियात) हरकत है बल्कि फहश हरकत है कि ऐसे इंसान की पेट से रोशनी की एक किरन निकाली जाए जिसमें सिवाय अंतड़ियों और फुज्ले (मल-मूत्र) के और कुछ न हो।
और कीड़च मल के सफेदपोश लोगों के दरमियान कूद पड़ना...
यह और भी फहश है।
यह इतनी कीचड़ लाता कहां से है ?
मालूम नहीं। कहीं -न-कहीं से ढूंढ निकालता है।
गंदगी का ग़व्वास (गोताखोर) जो ठहरा।
आइए हम दुआ मांगें कि खुदा हमें उसके लानती वुजूद से निजात दिलाए... इसमें खुद मंटो की भी निजात है:
‘‘ऐ खुदा, ऐ रब्बुलआलमीन... ऐ रहीम, ऐ करीम ! हम दो गुनहगाार बंदे तेरे हुजूर गिड़ड़िाकर दुआ मांगते हैं कि तू सआदत हसन मंटो को जिसके वालिद का नाम गुलाम हसन मंटो हैं और जो बहुत शरीफ, परहेज़गार और खुदातरस आदमी था, इस दुनिया से उठा ले, जहां वह खुशबूंएं छोड़ देता ळै और बदबुओं की तरफ भागता है। नूर में वह अपनी नहीं खोलता लेकिन अंधेरे में ठोकरें खाता फिरता है। सत्र (शरीर का वह भाग जिसको छिपाना जरूरी है) से उसको कोई दिलचस्पी नहीं, वह सिर्फ इंसानों की नंग देखता है। मिठाइयों से उसे कोई रग़बत नहीं, कड़वाहटों पर अलबत्ता जान देता है। घरेलू औरतों की तरफ वह आंख उठाकर भी नहीं देखता लेकिन बेसवाओं से घुल-मिल कर बातें करता है। साफ और शफ्फाफ पानी छोड़ के बदरौओं (गंदी नाली) में नहाता है। जहां रोना है, वहां हंसता है और जहां हंसना है, वहां रोता है। कोयलों की दल्लाली में जो अपना मुंह काला करते हैं, उनकी कालिख साफ हरके हमें दिखाता है। तुझे भूलकर उस शैतान के पीछे मारा-मारा फिरता है जिसने तेरी उदूल-हुक्मी की थी... ऐ रब्बुलआलमीन, उस शरअंगेज (बुराई फैलाने वाले), नाजिसपसंद (ग़लीज, गंदगीपसंद) और शरीर इंसान को इस दुनिया से उठा ले जिसमें वह बदकिरदारों ओर बदअतवारों (कुरीतियां) के नामा-ए-आमाल (कर्मपत्र) की सियाहियां मिटाने की कोशिश में मसरूफ है... ऐ खुदा, वह बहु शरपसंद है। अदालतों के फैसले सुबूत हैं लेकिन ये अर्जी अदालतें हैं, तू उसे इस दुनिया से उठा और अपनी आसमानी अदालत में उसके खिलाफ मुकदमा चला और उसको करार वाकई सज़ा दे। लेकिन देख, उसे अदाएं बहुत आती हैं, ऐसा न हो तुझे उसकी कोई अदा पसंद आ जाए... तू सबकुछ जानने वाला है। हमारी सिर्फ यह दुआ है कि वह इस दुनिया में न रहे। रहे तो हम - जैसा बनकर रहे, हम जो एक दूसरे के ऐबों पर पर्दा डालते हैं।‘‘
‘ई दुआ अज-मनो-अज-जुमला जहां आमीन बाद !
(यह प्रार्थना अक्षरशः सत्य एवं फलीभूत हो)
--- सआदत हसन मंटो
साभार : दस्तावेज़, राजकमल प्रकाशन
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डाकिये की ओर से : अबकी कुछ कहने की जरुरत ही क्या है ?
शुक्रिया सागर...मंटो की कब्र का पत्थर उठा लाने के लिए.
ReplyDelete---------
मंटो का लिखा 'मैं अफसाना क्योंकर लिखता हूँ' का एक हिस्सा-
मैं अफसाना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफसाना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुयी है.
मैं अफसाना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.
मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैंने बीस से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है, जिसने इस कदर अच्छे अफसाने लिखे हैं, जिनपर आये दिन मुक़दमे चलते रहते हैं. जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ सआदत हसन होता हूँ जिसे न उर्दू आती है न फ़ारसी- न अंग्रेजी न फ़्रांसिसी. -मंटो
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बाकी हिस्सा फिर कभी.
जियो सागर..अभी सही फ़ार्म मे आये लगते हैं..सुंदर बाते समझने को मिलीं पोस्ट के बहाने..और कुछ बातों को बार-बार समझने की कोशिश कर रहा हूँ..खासकर यह..
ReplyDelete-उसका वुजूद बज़ाते-खुद (अपने आप में) नाजाइज़ है। [जो वज़ूद दुनिया के फ़्रेम मे ठीक नही बैठते नाजाइज ही होते हैं क्या?]
-वह रिहर्सल कर रहा था ताकि सचमुच पागल हो जाए तो पागलखाने में आराम से रहे। [ऐसे लोगों का मरना भी दूसरों को मरने का रिहर्सल ही लगेगा..पुरजोर खयाल है]
-पागलों को होशमंद बनाना दफा 292 की रोशनी में तो बहुत खतरनाक जुर्म मालूम होता है। [किसी भी मुल्क मे पागलों(हम) को होशमंद बनाने की सजा उम्र-कैद से कम नही होती]
-क्योंकि ऐसी बातें के मुताल्लिक़ सोचना ही अज़खुद एक बड़ा संगीन जुर्म है। [दरअस्ल ऐसे माहौल मे ’सोचना’ ही सबसे संगीन जुर्म है]
-किसी और लीग का लीडर बनना फहश है। [स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावह]
-लोहे को लोहा काटता है, फहाशी को फहाशी काटती रहेगी। [फिर भीए सरकारी कारकुनों ने यह नुस्खा आजमाया नही कभी]
-फहश हरकत है कि ऐसे इंसान की पेट से रोशनी की एक किरन निकाली जाए जिसमें सिवाय अंतड़ियों और फुज्ले (मल-मूत्र) के और कुछ न हो। [सबसे जबर्दस्त!! डेफ़िनिशन है ’फ़ाहशी’ की]
..लगे रहो सागर हसन मंटो साहब!! :-)
ज्ञानवर्धक पोस्ट।
ReplyDeleteक्या कहूँ , बस डाकिये को शुक्रिया ही कह सकते हैं , इस नायाब चीज़ के लिए |
ReplyDeleteमंटो यार तुम कैसे आदमीं थे जो मरने के बाद भी तुम्हें चैन नहीं....
ReplyDeleteबार बार सोचता हूँ तेरे बारे में न सोचूं लेकिन क्या करूँ तुन हर बार मेरे ख्यालों के परदे पकड़ के लटक जाता है....
मंटो तुझे श्रधान्जली या जो कुछ भी तुम समझो...
तुझसे जला भुना एक शख्स
love u bro!!!!!
ReplyDeleteनया ज्ञानोदय के किसी अंक में एक कबूलनामा ओर है ....खुदा कसम ...ऐसा ही जलजला सा मालूम पड़ता है
@ डॉ. अनुराग
ReplyDeleteकिसी अंक का मतलब मई २००९ के अंक में, मंटो का जन्म ११ मई को हुआ था तो उनको समर्पित ये विशेषांक निकाला गया था जिसमें कृष्ण चंदर ने दो संस्मरण लिखे थे... दोनों गज़ब के हैं. लिंक हाज़िर है
http://69.73.171.114/~jnanpith/sites/default/files/May-2009.pdf
मंटो को पढ़ने का मौका नहीं मिला कभी... या यूँ कहिये की दिलचस्पी ही नहीं रही... अब सोच रही हूँ पढ़ ही लूँ एक बार... शुक्रिया डाकिया बाबू !! मंटो से यूँ रु-ब-रु करवाने का...
ReplyDeleteसागर भाई ये तो पता नहीं कि मंटो से मोहब्बत कब हुई थी। पर जब से मोहब्बत हुई तब से उस मोहब्बत को जी रहे है। मंटो था ही ऐसा...यूं तो पहले भी पढा था ये हिस्सा पर आज फिर से पढा तो वही आग महसूस हुई...कभी कभी सोचता हूँ कि वे ना लिखते तो शायद पहले ही इस दुनिया से चले गए होते। कब तक इस आग को छिपाकर रख पाते सीने में...शुक्रिया सागर भाई,और हाँ किसी से ज्यादा उम्मीदें मत लगाया करें क्योंकि उम्मीदें कई दफा टूट जाती हैं :)
ReplyDeleteकुछ कलात्मक स्थापत्यो के बीच,
ReplyDeleteवर्जना एक कला है.
कला है,
...किसी की डबडबाई-भर आँख देख कर,
फफक फफक कर रो पड़ना.
कला है रोते हुए सहवास करना,
सुनो,दोस्तों...
...विरोधाभास एक कला है.
मैं दिखा सकता हूँ तुम्हें 'कोटला मुबारकपुर'
जो ठीक 'साउथ एक्स' के पीछे है.
और 'दिखा' सकता हूँ एक वियतनाम,
जो बस नक्शे में ही है.
लेकिन में जानता हूँ गंगा में नहा के पाप धुलते हैं.
-Manto aur daakiye ke liye ! :-)
और यूँ,
ReplyDeleteपागल हो जाना वास्तव में कलाकार हो जाना है !
(हट ! पागल !!)
सागर साहब ...आपने उस अफसाना निगार की बातें लिख डाली हैं अफसानानिगारी में जिसके मुकाबले मुझे कोई नज़र ही नहीं आता.... कमाल की बात ये है कि इन दिनों मंटो और इस्मत दोनों को ही पढ़ रहा हूँ ... मंटो को तो खैर कई साल से पढ़ रहा हूँ .. कई बार से पढ़ रहा हूँ ... लेकिन आज जो आपे पोस्ट किया वह अछूता था ..बहुत बहुत शुक्रिया...
ReplyDeleteआरंभ ब्लॉग में मंटो पर एक दिलचस्प लेख है ....जो कुछ यूँ है .....
ReplyDeleteउर्दू के बहुचर्चित कथाकार शहादत हसन ‘मंटो’ से मैं 1985-86 में परिचित हुआ तब सारिका, हंस व अन्य साहित्तिक पत्र – पत्रिकाओं में गाहे बगाहे देवेन्द्र इस्सर के मंटोनामें एवं मंटो की कहानियों पर चर्चा होती थी । मंटो की कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ मैंनें 1985 में पढी थी । उस समय मेरे समकालीन साहित्यानुरागी (?) मित्रों के द्वारा शहादत हसन ‘मंटो’ के साफगोई, नग्नता एवं विद्रूपों पर जोरदार प्रहार की कहानियों का जिक्र किया जाता था । निजी चर्चा बहसों में बदल जाती थी, तरह – तरह के विचार मंटो की नग्नता व कामुकता के इर्द गिर्द घूमती थी । ‘उपर, नीचे और दरमिंयॉ’, ‘ठंडा गोस्त’ व ‘बू’ जैसी कहानियों पर हमने मित्रों के बीच चटोरे ले लेकर गंभीर वार्ता भी की थी, अब वे दिन याद आते हैं तो हंसी आती है । गोष्ठी में महिला मित्र के सामने मंटो पर कुछ भी कहते हुए मेरी घिघ्घी बंध जाती थी और एक तरफ मंटों महोदय थे जो ‘बकलम’ में अपनी फांके मस्ती में भी रोज शाम बीयर पीने और अपनी नौकरानियों से संबंध स्थापित करने की बात को भीड में किसी से टकरा जाने एवं ‘सॉरी’ कहकर आगे बढ जाने जैसे वाकये सा यूं ही स्वीकार कर जाते थे ।
शहादत हसन ‘मंटो’ की कहानी दादी मॉं द्वारा बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानी तो थी नहीं, उसके शव्द शव्द व पैरा पैरा को आत्मसाध करना एक अलग ही अनुभव देता था उनकी कुछेक कहानियॉं ही हमें उपलब्ध हो पाई थी जिन्हें पढने के बाद ही हमने जाना कि प्याज के छिलके की तरह परत दर परत छिलके उतारते हुए नंगी सच्चाईयों से रूबरू कराते मंटों की कहानियॉं दिल के अंदर तक सीधे प्रवेश करती है जिसे किसी गोष्ठी से समझा नहीं जा सकता उसे तो उसके कहानी रूप में पढा व आत्मसाध किया जा सकता है ।
)
अश्लीलता के लिये उनकी बहुचर्चित कहानी ‘उपर, नीचे और दरमिंयॉ’ जब मैं पढा तो एकबारगी मुझे कहानी समझ में ही नहीं आई पर हर कथोपकथन के बाद शील और अश्लील को तौलता रहा । ‘उपर, नीचे और दरमिंयॉ’ कथानक में गैर पुरूष व गैर स्त्री के बीच अंतरंग अवैध संबंधों में डूबते उतराते दिल दिमाग के बीच नौकर नौकरानी के ‘खाट की मजबूती’ चर्चा पर खत्म होती कहानी सचमुच झकझोरने वाली है । मंटों की कहानियों में यौन संबंधों व यौन प्रसंगों का सुन्दर समावेश हुआ है एवं कथानक में इनका उल्लेख मानव विद्रूपता को उधेडता अंतरात्मा को झकझोरता हुआ प्रस्तुत हुआ है ।
ReplyDeleteभारत पाकिस्तान के बटवारे व तदसमय के मारकाट व संवेदनाओं, बाल मनोविज्ञान आदि पर भी इनकी कलम चली है किन्तु मंटों पर आजादी के समय से अश्लीलता व नग्नता के आरोप लगते रहे हैं एवं वे पाकिस्तान व भारत में उर्दू अदब व हिन्दी साहित्य में बेहद विवादास्पद कथाकार के रूप में चर्चित हुए है और अदब व साहित्य की कसौटी पर सदैव खरे साबित हुए हैं । उन्होंनें स्वयं ‘मंटो’ के विषय में कहा है - ’ यह अजीब बात है कि लोग उसे विधर्मी, अश्लील व्यक्ति समझते हैं और मेरा भी ख्याल है कि वह किसी हद तक इस कोटि में आता है । इसीलिये प्राय: वह बडे गंदे विषयों पर कलम उठाता है और ऐसे शव्द अपनी रचना में प्रयोग करता है जिन पर आपत्ति की गुंजाईश भी हो सकती है । लेकिन मै जानता हूं कि जब भी उसने कोई लेख लिखा, पहले पृष्ट के शीर्ष पर 786 अवश्य मिला जिसका मतलब है ‘बिस्मिल्ला’ और यह व्यक्ति जो खुदा को न मानने वाला नजर आता है, कागज पर मोमिन बन जाता है । परन्तु वह कागजी मंटो है जिसे आप कागजी बादाम की तरह केवल अंगुलियों से तोड सकते हैं अन्यथा वह लोहे के हथौडौं से भी टूटने वाला आदमी नहीं ।‘
एक जगह वे कहते है ‘ मैं इसके पूर्व कह चुका हूं कि मंटो अव्वल दर्जे का ‘फ्राड’ है । इसका अन्य प्रमाण यह है कि वह प्राय: कहा करता है कि वह कहानी नहीं सोंचता, स्वयं कहानी उसे सोंचती है – यह भी फ्राड है ।‘ स्पष्टवादिता ऐसी कि अपने आप को फ्राड, चोर, भूठा व अनपढ कहते हुए भी कोई हिचक नहीं । अपनी शादी पर तो उन्होंनें बडा मजेदार लेख लिखा है उस समय के फिल्मी दुनिया के चकाचौंध का आपेशन करने के साथ ही मुम्बईया लेखकीय जीवन व अपनी शादी और बरबादी को बिना लाग लपेट सपाट शव्दों में बयान किया है । प्रकाशक व संपादक के द्वारा लेखक पत्रकार के शोषण की जडे गहरी हैं मंटो से लेकर आज तक कलम किसी न किसी रूप में शोषण का शिकार है । मंटो की भावनाओं को मैं डा.विमल कुमार पाठक एवं श्री राम अधीर के भावनाओं के एकदम करीब पाता हूं । कोरबा के एक समाचार पत्र के प्रकाशक व चहेती व्यवस्थापिका के द्वारा छत्तीसगढ के सम्माननीय साहित्यकार व विद्वान डा. विमल कुमार पाठक जैसे सज्जन व्यक्ति का तनखा खा जाना, गाली गलौच करना एवं रायपुर के स्वनामधन्य प्रकाशकों व संपादकों के द्वारा भोपाल के लोकप्रिय कवि, पत्रकार व संकल्प रथ के संपादक श्री राम अधीर का आर्थिक शोषण के बयानों को मैं मंटो के शोषण के करीब पाता हूं और जब श्री राम अधीर रायपुर के दो संपादकों को ठग व बेईमान, एक लोक साहित्यकार को धूर्त, राजस्थान का बनिया छत्तीसगढ को लूटने आया है, कहते हैं तो आश्चर्य नहीं होता ।
1 मई 1912 को अमृतसर में जन्में, पढाई में फिसडडी, तीसरे दर्जे में इंटरमीडियट पास ‘मंटों’ की आवारगी व मुफलिसी नें अलीगढ यूनिर्वसिटी फिर वहां से निकाल दिये जाने पर मुम्बई तक का सफर तय किया । मुम्बई में उन्होंने साप्ताहिक ‘मुसव्विर’ से पत्रकारिता के द्वारा कलम की पैनी धार को मांजना आरंभ किया फिर भारत की पहली रंगीन बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में बतौर संवाद लेखक काम किया, फिल्मी दुनिया का सफर इन्हें रास नहीं आया यद्धपि इन्होंनें मुम्बई में अपना काफी वक्त बिताया । विभाजन के बाद ये पाकिस्तान चले गये, फैज अहमद फैज, चिराग हसन हजरत व साहिर लुधियानवी जैसे मित्रों के साथ उर्दू में लगातार लिखते रहे जिनका हिन्दी अनुवाद भारत में भी प्रकाशित होता रहा । पाकिस्तान सरकार नें इनकी कहानी ‘ठंडा गोस्त’ के लिये इन पर मुकदमा भी चलाया ये अश्लीलता व नग्नता के आरोपी बनाये गये व बाइज्जत बरी किये गये । उनकी स्वीकारोक्ति ‘ मैं आपको पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मंटो, जिस पर अश्लील लेख के विषय में कई मुकदमें चल चुके हैं, बहुत शीलपसंद हैं ।‘
ReplyDelete(संदर्भ : विभिन्न पत्रिकाओं में श्री देवेन्द्र इस्सर के मंटोनामा के समीक्षात्मक लेख व संकल्प रथ मार्च 2003 का अंक)
यह रहा वो लिंक...
ReplyDeletehttp://aarambha.blogspot.com/2008/05/blog-post_11.हटमल
लेकिन मेरी जानकारी में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई... क्योंकि इसमें से ज़्यादातर बातों को खुद मंटो ने अपने मजामीन में लिखा है, यह बातें वहीँ से ली हुई हैं.. उसके पांच कारनामे पर मुक़दमा चला... और खोल दो के लिए नुकूश पर छह महीने का प्रतिबन्ध लगा.
यौन प्रसंगों के ज़रिये वे मानव मनोविज्ञान की पड़ताल करते थे और वे और यौन प्रसंग ही क्यों इस पर उन्होंने "अफसानानिगार और जिंसी मसाइल" नामक लेख भी लिखा था.
लेखन में ये पहला लेखक मैंने देखा है जिसमें "शायद" की गुंजाईश नहीं होती है. इसने कभी अपनी कहानी में कन्विस नहीं किया... एक फ्लो था... आप पढ़ते जाएँ और बहते जाएँ, उफनते जाएँ...
फ़्रॉड
ReplyDeleteमैं इसके पूर्व कह चुका हूँ कि मंटो अव्वल दर्जे का फ्रॉड है.
इसका अन्य प्रमाण यह है कि वह, कहा जाता है कि कहानी नहीं सोचता, स्वयं कहानी उसे सोचती है- यह भी एक फ्रॉड है.
वह अनपढ़ है- इस दृष्टि से कि उसने कभी मार्क्स का अध्ययन नहीं किया. फ्रायड की कोई पुस्तक आज तक उसकी दृष्टि से नहीं गुजरी. हीगल का वह केवल नाम ही जानता है. हैबल व एमिस को वह नाम मात्र से जानता है. लेकिन मज़े की बात यह है कि लोग मेरा मतलब है कि आलोचना यह कहते हैं कि तमाम चिंतकों से प्रभावित है. जहाँ तक मैं जानता हूँ मंटो किसी दूसरे के विचारों से प्रभावित है. वह समझता है कि समझाने वाले सब चुगद हैं. दुनिया को समझाना नहीं चाहिए, उसको स्वयं समझना चाहिए.
------- बकलम खुद "सआदत हसन और मंटो" लेख में
'बू', 'काली शलवार','ऊपर-नीचे', 'दरमियाँ', 'ठंडा गोश्त', 'धुआँ' पर लंबे मुकदमे चले.
मंटो सिर्फ़ 42 साल जिए, लेकिन उनके 19 साल के साहित्यिक जीवन से हमें 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले.
...और डॉ. साब दिलचस्पी ले रहे हैं इसका शुक्रिया.
हमारे खुद के वजूद ही कहाँ बरामद होते है..
ReplyDeleteभाषा के तलख होने पे भी ज़ुबां मीठी सी लगती है.एक कशिश सी है....किसी पात्र का कोई नाम नहीं फिर भी अजीब सी शैली असर रखती है.. .
कुछ लोग पागलखानो में रहे,अलग थलग बस्तिओं में रहे पर इस दुनिया में नहीं..
Post bhi achchi hai... aur reader ke comments behtareen.... yun Manto ko thoda sa janna achcha laga
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