Tuesday, December 28, 2010

बहरे वक्त मे बिनायक सेन होना

    सच एक भयावह शब्द होता है। एक मुश्किल वक्त मे सच की मशाल थामने वालों को यंत्रणाओं के दौर से गुजरना पड़ता है। निरंकुश ताकतों के खिलाफ़ आवाज उठाने की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। और अगर वह निरंकुश ताकत सरकार की हो जिसके हितों को आपका सच बोलना नुकसान पहुँचा सकता है तो एवज मे आप राजद्रोही भी करार दिये जा सकते हैं। डॉ बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ के ट्रायल-कोर्ट द्वारा उम्रकैद की सजा देना इसलिये नही चौंकाता है कि हमें राजसत्ता से उनके लिये किसी रियायत की उम्मीद थी, बल्कि इसलिये ज्यादा व्यथित करता है कि राजनैतिक व्यवस्था से हताश इस देश के आम आदमी की मुल्क की न्याय-प्रणाली मे अभी भी कुछ आस्था बाकी थी। डॉ सेन को 120B, 124A के चार्जेज़ के अलावा बहुविवादास्पद ’छत्तीसगढ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट-2005’ और UAPA के अंतर्गत सजा सुनाई गयी।

   ’व्हाट इज डेमोक्रेसी’ मे प्रख्यात संवैधानिक कानूनविद जॉन ओ फ़्रैंक कहते हैं- ’सत्ता की निरंकुशता के लिये एक असरदार हथियार होता है अपने सरकार के विरोधियों पर राजद्रोह का जुर्म लगा देना। इसलिये राजद्रोह संबंधित कानून बनाते वक्त इस बात का खास खयाल रखना चाहिये कि सत्ता द्वारा उन कानूनों का इस्तेमाल अपनी नीतियों के आलोचकों को खामोश करने के लिये न किया जाने पाये।’ इतिहास देखें तो दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक सरकारें भी राजनैतिक विरोधियों को शांत करने के लिये संदिग्ध कानूनों का सहारा लेते पायी गयी हैं। लातिन-अमेरिकी या तमाम अफ़्रीकी मुल्कों के राजनैतिक इतिहास मे ऐसे अनगिन उदाहरण मिल जाते हैं। मगर सबसे अहम्‌ तथ्य यह है कि कानून का ऐसा गैरकानूनी इस्तेमाल अंततः मुल्क के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये ही घातक सिद्ध होता है। भारत के लिये भी डॉ बिनायक सेन की सजा का उदाहरण न तो पहला है न ही आखिरी होगा।

   डॉ सेन पर माओवादियों का साथ देने और भारतीय राज्य के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने की साजिश का जुर्म लगाया गया था। क्या छत्तीसगढ़ सरकार के लिये डॉ सेन इतना बड़ा खतरा हैं कि उन्हे खामोश करा दिये जाने की जरूरत पड़े? पुलिस उन्हे फ़र्जी इनकाउंटर मे भी मार सकती थी या एक्सीडेंट भी करा सकती थी। मगर उन्हे कानून की रोशनी मे अपराधी करार दिये जाना इसलिये ज्यादा जरूरी था कि आम नागरिकों के बीच उनकी विश्वसनीयता को मारा जा सके। ताकि उस सच की धार को भोथरा किया जा सके जो सरकार की निरंकुशता के क्रूर चेहरे को बेनकाब करता था।

   सरकार की नजर मे खतरनाक यह इंसान दरअस्ल ख्यातिप्राप्त पीडिएट्रिशियन, स्वास्थ्य-सेवी और सामाजिक अधिकारों का प्रखर कार्यकर्ता था जिसे अपने कार्य के लिये देश-विदेश के तमाम पुरस्कारों के साथ ’ग्लोबल हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स’ के लिये जोनाथन मैन अवार्ड मिल चुका था। डॉ सेन जो प्रतिष्ठित CMC इंस्टीट्यूट से मेडिकल के टॉपर स्टुडेंट रहे थे मगर उनकी गलती यह थी कि शिक्षा के इस स्तर पर जब लोग विदेश जा कर पैसा कमाने की अंधी दौड़ मे शामिल होने के सपने देखते हैं तब उन्होने  देश के उन उपेक्षित और ग़रीब हिस्सों मे काम करने को प्राथमिकता दी जहाँ मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सबसे ज्यादा कमी थी। पिछले तीस सालों से छत्तीसगढ़ के बेहद पिछड़े आदिवासी इलाकों मे निःस्वार्थभाव से जन-स्वास्थ्य के क्षेत्र मे उनके अथक काम का नतीजा है कि वहाँ के लोकल स्वास्थ्यसेवी भी यह मानते हैं कि उनके प्रयासों से आदिवासी इलाकों मे शिशु-स्वास्थ्य की हालत सुधारने मे बड़ी मदद मिली। मुल्क के पिछड़े हिस्सों मे चिकित्सा सेवा मे अपनी जिंदगी समर्पित कर देने वाले इस शख्स को उसी मुल्क का दुश्मन करार देने की जरूरत कैसे महसूस हो गयी?

   यहाँ मुझे रेणु की कालजयी कृति ’मैला आँचल’ के अहम्‌ पात्र डॉ प्रशांत की याद आती है। मुल्क की आजादी के वक्त की इस कथा मे वो बिहार के पिछड़े और ग्रामीण इलाके मे लोगों को मलेरिया जैसी बीमारी से निजात दिलाने का सपना ले कर जाता है। मगर उस इलाके मे रिसर्च के दौरान अपना वक्त गुजारने के बाद उसे तब बड़ा धक्का लगता है जब उसे यह समझ आता है कि मलेरिया से भयावह तरीके से ग्रसित उस इलाके की असल बीमारियाँ मलेरिया आदि नही वरन् उससे इतर और खतरनाक थी। कुनैन मलेरिया का इलाज कर सकती थी मगर गरीबी का नही! जंगली वनस्पति बुखार जैसे रोगों को ठीक कर सकती थी मगर सामाजिक-भेदभाव जैसी खतरनाक बीमारी को नही! और इन असल बीमारियों का इलाज किये बगैर कोई हालत संवरने वाली नही थी।

   डॉ सेन का हाल भी ऐसा ही रहा। डॉ सेन का जुर्म यह रहा कि उन्होने आदिवासियों के लिये काम करते हुए उनके अधिकारों की बात की, उन पर हो रहे जुल्मों का जिक्र किया। उन्होने हिंसा का हमेशा सख्त विरोध किया चाहे वह माओवादियों की हो या सरकारी बलों की! डॉ सेन पुलिस और पुलिस समर्थित गुटों द्वारा व्यापक पैमाने पर किये जा रहे भूमि-हरण, प्रताड़नाओं, बलात्कारों, हत्याओं को मीडिया की रोशनी मे लाये; पीडित तबके के लिये कानूनी लड़ाई मे शामिल हुए। उनका अपराध यह रहा कि वो उस ’पीपुल’स यूनियन फ़ॉर पब्लिक लिबर्टीज’ की छत्तीसगढ़ शाखा के सचिव रहे, जिसने मीडिया मे ’सलवा-जुडुम’ के सरकार-प्रायोजित  अत्याचारों को सबसे पहले बेनकाब किया।

   इतने गुनाह सरकार की नजर मे आपको कुसूरवार बनाने के लिये काफ़ी है। फिर तो औपचारिकता बाकी रह जाती है। इस लोकतांत्रिक देश की पुलिस ने पहले उन्हे बिना स्पष्ट आरोपों के महीनो जबरन हिरासत मे रखा। फिर कानूनी कार्यवाही का शातिर जाल बुना गया। सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी किसी हिंसात्मक गतिविधि मे संलग्नता को प्रमाणित नही कर पायी। सरकार के पास उनके माओवादियों से संबंध का कोई स्पष्ट साक्ष्य नही दे पायी। पुलिस का उनके खिलाफ़ सबसे संगीन आरोप यह था कि जेलबंद माओवादी कार्यकर्ता नरायन सान्याल के ख़तों को दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने का काम उन्होने किया। मगर इस आरोप के पक्ष मे कोई तथ्यपरक सबूत पुलिस नही दे पायी। उनके खिलाफ़ बनाये केस की हास्यास्पदता का स्तर एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी वकील अदालत मे उन पर यह आरोप लगाता है कि उनकी पत्नी इलिना सेन का ईमेल-व्यवहार ’आइ एस आइ’ से हुआ था। मगर बाद मे अदालत को पता चलता है कि यह आइ एस आइ कोई ’पाकिस्तानी एजेंसी’ नही वरन दिल्ली का सामाजिक-शोध संस्थान ’इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट’ था। फ़र्जी सबूतों और अप्रामाणिक आरोपों के द्वारा ही सही मगर पुलिस के द्वारा उनको शिकंजे मे लेने के पीछे अहम्‌ वजह यह थी कि उनके पास तमाम पुलिसिया ज्यादतियों और फ़र्जी इन्काउंटर्स की तथ्यपरक जानकारियां थी जो सत्ता के लिये शर्म का सबब बन सकती थी।

   सरकारी-तंत्र की ज्यादतियों के शिकार दंतेवाड़ा के वो अकेले ऐसे कार्यकर्ता नही है। उनके अलावा भी तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी मनमानी का विरोध करने के एवज मे पुलिसिया प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है। एक नाम हिमांशु कुमार का है। स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र और प्रखर गांधीवादी हिमांशु  उस इलाके के आदिवासियों के लिये दो दशकों से ’वनवासी चेतना आश्रम’ नामक संस्था बना कर काम कर रहे थे। उनके आश्रम को जबरन तरीके से पुलिस द्वारा बार-बार जमींदोज किया गया है। आदिवासियों पर हुई ज्यादतियों की सरकारी रिपोर्ट करने के एवज मे उन्हे भी राजसत्ता का शत्रु करार दिया गया। लिस्ट आगे भी है। मगर अहम्‌ बात यह है कि समाज के अंधेरे और उपेक्षित तबके के उत्थान के लिये काम करने वाले इन अहिंसक समाजसेवियों को सरकार द्वारा एक-एक कर निशाने पर लेते जाने से कितने लोगों मे उत्साह रह जायेगा वहाँ जा कर काम करने का? फिर उन तमाम वंचित और शिकार लोगों की आवाज कौन बनेगा इस मुल्क मे? कौन उन्हे बचा पायेगा हमारी अंधव्यवस्था का शिकार होने से? और वे लोग कब तक हमारे आर्थिक विकास की कीमत अपनी जमींन और जान से चुकाते रहेंगे?

     अहम्‌ बात यह भी है कि ये लोग सरकार की लोकहित की मंशा और उसकी काबिलियत पर सवाल खड़े करते हैं। ये सवाल तकलीफ़देह हैं। कैसे तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद राज्य मे गरीबी-रेखा से नीचे की जनसंख्या पिछले दशक भर मे 18 लाख से बढ़ कर 37 लाख हो गयी? खनिज संसाधनों के हिसाब से देश के सबसे अमीर राज्यों मे से एक मे किस वजह से 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी अपने बल पर पर्याप्त खाने को नही जुटा पाती? पिछले दशक से योजनाबद्ध भूमि-हड़प कार्यक्रम के बहाने कैसे राज्य की प्रचुर खनिज संपदा उद्योगपतियों और मुनाफ़ाखोरों के हवाले की जा रही है? सवाल और भी हैं!

   बात सिर्फ़ डॉ सेन के मुकदमे तक सीमित रहती तो अलग बात थी। आजादी के पिछले साठ सालों मे अगर हमने कोई चीज संजो कर रखी है, अगर किसी चीज पर हमारी सबसे ज्यादा आस्था रही है तो वह हमारा अच्छुण लोकतंत्र है। तमाम भीतरी-बाहरी उथल-पुथल राजनैतिक-सामाजिक परेशानियों के बावजूद किसी भी आम नागरिक का देश के लोकतांत्रिक मूल्यों मे भरोसा रहा है, लोकतंत्र की प्रक्रिया ने उम्मीद की शमा जलाये रखी कि तमाम समस्याओं का हल सिस्टम मे रहते हुए तलाशा जा सकता है! मगर इस लोकतंत्र का ढ़ाँचा पिछले कुछ वक्त मे जैसे कमजोर हुआ है और जिस तरह लोकतंत्र के स्तंभों की विश्वसनीयता खंडित हुई है वह देश के भविष्य के प्रति आशावादिता पर बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न लगाती है। पिछले कुछ वक्त मे मुल्क के राजनैतिक तंत्र के प्रति हमारी आस्था लगभग खतम हो चुकी है, कि अब लाखों करोड़ के घोटाले भी हमारी आदी हो चुकी चेतना को आश्चर्यचकित नही कर पाते। ब्यूरोक्रेसी भ्रष्टाचार के सागर मे ऐसी आकंठ डूब चुकी है कि किसी सरकारी अधिकारी के भ्रष्ट न होने की बात हमें ज्यादा हैरान करती है। तो मीडिया के बड़े तबके के उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों के हाथ बिके होने की खबर इस बार सिस्टम की पतनशीलता का नया आयाम बन रही है। ऐसे कठिन वक्त मे ले-दे कर देश का न्याय-तंत्र यहाँ के हारे हुए आदमी की आँखों की आखिरी उम्मीद की लौ के तरह लगता था। ऐसे मे डॉ सेन जैसे उदाहरणों मे अदालत की विश्वसनीयता पर सवाल उठ जाना खतरनाक है। सरकार द्वारा उसको भी अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किये जाने की घटनाएं इस उम्मीद के भी असमय बुझ जाने की आशंका बनती जा रही हैं।

   यह एक कठिन और अँधेरा समय है। इस साल ने गुजरते-गुजरते हमारी राजव्यवस्था की कुरूपतम होती जा रही शक्ल को आइना दिखा दिया है। अब पौने दो लाख करोड़ के टेलिकाम-घोटाले जैसे स्कैम्स हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का नियमित हिस्सा बन चुके हैं। हमें पता है कि उन घोटालों मे लिप्त ताकतवर नेताओं का इस देश की व्यवस्था कुछ भी बिगाड़ नही पायेगी। उनकी हिफ़ाजत के लिये कानूनी किताबों के तमाम लूप-होल्स हैं, देश के सबसे महँगे वकीलों की जोरदार फौज है, भष्ट और नाकारा हो चुका तंत्र है। हम जानते हैं कि इससे पहले कि कितने स्कैम्स या तो कभी खुले ही नही और अगर खुले तो उनकी फ़ाइलें वक्त के साथ दीमकें चाट गयीं। हमें पता है कि देश मे पॉलिटिक्स-ब्यूरोक्रेसी-इंडस्ट्रियलिस्ट्स-मीडिया का खतरनाक गठजोड़ दिनों-दिन मजबूत ही होगा और देश के संसाधनों पे उनकी लूट-बाँट दिनों-दिन बढ़ती ही जायेगी। हमे मालूम है कि राजा जैसे मिनिस्टर्स चेन्नई-हाइ-कोर्ट के न्यायमूर्ति आर रघुपति जैसे जजों को आगे भी धमकाते रहेंगे और उनकी शिकायत कहीं सुनी नही जायेगी! हमें यह भी पता है कि अगर कर्नाटक के लोकायुक संतोष हेगड़े जैसा कोई ईमानदार अफ़सर सरकारी अंधेरगर्दी की जाँच जैसा कदम उठायेगा भी तो उसके रास्ते मे अगम्य रोड़े खड़े कर दिये जायेंगे और अंततः कुछ नतीजा नही होगा। हम जानते हैं कि देश का कृषि मंत्री आगे भी खेल की पालिटिक्स मे बेशर्मी से बिजी रहेगा और उसके ही राज्य के किसान थोक के भाव आत्महत्या करते रहेंगे। हम यह भी जानते हैं कि देश का मीडिया आगे भी सत्ता और बाजार के सावन के झूलों मे पींगे लेता रहेगा और हमे सावन के अंधों के तरह हर तरफ़ हरा ही दिखाया जायेगा। हमें अंदाजा है कि मुल्क के कुछ लोगों को अरबपति बनाने के वास्ते बाकी के करोड़ो लोग गरीबी-रेखा के नीचे खिसकते रहेंगे, कि उद्योगपतियों के आरामगाहों के बनाने का बजट जितना बढ़ता रहेगा, मुल्क मे भूमिहीन होते लोग उसी अनुपात मे बढ़ते रहेंगे। हमें पता है कि आगे भी हमें देश की आठ से दस फ़ीसदी दर से बढ़ती अर्थव्यवस्था के स्लोगन दिखा कर उन स्लोगन्स के पीछे के अंधेरे को हमारी अज्ञानता से ढँक दिया जायेगा! हम जानते हैं कि अगले सालों मे भी हमें खुद को व्यस्त रखने के लिये मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी मे से ज्यादा उत्तेजक क्या है जैसे सवालो के जवाब एस एम एस करने को मिलते रहेंगे? मगर, आज लोकतंत्र के सबसे बड़े वार्षिक उत्सव से कुल अट्ठाइस दिन दूर खडे हुए हम यह भूले जाते हैं कि हमारे मिडिल-क्लासीय ’हू-केयर्स-एट्टीट्यूड’ के विषदंश से ग्रसित हमारा लोकतंत्र पल-पल कोमा मे जाता दिखता है।

   तो आइये हम अपने-अपने ड्राइंग-रूमों मे टीवी पर चलते चार्टबस्टर गानों का वोल्यूम इतना तेज कर दें कि हमें शहरी चकाचौंध के बाहर से आती चीखें सुनाई न दें!...कि हमारे वक्त के कान इतने बहरे हो जायें कि किसी बिनायक सेन जैसे सिरफिरे लोगों की आवाजें हमारे आनंद मे बाधक न बने।..आइये इस पल मे ही जिंदगी को भरपूर जी लें, क्या पता आदमखोर होते जा रहे तंत्र के अगले शिकार हम ही हों !

19 comments:

  1. सुना है कि नो वन किल्ड जैसिका...
    तब जबकि आतकवादियों के स्केच जारी करके पुलिस कतई कला प्रेमी हुई जा रही है !
    तब जबकि पूरा २०१० मुन्नियों, शीलाओं, राडियाओं और डोलियों नामक खुशफहमियों में कट गया...
    तब जबकि किंगफिशर के साल २०११ के कलेंडर के लिए भी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. (हाँ में रोज़ देखता हूँ एन डी टी वी गुड टाइम्स में ! तैयारियां !! )
    तब जबकि समस्त दिल्लीवासी किचन में जाते ही स्वेच्छा से जैन धर्म अपनाने की सोच लेते है.
    तब जबकि स्मार्ट फोन का ज़माना है. (कोई मुझसे कह रहा था विन्डोज़ से एंड्रोइड वर्जन ज़्यादा बेहतर है)
    ...पता नहीं आपको क्या पड़ी थी इस पोस्ट की अपूर्व जी?
    वैसे सोच रहा हूँ कि न्यू एयर मनाने शिमला जाऊं या नैनीताल.
    हाँ, बाई द वे पूछना भूल गया : ये विनायक सेन हैं कौन?

    --

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    1. बहुत कर्रा कमेंट है. एक गहरा तमाचा है जनता पे.

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  2. केंद्र में सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कर रही कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के अलावा लगभग सारा देश छत्तीसगढ़ की एक अदालत के इस फ़ैसले पर चकित है कि बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है.

    भाजपा के लिए इस फ़ैसले को सही ठहराने के लिए इतना पर्याप्त है कि यह सज़ा उनकी पार्टी की सरकार के जनसुरक्षा क़ानून के तहत सुनाई गई है.



    कांग्रेस को शायद यह लगता होगा कि इस फ़ैसले की आलोचना से वह अपने गृहमंत्री पी चिदंबरम के ख़िलाफ़ खड़ी दिखेगी तो कथित तौर पर नक्सलियों या माओवादियों के ख़िलाफ़ आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं.

    बिनायक सेन पर ख़ुद नक्सली या माओवादी होने का आरोप नहीं है. कथित तौर पर उनकी मदद करने का आरोप है.

    इससे पहले दिल्ली की एक अदालत ने सुपरिचित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधति राय और कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज करवाया है.

    यह कौन सा देश है जिसके ख़िलाफ़ द्रोह के लिए अदालतों को बिनायक सेन दोषी दिखाई दे रहे हैं और अरूंधति राय कटघरे में खड़ी की जा रही हैं.

    क्या यह वही देश है जहाँ दूरसंचार मंत्री पर 1.76 लाख करोड़ के घोटाले का आरोप है और इस घोटाले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सर्वोच्च न्यायालय को सवाल उठाना पड़ा है? जहाँ एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री पर चंद महीनों के कार्यकाल के दौरान चार हज़ार करोड़ के घपले का आरोप है जहाँ एक और छोटे राज्य की सरकार के ख़िलाफ़ अदालत ने फ़ैसला दिया है कि उन्होंने एक लाख रुपए की एक कंपनी को कई सौ करोड़ रुपए की कंपनी बनने में सहायता दी?

    या जहाँ एक राज्य की मुख्य सचिव रहीं अधिकारी को ज़मीनों के घोटाले के लिए सज़ा सुनाई जा रही और कई आईएएस अधिकारियों के यहाँ छापे में करोड़ों की संपत्ति का पता चल रहा है?

    क्या यह वही देश है जहाँ एक कॉर्पोरेट दलाल की फ़ोन पर हुई बातचीत बताती है कि वह कॉर्पोरेट कंपनियों की पसंद के व्यक्ति को एक ख़ास मंत्रालय में बिठाने का इंतज़ाम कर सकती है और इसके लिए नामधारी पत्रकारों से अपनी पसंद की बातें कहलवा और लिखवा सकती है.

    या यह उसे देश के ख़िलाफ़ द्रोह है जहाँ नकली दवा का कारोबार धड़ल्ले से हो रहा है, जहाँ सिंथेटिक दूध और खोवा बनाया जा रहा है? या उस देश के ख़िलाफ़ जहाँ केद्रीय गृहसचिव को यह बयान देना पड़ रहा है कि देश में पुलिस का एक सिपाही भी बिना घूस दिन भर्ती नहीं होता?

    खेलों के आयोजन के लिए निकाले गए जनता के टैक्स के पैसों में सैकड़ों करोड़ों रुपयों का घोटाला करके और आयोजन से पहले की अफ़रातफ़री से कम से कम 54 देशों के बीच देश की फ़ज़ीहत करवाने वाले क्या देश का हित कर रहे थे?

    ऐसे अनगिनत सवाल हैं लेकिन मूलभूत सवाल यह है कि देश क्या है?

    लोकतंत्र में देश लोक यानी यहाँ रह रहे लोगों से मिलकर बनता है या केंद्र और दिल्ली सहित 28 राज्यों में शासन कर रही सरकारों को देश मान लिया जाए?

    क्या इन सरकारों की ग़लत नीतियों की सार्वजनिक चर्चा और उनके ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक बनाना भी देश के ख़िलाफ़ द्रोह माना जाना चाहिए?

    नक्सली या माओवादियों की हिंसा का समर्थन किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता. उसका समर्थन पीयूसीएल भी नहीं करता, बिनायक सेन जिसके उपाध्यक्ष हैं. उस हिंसा का समर्थन अरूंधति राय भी नहीं करतीं जिन्हें देश की सरकारें नक्सली समर्थक घोषित कर चुकी हैं. हिंसा का समर्थन अब कश्मीर के अलगाववादी नेता भी नहीं करते, जिनके साथ खड़े होने के लिए अरूंधति कटघरे में हैं.

    देश की राजनीतिक नाकारापन से देश का एक बड़ा हिस्सा अभी भी बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और ज़्यादातर उन्हीं इलाक़ों में नक्सली सक्रिय हैं. आज़ादी के छह दशकों के बाद भी अगर आबादी के एक बड़े हिस्से को मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पाईं हैं तो इस दौरान वहाँ शासन कर रहे राजनीतिक दल क्या देश हित कर रहे थे?

    अन्याय और शोषण के विरोध का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी है. वे प्रकारांतर से नक्सलियों के साथ खड़े हुए दिख सकते हैं. कश्मीर के लोगों की राय सुनने के हिमायती भी कम नहीं हैं और वे देश के विभाजन के समर्थन के रुप में देखे जा सकते हैं.

    क्या ऐसे सब लोगों को अब देशद्रोही घोषित हो जाने के लिए तैयार होना चाहिए?
    ----- Vinod Sharma, BBC Blog

    अभी आना लगा रहेगा, कुछ अपनी बातों के साथ

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  3. हम तब तक चुप रहेंगे जब तक हम अँधेरे में घेर कर मार ना दिए जाएँ..

    तुम भी चुप रहो अपूर्व डियर, और पेप्सी हाथ में लिए सोचते रहो "मेरा नंबर कब आएगा"?

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  4. काफिला पर यह
    http://kafila.org/2010/12/29/silence-as-sedition/

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  5. बज़ से कुछ:

    Amitabh Mishra - छत्तीसगढ़ के बाहर से बैठ कर लोग कितने विश्वास के साथ बोल देते हैं कि बिनायक सेन और हिमांशु कुमार जैसों ने छत्तीसगढ़ में क्या किया और क्या नहीं किया, या यह कि सलवा जुडूम किस तरह सरकार प्रायोजित हिसा का हथियार था! यह तो किसी छत्तीसगढ़ निवासी से ही पूछिए कि असल में माजरा क्या है? देश की क़ानून व्यवस्था और बिनायक सेन की सजा पर सवाल उठाने वाले लोग क्या मुझे यह बताने की कृपा करेंगे कि वे ये सवाल तब क्यों नहीं उठाते जब माओवादी जन-अदालतें लगाकर, गाँव के गरीब लोगों को पुलिस का मुखबिर बताकर वहीं, उसके पूरे परिवार और सारे गाँव के सामने बेदर्दी से तड़पा-तड़पा कर मारते हैं? यह बात तो छोड़ ही दीजिए कि वे पुलिस वालों, सरकारी कर्मचारियों और सैनिकों को कैसे घेर कर मारते हैं. वे (पुलिस और सरकारी कर्मचारी) तो मानित दुश्मन हैं, और मानव भी नहीं हैं कि उनके मानवाधिकार हों, जिनके लिए मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वालों की आँखें और मुंह खुलें. यह एकतरफा बात किसलिए? 10:24 AM

    you - @Amitabh: aap apni baat bairang par kahen, Apurva jo bhi kehna chahte honge, kahenge.. mera ye manna hai ki rajdroh itni choti cheez nahin.. kya gujjar rajdroh nahi kar rahe? kalmadi, raja aur koda ne jo kiya wo rajdroh nahi tha.. jama masjid ke imam saheb aksar apni speeches mein rajdroh nahi karte, kashmir mein roj jo jhande jal rahe hain wo rajdroh nahi... fir aadivasiyon ke saath khada ek aadmi rajdrohi kaise?



    main to abhi badi nascent stage mein hoon. saare waadon pratiwaadon ko samjhne ki sthithi se bhi bahut peeche. aapka kehna bhi meri soch mein kuch jodta hi hai shayad ek aur paksh

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    अभी सिर्फ़ पढ और समझ रहा हूँ.. कहने के लिये कुछ भी नहीं:-(

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  6. आईना दिखाती पोस्ट कुछ कहने कि स्थिति में नहीं रहने देती.

    जिंदगी को भरपूर जी लेने के लिए हम मानते है देश में सब ठीक चल रहा है और हम मजे से दिन में भी सपने देखते रहते है.

    आधुनिक कुरुक्षेत्र में रह रहे माओवादियों या आदिवासियों को कुचलने की बजाये उनको मुख्यधारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए.आदिवासियों को उनकी जमीने लौटा देनी चाहिए.भीतरी युद्ध हथियारों से नहीं जीता जा सकता.ऐसे प्रान्त को अपेक्षाकृत शांत प्रान्तों के समकक्ष खड़ा करने का प्रयत्न करना चाहिए.समस्याओं का हल तलाशने की उम्मीद को खत्म नहीं किया जा सकता..

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  7. @सागर: लिंक के लिये शुक्रिया! मगर अब खुद भी कुछ कहो तो हमें भी सुनने का लाभ मिले ! ;-)
    @पंकज: शुक्रिया बात को आगे प्लेटफ़ार्म पे ले जाने के लिये। आदरणीय अमिताभ जी ने जो सवाल रखे वे वाजिब हैं और किसी बात को समग्रता देने के लिये जरूरी भी। मैं अभी कुछ बातें ही कहूँगा। पहली बात कि छत्तीसगढ़ या किसी राज्य के बारे मे बाहर वालों के न बोलने की बाद हास्यास्पद लगती है। फिर तो बाकी मुल्क को मंबई मे राज ठाकरे के गुंडों के दबंगई के बारे मे बोलने का हक नही है, क्योंकि मुंबई का माजरा समझने का हक सिर्फ़ राज के अपने मराठी मानुषों को होना चाहिये। फिर पूर्वोत्तर प्रांतों की गतिविधियों के बारे मे भी हम सबको आँखें बंद और जबान चुप रहनी चाहिये, क्योंकि हमारा तआल्लुक वहाँ से नही हैं। और तब हम क्यों कश्मीर समस्या को सिर्फ़ कश्मीरवासियों के ही हवाले नही कर देते? बल्कि इस स्थिति मे देश मे केंद्रीकृत व्यवस्था या राज्य सरकारों की जरूरत भी नही होनी चाहिये, जब ग्राम-पंचायतें ही अपने सारे फ़ैसले लेने के लिये पर्याप्त हैं। मगर ऐसा नही है। गणतंत्र की अवधारणा मे हमारे दुख और हमारी समस्यायें भी साझी होती हैं। अगर हम अपने मुल्क को प्यार करते हैं तो मुल्क के किसी भी हिस्से की समस्या पर चिंतित होना और उसके समाधान के लिये प्रयत्नशील होना हमारा कर्तव्य है। और क्या यह बात सोचने योग्य नही है कि क्यों पिछले एक दशक मे जितनी खनन गतिविधियाँ बढ़ी हैं और आदिवासियों का जितना विस्थापन बढ़ा है, उतना ही तेजी से माओवादियों का वहाँ प्रभाव बढ़ा है? फिर अगर सरकार के मुताबिक नक्सल-प्रभावित इलाकों मे विकास का काम नक्सली हिंसा की वजह से बाधित है तो दूसरे इलाकों मे जहाँ सरकार का पूरा नियंत्रण है, वहाँ भी गरीबी और भुखमरी क्यों नही दूर हो पायी? जाहिर है कि सरकार की नीतियों मे कहीं खोट है, और नीयत मे भी! दूसरों की छोड़िये खुद केंद्र सरकार द्वारा गठित और केंद्रीय मंत्री की अध्यक्षता वाली भूमि-सुधार समिति भी सरकार द्वारा आदिवासी भूमि-हरण को दुनिया के इतिहास मे कोलंबस के बाद की सबसे व्यापक जमीन-हड़प कार्यवाही बताती है।
    दूसरी बात बिनायक सेन की है। यहाँ बिनायक सेन एक व्यक्ति से ज्यादा एक प्रतीक के रूप मे हैं। सबसे ज्यादा चिंतित करने वाली बात यह नही है कि बिनायक सेन नामक इंसान को जबर्दस्ती कानूनी जाल मे फ़ँसा कर उम्रकैद दी गयी। देखें तो हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण आपको मिल जायेंगे जहाँ लोग झूठे केसेज मे फ़ँस कर सजा भोगने को विवश हुए, होते रहते हैं। उससे भी अहम्‌ बात यह है कि सरकार अपनी ज्यादतियों के खिलाफ़ आवाज उठाने वालो के प्रति कितना असहिष्णु हो सकती है और किस स्तर तक जा सकती है। बिनायक सेन के किसी हिंसात्मक कारवाई से जुडे होने के तो कोई प्रमाण नही थे। अगर सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ़ आवाज उठाना राजद्रोह है तो फिर आप टेलिकॉम-स्कैम या कामनवेल्थ घोटाले के लिये सरकार की बुराई करने पर सजा से बचे नही रह सकते। आदर्श घोटाले की परते उघाड़ने वाले पत्रकारों पर भी मुकदमा चलना चाहिये, जिसमे खुद मुख्यमंत्री तक की संलिप्तता पायी गयी। फिर तो किसी भी सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उठी आपकी मजबूत और प्रभावी आवाज के लिये सरकार आपको राजद्रोही करार दे सकती है। और किसी हिंसक संगठन से आपके जुड़ाव के सबूत जुटाना सरकारी पुलिस के लिये बाँये हाथ का खेल है। यहाँ धारा 124A जिसके अंतर्गत ’राजद्रोह’ को पारिभाषित किया जाता है वह 1870 के ब्रिटिश-काल की पैदाइश है। उस पर भी यह धारा तब प्रभावी होती है जब अभियुक्त अपनी शब्दों या कृत्यों द्वारा राज्य के खिलाफ़ हिंसा भड़काने मे दोषी पाया जाता है। सरकार डॉ सेन के खिलाफ़ ऐसा कोई साक्ष्य नही दे पायी है जिससे उनकी किसी हिंसक गतिविधि मे संलिप्तता प्रमाणित होती है। यहां हम मुकदमे की कमजोर दलीलो और फ़ैसले की विश्वसनीयता की बात नही करेंगे। ये आप तमाम राष्ट्रीय अखबारों के कालमों मे भी पढ़ सकते हैं कि कैसे साजिशन सबूतों को प्लांट किया गया या कैसे पुलिसिया बयानों के आधार पर मुकदमे का फ़ैसला आया। यहाँ सवाल यह है कि एक लोकतंत्र के तौर पर हम अब तक कितना परिपक्व हुए हैं? एक मजबूत लोकतंत्र के लिये सबसे अहम शर्तों मे से एक यह भी है कि असहमतियों को हम कितनी सकारात्मकता से ले पाते हैं! किसी मुल्क मे अगर सरकार के प्रति वाजिब विरोध के स्वर को कानून की तलवार से काट दिया जाता है तो उस मुल्क के भविष्य के प्रति चिंता स्वाभाविक है। आपातकाल के दौर की सरकारी तानाशाही इस प्रवृत्ति की एक बानगी थी। तो यहाँ डॉ सेन जैसे उदाहरण अभिव्यक्ति की इस आजादी के प्रति सरकार की असहिष्णुता का अगला पड़ाव भर हैं। (contd.)

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  8. (contd.)
    सरकार की मंशा और नीतियों पर शंका अनोखी बात नही। मगर मुझे सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति तब लगती है जब हम आपसी बहस मे ही इतनी गहरी विभाजक रेखाएं खींच देते हैं कि चीजों मे फ़र्क देखना मुश्किल हो जाता है। सरकारी नीतियों का विरोध करने का मतलब माओवादियों का समर्थन करना तो नही है? और अगर सरकारी अक्षमता के खिलाफ़ आवाज उठाने वाले डॉ सेन का समर्थन करने का मतलब आपको यह लगता है कि मै माओवादी हिंसा का समर्थन कर रहा हूँ तो मुझे आपकी समझ के प्रति शंका होती है। यह सोच मुझे 9/11 के बाद के जार्ज बुश की दुनिया के तमाम देशों को दी अहंकारी हुंकार की तरह लगती है कि अगर आप अमेरिका के मित्र नही हैं तो आप अमेरिका के शत्रु हैं। यह जरूरी नही है कि सभी को सरकार-प्रायोजित हिंसा और नक्सली हिंसा मे से ही एक पाला चुनने को विवश किया जाय। इन दोनों पालों के अलावा एक तीसरा पाला भी है जो हिंसा के किसी भी रूप का विरोध करता है, चाहे वह पुलिस द्वारा की गयी हो, या सलवा-जुडुम द्वारा, या माओवादियों द्वारा। यह पाला सरकारी और माओवादी हिंसा मे भेद नही करता न हिंसा के किसी रूप को जस्टीफ़ाइ करने की कोशिश करता है। वो नक्सली हिंसा का समर्थन किये बिना भी विस्थापितों के दर्द की बात करता है, उनके प्रति अन्याय का विरोध करते हुए सरकार को कटघरे मे खड़ा करता है। मै खुद को भी इसी तीसरे पाले का हिस्सा पाता हूँ। मुझे हास्यास्पद यह लगता है कि जब जेलबंद चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता ल्यु जियाबो को नोबेल मिलता है हम खुशी जताते हैं, जब ईरानी सरकार अपने राजनैतिक विरोधियों पर गोली चलवाती है या मानवाधिकारों की बात करने पर शिरीन इबादी को नजरबंद करती है, हम चिंता प्रकट करते हैं, हम पाकिस्तान के तालिबानी इलाकों मे मानवाधिकारों के हनन पर उत्तेजित होते हैं, तिब्बतियों पर चीनी आत्याचार के प्रति आंदोलित होते हैं या म्यामार मे आन सांग सू क्यी की अथक राजनैतिक लड़ाई का समर्थन करते हैं। मगर बात जब अपने घर की आती है, अपने समाजकर्मियों, मानवाधिकार-कर्मियों की आती है तब हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमे सरकारी पक्ष सुहाने लगता है। मुझे लगता है कि आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार और उनके विस्थापन की समस्याओं को सुलझाने की बजाय जब तक हम उनके पक्ष मे उठने वाली आवाजों को दबाने की कोशिश करते रहेंगे तब तक हम और ज्यादा आदिवासियों को हिंसक गतिविधियों मे शामिल होने को मजबूर करते रहेंगे। उनके पक्ष मे उठने वाली वाजिब आवाजों पर सरकार भले ही उम्र-कैद का कार्क लगा दे, या गोली से ठंडा कर दे, मगर आक्रोश के उस लावे का क्या करेंगे जो जमीन के अंदर खौल रहा है और जिसे निकलने का रस्ता नही मिल पा रहा! यकीं कीजिये ऐसे माओवादियों का प्रभावक्षेत्र कम नही होगा वरन और ज्यादा ही बढ़ेगा। बिनायक सेन जैसों को जब तक हमारी अदालतें साजिशन जेल भेजती रहेंगी तब तक माओवादियों की अदालतों के प्रभाव-क्षेत्र बढ़ते रहेंगे।

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  9. पिछले चार दिन से एक अजीब मानसिक स्थिति में खुद को पाता हूँ. लगता है पागल हो गया हूँ. हाँ ऐसा ही कुछ. बिनायक तो सिर्फ माध्यम भर हैं.. जो भुगत रहा हूँ उससे एक क्षोभ सी स्थिति बनती जा रही है. एक गहरी निराशा... लेखनी पर की कविता यहीं से निकली थी...

    मुझे लगता है बहुत भावुक सा हो गया हूँ, इसे दिमागी संतुलन खोना कहते हैं.

    एक बात तो साफ़ है कि माहौल स्वस्थ नहीं है... सभी बीमारी के शिकार हो गए हैं या फैला रहे हैं.. किसी ने सदबुद्धि हर ली है...

    विरोध के स्वर दिख रहे हैं लेकिन बात इसकी नहीं करूँगा... घिन आ रही है इस व्यस्वस्था पर.

    (जारी ... )

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  10. मुझे ऐसी ही किसी विश्वसनीय कलम की तलाश थी जो विनायक सेन के बारे में वास्तविकता से अवगत करा सके। रोंगटे खड़े कर देने वाले इस पोस्ट और इट पोस्ट पर आपके कमेंट ने अत्यधिक प्रभावित किया। दरअसल समाचारों से इतना खीझ चुका हूँ कि समाचार पढना ही छोड़ दिया है। जब कोई बताता है कि ऐसा हो गया है तभी ध्यान जाता है।
    ....यही स्थिति रही तो अपनी उम्र में ही जंगल राज कायम होते और लोकतंत्र का जनाजा उठते देखना पड़ेगा।
    ....बहुत दिनो बाद आपको पढ़ा। अच्छा लगा।

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  11. @अपूर्वजी, पंकजजी और इस ब्लॉग के प्रबुद्ध पाठकों: वो तो मैं यहाँ बस अचानक ही चला आया. और देखता हूँ कि पंकजजी के बज़ पर इस लेखन को डालने के बाद मैंने कुछ लिखा था जिसके जवाब मुझे वहाँ तो नहीं मिले थे, पर यहाँ मिले हैं, और मुझे कोई खबर ही नहीं थी. बहुत सारी बातें लिखी हैं यहाँ, कुछ मान कर या सुने-पढ़े पर विश्वास कर के. यह तो मैं ने नहीं कहा कि विनायक सेन के ऊपर लगाया राजद्रोह का इल्जाम सही है या नहीं, या वे आदिवासियों के साथ खड़े हैं या नहीं. बहुत से कारणों से ऐसे किसे निजी ब्लॉग पर इसके बारे में बहस संभव नहीं है. मुझे यह हास्यास्पद बात भी कहीं भी अपने ओर से लिखी कही नहीं दिखी कि आप (अपूर्वजी) छत्तीसगढ़ के नहीं हैं तो वहाँ के बारे में कुछ नहीं बोल सकते. यह पूर्णतः आपकी कल्पना है, पर आपने ऐसा मान कर इस पर पूरा निबंध लिख दिया. मैं पहले भी यही कह रहा था और अब भी बस इतना कहना चाहूँगा कि पहले सारी बातें और सारे "सत्य" जान लें, उसके बाद कुछ कहें तो सही होगा. और सत्य ही जानें, प्रोपेगैंडा नहीं.
    जो आप आदरणीय जनों ने लिखा है, उसकी सत्यता परख लें और निम्न सवालों के जवाब पहले खुद ढूँढ लें.
    १. बस्तर के वे जंगल, जहाँ नक्सली वहाँ के गरीब-बेसहारा लोगों की तथाकथित लड़ाई स्वचालित बंदूकों, रोकेटों और लैंड-माइनों के जरिये लड़ रहे हैं, वहाँ उनकी समानांतर (या इकलौती) सरकार के होते, आपके लिखे अनुसार "खनन गतिविधियाँ बढ़ी हैं". क्या यह सच है, या फिर ऐसा है कि नक्सलियों के वर्चस्व और डर, पुरानी सरकारी खदानों पर उनके हमलों और तोड़-फोड़, पटरियां उखाड़ने, कर्मचारियों को अगवा कर लेने, जहाँ तहाँ राजमार्गों तक में गाड़ियां विस्फोटों द्वारा उड़ा देने आदि के कारण ठीक उल्टा हुआ है? बात बस्तर की ही कीजियेगा, और कहीं की नहीं.
    २. आपके लिखे अनुसार डॉ सेन को सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ़ आवाज उठाने पर राजद्रोह का आरोपी बनाया गया है. आप राष्ट्रीय अखबारों की भी बातें कर रहे हैं जिनका कोई रिपोर्टर इन जगहों से सैंकडों मीलों तक नहीं है कि वे कहते हैं कि सबूतों को साजिशन प्लांट किया गया था, तो ज़रा छत्तीसगढ़ के अखबार भी देख लिया कीजियेगा, और रिपोर्टरों और मीडिया वालों से भी बात कर लीजियेगा. वे बेचारे इतने समृद्ध नहीं है कि आप लोगों तक पहुँच सकें. साथ ही ज़रा नारायण सान्यालजी के बारे में भी कुछ पता करवा लीजिए, और बाकी जो भी साक्ष्य पी.यू.सी.एल. खुद कह रहा है कि डॉ सेन के यहाँ से मिले (और डॉ सेन ने भी पहले नहीं कहा कि ये साक्ष्य पुलिस के बनाए हुए हैं; अब पता नहीं कि पी.यू.सी.एल. वेब-साईट और डॉ सेन का कथन बदल न गया हो - तो पुरानी बातें ज़रा खंगाल लीजियेगा, कहीं न कहीं तो पहले वाला वर्शन भी मिलेगा), उन्हें अपर्याप्त कहने से पहले थोड़ा निष्पक्ष रूप से सोचिये (यदि सच में चाहें). आप सच में मानते हैं कि मात्र पुलिसिया बयानों के बल पर किसी को उम्र कैद हो सकती है? ज़रा और पता कीजियेगा और फिर सोचियेगा आप क्या लिख गए हैं. बहस के लिए मान लेता हूँ कि उम्र कैद की बात नहीं जम रही है, तो ठीक है न, अभी अदालत में आगे वैसा साबित हो जायेगा. हाँ, आप यदि यह कहना चाह रहे हैं कि न्याय-पालिका में पूरे तरह से आपका विश्वास उठ गया है, तो वह आप जानें.

    (जारी...)

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    1. एक इन्सान जो आदिवासियों के बीच रह के काम कर रहा है यदि देशद्रोही है तो मैं तो उससे भी बड़ा देशद्रोही हूँ. क्यूंकि अपनी डिग्री का इस्तेमाल मैं बस अपने लिए पैसे छपने के लिए कर रहा हूँ. आपको नहीं लगता अमिताभ जी.....आप भी मेरी तरह ही देशद्रोही हैं!

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  12. ३. अब ज़रा इस मामले से ल्यु जियाबो, शिरीन इबादी, पाकिस्तान के तालिबानी इलाकों, तिब्बतियों, आन सांग सू क्यी, टेलिकॉम-स्कैम, कामनवेल्थ घोटाले, आदर्श और १२४अ को फिलहाल थोड़ा अलग कर लें, ताकि ध्यान विचलित न हो. आप ने पता कर ही लिया होगा कि सरकार का पुरजोर विरोध डॉ सेन (और हिमांशु कुमार - जानते हैं न उनको भी?)कैसे और क्यों कर रहे थे? आपका जवाब होगा कि वे तथाकथित विस्थापन, समस्याओं और मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए सरकार को ऐसे तगड़े तरीके से आड़े हाथों ले रहे थे कि सरकार नाराज़ हो गई. ठीक!! पता कीजियेगा कि विस्थापन और समस्याओं के लिए असल में कहीं नक्सली भी तो सरकार जितने (या शायद अधिक - हर घर से हर सप्ताह अनाज और पैसे लेने, खेती और महुआ बीनना बंद करवा कर अपने हाथ में सब ले लेने, उनके १०-१२ वर्ष के बच्चों को ट्रेनिंग के लिए उठाने, जब तब ग्रामीणों को जासूस बता कर बेरहमी से उदाहरण बनाते हुए उसके परिवार और पूरे गाँव के सामने मार देने, पुलिस से या स्वयं से जुड़ने के अलावा और कोई विकल्प न छोड़ने इत्यादि इत्यादि के कारण) जिम्मेदार तो नहीं हैं? क्या डॉ सेन ने उतने ही जोर-शोर से नक्सलियों के खिलाफ वैसी ही तगड़ी मुहिम छेड़ी जितनी सरकार के खिलाफ़? अगर नहीं तो क्यों भाई, बात तो उसी बस्तर के आदिवासियों की ही है न?
    ४. अब मानवाधिकार की बात! क्या विनायक सेन मानते हैं कि पुलिस, सेना और जंगल, बिजली विभाग, शिक्षा आदि के सरकारी कर्मचारियों के भी कुछ मानवाधिकार हैं? बस्तर पोस्टिंग होने पर ये कर्मचारी तो मान लेते हैं कि शायद ही जिन्दा लौटेंगे. नहीं तो उन गरीब ग्रामीणों के तो कुछ मानवाधिकार होते होंगे, जिनको पूरे गाँव के सामने बेदर्दी से मारा जाता है, या नहीं? क्या डॉ सेन उतनी ही पुरजोर लड़ाई ऐसे मानवाधिकारों के लिए कभी करते दिखे? क्यों उन्हें एक दुर्दांत नक्सल कमांडर नारायण सान्याल के ही मानवाधिकार दिखे, कि वह बीमार था और उसे इलाज की सख्त आवश्यकता थी?
    ५. आदिवासी और उनके बच्चे क्या सचमुच सरकारी दमन और विस्थापन के खिलाफ बंदूकें उठा रहे हैं, या कि इसलिए कि व्यवसाय का कोई जरिया बचा नहीं, क्योंकि खेती या महुआ बीनने का काम, या और कोई व्यवसाय नक्सली करने देंगे नहीं, और खाने के लाले पड़ने से अच्छा स्पेशल पुलिस में या नक्सली दलम में भर्ती हो कर तब तक जी खा लें, जब तक विरोधी पार्टी किसी गोलीबारी के दौरान मार न दे (क्योंकि वैसे भी भरोसा नहीं कि कब क्रॉस-फायर में फंस जायेंगे)? पता चल जाएगा कि सच ही कोई आक्रोश का लावा बह रहा है, या बेचारे आदिवासी बरबस ही बंदूकें उठाये चले जा रहे हैं.

    मेरा एक सवाल आप से (अपूर्वजी): आप का कहना है कि "... तब तक माओवादियों की अदालतों के प्रभाव-क्षेत्र बढ़ते रहेंगे". आप सच में इन तथाकथित अदालतों को मानते हैं और इन्हें सही और जायज ठहरा रहे हैं?

    सभी से: मुझे इन में से किसी सवाल का जवाब देने की आवश्यकता नहीं. जवाब खुद को दीजियेगा. आशा करता हूँ कि ऐसा आप लोग सच में ईमानदारी से करेंगे, क्योंकि आप सब पढ़े लिखे लोग हैं. उम्मीद की जाती है कि सारे बिन्दुओं को एकत्रित करने के बाद ही चित्र बनाने का प्रयास करेंगे. किसी को कोई बात बुरी लगी हो या भावनाओं को ठेस पहुंची हो, तो सादर माफ़ी.

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  13. आज आया तो था डिंपल की पोस्ट पढ़ने और सहसा ही इस लिंक पर नजर गयी तो रोक नहीं पाया खुद को। पूरी पोस्ट और लेखक की टिप्पणी और फिर सागर की पागलों जैसी हालत के बारे में पढ़ने के बाद पता नहीं क्यों जोर का ठहाका निकल पड़ा। अमिताभ जी के उठाये सवालों के जवाब नहीं दिखने पर कोई आश्चर्य न हुआ, सच पूछो तो।

    एक दो बातें इस के अलावा, जिसका शायद कोई पेशेवर डाक्टर ही जवाब दे सकेगा बेहतर ढ़ंग से...मेरे पिता खुद ही डा० हैं और जहाँ तक मेरी समझ है, हर लाइसेंसशुदा डा० अपने ओथ के मुताबिक कई एथिक से बंधा होता है। इसमें से एक है जिसे अगर एक ले-मैन की तरह पूछूँ तो, यदि डा० के पास कोई घायल मरीज आता है और प्रारंभिक निगरानी बताती है कि ये ये बंदूक की गोली का ज़ख्म है, तो उस डा० की उसका उपचार करने के बाद तुरत दूसरी कारवाई क्या होनी चाहिये??? दूसरा, सवाल...किसी फंड या किसी एनजीओ के तहत आपने कोई संस्था खोली हो, कोई हास्पिटल खोला हो और उस संस्था या हास्पिटल में आ रही दवाइयां, मेडिकल उपकरण चोरी-छिपे कुछ अन्य ऐसे गुटों तक पहुंच रही हों जिनपर सरकार के खिलाफ, व्यवस्था के खिलाफ़, देश के खिलाफ़ कारवाई करने का सुबहा..तो क्या कारवाई होनी चाहिये?

    अमिताभ जी के सवाल की तरह इनके भी जवाब मिलने की उम्मीद नहीं है मुझे।

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  14. "आधुनिक कुरुक्षेत्र में रह रहे माओवादियों या आदिवासियों को कुचलने की बजाये उनको मुख्यधारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए"

    @डिंपल,
    पहली बात तो माओवादि य आदिवासी लिखकर इन्हें एक जैसा करार देना थोड़ा गलत है, ठीक वैसे ही जैसे मुस्लिम और आतंकवाद...दूसरी बात, अगर तुम्हारे कथन में से "आदिवासी" को माइनस करके देखा जाये तो आइएसआई और चीन-प्रायोजित एके-४७ और ऐसे अन्य हथियारों का अपने देश की सरकर पर इस्तेमाल करके मुख्यधारा में शामिल होने की बात हास्यास्पद है और कुछ नहीं...

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  15. गौतम भाई,

    मुझे लगता है इस पर एक बहुत अच्छी चर्चा चिट्ठाचर्चा पर ही हो चुकी है जहाँ आपके द्वारा ही काफ़ी और बिंदुओ पर नज़र डाली गयी थी। मुझे पर्सनली लगता है कि उसके बाद से शायद इस पोस्ट पर सवाल जवाब इसीलिये ही नहीं हुये।
    आज मेल बॉक्स में इस पोस्ट पर आयी टिप्पणियों को देखकर यही लगता है जैसे कोई ज़ॉम्बी जीवित हो गया हो :)

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    1. bhai ho sake to चिट्ठाचर्चा ka link send kar do.

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  16. मैंने आदिवासियों और नक्सलियों को एक नहीं कहा है.लेकिन यह तो सच है कि अन्याय आधारित व्यवस्था ही ऐसी गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार है.कारण भले एक न हो
    पर जिससे अराजकता फैल रही है उसे दूर करने के लिए कुछ तो करना ही चाहिए..आदिवासियों को उनकी जमीने ही लौटा दे.कोई रास्ता तो निकालना ही होगा.
    according the right to forest act-those people who have been living in the forest for the last 25 years or more have the right over the forest land and what is grown on it.they can not be removed from the forest.
    @आइएसआई और चीन-प्रायोजित एके-४७ और ऐसे अन्य हथियारों का अपने देश की सरकर पर इस्तेमाल करके मुख्यधारा में शामिल होने की बात हास्यास्पद है और कुछ नहीं...
    भारतीय फौज की भी तो दुविधा है कि अपने ही देशवासियों के साथ पूरी ताकत से कैसे लड़े.
    बाकी आप मुझसे बेहतर जानते है..

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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