डाकिये की ओर से: क्या वक़्त था कि जब गांव के बड़े से घर में एक भी घड़ी नहीं थी। और घड़ी की जरूरत भी नहीं थी। छत पर सोए हुए सुबह सूरज की चैंधियाती हुई धूप पड़ी तो जगना हुआ। धूप चापाकल से सरका तो साढ़े आठ का बजना मालूम हुआ। प्राइमरी स्कूल की घंटी बजी याने 9:50। भंसा घर के घर पर धूप चढ़ी तो साढ़े तीन।
क्या वक्त था कि पटना में हर वक्त रेडियो चलता रहता था। काम कोई नहीं रूकते थे। जीवन संगीतमय लगता था। आज रेडियो शौक से सुनते हैं या बोर होकर। शौक से सुनो तो भी एफ एम पर वही हर-हर-कच-कच। उन दिनों यह जीवन का अंग था। स्टूल पर ऐंड़ी उचकाकर मर्तबान से कटहल अचार उतार रहे हों या शेविंग कर लेने के बाद अपने गालों पर नज़रों का ज़ूम करके देखना कि अबकी कहां कहां ब्लेड लगी है। मैथ गज़ल सुने बिना नहीं बनता था। मां कंघी करते हुए रेडियो के साथ ही दबी आवाज़ में गाती - ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें। गोया तब सारा समय रेडियो से तय होता था। विविध भारती से आवाज़ छन ऐसे आती जैसे जून के महीने में गीले उजले बालू पर कोई भीगा घड़ा रखा हो और उसके मुंह पर उजले कपड़े की दो तीन तह रखे हों। उसी से आवाज़ छन कर आती हो। उन दिनों रेडियो प्रस्तोता हीरो थे। हम आवाज़ों की नकलें करते।
बाद में ए आई आर के कैंटीन और न्यूज़ रूम में उन्हीं आवाज़ों से सीधे सीधे मिलता, काम करता, चाय पीता। आवाज़ का जादू टूटता। क्लेयर नाग, शुभ्रा शर्मा, आशा निवेदी, आशुतोष जैन। और पीस टू कैमरा देते वो पटना दूरदर्शन वाले संवाददाता जो अपने नाम पर विशेष पाॅज़ देते - सुधांशु रंजन, दूरदर्शन समाचार, पटना।
बीप की चार छोटी और एक लंबी आवाज़.... - ये आकाशवाणी है अब राजेंद्र चुघ से समाचार सुनिए। यानि सुबह के 7:45। अगर यही रात को तो 8:45। 8:45, यानि उससे ठीक पहले हवामहल। अक्सर हवामहल का क्लाईमैक्स कट जाता। तब वैसी ही कोफ्त होती जैसे उन दिनों सिनेमा शुरू होने से पहले कितने रील की है यह देखने से छूट जाता। हवामहल का वो सिग्नेचर काॅमेडी भरा सिग्नेचर ट्यून। उन्हीं दिनों उस पर एक प्रहसन सुना जो कि श्रोताओं में सुपरहिट है। सिबाका गीतमाला की तरह। पिछले दिनों आकाशवाणी दिल्ली से ‘इक्वेरियम के मछली’ सुनते वक्त वो प्रहसन उदयपुर की ट्रेन की बहुत याद आई।
आप भी सुनिए यह स्वस्थ, गुदगुदाने वाला प्रहसन।