Sunday, February 6, 2011

ख़त की इबारत

(कभी-कभी कुछ कविताएँ अचानक हमको भिगो जाती हैं...और फिर अकेला छोड़ जाती हैं हमें...पतझड़ की बेमौसम बारिश की तरह....और हम उदासी के गहरे धुंधलके मे शाख से टूटे हुए गीले पत्तों का मूक बिलखना सुनते रहते हैं...देर तलक। कुछ कविताएं थोड़ा सा कह कर इतना अनकहा छोड़ जाती हैं हमारे पास..कि मन देर तक उसी अनकहे के बीहड़ मे अकेला भटकता रहता है..उस अव्यक्त के आइने मे अपनी पहचान के अक्स तलाश करता...जैसे कि माँ बच्चे को रात मे देर तक लोरी सुनाती है..प्यार करती है..दुलारती है..और परियों की कहानी..दूर देश के राजकुमारो, उड़ने वाले घोड़ों की कहानी.....मगर सो जाने के बाद बच्चे के ख्वाबों मे परियाँ नही आतीं..ना राजकुमार..ना उड़ने वाले घोड़े...ख्वाब मे माँ का आँसुओं भरा चेहरा आता है..ख्वाब गीले हो जाते हैं।..व्यस्त दिन बावरे मन को किसी बच्चॆ सा भटकाये रहता है..बाजार मे...रंगीनियों मे..हासिल की जा सकने वाली उपलब्धियों मे..मगर शाम होते-होते मन उसी बच्चे सा खयालों की स्कूल-बस से चुपके से उतर जाता है..बिना बताये..और वापस आ कर उसी टूटी मुँडेर पर उदास सा बैठ जाता है..जहाँ अपना सिसकना सिर्फ़ अपने आप को ही सुनाई देता है..खैर!!..यह एक मेरी पसंदीदा पंजाबी कविता है..सरोद सुदीप की..ज्ञानपीठ के किसी पुराने प्रकाशन मे संकलित..हिंदी रूपांतर डॉ हरभजन सिंह का था...पढ़ें यह बैरंग ख़त..शायद आपको भी पसंद आये..)





इबारत एक पत्र की
 

वैसे तो उदास नही होता मैं
छोटी-छोटी बात पर हँसी आ जाती है
माँ का ख़त आया -बेटा तुम्हारे पाँव बहुत दूर चले गये हैं
तब जलती-जलती सिगरेट जल गयी
 
जहाज आये होंगे, चले गये होंगे
सभी द्वार खुले हैं, एक भी गुजर जाने योग्य नही
कल नींद नही आयी तो न सही
कहीं  न कहीं कोई खुशी बैठी होगी
उसके पास जाओ और कहो:
यह भी एक फ़ालतू भ्रम था

मधुमक्खी एक फूल पर बैठती है,
फिर दूसरे पर, फिर तीसरे पर
और उड़ जाती है
चश्मे ने तुम्हे देखा और उसे तुमने
और बात खुदगर्जी पर आ कर खत्म हो गयी

कल जो पल जाग उठा था
आज बुझ गया है...
बच्चों समेत कबूतरी खा ली गयी
और कबूतर शाम तक
टूटे पंखों के इर्द-गिर्द गुटकूँ, गुटकूँ करता रहा...
सारा ब्रह्माण्ड है, बहुत कुछ जानने योग्य है
किंतु मेरे पास आते-आते एक प्रश्न
कुछ दूरी पर खड़ा हो जाता है
एक मजाक की तरह...

माँ के ख़त का उत्तर लिखने बैठा था
लिफाफे पर मेरा अपना पता लिखा गया है
वैसे तो उदास नही होता मैं...

(चित्र: वाया फ़्लिकर)

7 comments:

  1. वैसे तो उदास नही होता मैं
    छोटी-छोटी बात पर हँसी आ जाती है
    माँ का ख़त आया -बेटा तुम्हारे पाँव बहुत दूर चले गये हैं
    तब जलती-जलती सिगरेट जल गयी
    ........सच में बहुत दूर चला गया बेटा...

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  2. लोग दूर चले जाते है पर यादे छोड़ जाते है।

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  3. इसे आत्मकेंद्रिकता कहें या फिर ?

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  4. कल जो पल जाग उठा था
    आज बुझ गया है...
    बच्चों समेत कबूतरी खा ली गयी
    और कबूतर शाम तक
    टूटे पंखों के इर्द-गिर्द गुटकूँ, गुटकूँ करता रहा...
    सारा ब्रह्माण्ड है, बहुत कुछ जानने योग्य है
    किंतु मेरे पास आते-आते एक प्रश्न
    कुछ दूरी पर खड़ा हो जाता है
    एक मजाक की तरह...



    उदासी छोड़ जाती है ....अंत में ये कविता..

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  5. एकदम बैरंग मुखी कविता... लौट आओ चुपचाप .. अब पलट कर देखो निशां तो नहीं रहा !

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  6. kai sare manzar dikhaye is kavita ne apoorv bhai,.... aaur sabse akhir men ek bahut udaas sa manjar... jismen door door tak ek gili si safedi hai...

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  7. माँ के ख़त का उत्तर लिखने बैठा था
    लिफाफे पर मेरा अपना पता लिखा गया है
    वैसे तो उदास नही होता मैं...


    उदासी से ज़्यादा सोचने को मजबूर कर गई कविता... क्या वाकई बच्चों के पाँव माँ से इतनी दूर चले गये हैं...

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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