Friday, July 22, 2011

जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.

अपने लिए लिखा बड़ा बेतरतीब होता है. और अनएडिटेड डाल रहा हूँ. क्या डाकिये को ख़त लिखने का हक़ नहीं.
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है



क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई ग़म ना हो?
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?

अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.

मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
कुछ इस तरह क्रमिक विकास हुआ है चीज़ों का...
सिगरेट >> शराब >> सेल्फ पिटी >> तन्हाईयाँ >> आत्महत्या की चाह >> जीना और बस जीना

..अब तो बस...

ख़ैर ये सब कोई आध्यात्मिक ज्ञान की सीढियां नहीं रहें हैं मेरे लिए. अगर कुछ है तो जस्ट अपोजिट है. ब्लैक होल का काउन्टर-पार्ट वार्म होल सरीखा अवश्यम्भावी (उदाहरण की नकारात्मकता और सकारात्मकता से मायने नहीं हैं, बस ब्लैक होल ज़्यादा प्रचलित है इसलिए) मेरी पूजा में हवन और अगरबत्ती की खुश्बू नहीं आती. उसमें शमशान, चमगादड़, नर कंकाल और अमावस्या की बातें हैं.
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.

कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
'जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.'
...तब जबकि ये दुनियाँ मेरे होने पर ही है. कम से कम मुझ इंडीविज़ुअल के लिए तो तब तक ही है. में आपके बारे में निश्चित नहीं हूँ."








Saturday, July 16, 2011

अदब या तो अदब है, वर्ना बहुत बड़ी बेअदबी



डाकिए की ओर से: दिल्ली, बारिश और शनिवार... कुनैन की गोलियां। अफीम की आदत। कड़वाहट चबाने का लत गोया इससे निकला रस मीठा होता है। बेर खाने के बाद का पानी पीना जैसे। 

ऐसे में गालिबन मंटो। कहते हैं मंटो बड़ा जटिल इंसान था। लेकिन उसे पढते हैं तो लगता है वो बहुत सीधा था। एक बच्चे जितना मासूम और सीधा लेकिन हम उसका यह सीधापन झेल नहीं सके तो साजिश के तहत उसे काॅम्पलेक्स करार दे दिए।

मंटो के मजामीन हाथ लगे हैं। दस्तावेज का चौथा हिस्सा जिसमें मुदकमे, पत्र और निबंध हैं और जिसकी शुरूआत कुछ यूं होती है -


जब कोई ईमानदान नागरिक रात को सो नहीं पाता 
जब कोई देशभक्त उदास हो जाता है
जब कोई काबिल जवान इम्प्लायमेंट एक्सचेंज की सीढि़यों पर दिन गुजारता है
जब कोई बुद्धिजीवी किसी कारण किसी का पिछलग्गू बन जाता है 
जब कोई लेखक इनाम और खिताब के मोह में दर दर भटकता है
जब कोई व्यक्ति अदालत के बरामदे में बचपन से बुढापे में पहंुच जाता है
जब कोई मरीज़ अस्पताल के दालान में बिस्तर लगाता है
जब कोई स्मगलर समाज में रूत्बा पाता है 
जब कोई मुलाजिम ताल्लुकात की सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहंुचता है 
दोस्तों, 
तब सआदत हसन मंटो ये मज़ामीन लिखता है।

सच भी है, इस हिस्से में उन दिनों की दास्तां है जब लगातार मुकदमे से मंटो परेशां हो गया था। लिखने से ज्यादा उसे सफाई देनी पड़ रही थी। उसे सरोकार याद दिलवाए जा रहे थे और औकात बताई जा रही थी। हैरानी होती है जो कहानी में बेदर्दी से खाल उतारता था वो किस कदर हस्सास नज़र रखता था।

यहां पाठकों से रू ब रू होता मंटो। कुछ सवालों का जवाब देता हुआ...

(मेरी खुद की भूमिका लंबी हो गई। माफी)

*****

मेरे मज़मून का उनवान अदबे-जदीद है। लुत्फ की बात यह है कि मैं इसका मतलब ही नहीं समझता लेकिन यह जमाना ही कुछ ऐसा है कि लोग उसी चीज़ के मुताल्लिक बातें करते हैं जिनका मतलब उनकी समझ में नहीं आता। पिछले दिनों गांधी जी ने आगा खां के महल में मरन ब्रत रखा। जब लोगों की समझ में न आया कि वह किस तरह जिंदा रह सके हैं तो एक नारंगी पैदा कर दी गई। यह नारंगी भी कुछ दिनों बाद नाकाबिले फहम हो गई। बाज आदमियों ने कहा कि नारंगी नहीं थी, मौसंबी थी। बाज ने कहा: नहीं मौसंबी, नारंगी हर्गिज नहीं थी, माल्टा था। बात बढ़ती गई। फिर इसकी सारी जातें गिनवा दी गई। फिर डाक्टरों ने इनमें से हर एक की विटामिन गिनवाई। गिजाइयत को कैलोरीज में तकसीम किया गया। एक बरस में पिचहत्तर बरस के बुड्डे को कितनी कैलोरीज की जरूरत होती है, इस पर बहस की गई और साहिब, गांधी जी की यह नारंगी या मौसंबी जो कुछ भी थी, वह सआदत हसन मंटो बन गई। यह मेरा नाम हैं लेकिन बाज लोग अदबे-जदीद अलमारूफ नए अदब, यानी तरक्कीपसंद अदब को सआदत हसन मंटो भी कहते हैं और जिन्हें सिन्फे करख्त पसंद नहीं, वो उसे इस्मत चुगताई भी कह लेते हैं। 

जिस तरह मैं यानी सदादत हसन मंटो अपने आपको नहीं समझता, तरक्कीपसंद लिट्रेचर भी उन लोगों की समझ से भी ऊंचा है हो इसको समझने की कोशिश करते हैं।

मैं चीजों को नाम रखने को बुरा नहीं समझता। मेरा अपना नाम अगर न होता तो वो गालियां किसे दी जातीं जो अब तक हजारों और लाखों की तादाद में मैं अपने नक्कादों से वुसूल कर चुका हूं। नाम हो तो गालियां और शाबाशियां देने और लेने में बहुत सहूलत पैदा हो जाती है लेकिन अगर एक ही चीज के बहुत से नाम हों तो उलझाव पैदा होना जरूरी है।

सबसे बड़ा उलझाव इस तरक्कीपसंद अदब के बारे में पैदा हुआ है हालांकि पैदा नहीं होना चाहिए था - अदब या तो अदब है, वर्ना बहुत बड़ी बेअदबी। 

मैं दूसरों की तरफ से जवाब नहीं दूंगा। अपने मुताल्लिक अर्ज करना चाहता हूं कि दुनिया का नक्शा बदल रहा है लेकिन अगर मैंने उसके मुताल्लिक कुछ लिखा है तो मेरा भी हुलिया बदल जाएगा। डरपोक आदमी हूं, जेल से बहुत डर लगता है। यह जिदंगी जो बसर कर रहा हूं, जेल से कम तकलीफदेह नहीं है। अगर इस जेल के अंदर एक और जेल पैदा हो जाए और मुझे उसमें ठूंस दिया जाए तो चुटकियों में मेरा दम घुट जाएगा। जिंदगी से मुझे प्यार है। हरकत का दिलदादा हूं। चलते-फिरते सीने में गोली खा सकता हूं लेकिन जेल में खटमल की मौत नहीं मरना चाहता। यहां इस प्लेफार्म पर यह मज़मून सुनाते सुनाते आप सबसे मार खा लूंगा और उफ तक नहीं करूंगा लेकिन हिंदू मुस्लिम फसाद में अगर कोई मेरा सिर फोड़ दे तो मेरे खून की हर बूंद रोती रहेगी। मैं आर्टिस्ट हूं, ओछे ज़ख्म और भद्दे घाव मुझे पसंद नहीं। जंग के बारे में कुछ लिखूं और दिल में पिस्तौल देखने और छूने की हसरत दबाए किसी तंगो तारीक कोठरी में मर जाऊं, ऐसी मौत से तो यही बेहतर है कि लिखना विखना छोड़कर डेरी फार्म खोल लूं और पानी मिला दूध बेचना शुरू कर दूं। 

मुझे चुस्त वर्दी पहनने का शौक नहीं है। पीतल और तांबे के मतगों और कपड़े के रंगीन बिल्लों से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। होटलों में डांस करके, क्लबों में शराब पीकर और टैक्सियों में चूना-कत्था लगी लड़कियों के साथ घूमकर मैं वार ऐफर्ट की मदद नहीं करना चाहता। इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प मशागिल मुझे मयस्सर हैं। मिसाल के तौर पर यह मश्ग़ला क्या बुरा है कि मैं हर रोज़ बंबई सैंट्रल से गोरेगांव और गोरेगांव से बंबई सैंट्रल तक बर्की ट्रेन में सैकड़ों वर्दीपोश फौजियों को देखता हूं जो फतह-ओ-नुसरत को ओर ज्यादा करीब लाने के लिए शराब के नशे में मदहोश या तो टांगे पसारे सो रहे होते हैं या निहायत ही बदनुमा औरतों से, मेरी मौजूदग से गाफिल, निहायत ही वाहियात किस्म का रोमांस लड़ाने में मसरूफ होते हैं। 

मैं इस जंग के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा लेकिन जब मेरे हाथ में पिस्तौल होगा और दिल में यह धड़का नहीं रहेगा कि यह खुद ब खुद चल पड़ेगा तो मैं उसे लहराता हुआ बाहर निकल जाऊंगा और अपने असली दुश्मन को पहचानकर या तो सारी गोलियों उसके सीने में खाली कर दूंगा या खुद छलनी हो जाऊंगा। इस मौत पर जब मेरा कोई नक्काद यह कहेगा कि पागल था तो मेरी रूह इन लफ्जों ही को सबसे बड़ा तमगा समझकर उठा लेगी और अपने सीने पर आवेजां कर लेगी।
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