अपने लिए लिखा बड़ा बेतरतीब होता है. और अनएडिटेड डाल रहा हूँ. क्या डाकिये को ख़त लिखने का हक़ नहीं.
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई ग़म ना हो?
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?
अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.
मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
ख़ैर ये सब कोई आध्यात्मिक ज्ञान की सीढियां नहीं रहें हैं मेरे लिए. अगर कुछ है तो जस्ट अपोजिट है. ब्लैक होल का काउन्टर-पार्ट वार्म होल सरीखा अवश्यम्भावी (उदाहरण की नकारात्मकता और सकारात्मकता से मायने नहीं हैं, बस ब्लैक होल ज़्यादा प्रचलित है इसलिए) मेरी पूजा में हवन और अगरबत्ती की खुश्बू नहीं आती. उसमें शमशान, चमगादड़, नर कंकाल और अमावस्या की बातें हैं.
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.
कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?
अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.
मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
कुछ इस तरह क्रमिक विकास हुआ है चीज़ों का...
सिगरेट >> शराब >> सेल्फ पिटी >> तन्हाईयाँ >> आत्महत्या की चाह >> जीना और बस जीना
..अब तो बस...
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.
कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
'जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.'
...तब जबकि ये दुनियाँ मेरे होने पर ही है. कम से कम मुझ इंडीविज़ुअल के लिए तो तब तक ही है. में आपके बारे में निश्चित नहीं हूँ."