एक और साल रो-गा के कट गया। और ठिठुरे सूरज को पीछे धकिया के नया साल सिर पर चढ़ आया। एक सक्षम कवि वक्त की हर हलचल को किसी कुम्हार के सलीके और मछुआरे के धैर्य से अपनी कविता मे दर्ज करता है। खैर अपनी आदत के विपरीत ज्यादा वक्त न लेते हुए आपको कुछ कविताई पन्नो की दावत देता हूँ। सो आइये नये साल के मौके पर हम देखते हैं कि कुछ विख्यात कवियों ने कैलेंडर के अपनी केंचुली बदलने की सालाना फ़ितरत को किस नजरिये से देखा। इस सिलसिले मे सबसे पहले पेश है विख्यात स्पानी कवि ऑक्टावियो पाज़ की एक कविता। ऑक्टावियो पाज़ मेक्सिको के प्रतिनिधि कवियों मे रहे हैं। उन्हे 1990 मे नोबेल से नवाजा गया था। इनकी कविताएं अन्तरावलोकन की भीतरी जमीन पर पनपती हैं और धीमे-धीमे अपने निहित अर्थों की गाँठें खोलती हैं। प्रस्तुत कविता भी बार-बार पढ़े जाने के बाद फिर किसी पेंडुलम की तरह आपके अंतस् मे लयबद्ध आंदोलन करती है। हिंदी-अनुवाद प्रसिद्ध कवि, कथाकार और कला समीक्षक श्री प्रयाग शुक्ल का है।
पहली जनवरी: ऑक्टावियो पाज़
द्वार खुल पड़ते हैं वर्ष के
जैसे कि भाषा के,
अज्ञात मार्गों मे:
कहा तुमने गत रात्रि:
कल
सोचने पड़ेंगे हमें दिशा-चिह्न,
बनाना होगा एक दृश्यालेख
पन्नों पर दिन और कागज के
निर्मित करनी होंगी योजना।
कल, खोजना पड़ेगा हमें
फिर से
यथार्थ संसार का।
खोली आँखें देर से मैने
एक लघु मुहूर्त को
अनुभव किया मैने
जो अजतेक* करते थे
जल से निकली मुख्यभूमि
पर लेटे,
करते प्रतीक्षा-
निकले न निकले
सूर्य - समय का,
क्षितिज की दरारों से।
किंतु, नही, आया है लौट वर्ष।
भर दिये हैं इसने सारे कमरे,
नजर ने इसे मेरी छू लिया लगभग।
समय ने, बिना किसी मदद के हमारी,
कल जैसे, रख दिये फिर से,
घर खाली सड़कों पर,
रख दी घरों पर बर्फ,
चुप्पी उस बर्फ पर।
थीं तुम बगल मे मेरी,
अब तक सोयी पड़ी,
दिन ने तुम्हे लिया ढूँढ़
अब तक अनजान
पर इससे तुम,
कर लिया आविष्कृत
दिन ने तुमको।
-न ही यह ज्ञात तुम्हे मै भी
पकड़ मे हूँ दिन की।
थीं तुम किसी अन्य ही दिन मे।
थीं तुम बगल मे मेरी,
बर्फ की तरह, लिया देख
मैने तुम्हे
सोयी पड़ी बीच आभासों के।
समय बिना मदद के हमारी,
है खोजता घर, पेड़, गलियाँ
स्त्रियाँ सोयी हुई।
खोलोगी जब अपनी आँखें तुम,
टहलेंगे फिर से हम एक बार
प्रहरों के बीच और उनकी
प्राप्तियों में,
बीच आभासों के डोलते,
देंगे गवाही हम समय की.
उसकी क्रियाओं की।
खोलेंगे दरवाजे दिन के हम,
करेंगे प्रवेश
अज्ञात मे।
(अज़तेक: एक मेक्सिकोवासी जातीय समुदाय जिनका अस्तित्व सोलहवीं शताब्दी का था। वे सूर्य के आराधक थे।)
(चित्र: ऑक्टावियो पाज़;
पेंटिंग: ख्यात मेक्सिकन पेंटर डिएगो रिवेरा की ’फ़्लावर वेंडर’
चित्र आभार-गूगल)
पेंटिंग: ख्यात मेक्सिकन पेंटर डिएगो रिवेरा की ’फ़्लावर वेंडर’
चित्र आभार-गूगल)
पता नहीं intellectuals टाइप कविताएँ जरा कम समझ आती है..मतलब समझने की कोशिश की पर कविता सच में किसी पेंडुलम की तरह घूमती रही.
ReplyDeleteद्वार खुल पड़ते हैं वर्ष के
जैसे कि भाषा के,
अज्ञात मार्गों मे:Paz's has called writers the "guardians of language."
यह पंक्तियां अच्छी लगी
किंतु, नही, आया है लौट वर्ष।
भर दिये हैं इसने सारे कमरे,
नजर ने इसे मेरी छू लिया लगभग।
समय ने, बिना किसी मदद के हमारी,
कल जैसे, रख दिये फिर से,
घर खाली सड़कों पर,
रख दी घरों पर बर्फ,
चुप्पी उस बर्फ पर।
बाकि कविता तो बढ़िया अभिव्यक्ति बधाई ही है :(