कला क्या है? क्या यह सबके लिए साध्य है? कलाकार कितने सच्चे होते हैं? कितने ही बने हुए। रचनाओं में कितना यथार्य होता है और कितनी कल्पना? कल्पना और भोगा हुआ सच मिला देने पर जो रचना तैयार होती है क्या वह संगी साथी के साथ न्याय कर पाती है? क्या लेखक एक घाघ होता है? एक ही जीवन में कोई कितना बदल सकता है? आज़ादी की लड़ाई के खातिर जेल जाने वाला आदमी आगे चलकर अपने हर काम की कीमत कैसे वसूलने लगता है? संयम क्या है? रचना में निष्पक्ष रहना, अभिव्यक्ति को बचा ले जाना। लेखक क्या पाठकों द्वारा अपनी आत्मकथा के माध्यम से खुद को बहुत ही दुखी जताकर सहानूभूति लेना चाहता है। क्या लेखक का श्रम आत्मकथा के बहाने सिम्पैथी बटोरने के कार्य में निवेश करना है? क्या लेखक लिख कर बदला लेता है ? क्या लेखक के लिए लिखना एक प्रतिशोधात्मक कार्य है, क्योंकि वो यहीं घालमेल कर अपने लोगों से बदला ले सकता है। जो समाज के नज़रों में प्रतिष्ठित है, कैसे वह अपने लोगों के नज़रों में गुनहगार है।
उपरोक्त सवालों से कल शाम गुज़रना हुआ आत्मकथा नाटक के माध्यम से। यह मेरे अब तक के देखे गए नाटक में सबसे महीन, सबसे उम्दा नाटक था। एहसास के धरातल पर संबंधों की गहन पड़ताल करने के साथ साथ लेखकीय कर्म और उपन्यास में समाहित तत्वों पर जिरह करती हुई इस नाटक को लिखा है महेश एलकुंचवार ने। महेश का लिखा यह नाटक कई बातों के लिए सोचने पर मजबूर कर देता है। बुनावट बहुत बारीक है। इंडिया हैबीटैट सेंटर के आधुनिक मंच पर इसे देखना और भी शानदार अनुभव रहा। कुछ नाटक ऐसे होते हैं जहां सिनेमा बैकफुट पर चला जाता है। पूरे नाटक में अभिनय, संवाद, लाइटिंग की टाइमिंग कमाल की रही। रिसर्चर प्रदान्या के मुख पर शिक्षा के लोकतांत्रिक प्रभाव से आए आत्मविश्वास का तेज़ देखने लायक है। वहीं लेखक की पत्नी उत्तरा और उत्तरा की बहन वासंती के संवाद से नारी मन का गहन विषलेषण करती है।
नाटक का प्रभाव इस कदर तारी रहा कि लगा कला प्रश्न भी करती है, उत्तर भी देती है और संवाद भी करती चलती है। इसका इतना तो प्रभुत्व होता ही है कि मालिकाना हक के साथ कुछ बातें निष्कर्षतः बताकर जिज्ञासा शांत करती है। कुछ आपके दिमाग में खाौलने के लिए छोड़ जाती है जो नींद में खलल का बायस बनता है और रात करवट काटते बीतती है।
कहानी यहां है। लेखक राजध्यक्ष और उत्तरा पति पत्नी हैं। लेखक को एस्ट्रोनोमी में भी खासी दिलचस्पी है। नाटक के अंत में लेखक रिसर्चर को आसमान के तारे दिखाता हुआ बताता है कि वो देवयानी तारा मंडल देख रही हो, वो हमसे इतना दूर है कि उसका प्रकाश हम तक आने में बीस लाख वर्ष लग जाते हैं। आज वो तारा अपनी उम्र पूरी कर चुका होगा और उसका प्रकाश हम तक आ रहा है जिससे हमें यह भ्रम होता है कि वो देवयानी तारा आज भी हमारे बीच है। साथ रहने वाले दो लोगों के बीच भी कई बार ऐसी ही दूरी आ जाती है कि उसका प्रकाश तो हम तक आता रहता है लेकिन वो हमारे बीच नहीं रहता। जीवन के हर क्षण को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, तोड़ने की नहीं।
किसी की यादें किस तरह आपको खाती हैं इस सीन को बेहद प्रभावी ढंग से एक सीन में दिखलाया गया है जब मंच पर अंधेरा होता है, एक कोने की मद्धम पीली रोशनी का प्रकाश सिर्फ लेखक के चेहरे पर पड़ रहा है। वह कोई हरकत नहीं कर रहा और उत्तरा और वासंती उनके उपन्यास की पात्र उर्मिला और वसुधा बनकर उसके चारों और घूमते हुए अपने किरदार की छटपटाहट बयान करती है।
यहां एक उत्तरा मारक संवाद कहती है कि हम झूठे लोग अपनी जिंदगी में सच्चे हैं मगर जिस उपन्यास को मानकर पाठक उस किरदार को सच्चा समझ रहा है दरअसल वही झूठा है।
इस पूरे सीन में लाइट के ज़रिए उत्तरा और वासंती पर शरीर पर पीली धारियां रेंगती दिखाई जाती है जिसका संवादों के बीच पड़ता प्रभाव दर्शकों के मन पर रेंग जाता है।
घटनाओं के कई वर्जन होते हैं। उन्हें भी दिखाया गया है। जब लेखक की पत्नी उत्तरा को वासंती के ज़रिए उसके और लेखक के बीच प्रेम संबंधों का पता चलता है तो.....
उत्तरा: वासंती, तुम घर छोड़ कर चली जाओ
वासंती: नहीं दीदी, मैं आपको छोड़ कर नहीं जाऊंगी
उत्तरा (दुगने तीव्रता से): वासंती,घर छोड़ कर जाओ
वासंती: नहीं दीदी
(वासंती के स्वर में याचना और अपने किए पर पछतावा है)
उत्तरा (चीखते हुए): घर छोड़ कर चली जाओ
यह कहते हुए उत्तरा माचिस की तीली सुलगाती है और उसे वासंती के चेहरे के समीप ले आती है।
वासंती उत्तरा के क्रोध के डर से कांपने लगती है। उसके हथेलियों की उंगलियां आपस में गुंथ जाती हैं, आंखें फट कर चौड़ी हो जाती है और माचिस की लौ में परिणाम का डर वासंती की आंखों में दिखता है।
वासंती: मैं चली जाती हूं।
तो इस तरह आत्मकथा पर यह एक त्वरित प्रतिक्रिया है। यहां यह स्वीकारोक्ति भी है कि कला और संबंधों की पड़ताल में डाकिया का अंतिम पंक्ति लिखे जाने तक का अतिसीमित ज्ञान।
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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.