Monday, September 9, 2013

राख से कांच मैला नहीं होता


नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं. वह जीने की सक्रिय कला है. हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें.... हक़ीक़त ही तो नाटक है.....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
  -----चीड़ों पर चांदनी, निर्मल वर्मा (ब्रेख्त के बारे में)

देह कितनी भाषाएं जानती है? इतनी उसकी भंगिमाएं होती हैं जो हम जानते भी नहीं। और कई बार जब लगता है कि अब इससे जुड़ी सारी बातें जान चुके हैं तभी किसी माध्यम में उससे संबंधित एक नया प्रयोग देखते हैं। देखकर हैरान हो जाते हैं और यह चमत्कार सा लगने लगता है।

शनिवार शाम एसआरसी में देह की इसी एक अनोखी भाषा से साक्षात्कार हुआ। नाटक - एन इवनिंग विद लाल देद के माध्यम से। कश्मीरी, हिन्दी, अंग्रेजी की मिली जुले संवाद में यह मीता वशिष्ठ द्वारा एक घंटे का बिना अंतराल सोलो प्रदर्शन था।

चौदहवीं सदी में कश्मीर में एक रहस्यमयी और चमत्कारी लड़की लल्लेश्वरी का प्रादुर्भाव हुआ। कहा जाता कि वह पानी पर चलती है और उसके पैर नहीं भींगते। तेरह बरस में विवाह हुआ।  उसने अपने आध्यात्मिक और गृहस्थ जीवन में भी सामंजस्य बिठाने का भरसक प्रयास किया, मगर असफल रही। उसकी भाषा कविता शिल्प में होती थी।

मीता ने तत्कालीन कश्मीरी पहनावे, शारीरिक भाषा और स्टेज पर प्रकाश के अंधेरे उजाले के मिश्रण से लल्लेश्वरी का अद्भुत दृश्य उकेरा।

परदा उठते ही एक बारीक सी प्रकाश रेखा मंच की सतह से लगभग चार इंच ऊपर पड़ती है। अंधेरे हाॅल में सिर्फ दो आंखे अब-डब करती काश्मीरी बोलती दिखाई जाती है। और जब रोशनी पूरी फैलती है तो अभिनेत्री सर के बल उल्टा लेटी हुई दिखाई देती है।

शुरू के पांच सात मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता। लेकिन धीरे धीरे लगता है जैसे हमसे कोई कुछ खास बातें कहना चाह रहा है। हमारा दिल उससे कनेक्ट होता है और फिर नेटवर्क कट जाता है। हम या तो जुड़ने को फिर से तड़पते हैं या तुड़ने को।

दिन आया, सूरज आया
सूरज गया, चांद रहा
कुछ न रहा तो कुछ न रहा
मगर चित्त न रहा तो रहा क्या



मैं नाची र्निवसना.....
एक जगह जब ऐसा कहा जाता है तो अभिनेत्री अपने माथे पर का फेरन उतार फेंकती है, अपने बाल खोल बिखरा कर झूमकर नाचती है। मुझे लगा कि शायद कला के इस डूबे पल में अगर र्निवस्त्र भी हो जाया जाए तो कथन जस्टिफाई हो जाएगा।



बाद के दिनों में कहते हैं लल्लेश्वरी ने कपड़े पहनने छोड़ दिए। उसकी पहचान का एक एक कपड़ा व्यापारी ने जब उसे एक दिन ऐसे देखा तो उसे एक वस्त्र दिया। लल्लेश्वरी ने उस कपड़े तो बीचोंबीच दो टुकड़े में फाड़ एक दाहिने कंधे और एक बायीं कंधे पर लिया। रास्ते में जो उसे श्रद्धा से देखते या उसके इस रूप को बुरा नहीं मानते तो दायें कंधे पर के कपड़े पर वह एक गांठ बना लेती और जो उसे गालियां देते, बुरी नज़र से देखते तो बायीं कंधे पर के कपड़े पर एक गांठ लगा देती। शाम को उसी कपड़े के व्यवसायी के पास वो दोनों कपड़े का वज़न करवाती है। संयोग से दोनों गांठों का वज़न बराबर निकलता है।

नाटक खत्म होते होते लगा जैसे किसी चीज़ के प्रति सम्मोहित हो रहा हूं, वो कुछ है, पर पता नहीं क्या है।
हाॅल में कम दर्शक थे। मेरे कुछ सवाल थे जो मीता से पूछने थे मगर कृतज्ञता ज्ञापन के बाद वो मंच पर नहीं रूकी और फिर उसके बाद सामने भी नहीं आईं।

शाम ढ़ले जब कमरे पर लौट रहा था तो एक उदासी ने घेर लिया और देर रात तक बुरी तरह उदास रहा।

2 comments:

  1. मैंने लल्ला पर लिखा है.

    वो शिव-भक्त थी. हाँ, वो कश्मीर की वादियों में निर्वस्त्र दौडती थी.
    लल्लेश्वरी के पद गाये जाते हैं. खोजिए, सुनिए, गुनगुनाइए और डूबिये.

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    Replies
    1. देहावसान के बाद हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदाय में अपने अपने तरीके से उसका अंतिम संस्कार करने को लेकर झड़प हुई.

      और कमाल देखिये ही अपने जीवन के पचास बरस उसने इनके बीच दोस्ती कयाम करने की कोशिश की.

      कहते हैं, इसके बाद उसका शरीर एक रौशनी में विलीन हो गया था.

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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