Monday, May 20, 2013

Cut...Cut...Cut


खराब काम अच्छे से करना। कट.... कट... कट... का टास्क यही था। मतलब काम इतने खराब तरीके से करो कि डायरेक्टर को हर वाक्य पर कट... कट.... कट.... बोलना पड़े। किरदार की गलतियों से हास्य उभरे और डायरेक्टर की परेशानी दिखे। हम कबाड़ी स्क्रिप्ट राइटर हैं। दो टके के आदमी। लेकिन जब जीवन और करियर ही दांव पर लगा है तो अपनी बेतरतीबी में बेहतरीन हैं। कुछ कुछ जावेद अख्तर के लिखे उस गीत जैसा - हम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जानी, उल्टी सीधी जैसी भी है अपनी यही कहानी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।

कट...कट...कट.... कल एसआरसी में इसी थीम को लेकर खेला गया। पाईरोट्स ट्रूपर्स की लगातार यह दूसरी प्रस्तुति थी सो जो ज्यादातर किरदार जो ग़ालिब इन न्यू डेल्ही में थे वही इसमें भी थे। मगर सीन जुदा, कथन जुदा और अलहदा प्रस्तुति के साथ। एम सईद आलम को छोड़कर जो ग़ालिब बने थे (वे कल टिकट खिड़की पर टिकट काट रहे थे, शायद परसों वाले प्ले के हाऊसफुल जाने से उत्साहित हो गए हों)

हास्य नाटक को साधना बहुत कठिन है। इसके लिए जुमले शानदार होने चाहिए। उनमें नवीनता और ह्यूमर होनी चाहिए। पाईरोट्स के पास अंजू और हरीश छाबड़ा जैसे अच्छे कलाकार हैं। उनके बीच का तालमेल भी बेजोड़ है। भाषा पर भी अच्छी पकड़ है।

नाटक के दो सीन ने खास तौर से प्रभावित किया। दरअसल यह प्रोगात्मक थे। एक सीन पूरा म्यूट एक्सप्रेशन में निकाला गया। और सबसे ज्यादा सुंदर प्रयोग था जब स्टेज को ही कहानी का स्टेज बनाकर नाटक पेश किया जा रहा होता है। मतलब नाटक के अंदर एक नाटक स्टेज पर खेला जा रहा है। और इसके लिए पूरे स्टेज में आधे पर रोशनी की जाती है और एक चौथाई हिस्से को ड्रेसिंग रूम बनाया जाता है। ड्रेसिंग रूम में हल्का अंधेरा है और वहां जो कुछ घट रहा है वह मुख्य मंच पर हो रही घटनाओं पर दहला बैठता है। वहां किरदार अपने नाटक का पार्ट खेलने के लिए तैयार होते, गलतियां करते दिखते हैं और यह भी मुख्य नाटक का ही एक अहम हिस्सा है।

एक संयोग ऐसा पैदा किया गया है कि स्टेज पर जब उनका अपना खेला जा रहा नाटक खत्म होता है तभी मुख्य प्ले की भी समाप्ति होती है। और इसे करने में सारे किरदार अपने नाटक की घटिया प्रस्तुति को शानदार मानकर निर्देशक और लेखक (एम् सईद आलम) को सामने न लाकर खुद ही बारी बारी से अपना परिचय देते चलते हैं। यह प्रयोग भी अच्छा है।

कल के नाटक के दर्शक भी अच्छे थे। वरना तो दुनिया के सारे प्रोजेक्टस् वो थियेटर रूम में फोन पर ही निपटाने का इरादा रखते हैं। ना मीडियम समझते हैं न उनसे मुताल्लिक कोई नोलेज रखते हैं (संदर्भ - ग़ालिब इन न्यू डेल्ही)। कई तो बस इसलिए चले आते हैं कि संडे का दिन है, एम बी ए किया हुआ लड़का है, गर्लफ्रेंड के साथ कोपरनिकस मार्ग से गुज़रना हुआ तो टाइम काटने के लिए थियेटर का टिकट ले लिया और प्ले के दौरान किरदारों के संवाद को रिपीट करना और समझ न आए तो फोन पर बात करना या गर्लफ्रेंड से ही बातें शुरू कर देते हैं।

इस तरह शुरूआती ढ़ीली पकड़ के बाद प्ले ने रफ्तार और लय दोनों पकड़ी और अंत तक आते आते यह छा गया।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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