बीती शनिवार इंडिया हेबिटेट सेंटर में सक्षम थियेटर द्वारा ‘साहेब, बीवी और मंटो' खेली गई। इसके तहत मंटो के आओ सिरीज़ में से छह का मंचन किया गया जिसमें आओ ताश खेलें, आओ झूठ बोलें, आओ बहस करें, आओ अखबार पढ़े और आओ चोरी करें शामिल था। मैं थोड़े देर से पहुंचा, नाटक खुले आसमान के नीचे खेला जा रहा था। भीषण गर्मी में जहां लोग नाटक का पम्फलेट लेकर ही उसे पंखा बनाए देख रहे थे वहीं उसकी रिकाॅडिंग कर रही दूरदर्शन का कैमरा भी लगा हुआ था। लगी हुई लाईट्स के कारण सभी के ओठों के ऊपर माथे के किनारे और बाहों पर नन्हीं नन्हीं पसीने की बूंदें हर कुछ देर पर उभर आती थीं।
कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि लगता मंटो भी यहीं कहीं आसपास ही है। उसके नाटक के किरदार बहुत बोलते हैं। नाटक देखते देखते सोचने लगा क्या उसने अपने समय में सोचा होगा कि यहां दिल्ली में ही औसतन हर तीसरे दिन उसका कोई न कोई नाटक खेला जाता है। मंटो ने ये नाटक तब लिखे थे जब आकाशवाणी सिविल लाइन्स में हुआ करती थी। एक ड्रामा उसने अपने आर्टिस्टों के नज़्र की थी। नाटक लिख लिए जाने के बाद उसे कोई कोई अच्छा या बुरा कहने वाला नहीं था सो वह खुद ही नाटक सुनकर उसके गुण और दोष समझा करता था। अपनी फेमस कहानी हतक को उसने उसने शानदार रेडियो नाटक में ढ़ाला है।
कभी कभी लगता है कुछ खास नहीं चाहिए लिखने के लिए। खासकर एक बड़े वर्ग यानि आम जनता का हाले दिल लिखने के लिए जिसमें बस संवदेना भरी हो, जो लोगों के जज्बातों पर दिल का कान लगा कर सुनता है वह राइटर हो सकता है। मगर ऐसा होना ही कठिन है। जो नाटक शनिवार को खेले गए वे मजाहिया नाटक थे, उनमें जुमलों, तुनकमिज़ाजी और टाइमिंग का खेल था, मगर मंटो ने आओ सीरिज़ के बाहर नाटक लिखे हैं वे खासा बेचैनी से भरे हुए हैं। उनको अगर पढ़ें तो वह लगता है जैसे उसने स्टूडियो वालों को नाटक का बनी बनाई शूटिंग स्क्रिप्ट पकड़ा दी हो। अमूमन जब तक नाटक खेले या अभिनीत नहीं किए जाते उसके दमदार होने का पता नहीं चलता। हालांकि कुछ अपवाद हैं जिनमें मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन, तुगलक़ आदि हैं। लेकिन मंटो के नाटक को अगर सिर्फ पढ़ें तो वह साऊंड रिकाॅर्डिस्ट को अच्छे कमांड देता हुआ चलता है जिससे हम पढ़ते वक्त ही घटित होता हुआ सुन पाते हैं। बहरहाल....
किशोर, लाजवंती, नारायण और चोर बने नाटक के निर्देशक सुनील रावत ने अच्छा अभिनय किया। चोर बहुत कोमल हृदय का था मगर उसकी नफीस उर्दू वाले संवाद और उसे डिलीवर करना खासा मेहनत का काम है।
लगे हाथों वहीं दूसरे हाॅल में तारब खान की पेंटिग प्रदर्शनी भी देख आया जो समझ में तो सारी आ गई मगर कुछ प्रभावित नहीं कर सकी। बिना खरीदे पेंटिंग देख कर वहां से खाली हाथ निकलना भी बुरा लगता है। कोई भी पेंटिंग बीस हज़ार से कम की नहीं थी, एक जो थोड़ी सी ठीक लगी अस्सी हज़ार की थी।
कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि लगता मंटो भी यहीं कहीं आसपास ही है। उसके नाटक के किरदार बहुत बोलते हैं। नाटक देखते देखते सोचने लगा क्या उसने अपने समय में सोचा होगा कि यहां दिल्ली में ही औसतन हर तीसरे दिन उसका कोई न कोई नाटक खेला जाता है। मंटो ने ये नाटक तब लिखे थे जब आकाशवाणी सिविल लाइन्स में हुआ करती थी। एक ड्रामा उसने अपने आर्टिस्टों के नज़्र की थी। नाटक लिख लिए जाने के बाद उसे कोई कोई अच्छा या बुरा कहने वाला नहीं था सो वह खुद ही नाटक सुनकर उसके गुण और दोष समझा करता था। अपनी फेमस कहानी हतक को उसने उसने शानदार रेडियो नाटक में ढ़ाला है।
कभी कभी लगता है कुछ खास नहीं चाहिए लिखने के लिए। खासकर एक बड़े वर्ग यानि आम जनता का हाले दिल लिखने के लिए जिसमें बस संवदेना भरी हो, जो लोगों के जज्बातों पर दिल का कान लगा कर सुनता है वह राइटर हो सकता है। मगर ऐसा होना ही कठिन है। जो नाटक शनिवार को खेले गए वे मजाहिया नाटक थे, उनमें जुमलों, तुनकमिज़ाजी और टाइमिंग का खेल था, मगर मंटो ने आओ सीरिज़ के बाहर नाटक लिखे हैं वे खासा बेचैनी से भरे हुए हैं। उनको अगर पढ़ें तो वह लगता है जैसे उसने स्टूडियो वालों को नाटक का बनी बनाई शूटिंग स्क्रिप्ट पकड़ा दी हो। अमूमन जब तक नाटक खेले या अभिनीत नहीं किए जाते उसके दमदार होने का पता नहीं चलता। हालांकि कुछ अपवाद हैं जिनमें मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन, तुगलक़ आदि हैं। लेकिन मंटो के नाटक को अगर सिर्फ पढ़ें तो वह साऊंड रिकाॅर्डिस्ट को अच्छे कमांड देता हुआ चलता है जिससे हम पढ़ते वक्त ही घटित होता हुआ सुन पाते हैं। बहरहाल....
किशोर, लाजवंती, नारायण और चोर बने नाटक के निर्देशक सुनील रावत ने अच्छा अभिनय किया। चोर बहुत कोमल हृदय का था मगर उसकी नफीस उर्दू वाले संवाद और उसे डिलीवर करना खासा मेहनत का काम है।
लगे हाथों वहीं दूसरे हाॅल में तारब खान की पेंटिग प्रदर्शनी भी देख आया जो समझ में तो सारी आ गई मगर कुछ प्रभावित नहीं कर सकी। बिना खरीदे पेंटिंग देख कर वहां से खाली हाथ निकलना भी बुरा लगता है। कोई भी पेंटिंग बीस हज़ार से कम की नहीं थी, एक जो थोड़ी सी ठीक लगी अस्सी हज़ार की थी।
लाजवाब | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page