Sunday, May 19, 2013

ग़ालिब नई दिल्ली में!

क्या हो जब मिर्ज़ा असदुल्ला खां ‘ग़ालिब’ पुर्नजन्म लेकर अपना महबूब शहर दिल्ली आएं! क्या हो कि जब वह अपनी खास वेशभूषा में मोरी गेट पर अपना माल असबाब लेकर खड़े हों और बस कंडक्टरों को भोगल, आश्रम, निज़ामुद्दीन, बोर्डर चिल्लाता देखें। कैसे लगे उन्हें जब यह पता चले कि अब बल्लीमारान में बस तो क्या एक पूरा आदमी तक नहीं जा सकता। वो ग़ालिब जो एक एक हर्फ के उच्चारण पर किसी से समझौता नहीं करता, बात नहीं करता वो तू, तड़ाक, रे, बे, ले के शहर में आ जाए। वो ग़ालिब जो कई रिक्शा इसलिए छोड़ दे कि चालक उसे सवारी जगह सवार मानने से इंकार कर दे।

लेखक और निर्देशक एम. सईद आलम ने चचा से कुछ ऐसी ही छूट लेते हुए एक काॅमेडी नाटक ग़ालिब इन न्यू डेल्ही का मंचन कल शाम एसआरसी में किया। हमने जब भी ग़ालिब का तसव्वुर किया है जाने अनजाने नसीरूद्दीन शाह का चलना फिरना, उठना, देखना हमारे मन में बसा है। सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं। यह बात उन्होंने ग़ालिब का किरदार निभाकर भी साबित किया। पहले इस किरदार को कई बार टाॅम अल्टर ने निभाया है।

ग़ालिब चलते हैं तो लगता है मुहल्ले की कोई भन्नाई, मिनमिनाई खाला चल रही हो, कि बदन में ऊर्जा तो बहुत भरी हो मगर करने को कोई काम न हो। जैसे जूट के दड़बे में कोई बिल्ली घुस आई हो। बहुत ज्यादा दिमागी और विटी होना भी आम और दकियानूस समाज में सर्वाइवल के लिए खासा मुश्किल पैदा करता है। ग़ालिब यही लगे, रचनात्मकता और तरल बुद्धि के उदाहरण। उच्चारित किया गया हरेक अल्फाज़ का स्पष्ट और बेदाग उच्चारण।

कहानी कुछ इस तरह रही कि जब ग़ालिब अपनी हवेली जाने को नई दिल्ली आते हैं तो पाते हैं यहां सब कुछ बदल चुका है। हर राज्य के लोग यहां आकर रोज़गार कर रहे हैं। किरायों का बोलबाला है। उन्हें एक रूममेट के साथ रूम शेयर करना पड़ता है। पिछले जन्म में वाजिब वजीफा न मिलने का दर्द इस जन्म में भी चला आया है। वो अपनी दीवान को सही इज्जत दिलवाने के लिए लड़ रहे हैं। लोग इसके लिए उनको आज के ज़माने की तरकीबें अपना कर पब्लिसिटी स्टंट करने की सलाह देते हैं।

और इसी क्रम में उजागर होती है आज के असली दिल्ली की हकीकत। लोगों का स्वार्थ, कमीनगिरी, लोगों का उल-जुलूल व्यवहार।

अन्य मुख्य किरदारों ने भी बहुत सही अभिनय किया। रूममेट और पंजाबी आॅटो रिक्शा ड्राईवर बने हरीश छाबड़ा ने अपनी मौलिक अभिनय से दिल जीत लिया। मिसेज चड्ढ़ा बनी अंजू छाबड़ा भी शानदार रही।

लेकिन जो कमाल रहे वो ग़ालिब थे। किरदार को जैसे घोल कर पी गए थे। छोटे छोटे कदमों में बुढ़ापे की थरथराहट में हिलते कांपते स्टेज नापते ग़ालिब। शानदार जुमले उछालते ग़ालिब, लोगों के दुख से सहानुभूति रखते ग़ालिब और तमीज़ से मज़ाक उड़ाते ग़ालिब।

पाईरोट्स ट्रूपस् द्वारा मंचित यह नाटक बहुत सफल रहा। फिर भी इस बेहतरीन नाटक में जो कहीं कहीं सीन में कुछ लम्हे की कमजोरी आई उसमें गालिब का विज्ञापन ऐजेंसी जाना, कुछऐक जगह संवाद में सैफ और करीना के उदाहरण को पेश करना रहा। ये इसके कसावट को कमज़ोर करते हैं। एक स्तरीय नाटक में इन मसाले उदाहरणों से बचा जाना चाहिए।

नाटक का सबसे पहले सीन में पानवाले ने अपने बेजोड़ अदायगी से पूरे क्रम को बांधने की शुरूआत कर दी थी।
स्टेज संवाद और अभिनय का खेल होता है। यहां चुप्पी भी संवाद का हिस्सा होती है। इस पर शरीर की उपस्थिति और लाईट्स भी बोलते हैं। यहां पाॅज का भी महत्व होता है, गौर से देखा जाए तो भवहें उठाने का भी। अभिनय और खासकर हास्य नाटक टाईमिंग और मौलिक एक्सप्रेशन का खेल होता है। दो शब्दों के बीच प्र्याप्त विराम से भी हास्य उपजता है। किरदार और संवाद लेखक ज़हीन हो तो स्तरीय शब्दों के चयन से भी हास्य निकल आता है। ग़ालिब और उनके रूममेट ने ये बखूबी किया है तभी इस हाऊसफुल शो में उनके लिए दर्शकों में कई मिनट कर खड़े होकर तालियां बजाईं। दर्शकों की उन तालियों में शानदार और जीवंत अभिनय के सम्मान में ईमानदारी की खनखनाहट थी।

2 comments:

जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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