धीमे ज़हर के बारे में तो हम सब जानते हैं और बात करते हैं। पर शायद धीमा अमृत समझना मुश्किल हो।
सामान्य गाने अगर अच्छे लगते हैं तो सौ बार सुने जाते हैं। लेकिन ऐ आर रहमान के गाने अगर सौ बार सुने जाएं तो अच्छे लगने शुरू होते हैं। और फिर कई सौ बार और सुने जाते हैं। इसलिए इनकी ज़िन्दगी ज्यादा लम्बी होती है।
लेकिन सवाल ये है कि ये सौ बार सुने ही क्यूँ जाते हैं? क्यूँ नहीं ये बाकी बकवास गानों की तरह एक या दो बार में ही नकार दिए जाते हैं?
इसका लोजिकल रीज़न ये दिया जा सकता है क्यूँकि उनके साथ रहमान का नाम जुड़ा है। पर ये उत्तर संतुष्ट नहीं करता क्यूंकि जब नाम नहीं था तब भी ऐसा ही था। रोज़ा और रंगीला के दिनों से।
बात लोज़िंक्स से समझी ही नहीं जा सकती। बात कुछ और है।
रहमान को पहली बार सुनकर भी लगता है कि इसमें ऐसा कुछ तो है जो छुपा हुआ है। और वो क्या है इसकी खोज करते करते हमें वो प्यारे लगने लग जाते हैं। जैसा कि स्त्रियों को जानने का प्रयास करने वाला हर पुरुष अंत में इसी निष्कर्ष पे पहुंचता है कि स्त्रियों को समझा नहीं जाना चाहिए उनसे प्रेम किया जाना चाहिए।
सेम गोज विद रहमान'स कम्पोज़ीशन।
मैंने रहमान और उसके म्युज़िक को जानने का प्रयास किया है। पर मेरा रास्ता दूसरा रहा है। कारण दो हैं, अव्वल तो मेरे पास औज़ार नहीं हैं कि मैं उनके गानों की चीर फाड़ कर सकूँ। औज़ार इन द सेंस, राग, सुर, ताल आदि की परख।
और दूसरा कारण कि मैंने उन्हें दिमाग से समझने की कोशिश भी नहीं की। (ये शायद पहले कारण का ही एक्सटेंशन है।) उन्हें और उनके गानों को समझने के लिए समझ का इस्तेमाल नहीं किया।
खैर ये दूसरा मुद्दा है...
तुम तक को कोई अंक नहीं दे पाऊंगा और न इसका अनबायस्ड विश्लेषण कर पाऊंगा। क्यूंकि ये गाना पूरी एल्बम में मेरा प्रिय गाना है। वो भी किसी टेक्निकल वजह से नहीं, कुछ निजी जुड़ाव सा लगता है। और मेरी कोंशियस अलाऊ नहीं करती की मैं बायस्ड होकर इसका रिव्यू लिखूं।
एक डेढ़ महीने पहले जब आशिकी-२ के गाने काफी बार सुन चुका तो नए गानों वाले खाने में एक गैप सा बन गया था बस उस गैप को भरने के लिए इस गाने को सुना था। तब से लगातार सुन रहा हूँ, सोचा था कि रिव्यू लिखूंगा। पर प्रेम ही कर बैठा।
"नैनों के घाट ले जा नैनो की नैया,
पतवार तू है मेरी तू ही खेवियाँ।
जाना है पार तेरे तू ही भंवर है,
पहुंचेगी पार कैसे नाज़ुक सी नैया?"
इससे पहले 'नादान परिंदे' का हैंगोवर था, अब 'तुम तक' का है।
रहमान के बारे में भी वही बात कही जा सकती है जो शराबी, शराब के बारे में कहते हैं। अगर एल्कोहोल के हेंगोवर से बचना है तो टल्ली रहो। अगर रहमान के हेंगोवर से बचना है तो उसका कोई नए गाने के रिलीज़ होने का इंतज़ार करो। बाकी सब तो फिल इन दी ब्लैंक्स हैं।
'तुम-तक' को बीट्स/म्युज़िक की तरह भी इस्तेमाल किया गया है (जैसे तुम तक तुम तुम तक तुम तुम तक तुम) और लिरिक्स की तरह भी।
वो गुलज़ार का एक गाना था,"सारे के सारे गामा को लेकर".
गाया ज़ावेद अली, कीर्ति सगाथिया और पूजा ने है।
PS: ऐसा नहीं है कि प्रेम जीवन में एक ही बार होता है, पर ये जरुर है कि ज़्यादा बार प्रेम करने से प्रेम के मायने डायल्यूट हो जाते। यकीनन वो आखिरी होली थी...
...तुम तक !
TBC...
bahut badhiya likh rahe hain saahab.... maza aa raha hai... format dusra hai par hai darpan ka....
ReplyDeleteये लो मियाँ, तुम कह रहे थे कि कभी जावेद अली को ध्यान से नहीं सुना। देखिये ये उन्ही की आवाज़ में है।
ReplyDeleteगीत-संगीत की समीक्षा के बीच में जो ज़हर बुझे तीर छोड़ते हो उनका क्या कहना ............
स्त्रियों को जानने का प्रयास करने वाला हर पुरुष अंत में इसी निष्कर्ष पे पहुंचता है कि स्त्रियों को समझा नहीं जाना चाहिए उनसे प्रेम किया जाना चाहिए।