डाकिये के ओर से : हम सोचते है कि हम बहुत बड़े देश भक्त हैं, बहुत बड़े प्रेमी हैं, बहुत बड़े पापी हैं, हमने ये किया है, हमने वो किया है। हम ये नहीं कर पाए, हम ऐसे नहीं जी पाये। हमने ऐसे जिया, हमने ये खाया, हमने ये पहना। हम ये भी सोचते हैं, हमें एक दिन मर जाना है। और ये सब सोच चुकने के बाद एक दिन हम कहते हैं, "मेरी आँखें खुल गयी मैंने तो कुछ भी नहीं किया।" पर ये सोचना भी इगो का शुष्मतम रूप ही ठहरा। अंत में पता लगता है, कि किया तो सब कुछ गया है, पर जिसने किया वो मैं नहीं था। मृत्यु तो होगी पर मेरी नहीं। पता लगता है कि जिसे, जिन चीजों को, इस कथित समाज ने इतना ऊँचा दर्जा दिया है, वो भी इगो का ही एक रूप है। वीरता, आज़ादी, देशभक्ति,परोपकार। पता लगता है कि समाज खुद एक इगो है। शुद्ध इगो। प्रक्षेपण। हमारे विचारों का। केवल सोच आपकी दुनिया को बनाती है। और सोच के पार? कुछ नहीं?
ना... ना...
...'कुछ नहीं' भी नहीं।
...'कुछ नहीं' भी नहीं।
पिछले कुछ दिनों में कई मिस्टिक कवियों से दो चार हुआ हूँ, पेसोवा, एड्रिएन सिसिल रिच, रोबेर्टो जुराज़ो, कबीर, फरीद, रूमी।
पर जिसने पढ़ा इनको वो मैं न था।
We create our own reality
प्रॉसपेक्टिव इमिग्रेंट प्लीज़ नोट (प्रस्तावित अप्रवासी कृपया ध्यान दें)
दो ही सम्भावनाएँ हैं
या तो आप इस द्वार से जाओगे, या नहीं जाओगे
इस द्वार से गुजर चुकने के बाद हमेशा ही एक जोखिम बना रहेगा तुम्हारे साथ
अपना नाम याद रखने का जोखिम
हर वस्तु तुम्हें घूरने लगेंगी
और फिर प्रत्युतर में तुम्हें भी उन्हें देखना होगा
उन्हें, उन चीज़ों को, हो जाने देना होगा
और यदि तुम इस द्वार से नही गुज़रते
तुम्हारे लिए एक सम्पूर्ण जीवन जीना सम्भव है
सम्भव है अपनी प्रवृति को बनाये रखना
अपनी प्रतिष्ठा को सम्भाले रखना
वीरता पूर्वक मृत्यु को स्वीकार करना
आदि, आदि
लेकिन बहुत कुछ तुमको अँधा बनाएगा
बहुत कुछ तुमसे बच निकलेगा
किस कीमत पर, कौन जाने ?
ये द्वार अपने आप में कोई वचन नहीं देता,
वस्तुतः , ये मात्र एक द्वार है।
-एड्रिएन सिसिल रिच
___________________________________________________
PS: राँझना का म्युज़िक रिव्यू अगली पोस्ट से ज़ारी
No comments:
Post a Comment
जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.