Saturday, June 15, 2013

लाल क़िले का आखिरी मुशायरा


इज्जत से काम करने जाओ तो नहीं मिलता और गलत रास्ते अख्तियार करो तो बाइज्जत मिलता है। एसआरसी में कल साढ़े सात बजे खेले जाने वाले नाटक का नाम लाल किले का आखिरी मुशायरा था। अब मेरे जैसा आदमी जो न ठीक से हिन्दी सीख सका, न उर्दू का ही विद्यार्थी बन पाया और इस तरह अधकचरा ज्ञान पाया, सो नाम सुनकर ही उत्साहित हो गया। मज़ा तो तब आया जब टॉम अल्टर का नाम देखा। थियेटर में इनका बड़ा नाम है। अदब से टिकट लेने काउंटर पर गया तो जबाव मिला - सॉरी सर। आल टिकेट्स हैव बीन आलरेडी सोल्ड आऊट सर टाईप जैसा कुछ। हरी घास पर मुंह तिकोना हो आया। फिर वही पटना वाले लाइन पर आना पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस तरह के संघर्ष को राष्ट्रीय शब्दावली में जुगाड़ कहते हैं। फिर शुरू हो गई मुहिम गार्ड को पटाने की। कोशिश रंग लाई और जो लाई तो कहां हम ऊपरी माले के बाड़े में प्लास्टिक कुर्सी पर बैठने वाले कौम और कहां एकदम फ्रंट पर तीसरी लाइन में गद्देदार सीट पर उजले साफे में लिपटे रिजव्र्ड पर आसीन हुए। कुछ ही लम्हें बाद लाल मखमली पर्दा जो उठा तो मुखमंडल भी प्रकाशमान हो उठा। देखते क्या हैं कि एक शमां जली हुई है और तीन उजले पर्दे लटके हैं जो नीचे आकर सिमटे हुए हैं। तीन दरबान सावधान विश्राम की मुद्रा में खड़े हैं। ये ऐसे ही डेढ़ घंटे तक रहे। 

मंच पर बारी बारी से कई शायर आते हैं। और फिर इंट्री होती है बहादुर शाह जफर की यानि टॉम अल्टर की। सत्तर साल के बूढ़े जफर को देखते ही अपनी कक्षा नौ की धुंधली सी याद आई जब मास्टर ने सुनाया था -

न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
                               और
न किसी के आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्‍तेग़ुबार हूँ

न जफ़र  किसी का रक़ीब हूँ न जफ़र  किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्‍न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ

तब जफर क्या थे। हिन्दुस्तान का एक बेबस राजा। शायर थे सो शायरी के शौकीन होने के बायस मुशायरा रखते थे। नाटक में दिखाया गया कि आज के मुशायरे का मंच संचालन मिर्जा नौशा यानि ग़ालिब करेंगे और दाग, बालमुकंद, मुंशी, मोमिन और इब्राहिम जौक आदि भी अपनी गज़ल सुनाएंगे। गालिब पर नाटक में समझ में न आने के काबिल शेर कहने का तंज कसा गया। दाग ने गालिब पर ये शेर दागा - 

अपना कहा जो आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा तो तब है जब आप कहें और सब समझे।

चूंकि बादशाह जफर मंच संचालन नहीं कर रहे थे सो शमां अपनी जगह ही रोशन रही और बारी बारी से शायरों के पास नहीं लाई गई। 

जैसा कि उम्मीद थी कि गालिब छा जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने हाजिरजवाबी मंच संचालक की भूमिका निभाई। मसलन जब एक शायर की बारी आती है तो गालिब उसके बारे में कहते हैं - साहब ब्रितानिया सरकार में अफसर हैं। ग्यारह सौ रूपए सालाना की तनख्वाह पाते हैं इतने की ही बाज़ार में मेरे नाम कर्ज हैं। वहां नौकरी और यहां शाइरी। सो साहब जादूबयानी करते हैं। मंच लूटी मोमिन ने।

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले दिन उनको लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

टूटे हाथ से जब मोमिन ये शेर पढ़ते हैं तो और भी शेर और भी मौजू हो उठता है। मोमिन की आवाज़ मधुर और धीमी रखी गई है। वहीं दाग सबसे बुलंद आवाज़ वाले थे। जौक अपने रूतबे के बायस बुलंद रहते थे।

जफर ने जो सुनाया वो तत्कालीन हिन्दुस्तान का हालाते हाज़रा था। उनके बुढ़ापे ने उनकी बादशाहत की बेबसी को और उभारा। 

ऐसा नहीं था कि यह नाटक बहुत रोचक था। बल्कि नाटक अपने कहानी और शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर था। अव्वल जिन्हें उर्दू की थोड़ी भी जानकारी नहीं उनके लिए तो पूर्णतः नीरस था। कई लोग सिर्फ इसलिए बैठे रहे कि शायद सीन बदले और कोई चेंज आए। नाटक में मुशायरे के अलावा और कुछ नहीं था। जबकि होना ये चाहिए था मुशायरे में तब के हालात पर ज्यादा शेर होने चाहिए थे, मुशायरे से कुछ अलग भी होना चाहिए था। नाटक में वैसा कोई तनाव या उत्तेजना भी नहीं थी। बेहद बंधे दायरे में ये नाटक खेला गया। कहने को कहा जा सकता है कि एक रवायत थी जिसे निभाया जा रहा था। लेखक थोड़ी छूट लेते हुए इसे दिलचस्प बना सकता था जिससे नाटक यादगार हो सकती थी। यहां लेखक ये जवाब दे सकता है कि ऐतिहासिक घटनाओं और किरदारों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

पूरे नाटक के दौरान एक बार भी पर्दा नहीं गिरा। एक ही सीन सिक्वेंस डेढ़ घंटे चलना। वहीं चेहरे मंच पर लगातार रहना, थकाता है।

एम सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं जिन्होंने ये नाटक निर्देशित किया। मंच सज्जा अच्छी थी लेकिन लाईटिंग और भी अच्छी लेकिन मेकअप कमाल था। ऐसी कि जिन किरदारों को अन्य नाटक में देखा था उसे अंत तक नहीं पहचान पाया। मसलन ग़ालिब - ये हरीश छाबड़ा थे। 

हां सारे किरदारों के उर्दू उच्चारण दुरूस्त थे। मंच पर जब जफर की इंट्री हुई तो दर्शकों ने नाटक से अलग उनके सम्मान में ताली बजाकर उनका स्वागत किया।

अंत में जफर साहब की बात - शेर वो नहीं जिसे सुनकर वाह निकल जाए, शेर वो जिसे सुनकर आह निकल आए।

नोट :-ऊपर लिखे सारे शेर स्मृति आधारित हैं, सो उनमें गलतियां संभव है।

2 comments:

  1. Behtariin Report....Main aapki baat se sehmat hoon...natak men rochakta honi chahiye...

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  2. सर किसी तरह इस नाटककी विडियो मिल सकती है ??

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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