Monday, December 6, 2010

मरते-मरते बचें कि बचते-बचते हुए मरते उम्र बीत गई

डाकिये की ओर से : अबकी जो ख़त आपकी बालकनी में फैंक रहा हूँ, उसमें कोई बड़ी बड़ी बातें नहीं, बस एक बड़ी सी दिशा... जरा सा गंभीरता का लबादा उतरने की कोशिश (क्योंकि इसका मार्ग भी इधरईच से होकर जाता है)
***



और बॉस ?"
"बढ़िया..."
"कैसा चल रहा है ?"
"क्या चलना है भैया, जैसी दुनिया की चाह, वैसी हमारी. है की नहीं ?"
"वो तो है.. "
"और तुम्हारा ?"
"हमारा भी वोई..."
"मतलब ?"
"कट रही है बॉस... जित्ती कट जाय."
"इसे कटना कहते हो गुरु तो फिर हमारी जैसी को तो ना जाने क्या ..."
"कटना ही है भैया..."
"सुना है कि उधर भोत जोरदार रहा आपका ?"
"काहे का जोरदार, बस ऐसेई.. दाल रोटी चलती रहे..."
"ऐसेई, कैसे ?
"बस, ऐसेई.. चाय पीयोगे ?"
"हो जाए."
"और ?"
"जिन्दा हैं देख ही रहे हो."
"अंटी?, बच्चे?"
"ठीकठाक.."
"वो अपने बरेली वाले भाईसाब ?"
"डेथ हो गई यार.. तीन-तीन छोटे बच्चे..."
"अरे!"
"और क्या ! कैंसर का क्या कर लोगे?"
"सही बात.. और तेरा गोविन्दपुरा वाला काम?"
"निकाल दिया सेठ ने.. मैनेजर चुगली लगाता रहता था अपनी... हरामी, स्साला..."
"फिर ?"
"फिर क्या? देखते हैं..."
"बोले तो अपने सेठ से बात करूँ ?"
"कित्ते मिलेंगे ?"
"भोत तो नहीं ? पर सुकून वाला आदमी है. पैसे की बात तेरे को करनी होगी. मिलवाने का जिम्मा हमारा..."
"चल, कल्ले बात..."
"बड़ी गर्मी है मची है भेन***..."
"है तो. पर लू-लपेट में न निकलो तो काम नहीं चलता"
"प्याज़ धरा कर जेब में, लू का शर्तिया काट..."
"मंहगा हो गया प्याज़ भी भेन***"
"अबे, एक प्याज़ में कौन सी जायदाद लूट जानी है ?"
"हमने तो एक बात कही, सब मंहगा है. सस्ता क्या है ?"
"सही बात... और ?.. भाभी ?
"स्साला... फिर बीमार. समझ नहीं पड़ता.."
"जे डाक्टर वैद वाला मसला नहीं है. छाया पड़ी है, सलकनपुर वाले बाबा जी कने दरबार में चला चल..."
"वो तो जब दरबार में पुकार लें, तब जाना ही पड़ेगा. आदमी के हाथ में क्या है ?"
"सही कह गए भैया..."
"अच्छा सुन."
"बोल न."'
"कुछ दे यार, सौ, दो सौ,.. बाद में चुकता कर दूंगा.."
"पचास ले ले... अभी इत्ता ही बन पायेगा..."
"चल. जो हो..."
"बीडी पीएगा ?"
"वैसे, वो चाय ले आया है... 
"चाय भी पी और बीडी भी..."
"और ?"
"बस..."
*****

शिक्षा:  चाय-बीडी चल रही है, जीवन चल रहा है. 
        हो सकता है कि आपको लगे कि यूँ ही फ़ालतू बातें कर रहे हैं दोनों जन. पर जीवन तो इन्ही फ़ालतू-सी बातों में बिखरा हुआ है. यह बातें बड़ी कीमती हैं. अगली बार, फूटपाथ या यहाँ - वहां खड़े, बैठे लोगों को जब यूँ बतियाता देखें तो इसे फुरसतिये लोगों की फ़ालतू बातें न मान लें. जीवन यही है. बेहद कीमती कहानियां बोली जा रही हैं इन निरर्थक -से प्रतीत होते संवादों में.
*****
साभार : इंडिया टुडे, कटाक्ष : ज्ञान चतुर्वेदी. 
(अंक : 8 दिसंबर, 2010)

10 comments:

  1. शीर्षक : शीन काफ निजाम कि इस नज़्म से...

    शराफ़तों के सिरोपा
    उतार कर फेंकें
    चलें
    सड़क प' ज़रा घूमें
    फिकरे चुस्त करें
    किसी को बेवजह छेड़ें
    हंसी उड़ायें
    बुलाएँ
    बुला के प्यार करें
    सताएं
    रास्ते चलते किसी मुसाफ़िर को
    ग़लत पता दें
    सड़क के बीच चलें
    गत्ते का डिब्बा पा के इतरायें
    लगायें ठोकरें
    फुटबॉल मान कर उस को
    लगे किसी के जो जा वो तो
    इधर-उधर झाँकें
    अनजान बनें
    सुनें न हार्न कोई
    और मरते-मरते बचें कि
    बचते-बचते हुए मरते उम्र बीत गई

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  2. कुछ कहने से पहले गुलज़ार साब की एक नज़्म शेयर करती हूँ

    चलो ना भटकें
    लफ़ंगे कूचों में
    लुच्ची गलियों के
    चौक देखें
    सुना है वो लोग
    चूस कर जिन को वक़्त ने
    रास्तें में फेंका था
    सब यहीं आ के बस गये हैं
    ये छिलके हैं ज़िन्दगी के
    इन का अर्क निकालो
    कि ज़हर इन का
    तुम्हारे जिस्मों में ज़हर पलते हैं और जितने
    वो मार देगा
    चलो ना भटकें
    लफ़ंगे कूचों में

    -- गुलज़ार


    ये फ़ुरसतिया लोग वाकई छिलके हैं ज़िन्दगी के... और इनकी फ़ालतू सी बातें ज़िन्दगी का अर्क...

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  3. ज़िन्दगी सबसे ज़्यादा वहाँ पायी जाती है जहाँ ज़िन्दगी की सबसे कम उम्मीद हो.
    -अपूर्व का एक कमेन्ट.

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  4. मरते-मरते बचें कि बचते-बचते हुए मरते उम्र बीत गई शौक नहीं मरने का लेकिन, अब जीते तो मर जाते.
    हुए मौत से बेहिस बेशक, जीना भी कब भाता है?

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  5. Zindgi Live....unse pucho jo kirdaar hain.....wo kya sahenge jo story ki talaash mein hai

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  6. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ,अच्छी रचना , बधाई ......

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  7. भई ज्ञान साहब की कलम खुद मे कमाल है..हौले से शिकार करती है अपना!..इसे पढ़ते हुए एक बहुत पुराना संवाद याद आया जिसका पोस्ट या उसकी स्पिरिट से कोई सीधा संबंध तो नही है..मगर याद दिलाता है कि कभी आप बातों मे भी कैसी शर्मसार सी स्थिति मे फंस जाते हैं..कि निकलते नही बनता..बहुत साल हुए जब अपने किसी पुराने दोस्त के छोटे भाई से मुलाकात हुई..१३-१४ साल की उमर का..जो पास के ही एक टाउन मे रहता था..संवाद कुछ ऐसे रहा
    मै: कहो कैसे हो? क्या चल रहा है? (वार्तालाप को पतंग की तरह आसमान मे छोड़ने ले लिये पहले आप औपचारिकता की ढ़ील देते हैं)
    वो: अच्छा नही हूँ!
    मैं: क्यों क्या हुआ? (आप थोड़े शॉक्ड होते है..अक्सर ऐसे जवाबों की उम्मीद नही होती आपको)
    वो: बस घर से आया था..किसी ने पर्स पार कर दिया..यहाँ किसी से पैसे लेने थे..वो भी नही मिला अभी तक..पापा भी पिटाई करेंगे अब घर जाने पर
    मै: ओह, बुरा हुआ..खैर तुमको ध्यान रखना चाहिये था..मगर कोई बात नही जो जरूरत हों पैसे तो मेरे घर से ले जाना (आप औपचारिकतावश उसके साथ सहानुभूति दिखाते हैं और सांत्वना भी देते हैं..लगे हाथ मदद का विकल्प दे कर अपना झंडा भी ऊँचा करते हैं..भले ही एकदम किताबी तौर पे सही)
    वो: ठीक है..मगर अभी तो मै उन्ही सज्जन का इंतजार कर रहा हूँ जिनसे पैसे लेने हैं..नही मिले तो बोलूंगा आपको.
    मैं: और भैया कैसे हैं? (आप बात बदलने की कोशिश करते हुए औपचारिकता को विस्तार देते हैं..और उसे अनौपचारिक स्तर पे ले आते हैं)
    वो: अच्छे नही हैं. पिछले हफ़्ते बाइक से एक्सीडेंट हो गया था उनका. पैर मे फ़्रेक्चर है..घर पे पड़े हैं प्लास्टर करा कर.
    मै: ओह माइ गॉड! मुझे पता भी नही चला ! (अब आप थोड़ा सा और शॉक्ड है! अपनी नाइत्तेफ़ाकी पर शर्मिंदा भी..वार्तालाप मे इतने स्पीडब्रेकर्स!)
    वो: कोई नही! गलती तो थी उनकी.इतना तेज जो चलाते हैं बाइक..खैर अ्ब दो महीने घर पे ही रहेंगे.
    मै: ये तो है..मै आऊँगा घर मिलने उनसे..और देखो तुम भी ध्यान से चलाया करो बाइक (आप इस दुखद बात को घर पे आ कर कन्टीन्यू करने की बात कर बात को बंद करना चाहते हैं..और लगे हाथ उसके प्रति भी फ़िकर दिखा कर उसे अपने बड़े भाई होने का सतही अहसास भी दे डालते हैं)
    मैं: अच्छा पापा जी कैसे हैं? घर पे ही होंगे ना? (आप फटाफट बात को बदलना चाहते हैं और थोड़ा हैपी-नोट पे ले जाना चाहते हैं..डरते-डरते!)
    वो: हाँ घर पे ही हैं..मगर अच्छे नही! नौकरी छूट गयी सो उसी फ़िक्र मे हैं.
    मै: क्या?? छूट गयी? सच? (अब तक आपको पता चल चुका है कि आपके वार्तालाप की ट्रेन पटरी से बुरी तह बाहर जा चुकी है..और आपको अच्छे से शॉक्ड होना भी नही आता..बताते चलें कि उसके पिता जी किसी ग्रामीण बैंक मे प्रबंधक के पद पर थे और कुछ वक्त से कुछ पंगा चल रहा था उनका वहाँ..वैसे उनकी अपनी एक शॉप और होल-सेलिंग का बिजनेस भी था जिसे बड़ा बेटा देखता था..सो इतनी बुरी हालत नही थी..जितनी आप सोच रहे होंगे)
    वो: हाँ! खैर वो पैसे-वैसे दे कर ही होगा! अभी कोर्ट मे केस तो चला गया है.
    मै: अच्छा सिस्टर के इक्जाम्स कैसे रहे! (अब तक आपकी औपचारिकता की वाट लग चुकी है..आप उसके घर के बाकी मेंबर्स के बारे मे तेजी से सोचते जाते हैं और आप बस बुरी खबरों की भंवर की शर्मिंदगी से बाहर आना चाहते हैं)
    वो: ऐसा ही..दो सबजेक्ट्स मे फ़ेल हो गयी..ग्रेजुएशन फ़र्स्ट इअर मे!
    मै: ओह नही (अब सच मे चौंकने की बारी थी..वो आपकी सीनियर रह चुकी थीं..और अपने कॉलेज की टोपर भी..उनका ऐसा रिजल्ट होने का मतलब परिवार मे सच मे दुर्दिनों का संकेत था)
    वो: हाँ बस घर के इन्ही तमाम लफ़ड़ों के वजह से इम्तिहान अच्छे से नही दे पायी थी.
    मै: और मम्मी? अबकी आता हूँ मिलने! (अब आप किसी डिटेल मे जा के शर्मिंदा नही होना चाहते..अब तक आप हथियार डाल चुके हो..बात को खत्म करने का बहाना खोज रहे हो)
    वो: पिछले कुछ टाइम से डायबिटीज काफ़ी बढ़ा चल रहा है. सो कोई काम भी नही कर पाती..दवा चल रही है बस.
    मै: अच्छा! और पड़ोस वाले XY अंकल जी? (अब तक आपको हैरत होना बंद हो चुका है और आपका सारा इंटरेस्ट खतम हो चुका है.आप खासे बेशर्म हो गये हैं..और बात को थोड़े हैपी-नोट पे ले जा कर खत्म करने के लिये सारी दिशाओं मे समान रूप से तीर चला रहे हो बिना सोचे)
    वो: पता नही! आप तो जानते होगे कि हमारी बात-चीत बंद है उनसे..पिछले महीने ही मार-पीट भी हो चुकी है भैया के साथ
    मै: हम्म! ठीक है फिर! तुम अभी वेट कर लो जिनसे मिलने आये हो..बाद मे घर पे आ जाना..और कुछ जरूरत हो तो बता देना..बाय!! (अब तक शर्मिंदगी से आपका चेहरा लाल हो चुका है और आपके पैर जवाब दे चुके हैं..और आप बात की डोरी वहीं काट कर खुद वहाँ से फटाफट कट लेने मे अपनी भलाई समझ लेते हैं.)
    अभी भीए याद करते वक्त शर्म सी होती है. मुझे यह भी पता चला कि हमेशा ’क्या हाल-चाल हैं?’ का जवाब इतना सीधा सा नही होता! :-)

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  8. भाषा की कुछ नक्‍काशी के साथ ऐसी ही चल रही है, पोस्‍टें और ब्‍लॉगिंग.

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  9. अभी इसको पढकर अपने चायवाले का एक डायलाग याद हो आया। जब भी कोई उसके पास आकर कहता कि "यार जिंदगी में मजा नही आ रहा है।"(अक्सर मैं ही कहता था) फ़िर वो फरमाता था कि "मजा कोई किसी के बाप का नौकर है, जो ऐसे ही आ जाऐगा,मेरा आमलेट खाओ देखना वो भी आ जाऐगा।" और हंस देता था वो भी उस हालत में जब उसे कम तनखा मिलती थी
    सच जीवन यूँ ही बाते करते करते गुजर जाता है।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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