Thursday, April 21, 2011

सड़क

शहर की एक सड़क उसके ड्राइंग रूम के ठीक बीच में से निकलती थी.इस लिए उसका घर हर वक़्त बसों,ट्रकों,कारों और स्कूटरों के शोर से भरा रहता.वह अक्सर ड्राइंग रूम में पड़े सामान की धूल झाड़ता रहता पर पलक झपकते ही वह फिर से धूल से भर जाते.कोई महिमान आ जाये तो उसे बिठाने के लिए ड्राइंग रूम में जगह नहीं मिलती क्यूंकि अक्सर औरतें,बच्चें,बूढ़े सोफे पर बैठे बस का इंतज़ार करते रहते.
उसने अपने पिता से कई बार कहा -इस शहर के इन्तज़ामियों से कहा जाये कि वह सडक उनके ड्राइंग रूम से हटा के दूसरी और बना ले.पर उसके पिता यह कह के चुप कर जाते कि यह सडक उनके बाप-दादा के जमाने से ही इस ड्राइंग रूम से हो कर गुजरती है.पिता की बात सुनकर वह सोचता कि आखिर उन लोगो ने  ड्राइंग रूम के ठीक बीच में सड़क बनाने की इजाज़त क्यों दी.क्या दुनिया में कोई और भी घर है जिसके ड्राइंग रूम के ठीक बीच में से शहर की इतनी मसरूफ़ सड़क निकलती हो.
कई बार उसके जी में आया कि वह सडक खोद के उसका नामों-निशान मिटा दे.पर जब भी वह कुदाली ले के आगे जाता कोई ना कोई बस आ जाती और फिर शुरू हो जाता ट्रैफिक का सिलसिला.इतना कि वह इंतज़ार कर थक जाता और उसे नींद आ जाती.
एक दिन सड़क की खुदायी के लिए अपने दोस्तों को भी बुला लिया.बाहर एक कोने पर सुर्ख कपड़ा टांग दिया जिस पर लिखा था सडक मुरम्मत के लिए बंद है.पर ऊँट परवाह किये बिना कतार दर कतार आते गये और सुबह हो गयी.लाल कपड़ा हवा से एक तरफ गिर गया.ट्रैफिक फिर से शुरू हो गयी.
शाम को वह फिर से मुरम्मत के लिए वाला बोर्ड लगाने ही जा रहा था कि दो नौजवान स्कूटर पर रेस लगाते हुए आये.वह स्कूटरों की चपेट में आते-आते बड़ी मुश्किल से बचा.दोनों एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर रहे थे.वह निकले ही थे कि दो बसें एक दूसरे से आगे निकलती हुई आ पहुंची.इतने में एक ट्रक आ गया.वह सोफे पर पड़ा सब देख रहा था.आज रात सडक को खोद के रुख मोड़ देना था उसे.पर सुबह तक इंतज़ार के बाद भी ट्रैफिक नहीं थमी तो वह नाश्ते की मेज़ पर आ गया.उसके पिता ने बताया कि आज उसकी शादी का दिन है.
उसकी शादी हो गयी.महिमानों के जाने के बाद दूसरे दिन वह ड्राइंग रूम में आया तो यह देख के हैरान रह गया कि ड्राइंग रूम में लगी एक पुरानी तस्वीर वहाँ नहीं थी.उसने अपनी बीवी से तस्वीर के बारे में पूछा तो वह बोली-मैंने उतार दी,क्या कोई सड़क की तस्वीर भी ड्राइंग रूम में लगाता है?
उस दिन के बाद कोई भी गाड़ी उनके ड्राइंग रूम से नहीं निकली.
(मजहर-उल-इस्लाम की पंजाबी कहानी)


Wednesday, April 13, 2011

अवध की सरज़मीं पर राम की जलवानुमाई है


रामनवमी के मुबारक मौके पर पेशे-खिदमत है नये और बेहतरीन शायर अजमल हुसैन ’माहक’ की यह नज़्म। राम के पैदा होने के जश्न को बयाँ करती नज़्म अवध की उस गंगा-जमुनी तहजीब के शजर की पैदाइश है जो वक्त और सियासत के तमाम थपेड़ों को सहते हुए भी उतना ही हरा-भरा और मजबूत है।




अवध की सरज़मीं पर “राम” की  जलवानुमाई है
हैं “लछमन” साथ में उनके, ये उनके प्यारे भाई हैं।

भरत औ  शत्रुघ्न से भी मुहब्बत है नहीं कमतर
ऐ चारो ही तो “दशरथ” की जनम भर की कमाई हैं।

है माँओं  को मुहब्बत  बेपनाह  अपने पियारे से
वो हैं लख्ते  जिगर, नूरे नज़र, सबके दुलारे से ।

कभी  गोदी में लेतीं  हैं, कभी  झूला झुलातीं  हैं
कभी चूमें  जबीं उनकी, कभी  सीने  लगातीं  हैं।

है प्यारा बचपना उनका,  बड़ी प्यारी सी सूरत है
लबों पर  मुस्कुराहट, शोख़ चेहरा, क्या ये  मूरत है।

सभी के लब पे है जुमला, बड़ा प्यारा है ये लल्ला
चिराग़े खानदाने-सूर्य है,  न्यारा है ये  लल्ला।

न पूंछो कुछ भी “दशरथ” की, मसर्रत का, है क्या आलम
उन्हे  लगता है,  जैसे पा गये हों  वो नया जीवन।

महल मे रंग बरसा है, अजब  मस्ती सी  छाई है
सभी खुश हैं, सभी ने आज, सब को दी बधाई  है ।


Saturday, April 9, 2011

बहारें फिर भी आयेंगी

बहुत पुराने समय की बात है.
भगवान जी ऊपर स्वर्ग में रहते थे.
नीचे सब धुन्धूकार(अन्धेरा)फैला था.सृष्टि की रचना का विचार उनके दिमाग में शोर मचा रहा था.अपने मन में हो रही तोड़-फोड़ पर एकागर हुए वह एक नदी के किनारे घूम रहे था.नदी भरी हुई जोबन में बह रही थी,जरूर पहाड़ों में बारिश हुई होगी.
फूल पौधों के शिखरों पे बैठे पंख फडफडा रहे थे जैसे अभी नदी पार अपने प्यारे दोस्तों को मिलने जाना हो.पंछी गर्दनें हिला के उन्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे.
बादल गरजा.
भगवान की एकाग्रता टूट गयी.उन्होंने खीझ के सभी ऋतुओं को ज़मीं पर भेज दिया और कहा बारी-बारी से सृष्टि पर पहरा दें.
हुक्म में बंधी ऋतुएँ इस सृष्टि पर आ पहुंची.ऋतुएँ लोगो से छेड़खानी करती.लोग इनसे बचने के लिए गुफाओं,छ्परों,कोठियों,घरो और बंगलो तक आ पहुंचे,किसी ऋतू बारिश होती,नदियों में सैलाब आते,गाँव के गाँव बह जाते पर ऋतुओं के लिए ये सब सिर्फ मजाक था.लोगो को अब रेडियो पहले ही बता देता कब बारिश होगी.लोग पानी पे बांध बना के कैदी बना लेटे मन मर्जी से कहीं और भेज देते.
पहले अगर हवा साँस रोक के खड़ी हो जाती तो लोग कहते किसी पापी का हवा पे पहरा लगा है और तडपते रहते इस पहरे के हटाने के लिए.पर अब बिजली के पंखे बिना हवा को पूछे चलते रहते.
पहले अगर बारिश ना होती तो बनस्पती सूख जाती.लोग यज्ञ करते,हवन करते,कहाँ विघ्न पड़ा सोचते पर अब टिऊबवैल लग गये,अब कोई बारिश की परवाह नहीं करता.
ऋतुएं उदास हो गयी भगवान जी पास गयी,
"भगवान जी,धरती पर अब हमारी जरुरत नही,हमें लौट आने दें,"
"यह कैसे हो सकता है?"भगवान जी ने हैरान हो के पूछा.
"आप खुद चल के देख लो चाहे"ऋतुओं ने बिनती की.
भगवान जी एक छोटी सी चिड़िया बन के ऋतुओं की शिकायत की जाँच करने धरती पर आ गये.
शाम का वक़्त था
रुत बहार की थी.
आसमान में बादल घिरे थे.
मोरों ने पंख फैला के नाच-नाच के बादलों को धरती पे उतार आने को कहा.
जंगली फूल एक दूसरे को इशारे कर-कर के मुस्करा रहे थे.
छोटे-छोटे पंछी फूलों के पत्तियों के गीत हवा के आंचल में बांध -बांध कर अपने प्यारे मित्रों को भेज रहे थे.
"ये धरती तो बहुत सुंदर जगह है"भगवान जी ने बहार को कहा.
इतने में एक शहर आ गया.
बहुत भीड़ थी.
बहुत शोर था.
हर कोई खोया-खोया सा था.
सभी लोग जैसे आसमान से गिरे हुए था और किसी के कुछ नहीं लगते थे.कोई किसी को जानता नहीं था.लोग घड़ी बार-बार देखते थे.
"चिड़ियाँ ले लो,रंग बिरंगी चिड़ियाँ"पिंजरे में कितनी चिड़ियों को बंद कर एक आदमी आवाज़ लगा रगा था.
चिड़िया बने भगवान जी ने देखा तो घबरा गये.
जल्दी से उड़ के एक मंदिर में पहुंचे.
"ताज़े मोतियों का हार दो-दो आने"मंदिर के बाहर नंगे पांव वाला फटे कपड़े पहने एक लड़का हार बेच रहा था.
"लो डेढ़ आना,दे हार" मुश्किल से अपना पेट संभाले लाला जी ने कहा.
लड़का सोच में पड़ गया.जैसे पहले ही कम मूल्य बताया था.
"छोड़ो ये भी कोई खाने की चीज़ है,और दो घंटो में इन्होने मुरझा जाना है."उस आदमी ने दलील दी.
बात लड़के को समझ आ गयी.उसने बेबस हो कर डेढ़ आने में हार दे दिया.
लाला जी मन्दिर में जा पहुंचे.
मूर्ती के सामने खड़े हो के आँखे मीचे अंतरध्यान हो के कुछ लेन-देन की बात की.नमस्कार किया और फूलों का हार चरणों में रख दिया.
भगवान जी मंदिर से बाहर आ गये.
एक औरत बालों में सुंदर फूल लगाये जा रही थी.खुद भी वह बहुत सुंदर थी.
"सर ढक लो जमाना ठीक नहीं."औरत के पीछे आ रही बुढ़िया जो शायद उसकी सास थी ने कहा.
औरत ने सर ढक लिया.
भगवान जी फूल के बारे में सोचने लगे,जरूर उसका दम घुट गया होगा.
इतने में रिमझिम शुरू हो गयी.
चिड़िया बने भगवान जी एक खम्बे के ऊपर बैठने ही लगे थे कि करंट का ऐसा झटका लगा कि पल भर के लिए होश उड़ गये,कच्चा सा हस के एक घर की छत्त पर बैठ गये,
उन्हें फ़िक्र हो रही थी शहर में कहीं पेड़ ही नहीं,पंछी कहाँ बैठते होंगे,घोंसलें कहाँ बनाते होंगे,कहाँ सोते होंगे.
भगवान जी हैरान थे कि किसी ने रिमझिम मौसम की छेड़खानी महसूस नहीं की.ना किसी की आँखों में बादलों की परछाईं नाची.ना कोई नंगे पांव धरा की ख़ुश्बू महसूस करने आया.ना बाल खोल किसी ने मोती पकडे.
भगवान जी अब बहार से नज़रे नहीं मिला पा रहे थे.
वह शहर की तरफ मुँह मोड़ चल पड़े,शहर अब पीछे छूट गया था.
टेढ़ी-मेढ़ी राह पर एक आदमी गुनगुनाता जा रहा था.
सामने गाँव से आते डाकिये ने उसे पहचान के साइक्ल धीरे कर लिया
"बारिश हो रही है,कहो तो में साइक्ल पर छोड़ दूँ.जाना कहाँ है?"डाकिये ने ऐनक ऊपर कर धरती  पर एक पैर रख साइक्ल रोक कर पूछा.
"जाना....जाना तो कहीं भी नही"उसने बिना रुके कहा.
"बारिश आ रही है कपड़े भीग जायेंगे"यह बात उसको कम और अपने खुद के घिसे मैले कपड़ो को ध्यान में रख कर ज्यादा कही.
"आप चलो,अपने ठिकाने पहुँचो"आदमी ने हंस कर कहा.
जाते हुए डाकिया सोच रहा था,भला इसमें हंसने की क्या बात है मैंने तो उसके भले की बात ही कही.
गाँव से दूर कब्रिस्तान की तरफ वो आदमी मुड़ गया.
"क्यों?" चिड़िया बने भगवान जी ने बहार से पूछा.
"शायद सोचता हो कि मरने वालो के बीच में कोई ज़िंदा आदमी हो."
भगवान जी हंस पड़े,
"यहा लोगों को मर कर ही पता चलता है कि कभी वो ज़िंदा भी थे?"भगवान जी ने हैरान हो के पूछा.
वह आदमी तलाब के किनारे पहुंचा
तलाब में निलोफर के फूल खिले हुए थे.
कितना कुछ उस आदमी के मन में खिल गया.कांपते-कांपते उसने मन की अथाह गहराई से कोई गीत गाया.
तलाब में बगुले टहल रहे थे.कुछ बोल भी रहे थे उसे लगा कह रहे है 'अच्छा,'अच्छा'अच्छा'
तलाब में गिरती बारिश की बूंदे पानी को जैसे गुदगुदी कर रही थी.
फिर उसने किनारे पड़ी मिट्टी हाथों में लगाई हाथ हिला-हिला कर तलाब के पानी में परछाईयाँ देखता रहा.हैरान होता रहा जैसे हाथ मिट्टी के बने नृत्य कर रहे थे.जैसे सच ही हो.
फिर हाथ में पानी भर निलोफ़र के फूलों पर फेंका.वह नाच उठे..गाने लगे..
"खूबसूरती में जान मेरी,
बादलों में जान मेरी,
पंछियों में जान मेरी,
पत्तों में जान मेरी,
हवाओं में जान मेरी"
फिर उसने हाथ धो लिए.
तलाब के किनारे खड़े पेड़ से आँखों ही आँखों में जैसे कोई बात की.
तेज़ हवा में पेड़ के पत्ते खड़-खड़ करते कहीं भागे से जा रहे हो जैसे.
चिड़िया बने भगवान जी की तरफ देख के उस आदमी ने सीटी मारी..
भगवान जी हस पड़े
"उन सब के लिए ना सही ऐसे एक के लिए ही ऋतुएं आती रहेंगी,बादल बरसते रह्नेंगे,फूल खिलते रहेंगे,सूरज चढ़ते रहेंगे"
बहार ने"जो आज्ञा"कह कर सर झुका दिया.
चिड़िया बने भगवान जी सोच रहे थे कि स्वर्ग जाये कि ना...

("रब्ब ते रुत्ता"ड़ा.दलीप कौर टिवाणा की कहानी)

Sunday, April 3, 2011

निर्मल के जन्मदिन पर

आज निर्मल के जन्मदिन पर उन्हीं की डायरी से उनके जन्मदिन पर लिखा हुआ एक अंश प्रस्तुत है। कुछ और  टुकड़े  भी  हैं जिन्हें कभी, किसी मूड में नोट किया गया था।

३ अप्रैल, १९८३:

मैं आज ५६ का हो गया।

भीतर सुबह से ही एक गहरा अवसाद घिर आया है।निर्मल_वर्मा

यह दिन भी भोपाल में गुज़ारना था।

कुछ लेख, दो मुकम्मिल कहानियाँ, एक अधूरी कहानी, बस इतना ही।

चेखव याल्टा में बीमार थे, गुलाब लगाते थे, नाटक और कहानियाँ लिखते थे। बहुत कम बोलते थे। अकेले रहते थे। A lady with a dog जैसी कहानी वही और वही लिख सकते थे। पता नहीं, आज के दिन वह क्यों इतना याद आ रहे हैं।

पिछले वर्ष में अन्तिम दिनों में के रहस्यमय चिन्ह-signs and signals-वे मुझे दिखते रहे हैं। सच पूछो तो मेरे साथ कुछ अच्छा घटा, तो सिर्फ़ वही। वे उन दोस्तों की तरह हैं, जो कन्धे पर हाथ रखकर कहते हैं – चलें?

मैं चलने के लिये तैयार बैठा हूँ।

अगर हम अपने को उन पर छोड दें, तो वे हमें सच्चाई के रास्ते पर ले जाएँगे, चाहे वह कितनी भयावह क्यों न हो। हमारे जीने के अदृश्य पहरेदार। जब हम पीछे छूट जाते हैं, प्रलोभन में फ़ँस जाते हैं, नशे और निद्रा में अपने को खो देते हैं, तो वे पीछे मुड़कर आते हैं, धीरे से हमें हिलाते हैं – चलें?

वे हमेशा से यहाँ हैं।

 

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सूर्यास्त पर:

“सूरज की इस आखिरी हिचकी में कुछ इतनी भयानक उदासी, इतना ट्रैजिक विलाप है कि हम सहसा आँखे मोड़ लेते हैं, ताकि उसे मरना है तो अकेला मर सके – बहुत देर तक पता भी नहीं चलता कि वह डूब गया है, पहाड़ों के पीछे गिर गया है, क्योंकि बादलों पर चमक अब भी रेंग रही है जैसे मृत्यु के बाद भी कुछ देर तक देह पर गुज़री हुयी ज़िंदगी के चिन्ह बचे रहते हैं – गरमाई, होठों पर मुस्कुराहट, आँखों में जमा असीम विस्मय।

पता नहीं, इस धरती पर अब तक कितने सूर्यास्त हुये होंगे – हर एक दूसरे से अलग।”

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“एक ज़िंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में सम्पूर्ण है। उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है जैसे उम्र की रेखा – वह चाहे कितनी लम्बी क्यों न हो – मृत हथेली पर मुरझाने लगती है। क्या रिश्तों के साथ भी ऎसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं? हम विगत के बारे में सोचते हुये पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्मृतियाँ उसे नहीं बचा सकतीं, जो बीत गया है। मरे हुये रिश्ते पर वे उसी तरह रेंगने लगती हैं जैसे शव पर च्यूँटियाँ।”

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“हवा में डोलते चेरी के वृक्ष  और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का किला जान पड़ता था। किले के पीछे एक बाग था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष… यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं… कुछ ऎसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई खबर नहीं लेता… वे धीरे धीरे यह भी भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आये थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुये याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।

यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?”

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“जब मैं कोई पत्ता झरता हुआ देखता हूँ, तो कहीं भीतर एक हल्का सा रोमांच उमगने लगता है। वह अपने झरने में कितना सुंदर दिखाई देता है, अपनी मृत्यु  में कितना ग्रेसफ़ुल। आदमी ऎसे क्यों नहीं मर सकता – या ऎसे क्यों नहीं जी सकता?”

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“बूढ़ा होना – क्या यह धीरे धीरे अपने को खाली करने की प्रक्रिया नहीं है? अगर नहीं, तो होनी चाहिए – ताकि मृत्यु के बाद जो लोग तुम्हारी देह को लकड़ियों पर रखें, उन्हें कोई भार महसूस न हो और अग्नि को भी तुम पर ज्यादा समय न गँवाना पड़े, क्योंकि तुमने जीवनकाल में ही अपने भीतर वह सब कुछ जला दिया है, जो लकड़ियों पर बोझ बन सकता था…”

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“मुझे एक साथ बहुत-सी किताबें पढना अच्छा लगता है। ’अच्छा लगना’ गलत शब्द है – दरअसल यह एक प्रलोभन है, लालच, लस्ट। मैं खिंचता चला जाता हूँ। प्रेम नहीं, वासना। यही कारण है, कि जिस किताब को छोड़कर दूसरी के पास जाता हूँ, तो कुछ उसी तरह छिपकर, जैसे कोई प्रेमी अपनी एक स्थायी प्रेमिका को छोड़कर दूसरी स्त्री के पास… उसका आनन्द हमेशा एक अपराध बना गैर-वफ़ादारी के नीचे छिपा रहता है।”

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* निर्मल की डायरी ’धुंध से उठती धुन’ से

कॉपीराईट: लेखक और प्रकाशक का

(In case if any copyright is violated, kindly inform us and We'll immediately remove the content.)

Friday, April 1, 2011

उथों अगे फ़राक दियां मंज़लां सन...

एक पंजाबी कविता जिसका संशिप्तीकरण-भावानुवाद सा कुछ करने का प्रयास किया है, यकीन करिए ये भावानुवाद के पश्चात हिंदी में तो नहीं किन्तु अपनी मूल भाषा, पंजाबी, में उत्कृष्ट लगती हैं. तथापि आपसे भावानुवाद बाटने का लोभ संवरण नहीं हो पाया तो नहीं हो पाया. चूँकि अनुवाद केवल कुछ ही पंक्तियों का है सम्पूर्ण कविता का नहीं, और चूँकि इस कविता के पीछे एक कहानी चलती है अतः प्रस्तावना की आवश्यकता पड़ी...

..कहानी यूँ है कि एक लड़की जो शायद गाड़ी में या पैदल किसी स्थान से अपने घर जा रही हैं, उसके साथ उसका बेटा भी है इतने में उसे अपने नैनिहाल का कोई (दूर का शायद) भाई (वीर) मिलता है, लड़की पहली नज़र में ही बिछड़े हुए वीर को पहचान जाती है, लड़की पाठकों को उस 'वीर' के माध्यम से अपनी व्यथा बताती है, कि किस तरह उसके पिताजी ने अपनी मृत्यु के समय लडकी का विवाह लड़की से उम्र में काफी सयाने पुरुष से करने का वचन दे दिया. क्यूंकि मुसीबत के समय में उस सयाने पुरुष ने ही लड़की के पिताजी का हाथ थामा था. इस निर्णय से लड़की के 'नैनिहाल' वाले प्रसन्न नहीं होते फलतः लड़की से भी नाराज़ हो जाते हैं. किन्तु लड़की बताती है कि इसमें उसका कोई दोष नहीं. क्यूंकि पिताजी कि अंतिम आज्ञा का पालन करना ही उसका फ़र्ज़ था, यद्यपि उसके पति का उसके साथ विवाह होने से पूर्व पिछली पत्नी से एक बच्चा भी था तो भी.

जाते जाते लड़की अपने बिछड़े हुए वीर को और अपने नैनिहाल को दुआएं देती है....


' भाई' तुम कुजाह के तो नहीं?
तुम्हारा नाम शरीफ तो नहीं?
आगे से ही सोच रही हूँ दिखता बिलकुल उस सा है. .
आज का शुभ दिन, दिन न होकर मानो कोई किस्सा है.
खुदा कहीं नहीं है माना,
फिर-भी यहीं कहीं है जाना....
...तूने भी मुझको देखो तो, अब जाकर पहचाना है.
नियामत... ! याद है बचपन की, या अब भी कुछ याद आना है?
हाँ, आखिर, चलते कुओं में ही तो पानी रहता है.
मिलते रहने से ही आखिर रिश्तों का मानी रहता है. (वीर के उसे भूल जाने पर)
कभी वहाँ (नैनिहाल) जा जा कर भी मेरा मन नहीं भरता था,
अब वो सपने में भी आए तो उससे मन डरता था.
क्यूँ कर आखिर मेरी मामी भी मुझसे नाराज़ है.
प्रायश्चित का मूल वही है बढ़ता जाता ब्याज है.
बोलो तो, नानी के घर से कोई भला कुछ तोलेगी ?
लेकिन बाप के आगे आखिर कोई लड़की क्या बोलेगी?
और फिर सोचो, शरम का ताला, इसको कैसे खोलेगी ?
मेरे बाप का हाथ तो आखिर 'इन्होने' ही थामा था,
जाते-जाते उनके मुंह में 'इनका' नाम ही आना था.
ठीक है बेशक 'उनका' मेरा उम्र का कोई मेल नही.
लेकिन फिर भी वचन पिता का, वचन पिता का, खेल नहीं.
और फिर बाप की जो न माने वो भी क्या इंसान हुए?
बाप को भी तो अपने बच्चे मानो अपना प्राण हुए.
प्राण गए थे प्रण को लेकर लेकिन प्रण के प्राण रहे,
मैंने भी तब ये सोचा कि इन प्राणों का मान रहे.
मुझको यहीं उतरना है, तू भी आता अच्छा होता,
एक रात भूली बहना के घर खाता अच्छा होता.
ठीक है !तू, 'जीते रहना' ,
जीने से मिलना होता है.
मेरी ओर से उनसे (नैनिहाल वालों से) कहना,
अब भी कोई, उन्हें सोच के, कभी-कभी तो रोता है.



वीर तूं कुंजाह दा ऐ?
तेरा नां शरीफ़ ऐ?
अगे इ में आखदी सी लगदा ते उहो ऐ?
अज केहा नेक दिहाड़ा ,
रब्ब णे भरा मेल दित्ता ऐ,
मुंडिया! इह तक तेरा मामा ऐ,
मेनू तूं सिंझानिया ना होवे दा,
कदे निक्के हुंदे असी रल के खेडदे सां,
मेरा नां निआमते वे,
महिर नूर दीन दी में दोह्त्री आं,
मिलदिया दे साक णे ते वाहनदिया दे खूह णे,
कदे वरा-वरा उथे जा के रह आवीदा सी,
अज्ज उहना थांवां नूं वेखने नूं सहक्दी आं,
मेरे उतों पता इ जे मामी साडे नाल अफ्सोसी ऐ,
वीर दस इस विच मेरा की कसूर सी?
नानकिया नालो मेनू अग्गे थां किहडी सी?
मापिया दे अग्गे पर धीयाँ नहीं बोलदीयां,
वज्जे होए शर्मां दे जन्दरे ना खोलदीयां.
ओहना नूं जमीयां तों अग्गे शेय किहडी ऐ?
उहना दा उह बुरा कदे नहीं मंग सकदे,
थुडां दी धरेमिया ' च तिलक इंज पईदा ऐ ,
अखिया पियो नू जदो हार दे गईआं सन,
दुखां दियां साडे उते वाईं झुल पईआं सन,
नानके वी कन्नी खिसकान लग पाए सन,
तक के ते,
खिदने ड़ी थावें मुर्झान लग पए सन,
असी कच्ची आवी सी ते अग्ग पाई बुझदी सी,
उस वेले जडो कोई गल वी ना सुझ्दी सी,
हर शैय छड गयी,
ऐस दे पियु मेरे पियु दी बांह नप्प लई,
मरण लगा ऐस नूं जबान ओह दे गया.
में ते लै के बह गयी सां ऐस ख़्याल नू,
जग लायी सोंकण दे पीते होए दूध दे हंगाल नू,
मेरा सब्र कबूल कर लित्ता ऐ,
मेनू ऐ चन्न जेहा पुत दे दित्ता ऐ,
लै फेर में ते इत्थे लह बहिणा ऐ,
तुमीं की होयिया अज्ज इथे लह बहों खां,
इक रात भूली होई भैण दे वी कोल कल रहो खां,
हछा जग जीवंदियाँ दे मेले ने,
मेरे वलों सबनां नू बहुत-बहुत पुछना.

-शरीफ़ कुंजाही(गुजरात के कस्बे कुंजाह में १९१५ में जन्म हुआ,उर्दू और फारसी में भी लिखते हैं)




चलते चलते दो और भावानुवाद (मूल भाषा:पंजाबी)

बादल उड़े तो गुम आसमान देखा,
पानी उतरा तो अपना मकान देखा.

जहाँ पहुँच के उसका निशान देखा.

उसके सामने ये जग विराना था,
उसकी आँखों में ऐसा जहाँ देखा.

हमारे हाल की खबर वो रखता है,
सारी उम्र जिसको अनजान देखा.

काम वही 'मुनीर' मुश्किल था,
जिसे शुरू में बड़ा आसान देखा.

-मूल लेखक : मुनीर नियाज़ी(१९२८ में खानपुर जिला हुशियारपुर में जन्मे आजकल लाहौर में रहते हैं)


एक पूरा कमरा किताबों से भरा हुआ,
एक खाली टोकरी रोटियों वाली,
क्या 'ज्ञान' लूँ इन किताबों से,
जिससे मेरी टोकरी रोटियों से भर जाए,
जिससे मुझे और किताबें बेचने का कोई तनाव न हो?

-मूल लेखक : शाइस्ता हबीब (१९४९ में सियालकोट में जन्मीं  उर्दू में कविता रचती हैं  रेडियो पकिस्तान में प्रोडियूसर हैं)






मधानियाँ
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