Wednesday, October 27, 2010

आ कर देखो उस पौधे पर फूल आया है

गुलज़ार मुझे सर्दियों के सुबह पार्क में नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं. कुछ खोना और उसकी कसक किसी ठंढे पल में महसूस  करना... खैर ये तो हुई मेरी यानि डाकिये की बात.. आप के लिए आज ये है. उन्ही की कुछ नज्में...




१.
ठीक से याद नहीं...


ठीक से याद नहीं, 
फ़्रांस में "बोर्दो" के पास कहीं 
थोड़ी-सी देर रुके थे.
छोटे से कसबे में, एक छोटा-सा लकड़ी का गिरजा,
आमने "आल्टर'' के, बेंच था...
एक ही शायद 
भेद उठाये हुए एक "ईसा" की चोबी मूरत !
लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए,
पिघली हुई मोम में कुछ डूबे हुए,
जिस्म पर मेखें लगी थीं
एक कंधे पे थी, जोड़ जहाँ खुलने लगा था
एक निकली हुई पहलु से, जिसे भेद की टांग में ठोंक दिया था
एक कोहनी के ज़रा नीचे जहाँ टूट गयी थी लकड़ी..
गिर के शायद... या सफाई करते.

२.
कभी आना पहाड़ों पर

कभी आना पहाड़ों पर...
धुली बर्फों में नम्दे डालकर आसन बिछाये हैं 
पहाड़ों की ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमे खींचे हैं 
तनाबें बाँध रखी हैं कई देवदार के मजबूत पेड़ों से
पलाश और गुलमोहर के, हाथों से काढ़े हुए तकिये लगाये हैं 
तुम्हारे रास्तो पर छाँव छिडकी है
में बादल धुनता रहता हूँ,
की गहरी वादियाँ खाली नहीं होतीं
यह चिलमन बारिशों की भी उठा दूंगा, जब आओगे.
मुझे तुमने ज़मीं दी थी 
तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
कभी फुर्सत मिले जब बाकी कामों से, तो आ जाना 
किसी "वीक एंड"  पर आ जाओ 

३.
दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम

दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम
उस तरफ से उसने कुछ कहा जो मुझ तक आते-आते
रास्ते से शोर-ओ-गुल में खो गया..
मैंने कुछ इशारे से कहा मगर,
चलते-चलते दोनों की नज़र ना मिल सकी
उसे मुगालता है मैं उसी की जुस्तजू में हूँ 
मुझे यह शक है, वो कहीं
वो ना हो, जो मुझ से छुपता फिरता है !
सर्दी थी और कोहरा था,
सर्दी थी और कोहरा था और सुबह
की बस आधी आँख खुली थी, आधी नींद में थी !
शिमला से जब नीचे आते/एक पहाड़ी के कोने में 
बसते जितनी बस्ती थी इक /बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लाकिट जितनी
नींद भरी दो बाहों जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के,
दो मासूम खुदा सोये थे!

(ताज़ा कविता संग्रह पंद्रह पांच पचहत्तर वाणी प्रकाशन 
और यहाँ राष्ट्रीय दैनिक हिंदुस्तान से  साभार )

30 comments:

  1. गुलज़ार साब के बारे में जो चीज़ सबसे अच्छी लगती है वो है उनकी औब्ज़र्वेशन... इतनी बारीकी से अपने आस-पास की छोटी छोटी चीज़ों को औब्ज़र्व करके इतने सरल से शब्दों में उतार देते हैं की बस मन विस्मित हो जाता है और दिल से " वाह ! " निकलती है... ज़रा इस लाइन को देखिये - लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए ... सिम्पली अमेज़िंग !!!

    शुक्रिया सागर, इन बेहद ख़ूबसूरत नज़्मों को यहाँ शेयर करने के लिये...
    और पन्द्रह पाँच पचहत्तर की बात हो रही है तो लीजिये एक और नज़्म उसी संग्रह से

    इक नक़ल तुझे भी भेजूँगा
    ये सोच के ही...
    तन्हाई के नीचे कार्बन पेपर रख के मैं,
    ऊँची-ऊँची आवाज़ में बातें करता हूँ

    अल्फ़ाज़ उतार आते हैं कागज़ पर लेकिन...
    आवाज़ की शक्ल उतरती नहीं
    रातों की सियाही दिखती है !!

    -- गुलज़ार

    ReplyDelete
  2. वाह ऋचा जी, बात को जोडूं तो अभी इतवार को तिमेस नो पर अमन की आशा आ रहा था ... गुलज़ार अपने कुरते की कोर सीधा करते हुए नज़्म सुना रहे थे, मैंने सोच रखा था वाह नहीं करुगा पर जब वे जबां उर्दू पर एक नज़्म में यह कहा की
    "फकीरी में भी नवाबी का एहसास कराती है "तो मुंह से बरबस वाह निकल पड़ा

    सर्दी के दिन हो
    खिड़की खुली हो और
    कमरे में धुप दाखिल हो रही हो

    ReplyDelete
  3. बात को कुछ और जोडूँ तो अभी कुछ दिन पहले ही "डी डी लोकसभा" पर गुलज़ार साब के एक पुराने इंटरव्यू का रिपीट टेलेकास्ट आ रहा था... इंटरव्यू ले रही थीं मृणाल पण्डे जी... देखते देखते एक घंटा कब बीत गया पता ही नहीं चला... काफ़ी कुछ बताया गुलज़ार साब ने पार्टीशन के समय के बारे में और ये भी की कैसे वो सब दिल देहला देने वाले मंज़र सालों तक उन्हें नींद से जागते रहे थे... क्यूँ उन्होंने अपनी बेटी का नाम बोस्की रखा, क्यूँ उन्होंने बंगाली सीखी और क्यूँ एक बंगाली लड़की से प्यार किया...
    ख़ैर आज आपने हमारे पसंदीदा शायर को चुना है तो बातें तो बहुत ढेर सारी हैं उनकें बारे में करने के लिये पर फिलहाल इतना ही... फिर आती हूँ थोड़ी देर में :)

    ReplyDelete
  4. विभाजन पर कहानी पढनी हो तो पेशावर एक्सप्रेस और मंटो की कहानियां पढ़िए विशेषकर तोबातेक सिंह और खोल दो और भी मंटो की कलम तकसीम का गवाह बना है वो भी चश्मदीद

    ReplyDelete
  5. शुक्रिया सागर साहब... कभी मौका मिला तो ज़रूर पढ़ेंगे... वैसे विभाजन पे लिखी रचनाओं की बात हो रही है तो अमृता जी की "अज आखां वारिस शाह नू" का ज़िक्र न करें ऐसे कैसे हो सकता है... वैसे तो ज़रूर पढ़ी और सुनी होगी आपने फिर भी यहाँ लिंक शेयर कर रहे हैं जिन्होंने नहीं पढ़ी उनके लिये... सुनिये गुलज़ार साब की आवाज़ में - http://www.youtube.com/watch?v=0T4bQBQoq80

    अब वापस अपने पसंदीदा शायर के पास लौटते हैं :) गुलज़ार साब ने एक बार दीना (अपने जन्म स्थान, जो अब पाकिस्तान में है) को याद करते हुए कहा था की "मेरा वतन जो उधर रह गया, और मेरा मुल्क़ जो इधर है, दोनों में मैं बँट गया" ... वतन के तक्सीम होने की ये टीस "रावी पार" की उनकी कहानियों में साफ़ नज़र आती है...

    कहीं पढ़ा था गुलज़ार साब के बारे में की उन्होंने लिखना कैसे शुरू करा... बड़ा मज़ेदार किस्सा है... स्कूल के ज़माने में एक मौलवी थे, मुजीबुर रहमान साहब, जो गुलज़ार साब को उर्दू पढ़ाया करते थे, वो स्कूल में अक्सर बैतबाज़ी करवाया करते थे. पूरी क्लास को दो हिस्सों में बांटा जाता था एक उनकी टीम और एक उनके दोस्त अकबर रशीद की टीम, अब रशीब साहब नज़्में और ग़ज़लें बखूबी रट लिया करते थे और गुलज़ार साब अगर एक शेर सुनाते थे तो रशीद उसके जवाब में पूरी की पूरी ग़ज़ल पढ़ दिया करते थे. बस तो उनको हारने के लिये गुलज़ार साब ने "चीटिंग" करना शुरू करा और ख़ुद ही नज़्में लिख के सुनाने लगे और उन्हें ढेरों वाह वाही मिली... धीरे धीरे उनकी शायरी की समझ बढ़ी और लिखने की तरफ़ उनका रुझान भी और जैसा कहते हैं... रेस्ट इज़ हिस्टरी...

    ReplyDelete
  6. शुक्रिया सागर साब, शुक्रिया रिचा जी!
    बस समझ न आया कि ऊपर की गुलज़ार साब वाली नज़्मों की ज्यादा तारीफ़ करूँ या उस पर चलती चर्चा के फैलते फलक की...मगर लोभी मन ने चर्चा को ज्यादा तारीफ़ने का हुकुम दिया...उम्मीद है हमारे जैसे निपट विमूढों को भी यहाँ अभी अउर भी बहुत सीखने समझने को मिलेगा....बैरंग रंग मे आता दिखे है!!

    ReplyDelete
  7. Gulzar: आ कर देखो उस पौधे पर फूल आया है !
    Apoorv:बैरंग रंग मे आता दिखे है !!
    Sagar: गुलज़ार नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं !!!
    Richa:फिर आती हूँ थोड़ी देर में
    Me: :)

    ReplyDelete
  8. मुझे तुमने ज़मीं दी थी
    तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
    बहुत खूब
    गुलजार साहेब , तो बस बाहर की हर चीज में कविता जी लेते हैं ..
    बैरंग रंग मे आता दिखे है!!
    क्या कहें कैसे कहें , शायराना है अंदाज़ भी

    ReplyDelete
  9. @ अपूर्व जी,
    वाकई चर्चा की तारीफ करनी होगी, बात से बात निकलती है तर्ज़ पर क्योंकि ये नज्में तो आज ना कल कहीं न कहीं लोग पढ़ ही लेते पर ऐसे आयाम कहाँ खुलते हैं... खुद मैं भी कई बात नहीं जानता था जो ऋचा ने बतलाई... ऐसे पाठक और जानकार हों तो ब्लॉग पर इस तरह की पोस्ट ज़ाया नहीं जातीं..

    @ ऋचा जी,
    गुलज़ार के बारे में आपका ब्लॉग भी काफी कुछ बताता है, वैसे जब यह पोस्ट कर रहा था तो जो सबसे बड़ा अक्स ज़ेहन में था वो डॉ. अनुराग का था..
    अमृता प्रीतम की "अज आखां वारिस शाह नू" की अच्छी याद दिलाई आपने... इसका जिक्र रसीदी टिकट में पढ़ा था. विभाजन के कई और भुक्तभोगी थे निदा फाजली भी भी उन्ही में से एक थे ... जो उनको पढने पर भी महसूस होता है....

    परतें खोलने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद

    ReplyDelete
  10. शुक्रिया अपूव जी... चर्चा का मज़ा तभी आता है जब यूँ बात से बात निकलती है... सही कहा आपने बैरंग रंग में आता दिख रहा है... बधाई आप सब को...

    शुक्रिया सागर साहब... अब और क्या कहें... बस इतना की गुलज़ार हमें बेहद पसंद हैं और उनके बारे में जानना और बात करना भी... और डॉ. साहब को आवाज़ लगाइए ज़रा... गुलज़ार की बात हो रही है और वो चर्चा से गायब हैं... ऐसा कैसे भला :)

    वैसे चर्चा अच्छे रंग में हैं गुलज़ार से शुरू होकर मंटो, अमृता जी से होते हुए अब निदा जी तक आ पहुंची है... विभाजन की रचनाओं की बात चल ही रही है तो इस कड़ी में साहिर साहब की "तल्खियाँ" और "परछाइयां" भी जोड़ते चलें...

    ReplyDelete
  11. और हाँ फैज़ साहब को कैसे भूल सकते हैं... विभाजन की सुबह कहा था उन्होंने...
    "ये दाग़ दाग़ उजाला,
    ये शब गज़ीदा सहर,
    वो इंतज़ार था जिसका,
    ये वो सहर तो नहीं..."

    ReplyDelete
  12. और ये ??????

    http://hindisamay.com/kahani/Vibhajan%20ki%20kahaniyan/Index%20Vibhajan%20stories.htm

    कैसा है ? कितना है ? क्या कीमती है ?

    ReplyDelete
  13. क्या बात है सागर साहब... आपके अंदाज़ में कहें तो आपने तो पूरी की पूरी बोतल ही पकड़ा दी :)

    ReplyDelete
  14. ऋचा भी हमारी तरह गुलज़ार की बड़ा वाला पंखा है ....लोक सभा चैनल पर उसी इंटरव्यू को कई बार रिपीट देख चूका हूँ.....ओर रश्क करता हूँ .के ये आदमी इस उम्र में कितना खूबसूरत लगता है .कुरता पजामा कित्ता सूट करता है .....पहली बार किसी ने गुलज़ार की लिखी ग़ालिब थमाई थी .....वो भी उर्दू में .बड़ी मोटी थी......तब पी एम् टी की तैयारी में थे ....सो सरसरी तौर पे लिया ओर रख दिया .......बाद में हॉस्टल जाते वक़्त ट्रेन के सफ़र में उसे बांच डाला ........ग़ालिब से ज्यादा गुलज़ार के आशिक हो गए .....वक़्त बीतते सर्जरी की किताब की तरह गुलज़ार हर बार पढने के साथ अपना नया अर्थ छोड़ते......उनके लिखे सब पुराने एक डायरी में जमा होते गए ......किसी ने रावी पार भी दे दी.....किसी ने पुखराज .....गोया गुलज़ार हमारे पास यूँ आहिस्ता आह्सिता तोहफों में जमा हुए....उनको समझना लगता है अब भी कितना बाकी है .......वे नदीम कासमी साहब के भक्त है .....पहली बार बार नानावती हॉस्पिटल में मुलाकात हुई थी......फिर बड़े गैर तक्कल्लुफ़ अंदाज़ में एक दूसरी जगह.....
    ओर त्रिवेणी .....उसको असल तो चार साल पहले समझा था .......शुक्रिया ऑरकुट का.....ओर कुछ मुझ जैसे पंखो का .......जहाँ कई शानदार लोग एक साल तक जमा रहे ......अलग अलग उम्र ओर पेशे के .....खेल खेलते.......
    गुलज़ार तो गुलज़ार ही रहेगे .हमेशा रूह में बसे हुए.......

    ReplyDelete
  15. @ डॉ. अनुराग
    सही कहा डॉ. साहब, गुलज़ार की लेखनी से जितना प्यार है उससे कहीं ज़्यादा तो हम उनके अंदाज़ पे मरते हैं :) वो कलफ़ लगा सफ़ेद कुरता पायजामा, वो उनकी मोजरी, उनका चश्मा और उनकें वो सफ़ेद बाल भी कितना सूट करते हैं उनको और हाँ वो हाथ पीछे बाँध के उनके चलने का अंदाज़ भी :)

    ख़ैर... वापस चर्चा पे आते हैं :) वो इंटरव्यू आपने भी देखा है डॉ. साहब तो ये बताइये ये नज़्म याद है क्या आपको ?

    बुरा लगा तो होगा ए ख़ुदा तुझे
    दुआओं में जब जम्हाई ले रहा था मैं
    दुआ के इस अमल से अब थक गया हूँ
    जब से देख समझ रहा हूँ मैं
    दिन और रात जला बुझा रहा है तू


    याद है तो पूरी नज़्म शेयर करिये प्लीज़, हम लिख नहीं पाये पूरी इंटरव्यू देखते समय.

    ReplyDelete
  16. गुलज़ार साहब और उनकी कविताओं का कोई जवाब नहीं।

    ReplyDelete
  17. कल पूरी देंगे .अभी तो अरुंधति के बौदिक अनुसरण करने वालो से भिड़कर लौटे है ...... वैसे कोई इस किताब को हमें गिफ्ट करने वाला हो तो हम अपना पता यहाँ छोड़े......
    डिम्पल ???????

    ReplyDelete
  18. @ Dr. Anurag,

    यही नाम मेरे भी दिल में था और ऐसे कामों के लिए "मेरे घर में कोई दरवाजा कोई नहीं है" टाइप गाना हम भी गाते हैं... आपको शायद मिल भी जाए... अपना तो कोई पिछला रिकॉर्ड भी नहीं है.

    ReplyDelete
  19. हमें तो यहाँ गुलज़ार से ज्यादा उनके प्रशंसको की गुफ्तगू रास आ गई ....ऐसी बैरंग चिट्ठियां भेजते रहिये ....हम मोहब्बतें लुटाते रहेंगे ......हे भगवान्! ऋचा और डॉ.अनुराग ने कैसे चुन-चुन के हमारे सारे डायलॉग चुराएँ हैं:-) .....जों हम पहले आते तो ये सब कह जाते.....बतौर सावधानी नहीं कहते कुछ उनके अंदाज़ के बारे में ....ना जाने कौन लूट ले :-)

    डॉ. अब आते हैं अरुंधती राय पर ....आपकी टेर्मेलोजी चोरी करूँ तो "मेंटल पैराल्य्सिस" की शिकार है.....ये नेता, गुंडा, फिल्मस्टार और पत्रकार ही बुद्धिजीवी लोग होते हैं, हम और आप तो मात्र जीव हैं ....."स्टुपिड कॉमन मैन"

    ReplyDelete
  20. @ प्रिया
    उफ़ ! ज़रा कोई उनकी अदाएं तो देखे... देर से आते हैं और चोरी का इलज़ाम हम पे लगाते हैं...

    @ डॉ. अनुराग
    लड़ाई भिड़ाई से दिमाग़ शान्त हो गया हो तो गुलज़ार साहब के पास वापस आ जाइए :) इंतज़ार कर रही हूँ नज़्म का... रही ये किताब गिफ्ट करने कि बात तो हमने अभी हाल ही में गिफ्ट करी है... ख़ुद को :) हाँ उसकी नज़्में ज़रूर शेयर करती रहूँगी सबसे...

    ReplyDelete
  21. @ हर किसी के लिए
    मंटो दर्द है ... ४७ के कुछ साल बाद मर गया था | लोग कहते थे कि बंटवारे के टाइम पागल हो गया था | कुछ हद तक सच भी लगा, जब उसकी तोबा टेकसिंह पढ़ी थी | वैसे मंटो से मेरा परिचय का भी अच्छा किस्सा है | मेरठ लाइब्ररी का कार्ड है मेरे मामा के पास, तो मेरी जिद पर मामा ने मंटो का कहानी संग्रह तोबा टेकसिंह उठा लिया | मंटो को मैं जानता भी नहीं था और मैंने तमाम तरह के कसीदे काढ़ने शुरू कर दिए, कि बहुत अच्छा राइटर है , मैं बचपन से पढता हूँ , आदि आदि | ये बात तो पढ़कर पता चली कि मंटो क्या और किस तह तक लिखता है |
    कुछ दिन बाद , मामा ने मुझे कार्ड और किताब पकडाते हुए कहा , 'देख मैं तुझे इस टाइप का साहित्य पढने दे सकता हूँ , लेकिन अब इस टाइप की मूवी* देखने की जिद मत करना| ' उनका इशारा मेरठ में कुछ सिनेमाघरों में लगने वाली उस टाइप की मूवी* से था |

    शिक्षा : पहले किसी चीज़ को जान लो तभी मुंह खोलो :)

    ReplyDelete
  22. @ अपूर्ण, (आपका नाम टाइप करते कुछ अजीब सा लग रहा है )
    आपका मेल आई डी मेरे पास होना चाहिए था... बात करते, मंटो क्या थे, क्या है, क्या होंगे और क्या नहीं थे, क्या नहीं हो सकते थे और कितने थे

    ReplyDelete
  23. मैं सआदत हसन मंटो की ही बात कर रहा हूँ और मेरा नाम नीरज बसलियाल है| हाहा , अच्छा लगा इस तरह बोलकर :)

    ReplyDelete
  24. मंटो बुखार ने जकड़ा था बीच में , लेकिन जल्द ही छूट भी गया | आप ये ठंडा गोश्त पढ़िए |
    http://www.hindisamay.com/kahani/Vibhajan ki kahaniyan/Thanda Gosht.htm
    हाई ब्लड प्रेशर, मेरी छोटी जीवनी का काफी लम्बा चैप्टर है | ब्लॉग लिखना दुबारा शुरू किया था , सोचा सृजनात्मक संतुष्टि मिलेगी | लेकिन , आजकल पता नहीं हर न्यूज़ पे गुस्सा आ रहा है | हर ब्लॉग में वही राममंदिर, कश्मीर, अरुंधती , माओवाद | इनसे दूर जाओ तो विरह वेदना में रचित कविता हैं | सिर्फ नग्न सत्य दिखाने से खुद से वितृष्णा ही होगी, और सपनों की दुनिया में रहने से भी समस्याएँ सोल्व नहीं होंगी |
    सागर जी, क्षमा कीजियेगा कि मेल आई डी में बात न कर पाऊंगा | बाकी... मंटो तो खप गए न ५४-५५ में | मनोविश्लेषक और ह्युमन बेहवियर पर जबरदस्त पकड़ थी उनकी |

    P.S. : उम्मीद करता हूँ अब वैसे शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा जैसे मामा के सामने हुआ था |

    ReplyDelete
  25. कोई बात नहीं..
    ठंढा गोश्त कई बार पढ़ी है...... मंटो के कहानियों का परिवेश भले बदले पर प्रासंगिकता बनी रहेगी.... उनके मनोभाव सम्बन्धी बातें आपने बिलकुल ठीक लिखी खैर...
    यह आपका सच होगा नीरज जी, समझ सकता हूँ .

    ReplyDelete
  26. khwabon ko lekar aise aur itne rang .....kamaal ki samvednaaye....pasand aaya...
    ek song hai gulzaar ka

    "Aankh bole, ki khwab khwab khelte raho

    Roz koi ek chand belte rahe ho

    Chand tute to tukde tukde bant lena

    Bole pahiya, hai raat din dhakelte raho

    ReplyDelete
  27. @अनुराग जी,
    भगवान गुलज़ार साहब को लम्बी उम्र दे| आज नहीं जानता कि कितने सारे लोग 'पंखा' हैं उनके| कभी कभी लगता है की १००-२०० साल बाद लोग गुलज़ार को भी हर एक बात में वैसे ही उद्धृत करेंगे, जैसे आज मिर्ज़ा असदुल्लाह को करते हैं कि 'यूँ होता तो क्या होता'

    ReplyDelete
  28. @Richa.....रात पशमीने की उस नज़्म को यहाँ उतरना पढ़ेगा ....यूँ दिन आजकल बढई ओर कारपेंटरो के दरमियाँ गुजरता है .के शाम होते होते बस कागज पर हिसाब लिखने की हिम्मत रह जाती है ....उससे मिलती जुलती नज़्म जो खुदा की बाबत उन्होंने लिखी थी....यहाँ कोपी पेस्ट कर रहा हूँ.....


    चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें
    शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
    घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के

    औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
    पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
    इक पथराई सी मुस्कान लिए
    बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी

    जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
    घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
    इक जरा छींक ही दो तुम
    तो यकीं आए कि सब देख रहे हो

    ReplyDelete
  29. @ डॉ. अनुराग... ये भी खूब रही... "रात पश्मीने की" जाने कब से हमारे बुक शेल्फ़ की शोभा बढ़ा रही है... और इस नज़्म पर जाने कैसे कभी नज़र ही नहीं पड़ी जबकि सातवें पन्ने पर ही मौजूद है :)

    सब गुलज़ार साब की ही ग़लती है ये रात और पश्मीने में ऐसा उलझाया की ख़ुदा तक पहुँचने ही नहीं दिया :)

    ख़ैर... अब पढ़ ली है तो लीजिये यहाँ सब के साथ सांझा भी कर लेते हैं...

    बुरा लगा तो होगा ऐ ख़ुदा तुझे,
    दुआ में जब,
    जम्हाई ले रहा था मैं -
    दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं !
    मैं जब से देख सुन रहा हूँ,
    तब से याद है मुझे,
    ख़ुदा जला बुझा रहा है रात दिन,
    ख़ुदा के हाथ में है सब बुरा भला -
    दुआ करो !
    अजीब सा अमल है ये
    ये इक फ़र्ज़ी गुफ़्तगू,
    और एकतरफ़ा - एक ऐसे शक़्स से,
    ख़्याल जिसकी शक्ल है
    ख़्याल ही सबूत है

    ReplyDelete
  30. बाप रे इतने सारे शब्द ... क्या गज़ब की गुफ्तगू ...... तौबा
    गुलज़ार साहब से ज्यादा तो इस गुफ्तगू को पढने में मज़ा आया
    आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ
    खुद को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा समझने वाली मैं
    नहीं जानती थी कि अभी तो बहुत कुछ जानना और सीखना बाकी है
    well खूब मज़ा आया ऐसी शानदार और जानदार चर्चा का ज़ायका लेने में
    हाँ ज़ायका ही है मेरे लिए....... सुबह से कुछ नसीब ही नहीं हुआ

    ReplyDelete

जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...