Sunday, February 27, 2011

तमस...एक नज़र...


तमस अँधेरे अतीत के ऐसे खंडहर है जिनमें झांकते हुए डर सा लगता है.भीष्म साहनी ने फसादों की वीरानी को महसूस कर,चीखों पुकार की आवाज़ को सुना और इस सारे दर्द को उनकी कलम ने सहा.किताब के हर पन्ने पे यातना भोगे लोग खुले आस्मां में पोटलियाँ उठायें शब्दों में सिमट आये हैं.तमस कोई चमत्कार,विस्मय या कुतूहल जगाती कहानी नहीं है पर कुछ ऐसा है कि आप असहज से हो जाते हैं.
देश का विभाजन देश की आज़ादी से भी बड़ी घटना थी.मानो ज़िन्दगी किसी बड़े से अंतिम दरवाज़े पर रुक गयी थी जिसपर लिखा हुआ था-आरम्भ.
कहानी की शुरुआत में- 
नत्थू  कुछ कहे या न कहे कि मुराद अली चलने को हुआ था। फिर अपनी पतली-सी छड़ी अपनी टाँगों पर धीरे-धीरे ठकोरते हुए कहने लगा : ‘‘आज ही रात यह काम कर दो। सवेरे-सवेरे जमादार गाड़ी लेकर आ जायेगा, उसमें डलवा देना। भूलना नहीं। वह अपने-आप सलोतरी साहिब के घर पहुँचा देगा। मैं उसे कह दूँगा। समझ लिया ?’’
नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी। 

काला सूअर मस्जिद के सामने मरा पाया जाता है.हवा में ज़हर फ़ैल चूका था.सूअर, गाय और इंसान काटने में कोई फर्क नहीं बचा था ऐसे में हुकूमत बस तमाशा देख रही थी.

डिप्टी कमिशनर रिचर्ड अपनी पत्नी लीज़ा से कहता है -हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ रही है,शायद फसाद होंगें.
"ये लोग आपस में लड़ेंगे?लन्दन में तो तुम कहते थे ये लोग तुम्हारे खिलाफ़ लड़ रहे है."
"हमारे खिलाफ़ भी लड़ रहें है और आपस में भी लड़ रहें हैं."
"धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं,देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते है."रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा.
अफ़वाहों का मुश्क काफूर लगा के दंगे अग्निवाण सा सब स्वाह कर रहे थे.किसी पीर फकीर की बददुआ लगी थी की शहर के शहर तबाह हो रहे थे.जिन मुहल्लों में सांझे चूल्हे हुआ करते थे वहां लीकें खिंच गयी थी.आँखों में विश्वास की जगह संशय और भय ने ले ली. विश्वास परखे गये टूटे भी और जुड़े भी.

चाय की दूकान पर केतली पर चढ़ाया गया पानी सुबह से खौलता रहा,दूकान के सामने दोनों बेंच खाली पड़े थे.पहले बेंचो पर भीड़ लगी रहती थी.गाँव का कोई आदमी नहीं था जो आता जाता हरनाम की दूकान पर न बैठता हो.बंतो ने कल शाम से ही कहना शुरू कर दिया था इस गाँव से निकल चलो पर हरनाम नहीं माना.,चलती दुकान छोड़ कर कैसे भाग जाये?
"सुन भागे भरिये (किस्मत वालिये)हमने किसी का कुछ देना नहीं है,किसी का बुरा सोचा नहीं है,किसी का बुरा किया नहीं है.ये लोग भी हमारे साथ कभी बुरी तरह पेश नहीं आए हैं.तेरे सामने ,कुछ नहीं तो दस बार करीम कहाँ कह गया है : आराम से बैठे रहो,तुम्हारी तरफ कोई आँख उठा कर भी नहीं देखेगा.अब करीम खान से बड़ा मोतबर इस गाँव में और कौन होगा?सारे गाँव में एक ही तो सिख घर है .इन्हें गैरत नहीं आएगी की हम निहत्थों पर हाथ उठाएंगे?
 बन्तो
चुप हो गयी.तर्क का जवाब तो तर्क में दिया जा सकता है पर विश्वास का जवाब तर्क के पास नहीं.
और जब दोपहर ढलने को आई तो ढक्की पर से उसे किसी के क़दमों की परिचित-सी आहट आई.करीम खान लाठी टेकता चला आ रहा था.हरनाम का ढाढस बंधा.
करीम खान  दुकान के सामने आया पर रुका नहीं.न ही हरनाम की और मुँह किया,केवल चाल धीमी कर दी और खंखारने के बहाने बुदबुदाया:
"हालत अच्छी नहीं हरनाम सिंह ,तूं चला जा"
तभी पहली बार हरनाम के विश्वास की टेक बुरी तरह हिल गयी.फिर भी हरनाम सिंह इतना घबराया नहीं जितना उदास हो गया.


कैसा लगता है, सालों साल एक जगह रहते रहते एकाएक बेघर हो जाना,परदेसी हो जाना? पीछे छूटते घरों से पांव कांपते होंगे.जिस अँधेरे से डर लगता था वही अँधेरा आसरा बना हुआ था.
अँधेरा...
जिसमें लोग खुद को सुरक्षित महसूस करते थे.

दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं,पर यहाँ कोई दीवार न थी.केवल टीले थे,कहीं कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप  सकता था पर कितनी देर के लिए?कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छंट जायेगा और वे फिर से जैसे नंगे हो जायेंगे,सर छिपाने की जगह नहीं मिलेगी.

"इस ढोक में चल कर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं.उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा,न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है."
"तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?"
हरनाम सिंह मुस्करा दिया:
"जहाँ सबको जानता था.वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया.सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी.यहाँ जानने वालो से क्या उम्मीद हो सकती है?उन लोगों के साथ तो मैं खेल कर बड़ा हुआ था..."


आज़ादी के बारे में सोचने का वक़्त, भविष्य के मनसूबे बाँधने का वक़्त, जान बचाने में बीत रहा था. आस्मां का नीला रंग धुआं धुआं सा था. किवाड़ खटखटाए नहीं तोड़े जा रहे थे. ज़िन्दगी की बेबसी के बावजूद जहाँ जिंदा रहना जरूरी था, चाहे धर्म बदल के ही सही. वहीँ मरने की राह न देखते हुए कुछ जिंदगियां पहले ही आत्महत्या कर रही थीं. जब फसादों का खेल चरम पे पहुँच गया तो हुकूमत  के जहाज़ आस्मां में उड़ने लगे.क्या लुटा, क्या बचा, जोड़ जमा किये जाने लगे.
 
"आज तहसील नूरपुर के कुछ आंकड़े मिले हैं.मरने वालों की संख्या में बहुत अंतर नहीं.जितने हिन्दू-सिख लगभग उतनें ही मुसलमान."

शांति के बाद अमन कायम करने की बातें होने लगी, मीटिंगें बुलाई जाने लगी, अमन की बस 'पहले-दौरे' पे रवाना होने लगी.

बस में से नारे गूंजने लगे:
''हिन्दू-मुस्लिम -एक हो!"
"हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद-जिंदाबाद!"
"अमन कमेटी-जिंदाबाद!"
लोगों ने झांक-झांक कर बस के अंदर देखा,कौन आदमी था जो पहले से बस में बैठकर आया था और लाउडस्पीकर पर नारे लगा रहा था बहुत से लोगों ने उसे नहीं पहचाना कुछ एक ने पहचान भी लिया.नत्थू मर चुका था,वरना नत्थू यहाँ मौजूद होता तो उसे पहचानने में देर नहीं लगती.मुराद अली था.उसकी पतली सी छड़ी उसकी टांगों के बीच में पड़ी थी और छोटी-छोटी आँखें दांयें-बांयें देखी जा रही थीं और बस में से नारे गूँज रहे थे.



 

Wednesday, February 23, 2011

अरूंधति-1


डाकिए की ओर से: एक चीज होती है हार्ट लाइन. इसमें एक ही वक्त पर कम से कम दो आदमी एक ही बात सोचते हैं. कुछ दिन पहले हिन्दुस्तान में उदय प्रकाश का साक्षात्कार पढ़ा था कि आज के दौर में आप बिना कुछ किए भी अपने दुश्मन बना सकते हैं।

ये कविता ऐसे ही किसी हार्ट लाइन की बात कहती है। शुक्र है उदयप्रकाश सिर्फ इसे सुन ही नहीं रहे साथ में बोल भी रहे हैं। यहां तीन दी जा रही है, शेष दो अगली बार।
*****

यह कविता इसी तरह लिखी जा रही है, अलग-अलग समय और मूड्स में। यह किसी सूची में शामिल होने के लिए नहीं, अपने समय की चिंता का हिस्सा बनने के लिए लिखी जा रही है। जीवन की अनिश्तिताओं और बिखरावों के बीच। यह किसी भाषा-विशेष की अभिव्यक्ति या उसकी कला-परम्परा का अंग नहीं है। यकीन मानिए, अगर कोई अन्य भाषा मैं इतनी जानता कि उसमें कविता लिख सकूं, तो उसी भाषा में लिखता। कहते हैं, हर कविता सबसे पहले अपने लिए प्राथमिक शर्त की तरह ‘सहानुभूति‘ की मांग करती है, तो यह भी करेगी - उदय प्रकाश

अरूंधति 

एक 

जेठ की रात में 
छप्पर के टूटे खपड़ैलों से दिखता था आकाशा
अपनी खाट पर डेढ़ साल से सोई मां की मुरझाई सफेद- जर्द 
तर्जनी उठी थी
एक सबसे धंुधले, टिमटिमाते, मद्धिम लाल तारे की ओर -

‘वह देखो अरूंधति।‘

मां की श्वाल नली में कैंसर था और वह मर गई थी, इसके बाद 

उसकी उंगली उठी गई थी आकाश की ओर 

कल रात मैंने
फिर देखा अरूंधति को 
वैशाली के अपने फ्लैट की छत से

पूरब का अकेला लाल तारा
अपनी असहायता की आभा में 
हमारी उम्मीद की तरह कभी-कभी बुझता
और फिर जलता हर बार

साठ की उम्र में भी 
मैं मां की अंगुलियां भूल नहीं पाता। 


दो 

उसका चेहरा
हमारे आंसुओं की बाढ़ में 
बार-बार उतराता है

उसके अनगिन खरोंचों में से
हमारे अनगिन घावों का लहू रिसता है 

हमारे हिस्से की यातना ने
वर्षों से उसकी नींद छीन रखी है 

हमारे बच्चों के लिए लोरियां खोजने 
वह जिस जंगल की ओर गई है 
वहां से जानवरों की आवाज़ आ रही है 
उधर, गोलियां चल रही हैं

उसकी बहुत बारीक और नाजुक
कांपती आवाज़ में हमारी भाषा नई सदी की नई लिपि 
और व्याकरण सीखती है

सोन की रेत में वह पैरों के चिन्ह छोड़ गई है 

नर्मदा की धार में उसका चेहरा
चुपचाप झिलमिलाता हुआ बहता है

तीन 

लुटियन के टीले से कभी नहीं दिखती अरूंधति 
वहां अक्सर दिखता है पृथ्वी के निकट आता हुआ
अमंगलकारी रक्ताभ मंगल

या अंतरिक्ष में अपनी कक्षा से भटका कोई 
गिरता हुआ टोही खुफिया उपग्रह

रोहतक या मथुरा से देखो तो सूर्योदय के ठीक पहले 
राजधानी के ऊपर हर रोज उगता है किसी गंुबद-सा
कोहरे का रहस्यपूर्ण रंगीन छाता
वर्णक्रम के सारे रंगों को किसी डरावनी आशंका में बदलता 

संसद या केंद्रीय सचिवालय के आकाश में 
नक्षत्र नहीं दिखते, आजमा लो
न सात हल-नागर, न शुकवा, न धुरू, न गुरू
वहां तो चंद्रमा भी अपनी गहरी कलंकित झाइयों के साथ 
किसी पीलिया के बीमार-सा उगता है, महीने में कुछ गिनी-चुनी रात
नत्रजन, गंधक और कार्बन में बमुश्किल किसी तरह अपनी सांस खींचता 

कभी-कभी आधी रात टीवी चैनल जरूर दिखाते हैं 
टूटती उल्काओं की आतिशबाजी
किंग खान और माही के करिश्मों के बाद

दिल्ली से नहीं दिखता आकाश
यहां से नहीं दिखता हमारा गांव-देश, हमारे खाने की थाली, 
हमारे कपड़े, हमारी बकरियां और बच्चे 

दिल्ली से तो दादरी के खेत और निठारी की तंदूर तक नहीं दिखते 

यहां के स्काइस्क्रैपर्स की चोटी पर खड़े होकर
गैलीलियो की दूरबीन से भी 
लगभग असंभव है 
अरूंधति की मद्धिम लाल 
टिमटिमाती रोशनी को देख पाना।

साभार - अहा! ज़िंदगी पत्रिका, जनवरी अंक, 2011

Tuesday, February 15, 2011

मंटो को पढ़ते हुए


डाकिए की ओर से: शीन काफ निजाम ने मंटो पर विशेष अध्यन किया है. इत्तेफाक से वे मेरे पसंदीदा शाइर भी हैं। उनकी गज़ल संग्रह 'सायों के साये में' मेरी पसंदीदा है। सन् 2002 के अंधेरे में इस किताब ने बहुत सहारा दिया था। ज्ञातव्य हो कि इसी बरस उन्हें उर्दू अदब के क्षेत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है।

*****

मंटो को उर्दू का मोपासाँ कहा गया है लेकिन मुहम्मद हसन अक्करी ने लिखा है:
"अगर मंटो मोपासाँ के बराबर नहीं पहुंच सका तो इस में इतना क़सूर खुद मंटो का न था जितना उस अदबी-रिवायत का, जिसमें वह पैदा हुआ। जिस बात में मंटो ‘मोपासाँ से पीछे रह जाता है, वह मोपासाँ का गद्य है।"

इन परम्पराओं में एक फर्क तो यही है कि एज़रा पाउण्ड शाइरों को मोपासाँ का पढ़ने की सलाह देते हैं जबकि उर्दू में प्रामाणिक या मानक भाषा काव्य की है। दूसरा फर्क यह है कि मोपासाँ को वाल्तेयर और फ्लाबेयर जैसे रचनाकारों का ग़ मिला था और मंटो को मिला था दास्तानवी गद्य, जो श्रव्य-गद्य का लिखित रूप् था। 

मंटो तक पहुंचते-पहुंचते उर्दू कहानी भी वक्त बिताने के बजाय वक्त बचाने का हुनर हो गई थी। वह बताने में छिपाने और छिपाने में बचाने का आर्ट सीख रही थी। फिर मंटो तो पाठक पर भरोसा करने वाला, संवेदनशील लेखक था। कहता था, क्या ही अच्छा होता, अगर आदमी लिखे बगैर अपने खयालात दूसरे तक पहुंचा सकता। विभाजन के बाद पाकिस्तान पहंुच कर वह अफसाने नहीं, लेख लिखता है इसलिए कि वह इस कला-रूप को बहुत संगीन समझता है। वह चाहता था कि कथा-भाषा में कोई लफ्ज गैर जरूरी न हो। पाकिस्तान में वह पहला अफसाना ठण्डा गोश्त लिखता है और दूसरा खोल दो। खोल दो का एक अंश है:

"रंग गोरा है और बहुत खूबसूरत है। मुझ पर नहीं थी अपनी मां पर थी। 
उम्र सत्रह के करीब थी..... मेरी इकलौती बेटी है। "

पहला वाक्य है पर खत्म होता है। दूसरा थी पर तो तीसरा है पर। यह संदेह और विश्वास, आशा और निराशा के बीच झूलते बूढ़े असहाय बाप की मनःस्थिति है, क्रिया-प्रयोग का दोष नहीं। सिराजुद्यीन यह तक भूल गया है क रज़ाकारों ने न उसकी बीवी को देखा है, न वो उसकी बेटी को पहचानते हैं। काहनी लाख उपमा का आर्ट हो, लेकिन उपमा में दो में से एक की जानकारी जरूरी है। कहानी के अंत में, सकीना की हरकत पर सिराजुद्यीन न आंखे बंद करता है, न मुंह फेरता है और न सर पीटता है, बल्कि खुशी से चिल्लाता है। पसीने में गर्क़ तो उस समाज को होना चाहिए न जो सकीना का है! दृष्टव्य है कि सकीना के साथ दुव्र्यवहार भारत के स्वयंसेवकों ने नहीं, पाकिस्तान के रज़ाकारों ने किया है। ठण्डा गोश्त में वह ईशर सिंह - सिक्ख - की इंसानियत को उजागर करता है। पाकिस्तानी समाज को यह नागवार गुज़रता है और मुक़दमा चलता है। 

मंटो के किरदार बुरे हैं, परन्तु वे बुराई के बावजूद अच्छे लगते हैं अच्छाई उन के लिए ओढ़ने की नहीं, बरतने की चीज़ है। ये चरित्र प्यार चाहते हैं, सहानुभूति नहीं। हतक की सौगन्धी ग्राहक के सामने स्वयं को सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत करती है, इसलिए कि उसमें प्रेम करने की अहलियत भी है और निबाहने की सलाहियत भी। झूठे-सच को जानते हुए भी उसने दीवार पर चार मर्दों के चित्र टांग रखे हैं। 

मंटो की तवाइफें कोठे पर नहीं, कोठरीनुमा कमरों में रहती हैं। वहां लोग तमीज़ सीखने नहीं, जिस्म की जिजारत के लिए जाते हैं। उनमें फरेबकारी नहीं, शराफत है। शिकायत नहीं, हालात से निपटने की सकत है। 

मंटो के पात्रों के नाम और चीज़ों की हरकत तथा रंग भी ध्यान देने योग्य है। मिसाल में हतक ही को लें। सौगन्धी नाम है पात्र का। उर्दू में सुगन्ध भी इसी तरह लिखा जाएगा। इसे सौ गन्धी भी पढ़ा जा सकता है। कई स्थानों पर वेश्या को सौ गन्धी कहते हैं। अगर इसे सुगन्धि पढ़ें जो उर्द लिपि में संभव है, तो इसका अर्थ होगा पुण्यात्मा, धर्म पर रहना आदि। एक पात्र है माधव, जिसका एक अर्थ वसन्त भी है - अब यह वाक्य देंखे, 

"उसे (सौगन्धी को) महसूस होने लगा कि उसे माधव की जरुरत है। "

कुत्ता, इस्लाम की मान्यता के अनुसार त्याज्य है। महाभारत में इन्द्र युधिष्ठिर से कहते हैं, कुत्ते रखने वालों के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है। अफसाने की रूह में ऐसे अनेक संभावित अर्थ छिपे हैं। इसी तरह सिराजुद्यीन का अर्थ धर्म का दिया है तो सकीना हज़रत इमाम हुसैन, जो कर्बला में शहीद हुए, की बेटी का नाम है। तोता, खुजली वाला कुत्ता, कुत्ते का भौंकना, तोते का चुप रहना आदि अनेक स्थल विचारणीय हैं। 

मंटो कहता था, दुनिया को समझाना नहीं चाहिए उस को खुद समझना चाहिए। कलात्मक समझ पर जब तक भरोसा रहेगा, मंटो जैसे लोग प्रासंगिक रहेंगे। 
उर्दू के विख्यात शायर एवं आलोचक 
साभार : वाक्देवी प्रकाशन 

Saturday, February 12, 2011

देखी है कभी डाकिये के नाम भी कोई चिट्ठी?

बचपन में जब मैं अपने डाकिये को लोगों की चिट्ठियां उनतक पहुँचाते हुये देखता था तब एक बात अक्सर मुझे परेशान करती थी कि उस डाकिये की चिट्ठियां उसतक कौन पहुँचाता होगा? बढती उम्र ने जब कई चीजों के जवाब दिये, शायद तभी समझ आया कि वो भी कोई और नहीं एक डाकिया ही था।
तो आज एक चिट्ठी  डाकियों के लिये जो अबतक बैरंग चिट्ठियों को उनके पतों तक पहुँचाने का काम बडी शिद्दत से कर रहे हैं। इस चिट्ठी को लिखा है एक डाकिये ने (अपूर्व शुक्ला), पढा है एक डाकिये ने (दर्पण साह) और यहाँ तक पहुँचाने की साजिश भी एक डाकिये ने ही (डिम्पल) रची है।
…तो प्रस्तुत है ’ओ समय!’



 
प्रेषक :- दर्पण साह 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

Wednesday, February 9, 2011

मण्टो की जरूरत...




डाकिए की ओर से: वो गाड़ी देखी है आपने? वही, जो बिनायक सेन का चेहरा याद करते ही जाली वाली गाड़ी ज़हन में उभरती है। प्रगति मैदान पर वही गाड़ी लगी थी। थीम था - क्रांतिकारी किताबें। मोज़ेल से पहली बार वहीं मिला था। सच है, मंटो जैसा विरला भी नहीं हुआ। पेश है एक जरुरत...

*****
       "ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि यह ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराईयां है, वो इस अहद की बुराईयां हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक्स है - मैं हंगामा पसन्द नहीं। मैं लोगों के ख़यालातों-ज़ज्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं... लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और ज्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा ख़ास अन्दाज़, मेरा ख़ाज तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंद और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है - लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख्त को गाली भी सलीके से नहीं दी जाती..."

"लेकिन सच तो यह है कि पहले परक्कीपसंद मेरी तहरीरों को उछालते थे कि मंटो हम में से है। अब यह कहते हैं कि मंटो हम में नहीं है। मुझे न उनकी पहली बात पर यक़ीन था, न मौजूदा पर है। अगर कोई मुझ से पूछे कि मंटो किस जमाअत में है तो मैं अर्ज़ करूंगा कि मैं अकेला हूं।"


अकेला होना शायद हर कलाकार की नियति है। जो कलाकार अपनी कृतियों में ज़माने की हक़ीक़त से जितना रू-ब-रू होता जाता है, वह उतना ही अकेला भी होता जाता है। कला हक़ीक़त को उस के उन सभी आयामों और रूपों में एक साथ देखती-दिखाती है जिन्हें किसी एक व्याख्या या फ़लसफ़े में घटाया नहीं जा सकता। इसलिए फ़लसफ़ियों के तो गिरोह हो सकते हैं, होते हैं, लेकिन कलाकारों के नहीं, क्योंकि प्रत्येक कलाकार हक़ीक़त को जिस तरीके से ग्रहण और सम्प्रेषित करता है, वह इतना विशिष्ट होता है कि दूसरा कोई उस तरीके से गुज़र ही नहीं सकता। इसलिए हर कलाकार अपने संवेदना लोक में, अपने अनुभव संसार में और अपनी रचना प्रक्रिया में अकेला ही होता है। चाहे अपने फ़लसफ़े में किसी गिरोह के साथ होने का दावा वह स्वयं भी करता रहे - क्योंकि रचना - रूप के अलावा अनुभूत हक़ीक़त के ग्रहण-सम्प्रेषण का और कोई तरीक़ा उस के लिए प्रामाणिक नहीं हो सकता है। 

         एक कहानीकार की हैसियत से मंटो की प्रामाणिकता इसी बात में है कि वह अनुभव के प्रत्यक्ष ग्रहण को महत्व देता है बल्कि अनुभव का विश्लेषण भी उस के लिए प्रत्यक्ष ग्रहण ही है। इसीलिए उसकी कहानियों को सिर्फ महसूस किया जा सकता है क्योंकि उसकी बनावट भी एक एहसास है। अपनी बनावट में वे किसी बौद्धिक विश्लेषण या व्याख्या-दृष्टि का सहारा नहीं लेती। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कोई विश्लेषण वहां नहीं होता - वह होता है, लेकिन अनुभव प्रक्रिया या कहें एक ऐंद्रिक संवेदन की तरह। जाॅन डन की एक कवितांश है - 

उसका विशुद्ध और बोलता सा रक्त
उस के कपोलों में बोलता था ओर
इतना स्पष्ट रूप से उत्तेजित था
कि यहां तक कहा जा सकता था
कि उस का शरीर सोचता था।

       मंटों की कहानियों अपनी भाषा और बनावट में कुछ इसी तरह का एहसास करवाती हैं। ये कहानियां जीवन की सुंदरताओं और उसकी क्रूर विडंबनाओं को इस तरह एक दूसरे में गूंथ देती हैं कि उन्हें मंटो के कहानी के अलावा कोई अन्य नाम दिया ही नहीं जा सकता। 

           मोटे तौर पर मंटो को जीवन की विडम्बनाओं का कथाकार कहा जा सकता है। लेकिन ऐसा करना एक तरह का सरलीकरण होगा क्योंकि इन विडम्बनाओं के चित्रण के माध्यम से ही मनुष्य के होने के अनुभव का, उसकी सार्थकता का भी एहसास होता है। मोज़ेल  इस का एक उत्कृष्ट उदाहरण कही जा सकती है जिसके नंगेपन की उपमा मंटो धुले नेत्र से देता है और अंत में वह अनी मौत में सिर्फ एक मनुष्य रह जाती है, जब वह तिरलोचन से उस पगड़ी को ले जाने के लिए कहती है, जिसने उसके नंगे जिस्म को ढक रखा है - "ले जाओ इस को - अपने इस मज़हब को।"

         यह कहानी में कविता का रूपायन है। मंटो की कहानियां, दरअस्ल, कवि - मन की कहानियां हैं और उन का शिल्प भी कविता-सा ही है। कविता की तरह इन कहानियों को उनकी विशिष्ट भाषिक बुनावट से अलग करके के नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां महत्वपूर्ण केवल घटना नहीं, बल्कि घटना के वर्णन की भाषिक बुनावट है। हतक की सौगन्धी के जीवन की शून्यता के अनुभव को जिस रूपाकात्मक भाषा मंटो अभिव्यक्त करता है, वह अन्य प्रकार से संभव ही नहीं है। 

      "माधो डर गया। गिरी हुई टोपी उठाने के लिए वह झुका तो सौगन्धी की गरज सुनाई दी, ‘खबरदार ! पड़ी रहने दे वहीं - तू जा, तेरे पूना पहुंचते ही मैं इस को मनीआॅर्डर कर दूंगी‘। यह कह कर वह और जोर से हंसी और हंसती-हंसती बैंत की कुरसी पर बैठ गई। उस के खारिश वाले कुत्ते ने भौंक-भौंक कर माधो को कमरे से निकाल दिया। उसे सीढ़ियां उतार कर जब कुत्ता मुण्ड दुम हिलाता सौगन्धी के पास वापस आया और उसके कदमों के पास बैठ कर कान फड़फड़ाने लगा तो सौगन्धी चैंकी - उन से अपने चारों तरफ़ एक भयावह सन्नाटा देखा- ऐसा सन्नाटा, जो उसने पहले कभी न देखा था। उसे ऐसा लगा कि प्रत्येक वस्तु खाली है - जैसे मुसाफिरों से लदी हुई रेलगाड़ी स्टेशनों पर मुसाफिरों को उतार कर अब लोहे के शेड में बिल्कुल अकेली खड़ी है... "

         कविता कोमलकान्त पदावली में  नहीं, बल्कि जीवन की जटिल भाव-स्थितियों के एहसास में है और यह एहससास ही मंटो की भाषा को रूपकात्मक स्तर तक उठा देता है, जिस के कारण मंटो की कहानियां निर्मल वर्मा  के इस कथन का प्रमाण हो जाती हैं कि 'कहानी अपनी छोटी सी जीवन यात्रा में उस अजानी और खाली जमीन को पार करती है जो भाषा और समय, कविता और इतिहास के बीच फैली है। निर्मल इसीलिए कहानी को कविता के जमे हुए समय को पिघलाकर कथात्मक क्षेत्र में बहाना कहते हैं।'

       खोल दो जैसी कहानी में मंटो इसी हिकमत का प्रमाण देते हैं जब दो शब्द खोल दो से विभाजन की मानवीय यन्त्रणाओं के समूचो इतिहास की ग्लानि का एक जटिल और संश्लिष्ट किन्तु चाकू की तरह मर्म को चीर देने वाला एहसास हमें बिलबिला जाता है। 

            मंटो पर नग्नता और अश्लीलता के आरोप केवल साहित्यिक ही नहीं, क़ानूनी अदालतों में भी लगाए गए। लेकिन यह अजीब बात है कि जिन कहानियों को ले कर ये आरोप लगाए गए, उनमें कहीं भी सेक्स का चटाखेदार वर्णन नहीं है - बल्कि उनके माध्यम से मनुष्य की क्रूरता और प्रेमहीन दैहिक सम्बंधों के खोखलेपन को ही बेनक़ाब करते हुए प्रेम के वास्तविक अनुभव को - दैहिक सीमा से परे उस के आनंद और यन्त्रणा - तथा अपने सीमित स्व का अतिक्रमण करने का सामथ्र्य देने वाली उसकी ताक़त को व्यंजित किया गया है। बाबू गोपीनाथ, मोज़ेल और काली सलवार जैसी कहानियां इसके उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। 

      मैंने शुरू में कहा कि मोटे तौर पर मंटो को विडम्बना का कथाकार कहा जा सकता है। लेकिन मंटो विडम्बना की स्थिति को भी एक ऐसी कथात्मक युक्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं, जिससे वह एक स्थिति नहीं, बल्कि मानवीय नियति बन जाती है - और शायद यही कारण रहा होगा जिसकी वजह से तरक़्क़ीपसन्दों ने उसे अपने अपने से अलग कर दिया क्योंकि अन्यथा मंटो से बड़ा यथार्थवादी कथाकार और कौन हो सकता है। बाबू गोपीनाथ का यह अंश देखिए-

"रण्डी का कोठा और पीर का मज़ार - बस ये दो जगह हैं जहां मेरे मन को शान्ति मिलती है। ... कौन नहीं जानता कि रण्डी के कोठे पर मां-बाप अपनी औलाद से पेशा कराते हैं और मक़बरों और तकियों में इंसान अपने ख़ुदा से।"

     टोबा टेक सिंह  में विडम्बना युक्ति की सार्थकता इस में है कि उसे पढ़ते हुए हम समझने लगते हैं कि वास्तविक पागल कौन है - टोबा टेक सिंह या हम सब ! यह कहानी, इस प्रकार विभाजन से पीड़ित किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक पूरी क़ौम के पागल हो जाने की विडम्बना को सम्प्रेषित करती है। मंटो के कई चरित्र प्रसिद्ध हुए हैं - अपनी विचित्र विडम्बनापूर्ण स्थितियों और व्यवहार के कारण - लेकिन लेखक का प्रयोजन चरित्र नहीं, बल्कि उन के माध्यम से मानवीय विडम्बनाओं को उद्घाटित करना है। महत्वपूर्ण चरित्र नहीं, वह मानवीय नियति है, जिस की ओर ये चरित्र इशारा करते हैं। अन्त में पाकिस्तानी आलोचक सलीम अख्तर के इस कथन को उद्धृत करना चाहूंगा: 

जरूरत है ऐसे सिरफिरे की जो खिड़की खोलने की हिम्मत रखता हो। आज का युग अपना मंटो पैदा करने में असफल रहा है। इसलिए न केवल सआदत हसन मंटो की आज ज़रूरत है, बल्कि पहले से अधिक शिद्दत से...

------ नंदकिशोर आचार्य  
प्रसिद्ध हिन्दी कवि, नाटककार एवं आलोचक।

साभार: वाक्देवी प्रकाशन 

Sunday, February 6, 2011

ख़त की इबारत

(कभी-कभी कुछ कविताएँ अचानक हमको भिगो जाती हैं...और फिर अकेला छोड़ जाती हैं हमें...पतझड़ की बेमौसम बारिश की तरह....और हम उदासी के गहरे धुंधलके मे शाख से टूटे हुए गीले पत्तों का मूक बिलखना सुनते रहते हैं...देर तलक। कुछ कविताएं थोड़ा सा कह कर इतना अनकहा छोड़ जाती हैं हमारे पास..कि मन देर तक उसी अनकहे के बीहड़ मे अकेला भटकता रहता है..उस अव्यक्त के आइने मे अपनी पहचान के अक्स तलाश करता...जैसे कि माँ बच्चे को रात मे देर तक लोरी सुनाती है..प्यार करती है..दुलारती है..और परियों की कहानी..दूर देश के राजकुमारो, उड़ने वाले घोड़ों की कहानी.....मगर सो जाने के बाद बच्चे के ख्वाबों मे परियाँ नही आतीं..ना राजकुमार..ना उड़ने वाले घोड़े...ख्वाब मे माँ का आँसुओं भरा चेहरा आता है..ख्वाब गीले हो जाते हैं।..व्यस्त दिन बावरे मन को किसी बच्चॆ सा भटकाये रहता है..बाजार मे...रंगीनियों मे..हासिल की जा सकने वाली उपलब्धियों मे..मगर शाम होते-होते मन उसी बच्चे सा खयालों की स्कूल-बस से चुपके से उतर जाता है..बिना बताये..और वापस आ कर उसी टूटी मुँडेर पर उदास सा बैठ जाता है..जहाँ अपना सिसकना सिर्फ़ अपने आप को ही सुनाई देता है..खैर!!..यह एक मेरी पसंदीदा पंजाबी कविता है..सरोद सुदीप की..ज्ञानपीठ के किसी पुराने प्रकाशन मे संकलित..हिंदी रूपांतर डॉ हरभजन सिंह का था...पढ़ें यह बैरंग ख़त..शायद आपको भी पसंद आये..)





इबारत एक पत्र की
 

वैसे तो उदास नही होता मैं
छोटी-छोटी बात पर हँसी आ जाती है
माँ का ख़त आया -बेटा तुम्हारे पाँव बहुत दूर चले गये हैं
तब जलती-जलती सिगरेट जल गयी
 
जहाज आये होंगे, चले गये होंगे
सभी द्वार खुले हैं, एक भी गुजर जाने योग्य नही
कल नींद नही आयी तो न सही
कहीं  न कहीं कोई खुशी बैठी होगी
उसके पास जाओ और कहो:
यह भी एक फ़ालतू भ्रम था

मधुमक्खी एक फूल पर बैठती है,
फिर दूसरे पर, फिर तीसरे पर
और उड़ जाती है
चश्मे ने तुम्हे देखा और उसे तुमने
और बात खुदगर्जी पर आ कर खत्म हो गयी

कल जो पल जाग उठा था
आज बुझ गया है...
बच्चों समेत कबूतरी खा ली गयी
और कबूतर शाम तक
टूटे पंखों के इर्द-गिर्द गुटकूँ, गुटकूँ करता रहा...
सारा ब्रह्माण्ड है, बहुत कुछ जानने योग्य है
किंतु मेरे पास आते-आते एक प्रश्न
कुछ दूरी पर खड़ा हो जाता है
एक मजाक की तरह...

माँ के ख़त का उत्तर लिखने बैठा था
लिफाफे पर मेरा अपना पता लिखा गया है
वैसे तो उदास नही होता मैं...

(चित्र: वाया फ़्लिकर)
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