कुमाऊँ की दन्त-कथाएँ एवं आंचलिक गीत किसी भी अन्य क्षेत्र और आँचल की तरह ही प्रेम प्रधान हैं. हरू हीत, जगदेच पंवार, रामी बौराणी, राजुला मालूशाही आदि यहाँ की लोक गाथाओं के प्रमुख प्रेमी युगल हैं.झोडे,चांचरी, न्योले, छोलिया, बाजूबंद आदि लोक नृत्यों एवं लोक गीतों के माध्यम से इनके विषय में काफी कुछ जानने एवं समझने को मिलता है. प्रकट है कि ये सभी लोक गीत आंचलिक भाषा (कुमाँउनी) में ही होंगे. (कुछ कहानियां देश काल से परे नहीं होती तथा इनका एकाधिक कारणों से किसी निश्चित समय अथवा निश्चित क्षेत्र से विशेष सम्बन्ध होता है.)ऐसी ही एक दन्तकथा/आंचलिक कथा को जुगल किशोर पेटशाली जी ने जन-जन तक पहुँचाने के लिए हिंदी का आलंबन लिया है.
सौभाग्य से ये पुस्तक मेरे पास मेनू स्क्रिप्ट (टाइप राईटर एडिशन ) के रूप में उपलब्ध है जो स्वयं पेटशाली जी ने पिताजी को दी थी.पेटशाली जी इससे पूर्व कुमाँउनी में पुस्तकें लिख चुके थे. और इस ग्रन्थ को लिखने के बाद भी उन्होंने 'जय बाला गोरिया' नाम से एक पुस्तक कुमाँउनी में ही लिखी (मोह भंग की स्थिति?).
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सारांश
(कहानी के कई संस्करण उपलब्ध है अतः मैंने जुगल किशोर जी के ही काव्य ग्रन्थ का आश्रय लिया है. सभी उद्धरण उनकी पुस्तक से ही हैं.)
बैराठ (वर्तमान में चौखुटिया ) के राजा दुलाशाह एवं भोट व्यापारी सुनपत शौक दोनों ही संतान प्राप्ति हेतु बागनाथ (बागेश्वर) के मंदिर में आराधना करने जाते हैं वहीँ दोनों की अर्धागिनियाँ इस बात पे आपस में सहमति व्यक्त करती हैं कि यदि उनकी संतानें क्रमशः लड़का एवं लड़की हुई तो वे उन दोनों का विवाह कर देंगी...
समय बीत तो जाता, लेकिन-
रह जाती है बात कभी.
बाल मित्रता को दृढ करने,
रानी ने प्रण किया तभी.
मेरा पुत्र, तुम्हारी पुत्री,
यदि ऐसा हो हे भगवान.
बाधेंगे जीवन-सूत्रों में,
आगे है, होनी बलवान.
इश्वर की कृपा से ऐसा ही हुआ. बैराठ के राजा के पुत्र का नाम मालूशाही एवं सुनपत शौक की पुत्री का नाम राजुला पड़ा. समय/नियति ने फिर उनके मिलन पर अपनी मुहर लगाई जब दुलाशाह को ज्योतिषी ने बताया कि मालूशाही का अल्प मृत्यु का योग है जिसका निवारण है, 'जन्म के पांचवें दिन समान लग्न में पैदा हुई कन्या से मालूशाही का प्रतीकात्मक विवाह'. और इसके लिए राजुला से अच्छा कोई और विकल्प नहीं हो सकता था. (प्रतीकात्मक विवाह के विषय में जुगल किशोर जी की पुस्तक में कोई जानकारी नहीं मिलती.)
बचपन की एक घटना से ही राजुला के हृदय में मालूशाह के प्रति लगाव उत्पन्न हो गया. एक दिन राजुला ने अपनी माँ से पूछा...
माँ बता सम्पूर्ण विश्व में,
कौन मनोहर राजकुमार?
कौन पुष्प सर्वोपरि पूजित?
कौन देव जग के आधार?
माँ बोली बेटी तू बच्ची,
लेकिन तेरे प्रश्न महान.
आदि देव नट नागेश्वर हैं,
वही पूर्ण हैं, सकल-निधान.
....................
दुलाशाह वैराट नगर के,
हैं सुपूज्य-अविजित-सम्राट.
मालूशाह हैं कुँवर उनके,
जिनमें राजस तेज विराट.
किन्तु कालांतर में दोनों परिवारों के बीच दूरियां बढ़ती चली गयी. जाति-भेद, आर्थिक स्थिति एवं राजुला के पिता का व्यापारिक लाभ के कारण हूँणपति (एक अन्य सजातीय राजकुमार ) के साथ राजुला के विवाह की इच्छा इसके मुख्य कारण थे...
कभी बुने थे स्वप्न शौक ने,
तिब्बत से व्यापार बढ़ेग.
अतुल सम्पदा का स्वामी बन,
अक्षय कोषागार भरेगा.
हैं नरेश ऋषिपाल हूँणपति,
तिब्बत का सम्राट मान्यवर.
धर्मधीश है, मठाधीश भी,
कोटि-कोटि हैं जिसके अनुचर.
इसी कारण जब राजुला ने (मालूशाह से प्रथम मिलन के बाद) अपने पिता के समक्ष मालूशाह से ही विवाह की इच्छा प्रकट की तो शौक ने न केवल विरोध किया अपितु...
लगी राजुला उसको जैसे,
कितने जन्मों की दुश्मन हो.
अपना बैर चुकाने जिसने-
बेटी बनकर पाया तन हो.
किन्तु जब यही इच्छा राजुला ने माँ के समक्ष रखी तो माँ ने न केवल समर्थन किया अपितु पति की इच्छा के विरुद्ध मालूशाह के राज्य जाने के लिए राजुला को आज्ञा एवं आशीर्वाद दिया...
यदि तेरा मन पूर्ण रूप से,
न्योछावर है मालू के प्रति.
होगी तेरी सफल कामना,
मेरी भी इसमें है स्वीकृति.
कई दिनों की मुश्किल यात्रा के बाद जब राजुला , मालूशाह के राज्य एवं अंततः उसके शयनकक्ष पहुंची तो उसने मालूशाह को घोर निद्रा में पाया (कहा जाता है कि मालूशाह को उसके परिवार एवं राज्य के षड्यंत्रकारियों ने १२ वर्ष तक सोये रहने की जड़ी सूंघा दी थी. (पेटशाली जी के काव्य में इस षड्यंत्र का और १२ वर्षीय निद्रा का प्रसंग नहीं मिलता). प्रियतम को निद्रा से जगाना राजुला को नहीं भाया...
निद्रा में भी हँसता विग्रह,
कितना मृदुल तुम्हारा गात.
यदि मैं छुकर तुम्हें जगाऊँ,
पहुँचेगा मुझको आघात.
अतः कुछ देर प्रतीक्षा करने के पश्चात उसने मालूशाह को पत्र के माध्यम से अपनी बात कहना उचित समझा...
समझ नहीं आता, यह पाती,
किन शब्दों में हो आरम्भ?
महाकाव्य सी अपनी गाथा,
करूँ कहाँ से मैं प्रारंभ?
जब मालू ने निद्रा से जागकर राजुला का पत्र पढ़ा, उसे ग्लानि एवं वियोग तो हुआ ही साथ ही राजुला के प्रति प्रेम एवं जीवन-दर्शन की अनुभूति भी हुई...
यह पत्र पढ़ते ही कुँवर,
अति विकल मन होते गए.
भूले हुए अनुराग के,
तल में अटल खोते गए.
हा राजुला ! तुम धन्य हो,
देवत्व कि कि अनुभूति हो.
नारी नहीं त्रेलोक्य की,
महिमामयी सुविभूती हो.
................................
माँ शक्ति ! तेरी सृष्टि का,
कैसा छली यह रूप है?
विधि की पहुँच से भी परे,
कितना बली यह रूप है ?
थी राजुला आई यहाँ,
मैं नींद में सोया रहा.
धिक्कार मेरे जन्म को,
हा ! मैं अधम खोया रहा.
.............................
इस सृष्टि के सौंदर्य का,
सत्प्रेम को ही श्रेय है,
सब सिद्धि-नीथियाँ जेय हैं,
बस प्रेम ही अविजेय है.
मालूशाह प्रण लेता है की वो राजुला को अपनी अर्धांगिनी बना के रहेगा....
सौगंध मुझको राजुला,
मातृत्व की वैराट की.
सौगंध है अपने पिता की,
जग पूज्यवर सम्राट की.
संकल्प मेरा है अडिग,
वैराट से लेने तुम्हें,
विश्वस्त पवन प्रेम का-
प्रतिदान, भी देने तुम्हें.
और तब मालूशाही सन्यासी का रूप धारण कर वैराट से निकल पड़ता है....
मधुर मिलन का मन्त्र जप कर,
पलकों में प्रेयसी की छाया.
पहन गेरुवें वस्त्र कुंवर ने,
सन्यासी का वेश बनाया.
और इस अंतिम छंद के साथ पद्य-कथा का पटाक्षेप होता है...
अमर रहेगी हर जिव्हा पर,
मालू तेरी गाथा अक्षय.
अरे ! प्रेम के पथिक बावरे,
हो तेरी यात्रा मंगल मय.
जुगल किशोर जी यहीं पर कहानी का अंत करते हैं किन्तु उत्तराखंड में कहानी और इसके अंत के कई अलग संस्करण पाए जाते हैं. (कोस कोस में बदले बाणी.)
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महाकाव्य ९ भागों में विभक्त है:
१)वंदना:
हे ! तत्वों की आभ्रय भूता,
विद्या रूपिणी, ब्रह्म रूपिणी.
प्रलयकार की अंतर्यामिनी,
दीप्यमान, कल्याण कारिणी.
मात ! स्नेह की सिंधु स्वरूपा,
अपरिछिन्न स्वर-शब्द-रूपिणी.
नाभि-स्थित-दल-कमल-कर्णिका,
अतुल शक्ति दे शक्ति रूपिणी.
......................................
अरि-बलमर्दिनी शांति-विवर्धिनी,
इस उर का संताप हरो तुम.
ज्योतिमयी ! ज्योतिर्मय बनकर,
अन्धकार को दूर करो तुम .
२)सर्ग १(पूर्व कथा, राजुला का मालूशाह के प्रति आकर्षण एवं मालूशाह से मिलने की प्रबल उत्कंठा):सर्ग की शुरुआत उत्तरांचल के महिमा गान (लेखक की गर्वानुभूति !) से होती है...
धन्य ! उत्तराखंड देव-भू,
नवल छठा से है द्युतिमान.
किरणों का वैभव करता है,
क्रीडा, शिशु-सा बन अनजान.
.....................................
युग बदले, युग बीते फिर भी,
रहा अमर इसका परिवेश.
करता रहता सतत प्रवाहित,
दिव्य चेतना का सन्देश.
और उत्तरांचल के विषय में बताते बताते वे कथा का प्रारंभ करते हैं...
शिखर शिखर से गूँज रहे हैं,
वेदों के अमृतमय श्लोक.
तपोभूमि यह, तपस्वियों की,
फ़ैल रहा ज्ञानालोक.
इसी शिखर से जुड़ा हुआ है,
दर-दूर तक शौक-प्रदेश.
भारत माँ का शीर्ष मुकुट यह,
सुनपति का सोने का देश.
३)सर्ग २(राजुला का अपने पिता के साथ वैराट आगमन, राजुला एवं मालूशाह का प्रथम मिलन, मालूशाह का कल्पित स्वप्न.):किसी ग्रन्थ में नायिका के रूप-गुण का बखान न हो...
सुनपति की गृह्दीप राजुला,
एक मात्र कन्या संतान.
स्वयं प्रकट हो बैठी मानो,
देवी सती, देने वरदान.
राजुला के बारे में प्रचलित है कि वो जितनी रूपवती थी उतनी ही स्वाभिमानी एवं निडर भी. जो इस दन्त कथा एवं फलतः इस काव्य - रचना को नायिका प्रधान बनाती है. कहानियों में वो भी ऐतिहासिक कहानियों में नायिका का ऐसा रूप कम ही दिखता है...
मानसरोवर के हंसों से,
पाई गति औ' परिमल हास.
हिम-मंडित शिखरों से उसने,
पाया अडिग-अटल-विश्वास.
नायक (मालूशाह) का वर्णन लेखक ने नायिका (राजुला) के पॉइंट ऑव व्यू से किया है. यही दोनों का प्रथम मिलन क्षण भी है...
तभी सुगन्धित, चपल पवन से,
न्यस्त हुआ राजू का वेश.
ढुलक गया छाती से आँचल,
बिखर गए घुंघराले केश.
क्षण मूर्छित सी हुई राजुला,
विकल हुए प्राणों के प्राण.
वेध गए कोमल काया को,
इन्द्रसखा के पाँचों बाण.
४)सर्ग ३(राजुला एवं मालूशाह का विछोह)
६)सर्ग ५(राजुला का प्रकृत्यात्मक विरह,माँ की वेदना एवं राजुला को वेरात जाने की प्रेरणा देना, निर्विघ्न यात्रा हेतु राजुला की मंगल प्रार्थना)
७)सर्ग ६(राजुला की वैराट यात्रा, निन्द्रमाग्न मालूशाह, राजुला का पत्र लिखकर मालूशाह के सिरहाने रखकर शौक देश की वापसी, विरहा)
८)सर्ग ७ (वैराट की एक सुबह, मालूशाह द्वारा राजुला का पत्र पढ़ना, मालूशाह का वियोग एवं जीवन दर्शन, मालू का योगी के रूप में शौक-देश प्रस्थान, पुर्नमिलन): पुर्नमिलन के होने की बात सर्ग के प्रारंभ में (शीर्षक में ) कही गयी है किन्तु काव्य ग्रन्थ मालू के देश छोड़ने के साथ ही समाप्त हो जाता है.
९)अंतभाषण : यदि इसे भी कहानी/महा-काव्य का ही हिस्सा माना जाये तो भी पुर्नमिलन लुप्त है. क्यूंकि इस भाग में 'ढूंढ रहा है क्या सन्यासी' के रूप में एक कविता है जिसे अंतिम सर्ग के साथ या उससे अलग एक पृथक कविता के रूप में देखा जा सकता है...
तृष्णा घाट सा लिए कमंडल,
तू किसकी सुधि में डोले रे?
भोगी होकर के तू कैसे,
योगी की बोली बोले रे?
किसे ढूँढने तेरी आँखें,
युग युग से लगती हैं प्यासी?ढूंढ रहा है क्या सन्यासी
.......................................
और कई योगी इस पथ में,
तुमसे भी पाहिले आये थे.
कुछ तो लौट चले आश्रम को,
कुछ यात्रा से घबराये थे,
कुछ कहते थे हम क्यूँ भटकें ?
मन में ही जब हैं अविनाशी,ढूंढ रहा है क्या सन्यासी?
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कई कई जगह नारी को पुरुष से श्रेष्ठ बताने सफल प्रयास किया गया है. सर्ग ७ में मालूशाही के माध्यम से कही गयी ये बात...
तुमने प्रणय के पंथ को,
हे देवी ! परिमार्जित किया.
नारीत्व का गौरव बढ़ाया,
एश्वर्य को लज्जित किया.
नारी तुम्हीं तो पुरुष की,
कल्याण वेष्ठित मूर्ति हो.
बन अर्ध की अर्धांगिनी,
एकत्व की आपूर्ति हो.
................................
उपमेय तू , उपमान तू,
तू ही जगत की मूल है.
दासी समझ लेना तुझे,
यह पुरुष की अति भूल है.
पुस्तक की विशेषता ये भी है कि लेखक स्थान स्थान पर आंचलिक शब्दों, सूक्तियों एवं वस्तुओं का अर्थ, अभिप्राय एवं प्रासंगकिता देते हुए चलते हैं. उत्तराखंड के जीवन, त्यौहार एवं सामाजिक धारणाओं के विषय में कई जगह प्रसंग हैं. एक उद्धरण...
सजी गोमती सरयू दोनों,
नील भील विहँसे मतवाले.
उत्तरायणी झूम रही है,
कौवा काले, कौवा काले.
(कौवा काले त्यौहार केवल कुमाऊं में मनाया जाता है.)
स्वर्ण, रत्न, धन-धान्य, संपदा,
वैभव का है कोष विराट.
शौक सुनपति बना हुआ है,
पूर्ण दारमा* का सम्राट.
(*कुमाऊँ में प्रचलित लोक कथाओं के आधार पर सुनपति शौक का स्थान, पट्टी मल्ला दारमा माना जाता है. जो वर्तमान में जिला पिथौड़ागढ़ में स्थित है.)
पांचवे सर्ग में तो सम्पूर्ण 'राजुला का प्रकृत्यात्मक विरह' कुमांउनी छंद विन्यास 'जोड़/न्योली' के मीटर में है और इसकी भाषा कुमाँउनी है , पश्चात हिंदी में भावानुवाद (हिंदी में भावानुवाद भी गेय है.).कुछ एक छंद अविस्मरणीय बन पड़े हैं जिनका साहित्य में बिना पढ़े रह जाना मुझे एक पाठक के नज़रिए से बड़ा विचलित करता है.पुस्तक इसलिए सबसे अधिक होंट करती है क्यूंकि इसमें प्रेम. फलसफे , जीवन दर्शन एवं आध्यात्म की गज़ब की ब्लेंडिंग की गयी है. ये पुस्तक स्त्री मनोविज्ञान एवं स्त्री दृढ़ता को एक नया आयाम देने का अनुपम प्रयास है. और पोस्ट के लंबे हो जाने के डर के बावजूद इसे आप लोगों के साथ बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ.इसको बिना कहानी का कांटेक्स जाने भी पसंद किया जा सकता है. कुछ फलसफे हैं... बस कुछ और नहीं. जो पुस्तक से यहाँ वहाँ से अपनी पसंद के अनुसार चुन लिए हैं:
इस अंधे जहरीले पथ में,
किसको समझाएं, सच क्या है?
अपने को ही सत्य समझना,
ये बूढ़े जग की द्विविधा है.
जब भी परिवर्तन के कंठों-
में, दृढ़ता के स्वर आते हैं,
तरुण रक्त को नास्तिक कहकर,
मुर्दे आस्तिक बन जाते हैं.
बंधे हुए जीवन क्रम में,
खोया है इतना मानव मन.
भूल चुका सौन्दर्य कला का,
जीवन से सम्बन्ध चिरंतन.
जिसके अन्दर है निस्सिमित,
स्वासों के प्रति मोह और गति.
दृष्टा का दृष्त्वयमान से,
एक्किकृत होने की सहमति.
या प्यासे अगणित कोशों का,
परम तृप्तिमय गुंजन व्यापक,
ताल बद्ध सम्पूर्ण सृष्टि के,
उदयगीत से प्रलय नृत्य तक.
यही कला अमृतमय होकर,
सुन्दरता की बांधे भूमिका,
उद्घोषित हो आदि गर्जना,
'ॐ' शब्द की बनी मात्रका.
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
हूँ अकेली इस निशा में,
पर बना है दर्द प्रहरी,
हो गए है दिवस लम्बे,
तिमिर घिर घिर सांझ गहरी,
जो अतिथि थे सुखद क्षण के,
आज वो सब खो गए हैं,
आदि से स्वार्थी जगत की,
यही रूखी रीत ठहरी.
स्वयं पथ हूँ, पथिक भी हूँ, चल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
.....................................................
हुआ नाटक अन्त, फ़िर भी,
नाट्यशाला जी रही है,
दीर्घ पनघट की डगर में,
लौटने का क्रम नहीं है,
क्या किया मनुपुत्र तुमने,
चूमकर मटकी रसों की?
पी रहा इसको कि तू, या
ये तुझे ही पी रही हैं?
मैं सदा इस खोज मैं विह्वल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
.....................................................
श्वांत का वरदान देकर,
भरे मृत में प्राण मैंने,
तृषित अधरों को दिया है,
धीर बनकर त्राण मैंने,
सुमन का जब दिव्य सौरभ,
लूटने में विकल थे तुम,
अथक हाथों से किया था,
मूल का निर्माण मैंने,
कर्म की मैं प्रेरणा, संवल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
तुम केवल नैनों के पथ से,
पहुंचे, सीमित है जहाँ रूप.
मैं पंचतत्व के मिश्रण से,
बन रही विश्व की छवि अनूप.
मैं दृष्टा हूँ, इसलिए मुझे,
क्षति से होता, निर्माण बोध.
तुम श्रोता हो, सुनकर करते,
अति क्रोध भरे मेरा विरोध.
हैं पूर्ण और पूर्णत्व एक,
वैराग और अनुराग एक,
पर बहुत दूर वह सीमा है,
अति गहरे में ऐसा विवेक.
हम नेति-नेति से भी आगे,
दृश्यों से लेकर दृष्टा तक.
हैं अनहद ध्वनि से जुड़े हुए,
निर्मित से लेकर सृष्टा तक.
प्रेम-कला की पावन अनुकृति,
बिन सुन्दरता जो अपूर्ण है,
विरह मधुर प्रतिदान प्रेम का,
प्रेम सत्य है, सत्य पूर्ण है.
पर हम विथकित रुग्न पथिक से,
जहाँ रुके पग वही सो गए.
रस माधुर्य मिलन के मृदु क्षण,
याद नहीं है, कहाँ खो गए?
प्रेम, तुष्टि, सौन्दर्य, सरलता,
कर लेंगे जब पूर्ण समन्वय,
विरह, द्वेष, भय उत्पीडन को,
कैसे मिल पायेगा आश्रय.
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अंततः
जुगल किशोर पेटशाली द्वारा रचित ये काव्य ग्रन्थ किसी छायावादी रचना की याद दिलाता है. इतने सधे हुए ढंग से काव्य रचना करना निश्चित ही भागीरथी प्रयास है. ग्रन्थ लिखने में की गयी मेहनत साफ़ दिखती है, चाहे वो मीटर (गेयता) साधने की बात हो या लिखने से पूर्व की गयी रिसर्च (पुस्तक पढ़ने के बाद इसका अनुमान स्वयं हो जाता है.).इन सभी विशेषताओं के बावजूद भी बिक्री और उपलब्धता के आधार पर इसे साहित्य के क्षेत्र में अंडर- पर्फोर्मर ही कहा जायेगा. दुःख और आश्चर्य साथ साथ होता है जब ऐसा साहित्य पाठकों के लिए उपलब्ध न हो पाए. कारण तो इसका पूर्व में पाठकों द्वारा नकार दिया जाना ही है. नकार दिया जाना शायद गलत हो. अनुपलब्धता सही. लेकिन अंततः मांग और पूर्ति !
राजुला मालूशाही : मध्य हिमालय की अमर प्रेम गाथा (पुरस्कृत )
टकशिला प्रकाशन , हार्डकवर, ISBN 8179650022
मूल्य : 200/-
इसे आप ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं. (कोई आश्चर्य नहीं कि पुस्तक अभी आउट ऑव स्टॉक है!)
baap re....!!!
ReplyDeletebaap re baaaap...........!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteकहानी कमेन्ट देने के बाद पढ़ी है...
ReplyDeleteसच कहें.....
तो ये प्रेम कथा काफी दिलचस्प होने के बावजूद काफी अधूरी सी लग रही है...
Rajula meri bitiya ka naam hai ...:))
ReplyDeleteShukriya Darpan Bhaii N Manu ji ...link bhejne ka
Poignant !!
समय बीत तो जाता, लेकिन-
ReplyDeleteरह जाती है बात कभी.
किशोर जी के ही काव्य ग्रन्थ के कुछ हिस्से पढ़ने को मिले.कहानी मौलिक नहीं होने पर भी रचना विलक्षण बन पड़ी है.कथा का निर्वाह ,भावों का चित्रण जिस ढंग से किया है वह मौलिक और अपूर्व है.समीक्षक ने काव्य संदर्भो के साथ -साथ बहुत सधे ढंग से जानकारी देते हुए कथा में आये सभी प्रसंगों को समेटने का सफल प्रयास किया है.काव्य ग्रन्थ का आरम्भ प्राथना और परिणति मंगल से( अंत सुखद ) से हुई अच्छी लगती है.
उस समय के परिवेश जाति-भेद, आर्थिक स्थिति,समाज में स्त्रिओं का स्थान,रीती रिवाज़ सब का वर्णन काव्य कौशल का परिचय देता है.उपमाए इतनी खूबसूरत है -
राजुला के सौन्दर्य की अनोखी झलक हमारी आँखों के सामने आ जाती है-
मानसरोवर के हंसों से,
पाई गति औ' परिमल हास.
हिम-मंडित शिखरों से उसने,
पाया अडिग-अटल-विश्वास.
मालूशाह का वियोग,निन्द्रमाग्न मालूशाह(ऐसा भी क्या सोना?:))आदि बातें अगर न हो तो वो मनुष्य नहीं देवता बन जाता.राजुला और मालूशाह के चरित्र तो ऊँचा उठाया गया साथ में राजुला करूणा और सौन्दर्य की मूर्ति नज़र आती है.काव्य ग्रन्थ की समीक्षा पाठकों के लिए सहेज के रखने वाली है.. ग्रन्थ लिखने में की गयी मेहनत साफ़ दिखती है तो समीक्षा में की मेहनत भी नज़र अंदाज नहीं की जा सकती..
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई
Bahut hi achhi tarah aapne Maalu Shah aur Rajula ka charitra chitran kiya hai.. bahut gaharyee hai aapke lekhan mein.. aur jis tarah se aapne katha ko maarmikta ke saath prastut kiya hai wah kaabiletaarif hai..
ReplyDeleteHaardik shhubhkamnayne
bahut hi badiya,
ReplyDeletetaarif ke kaabil...
Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai.....
A Silent Silence : Ye Kya Takdir Hai...
Banned Area News : My morning drive is great independence for me: Big B
बूकमार्किया पोस्ट है दर्पण.. बैरंग में जान डालती हुई..
ReplyDeleteमूड बन रहा है ब्लॉग का..
malushah k pita ka naam kya tha.
ReplyDeletekuch log mante hai pirthvipal