Sunday, July 19, 2015

चिट्ठियें दर्द फ़िराक़ वालियें

गेब्रियल गरसिआ मार्क्वेज़  के उपन्यास "क्रॉनिकल ऑफ़ ए डेथ फोरटोल्ड"  के कुछ अंश......



वह जैसे दोबारा जी उठी थी। वह मुझे बताती है "मैं उसके लिए पागल हो चुकी थी...दिमाग़  ने सोचने की शक्ति जैसे खो दी थी। आँखे बंद करती तो उसे देखती। उसकी सांसों की आवाज़ समंदर के शोर में भी सुन सकती थी। आधी रात को बिस्तर में उसकी देह की लौ  मुझे नींद से जगा देती थी।"
उस पहले हफ्ते में एक भी पल उसे चैन नहीं मिला था। फिर उसने उसे पहली चिट्ठी  लिखी। यह शिकायत से भरी आम सी चिट्ठी थी, जिसमे उसने उसे होटल से बाहर निकलते वक्त देखने के बारे में बताया था और यह शिक़वा किया था कि उसे कितना अच्छा लगता अगर वह भी एक नज़र उठा कर उसे देख लेता। वह बेकार ही चिट्ठी के जवाब का इंतज़ार करती रही। दो महीने इंतज़ार करके थक कर उसने एक और चिट्ठी लिखी। यह भी ठीक पहले जैसी औपचारिक थी। वह उसे इतनी कठोरता और बेदर्दी दिखाने के लिए धिक्कारना चाहती थी। छह महीने में उसनें छह चिट्ठियां लिखी, पर एक का भी जवाब नहीं आया। मगर उसे तसल्ली इस बात की थी कि कम से कम चिट्ठियां उसे मिल तो रहीं हैं, उस तक पहुंच तो रही ही हैं न।

 अपनी नियति के लिए वह स्वयं जिम्मेदार थी और यह बात उसे समझ आ गयी थी कि प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू  हैं। वह जितनी चिट्ठियां लिखती, उसके अंदर की अंगारों सी व्याकुलता उसे उतनी ही जलाती। परन्तु एक पीड़ादायक नफ़रत वह अपनी माँ  के लिए महसूस करती। उसे देखना ही उसे परेशान कर देता। माँ को देखती तो उसे वह याद आ जाता। पति से अलग रह कर उसकी ज़िंदगी जैसे-तैसे गुज़र रही थी। वह साधारण नौकरानी की तरह मशीन पर कढ़ाई करती, कपड़े के टूलिप्स और कागज़ के पंछी  बनाती रहती। जब माँ सोने चली जाती, वह उसी कमरे में सुबह होने तक वह चिट्ठियां लिखती रहती, जिनका कोई भी भविष्य नहीं था। उसका देखने का नज़रिया अब पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गया था, वह पहले से ज्यादा रौबदार और अपनी मर्जी की मालकिन बन गयी थी। अपने सिवा किसी का हुक्म नहीं मानती थी, न ही अपने जूनूँ के इलावा किसी और की मुलाज़मत उसे मंज़ूर थी। वह हर सप्ताह आधा वक़्त चिट्ठियां  लिखती रहती। वह हँसते हुए कहती "मुझे कई बार पता ही नहीं चलता कि क्या लिखूं, पर मेरे लिए यह बहुत था कि उस तक मेरी चिट्ठियां पहुंच तो रही हैं।" पहली चिट्ठियां उसने एक पत्नी की तरह से लिखी, फिर किसी प्रेमिका की तरह छोटे-छोटे संदेश लिखे। कई बार खुशबूदार कार्ड्स भेजती, कई बार व्यस्तता की बातें और कई बार मुहब्बत से भरी लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिखती। आखिर में उसने ऐसी चिट्ठियां लिखी जो एक परित्याग की गयी पत्नी के गुस्से से भरी हुई थीं। वह मनगढ़ंत बीमारी की बातें बता कर उसे वापिस बुलाना चाहती थी।
एक रात जब वह किसी वजह से खुश थी, उसने चिट्ठी लिखी और उस पर सियाही की दवात गिरा दी। उसे फाड़ देने की बजाय उसमें पुनश्च जोड़ देती है, कि अपने प्रेम के सबूत में तुम्हें अपने आँसू भेज रही हूँ। वह उसे याद कर-कर के इतना रोती,  कि कई बार थक कर अपना ही मज़ाक उड़ाने लगती। छह बार पोस्ट मास्टरनी बदल चुकी थी और हर नई पोस्टमास्टरानी  के साथ मेल-मिलाप करने में छह बार उसे परेशानी उठानी पड़ी। सिर्फ एक चीज जो उसके साथ नहीं हुई, वह थी इन सब से थक कर हार मान लेना। परन्तु वह उसके इस प्रेम, इस जूनून  के प्रति संवेदनशून्य ही रहा। उसका यह लिखना ऐसे था, जैसे वह किसी ऐसे व्यक्ति को लिख रही है, जो कोई कहीं है ही नहीं। जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
दस साल बीत चुके थे। एक तूफ़ान भरी सुबह में वह इस विश्वास के साथ उठी कि रात वह इसके बिस्तर पर अनावृत सो रहा था। तब उसनें एक बेचैनी भरी बीस पन्नों की चिट्ठी लिखी। जिसमें बिना शर्म वह बातें लिखती है, जो उस मनहूस रात से ही उसके दिल में दबी हुई हैं। वह उसे उन घावों के बारे में लिखती है, जो वह उसकी देह पर छोड़ गया था और जो दिखाई देते हैं। उसकी भाषा के तीखेपन की बात करती है, उसकी देह के कुण्ड को सींचे जाने की बात करती है। शुक्रवार को पोस्टमास्टरानी कढ़ाई करने आई, तो उसने उसे वह चिट्ठी दी। उसे लगता था कि यह चिट्ठी उसके सभी दुखों का अंत कर देगी। यह निर्णायक चिट्ठी होगी। पर हमेशा की तरह इसका भी कोई जवाब नहीं आया। तब से लेकर अब तक उसने लिखते वक़्त कभी नहीं सोचा कि वह क्या लिख रही है, किसे लिख रही है। दिशाहीन सी वह सत्रह साल तक लिखती रही।
मध्य अगस्त के किसी दिन वह सहेलियों के साथ हमेशा की तरह कढ़ाई कर रही थी, कि किसी के आने की आवाज़ दरवाज़े पर सुनी, परन्तु उसने नज़रें उठा कर नहीं देखा कि  कौन आया है। यह कोई गठे हुए बदन वाला व्यक्ति था, जिसके सिर के बाल झड़ रहे थे और जिसे पास की चीज़े देखने के लिए चश्में की जरूरत थी। परन्तु यह वह था। हे ईश्वर! यह तो वही था। वह भी उसे उसी तरह से पहचानने की कोशिश कर रहा था, जैसे वह उसे। वह सोच रही थी कि क्या उसके अंदर इतना प्रेम बचा होगा कि वह उसके भार को संभाल सकेगी। उसकी कमीज़ पसीने से भीगी हुई थी। जैसा उसे पहली बार मेले में देखा था। उसने वही बेल्ट  पहनी हुई थी, वही चांदी  की सजावट वाला जीन का बिना सिला झोला था। वह कढ़ाई करने वाली लड़कियों को आश्चर्य से भरा छोड़ उसकी तरफ बढ़ा और अपना जीन का झोला उसकी कढ़ाई की मशीन पर रखा दिया । 
उसने कहा"मैं आ गया हूँ।"
उसके पास एक कपड़ों का सूटकेस था और ठीक वैसा ही दूसरा  सूटकेस २००० चिट्ठियों से भरा था, जो उसने उसे लिखी थी। सारी  चिट्ठियां तारीख के अनुसार रंगीन रिबन से पुलिंदों में बंधी हुई थी।  उनमें से एक भी चिठ्ठी कभी खोली नहीं गयी थी। 

4 comments:

जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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