Tuesday, December 28, 2010

बहरे वक्त मे बिनायक सेन होना

    सच एक भयावह शब्द होता है। एक मुश्किल वक्त मे सच की मशाल थामने वालों को यंत्रणाओं के दौर से गुजरना पड़ता है। निरंकुश ताकतों के खिलाफ़ आवाज उठाने की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। और अगर वह निरंकुश ताकत सरकार की हो जिसके हितों को आपका सच बोलना नुकसान पहुँचा सकता है तो एवज मे आप राजद्रोही भी करार दिये जा सकते हैं। डॉ बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ के ट्रायल-कोर्ट द्वारा उम्रकैद की सजा देना इसलिये नही चौंकाता है कि हमें राजसत्ता से उनके लिये किसी रियायत की उम्मीद थी, बल्कि इसलिये ज्यादा व्यथित करता है कि राजनैतिक व्यवस्था से हताश इस देश के आम आदमी की मुल्क की न्याय-प्रणाली मे अभी भी कुछ आस्था बाकी थी। डॉ सेन को 120B, 124A के चार्जेज़ के अलावा बहुविवादास्पद ’छत्तीसगढ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट-2005’ और UAPA के अंतर्गत सजा सुनाई गयी।

   ’व्हाट इज डेमोक्रेसी’ मे प्रख्यात संवैधानिक कानूनविद जॉन ओ फ़्रैंक कहते हैं- ’सत्ता की निरंकुशता के लिये एक असरदार हथियार होता है अपने सरकार के विरोधियों पर राजद्रोह का जुर्म लगा देना। इसलिये राजद्रोह संबंधित कानून बनाते वक्त इस बात का खास खयाल रखना चाहिये कि सत्ता द्वारा उन कानूनों का इस्तेमाल अपनी नीतियों के आलोचकों को खामोश करने के लिये न किया जाने पाये।’ इतिहास देखें तो दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक सरकारें भी राजनैतिक विरोधियों को शांत करने के लिये संदिग्ध कानूनों का सहारा लेते पायी गयी हैं। लातिन-अमेरिकी या तमाम अफ़्रीकी मुल्कों के राजनैतिक इतिहास मे ऐसे अनगिन उदाहरण मिल जाते हैं। मगर सबसे अहम्‌ तथ्य यह है कि कानून का ऐसा गैरकानूनी इस्तेमाल अंततः मुल्क के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये ही घातक सिद्ध होता है। भारत के लिये भी डॉ बिनायक सेन की सजा का उदाहरण न तो पहला है न ही आखिरी होगा।

   डॉ सेन पर माओवादियों का साथ देने और भारतीय राज्य के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने की साजिश का जुर्म लगाया गया था। क्या छत्तीसगढ़ सरकार के लिये डॉ सेन इतना बड़ा खतरा हैं कि उन्हे खामोश करा दिये जाने की जरूरत पड़े? पुलिस उन्हे फ़र्जी इनकाउंटर मे भी मार सकती थी या एक्सीडेंट भी करा सकती थी। मगर उन्हे कानून की रोशनी मे अपराधी करार दिये जाना इसलिये ज्यादा जरूरी था कि आम नागरिकों के बीच उनकी विश्वसनीयता को मारा जा सके। ताकि उस सच की धार को भोथरा किया जा सके जो सरकार की निरंकुशता के क्रूर चेहरे को बेनकाब करता था।

   सरकार की नजर मे खतरनाक यह इंसान दरअस्ल ख्यातिप्राप्त पीडिएट्रिशियन, स्वास्थ्य-सेवी और सामाजिक अधिकारों का प्रखर कार्यकर्ता था जिसे अपने कार्य के लिये देश-विदेश के तमाम पुरस्कारों के साथ ’ग्लोबल हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स’ के लिये जोनाथन मैन अवार्ड मिल चुका था। डॉ सेन जो प्रतिष्ठित CMC इंस्टीट्यूट से मेडिकल के टॉपर स्टुडेंट रहे थे मगर उनकी गलती यह थी कि शिक्षा के इस स्तर पर जब लोग विदेश जा कर पैसा कमाने की अंधी दौड़ मे शामिल होने के सपने देखते हैं तब उन्होने  देश के उन उपेक्षित और ग़रीब हिस्सों मे काम करने को प्राथमिकता दी जहाँ मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सबसे ज्यादा कमी थी। पिछले तीस सालों से छत्तीसगढ़ के बेहद पिछड़े आदिवासी इलाकों मे निःस्वार्थभाव से जन-स्वास्थ्य के क्षेत्र मे उनके अथक काम का नतीजा है कि वहाँ के लोकल स्वास्थ्यसेवी भी यह मानते हैं कि उनके प्रयासों से आदिवासी इलाकों मे शिशु-स्वास्थ्य की हालत सुधारने मे बड़ी मदद मिली। मुल्क के पिछड़े हिस्सों मे चिकित्सा सेवा मे अपनी जिंदगी समर्पित कर देने वाले इस शख्स को उसी मुल्क का दुश्मन करार देने की जरूरत कैसे महसूस हो गयी?

   यहाँ मुझे रेणु की कालजयी कृति ’मैला आँचल’ के अहम्‌ पात्र डॉ प्रशांत की याद आती है। मुल्क की आजादी के वक्त की इस कथा मे वो बिहार के पिछड़े और ग्रामीण इलाके मे लोगों को मलेरिया जैसी बीमारी से निजात दिलाने का सपना ले कर जाता है। मगर उस इलाके मे रिसर्च के दौरान अपना वक्त गुजारने के बाद उसे तब बड़ा धक्का लगता है जब उसे यह समझ आता है कि मलेरिया से भयावह तरीके से ग्रसित उस इलाके की असल बीमारियाँ मलेरिया आदि नही वरन् उससे इतर और खतरनाक थी। कुनैन मलेरिया का इलाज कर सकती थी मगर गरीबी का नही! जंगली वनस्पति बुखार जैसे रोगों को ठीक कर सकती थी मगर सामाजिक-भेदभाव जैसी खतरनाक बीमारी को नही! और इन असल बीमारियों का इलाज किये बगैर कोई हालत संवरने वाली नही थी।

   डॉ सेन का हाल भी ऐसा ही रहा। डॉ सेन का जुर्म यह रहा कि उन्होने आदिवासियों के लिये काम करते हुए उनके अधिकारों की बात की, उन पर हो रहे जुल्मों का जिक्र किया। उन्होने हिंसा का हमेशा सख्त विरोध किया चाहे वह माओवादियों की हो या सरकारी बलों की! डॉ सेन पुलिस और पुलिस समर्थित गुटों द्वारा व्यापक पैमाने पर किये जा रहे भूमि-हरण, प्रताड़नाओं, बलात्कारों, हत्याओं को मीडिया की रोशनी मे लाये; पीडित तबके के लिये कानूनी लड़ाई मे शामिल हुए। उनका अपराध यह रहा कि वो उस ’पीपुल’स यूनियन फ़ॉर पब्लिक लिबर्टीज’ की छत्तीसगढ़ शाखा के सचिव रहे, जिसने मीडिया मे ’सलवा-जुडुम’ के सरकार-प्रायोजित  अत्याचारों को सबसे पहले बेनकाब किया।

   इतने गुनाह सरकार की नजर मे आपको कुसूरवार बनाने के लिये काफ़ी है। फिर तो औपचारिकता बाकी रह जाती है। इस लोकतांत्रिक देश की पुलिस ने पहले उन्हे बिना स्पष्ट आरोपों के महीनो जबरन हिरासत मे रखा। फिर कानूनी कार्यवाही का शातिर जाल बुना गया। सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी किसी हिंसात्मक गतिविधि मे संलग्नता को प्रमाणित नही कर पायी। सरकार के पास उनके माओवादियों से संबंध का कोई स्पष्ट साक्ष्य नही दे पायी। पुलिस का उनके खिलाफ़ सबसे संगीन आरोप यह था कि जेलबंद माओवादी कार्यकर्ता नरायन सान्याल के ख़तों को दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने का काम उन्होने किया। मगर इस आरोप के पक्ष मे कोई तथ्यपरक सबूत पुलिस नही दे पायी। उनके खिलाफ़ बनाये केस की हास्यास्पदता का स्तर एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी वकील अदालत मे उन पर यह आरोप लगाता है कि उनकी पत्नी इलिना सेन का ईमेल-व्यवहार ’आइ एस आइ’ से हुआ था। मगर बाद मे अदालत को पता चलता है कि यह आइ एस आइ कोई ’पाकिस्तानी एजेंसी’ नही वरन दिल्ली का सामाजिक-शोध संस्थान ’इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट’ था। फ़र्जी सबूतों और अप्रामाणिक आरोपों के द्वारा ही सही मगर पुलिस के द्वारा उनको शिकंजे मे लेने के पीछे अहम्‌ वजह यह थी कि उनके पास तमाम पुलिसिया ज्यादतियों और फ़र्जी इन्काउंटर्स की तथ्यपरक जानकारियां थी जो सत्ता के लिये शर्म का सबब बन सकती थी।

   सरकारी-तंत्र की ज्यादतियों के शिकार दंतेवाड़ा के वो अकेले ऐसे कार्यकर्ता नही है। उनके अलावा भी तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी मनमानी का विरोध करने के एवज मे पुलिसिया प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है। एक नाम हिमांशु कुमार का है। स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र और प्रखर गांधीवादी हिमांशु  उस इलाके के आदिवासियों के लिये दो दशकों से ’वनवासी चेतना आश्रम’ नामक संस्था बना कर काम कर रहे थे। उनके आश्रम को जबरन तरीके से पुलिस द्वारा बार-बार जमींदोज किया गया है। आदिवासियों पर हुई ज्यादतियों की सरकारी रिपोर्ट करने के एवज मे उन्हे भी राजसत्ता का शत्रु करार दिया गया। लिस्ट आगे भी है। मगर अहम्‌ बात यह है कि समाज के अंधेरे और उपेक्षित तबके के उत्थान के लिये काम करने वाले इन अहिंसक समाजसेवियों को सरकार द्वारा एक-एक कर निशाने पर लेते जाने से कितने लोगों मे उत्साह रह जायेगा वहाँ जा कर काम करने का? फिर उन तमाम वंचित और शिकार लोगों की आवाज कौन बनेगा इस मुल्क मे? कौन उन्हे बचा पायेगा हमारी अंधव्यवस्था का शिकार होने से? और वे लोग कब तक हमारे आर्थिक विकास की कीमत अपनी जमींन और जान से चुकाते रहेंगे?

     अहम्‌ बात यह भी है कि ये लोग सरकार की लोकहित की मंशा और उसकी काबिलियत पर सवाल खड़े करते हैं। ये सवाल तकलीफ़देह हैं। कैसे तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद राज्य मे गरीबी-रेखा से नीचे की जनसंख्या पिछले दशक भर मे 18 लाख से बढ़ कर 37 लाख हो गयी? खनिज संसाधनों के हिसाब से देश के सबसे अमीर राज्यों मे से एक मे किस वजह से 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी अपने बल पर पर्याप्त खाने को नही जुटा पाती? पिछले दशक से योजनाबद्ध भूमि-हड़प कार्यक्रम के बहाने कैसे राज्य की प्रचुर खनिज संपदा उद्योगपतियों और मुनाफ़ाखोरों के हवाले की जा रही है? सवाल और भी हैं!

   बात सिर्फ़ डॉ सेन के मुकदमे तक सीमित रहती तो अलग बात थी। आजादी के पिछले साठ सालों मे अगर हमने कोई चीज संजो कर रखी है, अगर किसी चीज पर हमारी सबसे ज्यादा आस्था रही है तो वह हमारा अच्छुण लोकतंत्र है। तमाम भीतरी-बाहरी उथल-पुथल राजनैतिक-सामाजिक परेशानियों के बावजूद किसी भी आम नागरिक का देश के लोकतांत्रिक मूल्यों मे भरोसा रहा है, लोकतंत्र की प्रक्रिया ने उम्मीद की शमा जलाये रखी कि तमाम समस्याओं का हल सिस्टम मे रहते हुए तलाशा जा सकता है! मगर इस लोकतंत्र का ढ़ाँचा पिछले कुछ वक्त मे जैसे कमजोर हुआ है और जिस तरह लोकतंत्र के स्तंभों की विश्वसनीयता खंडित हुई है वह देश के भविष्य के प्रति आशावादिता पर बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न लगाती है। पिछले कुछ वक्त मे मुल्क के राजनैतिक तंत्र के प्रति हमारी आस्था लगभग खतम हो चुकी है, कि अब लाखों करोड़ के घोटाले भी हमारी आदी हो चुकी चेतना को आश्चर्यचकित नही कर पाते। ब्यूरोक्रेसी भ्रष्टाचार के सागर मे ऐसी आकंठ डूब चुकी है कि किसी सरकारी अधिकारी के भ्रष्ट न होने की बात हमें ज्यादा हैरान करती है। तो मीडिया के बड़े तबके के उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों के हाथ बिके होने की खबर इस बार सिस्टम की पतनशीलता का नया आयाम बन रही है। ऐसे कठिन वक्त मे ले-दे कर देश का न्याय-तंत्र यहाँ के हारे हुए आदमी की आँखों की आखिरी उम्मीद की लौ के तरह लगता था। ऐसे मे डॉ सेन जैसे उदाहरणों मे अदालत की विश्वसनीयता पर सवाल उठ जाना खतरनाक है। सरकार द्वारा उसको भी अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किये जाने की घटनाएं इस उम्मीद के भी असमय बुझ जाने की आशंका बनती जा रही हैं।

   यह एक कठिन और अँधेरा समय है। इस साल ने गुजरते-गुजरते हमारी राजव्यवस्था की कुरूपतम होती जा रही शक्ल को आइना दिखा दिया है। अब पौने दो लाख करोड़ के टेलिकाम-घोटाले जैसे स्कैम्स हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का नियमित हिस्सा बन चुके हैं। हमें पता है कि उन घोटालों मे लिप्त ताकतवर नेताओं का इस देश की व्यवस्था कुछ भी बिगाड़ नही पायेगी। उनकी हिफ़ाजत के लिये कानूनी किताबों के तमाम लूप-होल्स हैं, देश के सबसे महँगे वकीलों की जोरदार फौज है, भष्ट और नाकारा हो चुका तंत्र है। हम जानते हैं कि इससे पहले कि कितने स्कैम्स या तो कभी खुले ही नही और अगर खुले तो उनकी फ़ाइलें वक्त के साथ दीमकें चाट गयीं। हमें पता है कि देश मे पॉलिटिक्स-ब्यूरोक्रेसी-इंडस्ट्रियलिस्ट्स-मीडिया का खतरनाक गठजोड़ दिनों-दिन मजबूत ही होगा और देश के संसाधनों पे उनकी लूट-बाँट दिनों-दिन बढ़ती ही जायेगी। हमे मालूम है कि राजा जैसे मिनिस्टर्स चेन्नई-हाइ-कोर्ट के न्यायमूर्ति आर रघुपति जैसे जजों को आगे भी धमकाते रहेंगे और उनकी शिकायत कहीं सुनी नही जायेगी! हमें यह भी पता है कि अगर कर्नाटक के लोकायुक संतोष हेगड़े जैसा कोई ईमानदार अफ़सर सरकारी अंधेरगर्दी की जाँच जैसा कदम उठायेगा भी तो उसके रास्ते मे अगम्य रोड़े खड़े कर दिये जायेंगे और अंततः कुछ नतीजा नही होगा। हम जानते हैं कि देश का कृषि मंत्री आगे भी खेल की पालिटिक्स मे बेशर्मी से बिजी रहेगा और उसके ही राज्य के किसान थोक के भाव आत्महत्या करते रहेंगे। हम यह भी जानते हैं कि देश का मीडिया आगे भी सत्ता और बाजार के सावन के झूलों मे पींगे लेता रहेगा और हमे सावन के अंधों के तरह हर तरफ़ हरा ही दिखाया जायेगा। हमें अंदाजा है कि मुल्क के कुछ लोगों को अरबपति बनाने के वास्ते बाकी के करोड़ो लोग गरीबी-रेखा के नीचे खिसकते रहेंगे, कि उद्योगपतियों के आरामगाहों के बनाने का बजट जितना बढ़ता रहेगा, मुल्क मे भूमिहीन होते लोग उसी अनुपात मे बढ़ते रहेंगे। हमें पता है कि आगे भी हमें देश की आठ से दस फ़ीसदी दर से बढ़ती अर्थव्यवस्था के स्लोगन दिखा कर उन स्लोगन्स के पीछे के अंधेरे को हमारी अज्ञानता से ढँक दिया जायेगा! हम जानते हैं कि अगले सालों मे भी हमें खुद को व्यस्त रखने के लिये मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी मे से ज्यादा उत्तेजक क्या है जैसे सवालो के जवाब एस एम एस करने को मिलते रहेंगे? मगर, आज लोकतंत्र के सबसे बड़े वार्षिक उत्सव से कुल अट्ठाइस दिन दूर खडे हुए हम यह भूले जाते हैं कि हमारे मिडिल-क्लासीय ’हू-केयर्स-एट्टीट्यूड’ के विषदंश से ग्रसित हमारा लोकतंत्र पल-पल कोमा मे जाता दिखता है।

   तो आइये हम अपने-अपने ड्राइंग-रूमों मे टीवी पर चलते चार्टबस्टर गानों का वोल्यूम इतना तेज कर दें कि हमें शहरी चकाचौंध के बाहर से आती चीखें सुनाई न दें!...कि हमारे वक्त के कान इतने बहरे हो जायें कि किसी बिनायक सेन जैसे सिरफिरे लोगों की आवाजें हमारे आनंद मे बाधक न बने।..आइये इस पल मे ही जिंदगी को भरपूर जी लें, क्या पता आदमखोर होते जा रहे तंत्र के अगले शिकार हम ही हों !

Tuesday, December 21, 2010

चींटी और टिड्डा

'चींटी और टिड्डा ' कहानी तो सबने सुनी होगी? भारत में भी हुआ था एक बार यही, जब चींटी ने पूरी गर्मी में मेहनत करके अपने लिए घर बनाया और टिड्डा?वो तो ठहरा मस्त मौला , तो इस कहानी में कैसे सुधर जाता? जाड़ों के दिनों में चींटी मज़े से अपने 3 बेडरूम किचन ड्राइंग रूम  अपार्टमेन्ट  में २४*7 फ़ूड , एनर्जी और वाटर सप्लाई के मज़े लेने लगी...


...यहाँ तक तो सब ठीक लेकिन ये भारीतय टिड्डा था....
चुप क्यूँ रहता?


टिड्डे ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की, और अपनी व्यथा सबको सुनाई , और जानना चाहा देश की जनता से कि मैं कैसे ऐसे रह सकता हूँ जबकि देश में एक 'चींटी वर्ग' भी है?

NDTV, बीबीसी, INDIA TV, The Times Of India आदि सभी मुख्या न्यूज़ चैनल और अख़बारों ने इस घटना को भूखों मरते टिड्डे कि फोटू और उसके बगल मैं चींटी की वाटर पार्क में खिचवाई फोटू के साथ दिखाया.

आखिर एक बेबस टिड्डा ऐसे कैसे मर सकता है ? फिर क्या था?

अरुंधती रॉय ने चींटी के घर के सामने धरना दिया....

मेधा पाटेकर टिड्डे के साथ आमरण अनशन में बैठ गयी...

मायावती ने इसे अल्पसंखकों के खिलाफ षडयंत्र कहा....

कोफ्फी अन्नान ने भारतीय सरकार को 'टिड्डे की मूलभूत सुविधाओं' का ख्याल न रखने हेतु आड़े हाथों लिया.




टिड्डे के ब्लॉग 'चींटी के पार' में कमेन्ट और फोलोवर  १००० के पार पहुँच गए थे.

'स्वर्ग और चिरस्थायी शांति के लिए अग्रेषित करें , और न करने पर परमेश्वर के प्रकोप के लिए तैयार रहे ' टाइप चैन मेल की बाढ़ ही आ गयी जिसमें माइक्रोसॉफ्ट वाले कथित तौर पर टिड्डे को हर फॉरवरडेड  मेल में 1 पैसा देने वाले थे .

विपक्षी दल के नेताओं ने सदन का बहिष्कार किया और लोक सभा ,राज्य सभा की कार्यवाही नहीं चलने दी.

लेफ्ट फ्रंट ने बंगाल बंद का आह्वाहन किया.

केरला ने न्यायिक जांच करवाने का केंद्र सरकार से अनुरोध किया.

CPM ने तुंरत ही एक कानून पारित किया जिससे की चींटी को अत्यधिक क्ष्रम करने से रोका जा सके  तथा चींटी और टिड्डे के बीच गरीबी का साम्यवाद आ जाए .

ममता बनर्जी ने टिड्डे के लिए भारतीय रेल की सभी गाड़ियों में मुफ्त एसी कोच की व्यवस्था करवा दी.
'टिड्डा रथ' नामक एक स्पेशल रेल भी चलाई  गयी .


अर्जुन सिंह ने आनन फानन में टिड्डे के लिए सभी सरकारी विद्यालयों एवं इन्सट्युटज़   में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिए  जाने की घोषणा कर दी .

चींटी को 'पोटागा' के अर्न्तगत दोषी पाया गया.चूंकि चींटी के पास देने के लिए कुछ नहीं बचा अतः उसका घर कुर्क कर दिया गया और एक शानदार समारोह में टिड्डे को दे दिया गया.ये शानदार समारोह सभी टीवी चंनल में लाइव दिखाया जा रह था.

अरुंधती रॉय ने इसे ' न्याय की जीत' की संज्ञा दी

लालू ने इसे 'सामाजिक न्याय ' कहा .

सीपीएम ने कहा की ये ' क्रांतिकारी दलित के पुनरुत्थान ' की कथा है.

कोफ्फी अननन ने टिड्डे को UN जनरल असेम्बली में आमंत्रित किया.

कई सालों बाद ...
.....
...........

...चींटी विदेश में बस गयी.

आरक्षण के बावजूद कही भारत में अब भी हजारों टिड्डे भूख से मर रहे हैं.

...कई चींटियों को खोने और कई टिड्डों को पालने के कारण भारत अब भी विकासशील देश है.

(Inspired From A Spam Mail)

Monday, December 6, 2010

मरते-मरते बचें कि बचते-बचते हुए मरते उम्र बीत गई

डाकिये की ओर से : अबकी जो ख़त आपकी बालकनी में फैंक रहा हूँ, उसमें कोई बड़ी बड़ी बातें नहीं, बस एक बड़ी सी दिशा... जरा सा गंभीरता का लबादा उतरने की कोशिश (क्योंकि इसका मार्ग भी इधरईच से होकर जाता है)
***



और बॉस ?"
"बढ़िया..."
"कैसा चल रहा है ?"
"क्या चलना है भैया, जैसी दुनिया की चाह, वैसी हमारी. है की नहीं ?"
"वो तो है.. "
"और तुम्हारा ?"
"हमारा भी वोई..."
"मतलब ?"
"कट रही है बॉस... जित्ती कट जाय."
"इसे कटना कहते हो गुरु तो फिर हमारी जैसी को तो ना जाने क्या ..."
"कटना ही है भैया..."
"सुना है कि उधर भोत जोरदार रहा आपका ?"
"काहे का जोरदार, बस ऐसेई.. दाल रोटी चलती रहे..."
"ऐसेई, कैसे ?
"बस, ऐसेई.. चाय पीयोगे ?"
"हो जाए."
"और ?"
"जिन्दा हैं देख ही रहे हो."
"अंटी?, बच्चे?"
"ठीकठाक.."
"वो अपने बरेली वाले भाईसाब ?"
"डेथ हो गई यार.. तीन-तीन छोटे बच्चे..."
"अरे!"
"और क्या ! कैंसर का क्या कर लोगे?"
"सही बात.. और तेरा गोविन्दपुरा वाला काम?"
"निकाल दिया सेठ ने.. मैनेजर चुगली लगाता रहता था अपनी... हरामी, स्साला..."
"फिर ?"
"फिर क्या? देखते हैं..."
"बोले तो अपने सेठ से बात करूँ ?"
"कित्ते मिलेंगे ?"
"भोत तो नहीं ? पर सुकून वाला आदमी है. पैसे की बात तेरे को करनी होगी. मिलवाने का जिम्मा हमारा..."
"चल, कल्ले बात..."
"बड़ी गर्मी है मची है भेन***..."
"है तो. पर लू-लपेट में न निकलो तो काम नहीं चलता"
"प्याज़ धरा कर जेब में, लू का शर्तिया काट..."
"मंहगा हो गया प्याज़ भी भेन***"
"अबे, एक प्याज़ में कौन सी जायदाद लूट जानी है ?"
"हमने तो एक बात कही, सब मंहगा है. सस्ता क्या है ?"
"सही बात... और ?.. भाभी ?
"स्साला... फिर बीमार. समझ नहीं पड़ता.."
"जे डाक्टर वैद वाला मसला नहीं है. छाया पड़ी है, सलकनपुर वाले बाबा जी कने दरबार में चला चल..."
"वो तो जब दरबार में पुकार लें, तब जाना ही पड़ेगा. आदमी के हाथ में क्या है ?"
"सही कह गए भैया..."
"अच्छा सुन."
"बोल न."'
"कुछ दे यार, सौ, दो सौ,.. बाद में चुकता कर दूंगा.."
"पचास ले ले... अभी इत्ता ही बन पायेगा..."
"चल. जो हो..."
"बीडी पीएगा ?"
"वैसे, वो चाय ले आया है... 
"चाय भी पी और बीडी भी..."
"और ?"
"बस..."
*****

शिक्षा:  चाय-बीडी चल रही है, जीवन चल रहा है. 
        हो सकता है कि आपको लगे कि यूँ ही फ़ालतू बातें कर रहे हैं दोनों जन. पर जीवन तो इन्ही फ़ालतू-सी बातों में बिखरा हुआ है. यह बातें बड़ी कीमती हैं. अगली बार, फूटपाथ या यहाँ - वहां खड़े, बैठे लोगों को जब यूँ बतियाता देखें तो इसे फुरसतिये लोगों की फ़ालतू बातें न मान लें. जीवन यही है. बेहद कीमती कहानियां बोली जा रही हैं इन निरर्थक -से प्रतीत होते संवादों में.
*****
साभार : इंडिया टुडे, कटाक्ष : ज्ञान चतुर्वेदी. 
(अंक : 8 दिसंबर, 2010)

Wednesday, October 27, 2010

आ कर देखो उस पौधे पर फूल आया है

गुलज़ार मुझे सर्दियों के सुबह पार्क में नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं. कुछ खोना और उसकी कसक किसी ठंढे पल में महसूस  करना... खैर ये तो हुई मेरी यानि डाकिये की बात.. आप के लिए आज ये है. उन्ही की कुछ नज्में...




१.
ठीक से याद नहीं...


ठीक से याद नहीं, 
फ़्रांस में "बोर्दो" के पास कहीं 
थोड़ी-सी देर रुके थे.
छोटे से कसबे में, एक छोटा-सा लकड़ी का गिरजा,
आमने "आल्टर'' के, बेंच था...
एक ही शायद 
भेद उठाये हुए एक "ईसा" की चोबी मूरत !
लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए,
पिघली हुई मोम में कुछ डूबे हुए,
जिस्म पर मेखें लगी थीं
एक कंधे पे थी, जोड़ जहाँ खुलने लगा था
एक निकली हुई पहलु से, जिसे भेद की टांग में ठोंक दिया था
एक कोहनी के ज़रा नीचे जहाँ टूट गयी थी लकड़ी..
गिर के शायद... या सफाई करते.

२.
कभी आना पहाड़ों पर

कभी आना पहाड़ों पर...
धुली बर्फों में नम्दे डालकर आसन बिछाये हैं 
पहाड़ों की ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमे खींचे हैं 
तनाबें बाँध रखी हैं कई देवदार के मजबूत पेड़ों से
पलाश और गुलमोहर के, हाथों से काढ़े हुए तकिये लगाये हैं 
तुम्हारे रास्तो पर छाँव छिडकी है
में बादल धुनता रहता हूँ,
की गहरी वादियाँ खाली नहीं होतीं
यह चिलमन बारिशों की भी उठा दूंगा, जब आओगे.
मुझे तुमने ज़मीं दी थी 
तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
कभी फुर्सत मिले जब बाकी कामों से, तो आ जाना 
किसी "वीक एंड"  पर आ जाओ 

३.
दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम

दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम
उस तरफ से उसने कुछ कहा जो मुझ तक आते-आते
रास्ते से शोर-ओ-गुल में खो गया..
मैंने कुछ इशारे से कहा मगर,
चलते-चलते दोनों की नज़र ना मिल सकी
उसे मुगालता है मैं उसी की जुस्तजू में हूँ 
मुझे यह शक है, वो कहीं
वो ना हो, जो मुझ से छुपता फिरता है !
सर्दी थी और कोहरा था,
सर्दी थी और कोहरा था और सुबह
की बस आधी आँख खुली थी, आधी नींद में थी !
शिमला से जब नीचे आते/एक पहाड़ी के कोने में 
बसते जितनी बस्ती थी इक /बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लाकिट जितनी
नींद भरी दो बाहों जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के,
दो मासूम खुदा सोये थे!

(ताज़ा कविता संग्रह पंद्रह पांच पचहत्तर वाणी प्रकाशन 
और यहाँ राष्ट्रीय दैनिक हिंदुस्तान से  साभार )

Thursday, October 14, 2010

धरती तले का बैल (THE BULL BENEATH THE EARTH)

(पंजाबी के प्रख्यात कथाकार कुलवंत सिंह विर्क की पंजाबी कहानी ’धरती हेठला बौलद’ का हिंदी भावानुवाद)




    ठठी खारा गाँव अमृतसर के पास ही था, पक्की सड़क पर, और जिस मौज में मान सिंह जा रहा था उसमें दूर के गाँव भी पास ही लगते थे । इसलिए चाहे शाम हो रही थी तांगे के थके हुए घोड़े की चाल भी मद्दम हो रही थी, उसे कोई चिंता नहीं थी ।                                  
मान सिंह छुट्टी पे आया हुआ एक फौजी था। ठठी खारा उसके दोस्त करम सिंह का गाँव था। जितनी गहरी दोस्ती फौज में होती है, और कहीं नहीं होती। पहले तो दोनों अपने रैजीमैंटल सैंटर में इकट्ठे रहे थे; और अब एक बटालियन में बर्मा फ्रंट पे लड़ रहे थे। करम सिंह पहले का भरती हुआ था; और अब हवलदार था। पर मान सिंह अभी मुश्किल से नायकी तक ही पहुंचा था।                                   
करम सिंह के बारे में एक खास बात ये थी कि उसकी ज़ुबान में बड़ा रस था। गाँव के कई और लड़के भी फौज में थे। जब वह छुट्टी पे आते, तो गाँव के लोगो के साथ उनकी बात वाहेगुरु जी की फतह से आगे ना होती। पर जब करम सिंह गाँव आता, तो कुँए पे नहाने वालों की भीड़ बढ़ जाती। जाड़ों की आधी-आधी रात तक लोग ठंडी हो रही दाने भूनने वाली भट्ठी के सेंक के आसरे बैठे करम सिंह की बातें सुनते रहते। उधर रैजीमैंट में उसकी राईफल का निशाना बड़ा मशहूर था। निशाना लगाने के मुकाबले में उसकी गोली निशाने के ठीक बीच में से इस तरह निकलती, जैसे आप हाथ से पकड़ के निकाली गयी हो। अब लड़ाई में उसके पक्के निशाने ने कई दूर छिपे हुए दरख्तों की टहनियों जैसे दिखते जापानी गिराए थे। इस तरह वह जापानी निशानचियों की गोलियों से मरे अपने आदमियों के बदले चुकाता और अपने (पलटन)साथियो का दिल ठंडा करता। जहाँ मशीनगनों की गोलियों की बौछार असफल हो जाती; वहां करम सिंह की एक गोली काम संवार देती थी। चाहे करम सिंह की हड्डियाँ कुछ पुरानी हो गयी थी, पर जब वह जिम्नास्टिक के खेल दिखाता तो देखने वाले को ऐसे लगता कि उसे कोई भूत चढ़ गया है। इस लडाई में खैर ये सब कुछ बंद था, और भी बहुत कुछ बंद था। कभी कसी हुई वर्दी पहन के बैंड से परेड नहीं की थी। जाने के लिए कोई बाज़ार भी पास नहीं था। कभी कोई अपने गाँव या अपने इलाके का आदमी नहीं मिला था। इसलिए जब मान सिंह को छुट्टी मिली तो करम सिंह बड़ा परेशान हुआ। अगर उसे भी छुट्टी मिल जाती तो दोनों इकट्ठे छुट्टियाँ गुजारते और फिर इकट्ठे ही वापिस आ जाते। अमृतसर से चूहड़काना कौन सा दूर था? पचास कोस की दूरी नहीं थी, पर छुट्टी इन दिनों बड़ी मुश्किल मिलती थी। कभी-कभी और किसी-किसी को।  जिस तरह लडाई में बहादुरी के पुरस्कार कभी-कभी ही मिलते।
     जब मान सिंह फौजी ट्रक में बैठने लगा तो करम सिंह ने कहा, "हमारे घर भी होते आना तुम। मेरे पास से आये तुम्हे देख के उन लोगो का आधा तो मेल हो जायेगा। फिर उन लोगों से मिलके आये तुम्हे मैं देखूंगा और तुमसे उनकी बाते सुनुँगा तो आधा मेल मेरा भी हो जायेगा।"
फिर अपने इलाके में उसकी दिलचस्पी बढाने के लिए उस से पूछा "तू कभी उधर गया है कि नहीं?"


"नहीं अमृतसर से गुजरा हूँ,पर उस तरफ गया नहीं कभी!"


"उधर बहुत से गुरद्वारे हैं-तरन तारन, खडूर साहिब, गोइंदवाल। सभी जगह माथा टेक आना, और मेरे घर भी हो आना। मैं उन लोगों को चिट्ठी भेज दूंगा।"


इसलिए अपनी छुट्टियाँ खत्म होने के पास आज वह तांगे पे बैठ कर करम सिंह के गाँव जा रहा था।
"बाबा मैं मान सिंह हूँ चूहड़कान से" उस ने करम सिंह के घर के बरामदे में बैठे बूढ़े को हाथ जोड़ कर कहा।
"आओ जी ! आओ बैठ जाओ।"
मान सिंह अंदर आ के चारपाई पे बैठ गया | उसके आने से बूढा कुछ परेशान सा लगा। पहले तो वह इधर-उधर देखता रहा फिर चुपचाप नीचे देखने लगा।
मान सिंह अधीर स्वभाव का नहीं था। पर अपने इस तरह के स्वागत से उसे बड़ी हैरानी हुई। ’हो सकता है कि ये बूढा कोई अजनबी हो।’


"आप करम सिंह के पिता हो?" उसने गर्मजोशी से स्वागत की माँग करते हुए कहा।


"जी हाँ ये उसी का घर है।"


"उसने मेरे बारे में आपको कोई चिट्ठी नहीं लिखी थी ?"


"हाँ उसने लिखा था कि आप हमारे पास आओगे।" और बूढा उठ के आँगन की तरफ चला गया। एक बछिया को एक खूंटी से खोल के दूसरी से बाँधा, उसकी पीठ पर हाथ फेरा । फिर अंदर जा के मान सिंह के आने की खबर दे  के चाय लाने को बोला। और जैसे बरामदे में फिर आने से डरता हो, वह आँगन में बंधी घोड़ी के पास खड़ा हो गया। उसके आगे पड़ी घास को हिलाया, उसमें चने डाले और आखिर वापिस बरामदे में आ गया। बूढा अब कुछ ज्यादा ही अपने आप में था, वह कभी मान सिंह की तरफ और कभी दायें-बाएं झाँक रहा था।


"जसवंत सिंह कहाँ है?'' मान सिंह को पता था कि करम सिंह के छोटे भाई का नाम जसवंत है।
"अभी आया जाता है, चरी की गाडी ले के।" इतने में करम सिंह की माँ चाय लेके आ गयी।
"माँ जी सत श्री अकाल!" मान सिंह ने हँसती आँखों से बुढ़िया की तरफ देखा।
बुढ़िया के होंठ कुछ कहने के लिए हिले, पर कोई अक्षर न बन सका। मान सिंह ने चाय वाला बरतन उसके हाथ से ले लिया और वह वापिस चली गयी।
"ये किस तरह के लोग है!" मान सिंह हैरान हो रहा था। अपने आप में असहज सा महसूस कर रहा था। पर अब एक घर आ के वापिस नहीं जाया जा सकता था। "चलो एक रात रह के वापिस जाउँगा" उसने फैसला किया।
रात को जब जसवंत आया तो बातें कुछ खुलके होने लगी।


"बड़ी मशहूर हुई थी करम सिंह की गोली बर्मा की लडाई में। बस घोडा दबाने की देर होती पलक झपकते ही एक जापानी ढेर होता। हमें  साथ चलते हुए  पता भी नहीं चलता उसने ढूंढ़ कहाँ से लिया।"


मान सिंह यहाँ रुक गया। उसे उम्मीद थी कि वह सारे बर्मा की लडाई की बहुत सारी बातें पूछेंगे। उसके अंदर बातें भरी पड़ी थी। पर यहाँ तो कोई सुनता ही नहीं था। कुछ देर यूँ ही सन्नाटा रहा, फिर बुढ़िया ने जसवंत से कहा-
"हमारी पानी की बारी कब है?"
"परसों तीन बजे"
तीन बजे सुबह का नाम सुनते ही मान सिंह ने फिर बात छेड़ी। वह अपने दोस्त की ज़ी भर के बातें करना चाहता था।
"फौज में करम सिंह को सुबह उठने का बड़ा आलस्य है। सबसे बाद में उठता था वहां।"


इस बात से भी किसी में उत्साह नहीं जगा.


फिर खाना आया। काफी औपचारिकता की गयी थी। रोटी खाते हुए जसवंत उसे साथ साथ पंखा कर रहा था।उसका ये ख्याल कि उसकी उपेक्षा की जा रही है दिल से  निकल गया।
रोटी खाते-खाते करम सिंह का छोटा सा बेटा चलते-चलते मान सिंह की चारपाई के पास आ गया। अगर वह किसी और से करम सिंह की बातें नहीं कर सकता तो उसके बेटे से तो कर सकता है। मान सिंह ने ये सोच के उसे गोद में उठा लिया।


"अपने पिता जी पास चलोगे? जाना है तो चलो मेरे साथ! वहां बहुत बारिशें होती है। बारिश में घूमते रहना।
मान सिंह की ये बात करम सिंह के पिता को जैसे शूल की तरह चुभी। "इसे पकड़ो, बच्चे को उधर रखो। खाना तो आराम से खा लेने दिया करो।" बूढ़े ने गुस्से से कहा, तो बुढ़िया आ के बच्चे को ले गयी।
अब तो घर की हवा में साँस लेना भी मान सिंह का मुश्किल हो गया था। वह यहाँ से जल्दी जाना चाहता था । इसलिए अगले दिन जाने के बारे में पूछताछ करने लगा-"यहाँ से तरनतारन कितनी दूर है?"
"चार कोस का रास्ता है।"
"तांगा मिल जाता होगा सुबह-सुबह?"
"तांगे कि फ़िक्र मत करो तुम, जसवंत को साथ भेजेंगे। दोनों भाई माथा टेक आना।"
मान सिंह इस बात पे सहमत हो गया, क्यूंकि जसवंत इतना घुटा हुआ नहीं था।


पर मान सिंह के साथ चलते हुए वह भी कुछ घुटा-घुटा सा लगा। जो भी जान-पहचान के लोग रास्ते में मिलते उन्हें दूर से ही बुला के आगे चल पड़ता।  लेकिन मान सिंह का दिल करता था कि लोगों से खड़े होके बात करे। वो कौन सा रोज यहाँ आने वाला है?


"करम सिंह ने तो फौज में बड़ी प्रसिद्धि पाई है, तुम क्यूँ नहीं फौज  में गये?" मान सिंह ने जसवंत से पूछा।
जसवंत इकदम ठिठक गया, जैसे कोई चोरी करते पकड़ा गया हो। फिर कुछ देर रुक के बोला," एक कम है फौज में?"
"हमारी तरफ के चरी और गन्ने कितने बड़े हो गये है?'' एक चरी के खेत के पास से गुजरते हुए जसवंत बोला।
"आदमी-आदमी जितने बड़े है" पर उसका मन इन बातों में नहीं था। वह तो अपने दोस्त के बारे में बात करना चाहता था।
गाँव वापिस आके मान सिंह अब लौट जाना चाहता था। अमृतसर से रात की गाड़ी में बैठकर वह सुबह अपने गाँव पहुँच सकता था। अपनी-अपनी जगह सभी ने बहुत प्रयास किये थे, पर उसे उम्मीद से बहुत कम मजा आया था। इस वक़्त उसके लिए अंदर चाय तयार हो रही थी और वह बरामदे में अकेले बैठा था।
सामने गली में थैला गले में डाल के डाकिया चला आ रहा था।पहले उसे लगा चलता-चलता वह सीधा आगे निकल जाएगा, पर वह बरामदे में आके चारपाई पे बैठ गया।


"क्या लेके आये हो?"
''लाना क्या है, यह पैंशन लाया हूँ बेचारे करम सिंह की।"
"करम सिंह की पैंशन ?....करम सिंह मारा गया?"
"सारे इलाके में हाहाकार मची हुई है, और आप उसके घर में बैठ के पूछते हो करम सिंह मारा गया? चिट्ठी आये हुए तो आज १५ दिन हो गये है।"
मान सिंह ने २-३ तेज-तेज साँसे ली। माथे पे कुछ मुट्ठी जैसा भींच लिया और फिर आँखों से पानी निचुड़ने से ढीला होने लगा।
बूढ़े ने बाहर डाकिये को बैठा देख समझ लिया कि बात हाथ से निकल गयी, अब बोझ उठाने का क्या फायदा? आठ पहर का दबाव कम हुआ तो आंसू निकल बहे। दोनों देर तक एक दुसरे के पास बैठे मन हल्का करते रहे।
मान सिंह बोला,"आपने मुझे आते ही क्यूँ नहीं बताया?"
"ऐसे ही, हमने सोचा लड़का छुट्टी पे आया है, इसकी छुट्टी खराब ना हो। जब छुट्टी काट के वापिस जायेगा तो पता चल जायेगा। फौजी को छुट्टी प्यारी होती है। जितनी करम सिंह को प्यारी थी, उतनी तुम्हे भी होगी, बल्कि ज्यादा होगी। हम बात छुपाने में कामयाब नहीं हो पाए, बेकार में कोशिश की।


वापिस जाते वक़्त मान सिंह ने वह गाँव देखे, जहाँ वह बूढा जन्मा-पला-बढ़ा था। आस पास किले बने हुए थे। कब्रे और समाधियाँ बनी हुई थी, जो भारत पे हमला करने वाले लोगो से लड़ने-मरने की कहानियाँ बताती थी। शायद इसीलिए बूढा इतना सहनशील था। दूसरो को हल्का रखने के लिए अकेला बोझ उठाये फिरता था। मान सिंह ने सुना था कभी, कि धरती के नीचे एक बैल है। जो अपने सींग पे धरती का भार उठा के खड़ा रहता है। उसे इस तरह लगा जैसे करम सिंह का पिता ही वह बैल है, जो बोझ के नीचे दबा होने पर भी लोगो का भार उठाना चाहता है...

Monday, September 27, 2010

मेरी हवा में रहेगी ख्याल की खुश्बू (शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह : २७.०९.१९०७-२३.०३.१९३१)

आज, उनकी जयंती पर लिखी  (कम से कम लिखी) तो बहुत सारी बातें  जा सकती हैं, पर इन दिनों जिस  एक पुस्तक को पढ़ के कई रातों तक अन्यमन्यस्क सी स्थिति रही उसका एक महत्वपूर्ण भाग आपके साथ बांटने की तीव्र इच्छा हुई.   
बड़ा विरोधाभास सा लगता है, किसी के जन्मदिन के दिन उसकी शहादत की बातें करना, पर भगत सिंह का जीवन भी तो इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विपरीत लक्षणों में से एक है.
वह एक सच्चे क्रांतिकारी थे,जब उनको फांसी दी गयी वे केवल २३ साल के थे,.जिस तरह बिना किसी डर के जिए-उसी तरह बिना किसी डर के मरे. अब बहुत से क्रांतिकारी इतिहास की किताबो में सिर्फ एक नाम बनकर रह गये है.मगर फांसी के ७९ साल बाद भी भगत सिंह की याद राष्ट्र में ताज़ी है.
  उनका कहना था कि भारत की आज़ादी की लड़ाई सतही तौर पर आर्थिक सुधारो की लडाई थी आजादी इन सुधारो के लिए एक मौका देती. बिना गरीबी हटाये आज़ाद भारत सिर्फ नाम के लिए आज़ाद होगा. भगत सिंह एक राज हटाकर दूसरे राज में बदलना नहीं चाहते थे. उन्होंने एक बार अपनी माँ को लिखा था :
"माँ,मुझे इस बात में बिलकुल शक नहीं,एक दिन मेरा देश आज़ाद होगा,मगर मुझे डर है कि 'गोरे साहिब' की खाली की हुई कुर्सी में भूरे\काले साहिब साहिब बैठने जा रहे है.अगर ये सिर्फ राज करने वाले का बदलाव हुआ तो आम आदमी की हालत ऐसी ही रहेगी." 
वो अच्छी तरह से जानते थे कि इन पुराने तरीको को तोड़े बिना कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता. वे पुराने तरीके ही थे जो आगे बढ़ने के रास्ते में दीवार बनकर खड़े थे. दार्शनिको ने इस दुनिया का मतलब अलग-अलग समझाया है. मगर बात इसे बदलने की थी,ये क्रांति से ही हो सकता था.
भगतसिंह २३ वर्ष की उम्र में ही  में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए? है तो ग़ालिब का शे'र पर कयासों और अगर-मगर के बीच में बड़ा सामायिक....

हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है.
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या.



'शहीद भगत सिंह क्रांति में एक प्रयोग' ( कुलदीप नैयर ) का भाग ८ का एक हिस्सा

२३ मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ,जब सुबह के वक़्त राजनैतिक बन्दियो को उनकी कोठरियो से बाहर निकाला जाता था. आम तौर पर वह सारा दिन बाहर रहते थे और सूरज छुपने के बाद ही वापिस अंदर जाते थे. लेकिन आज,जब वार्डन चरत सिंह शाम को करीब चार बजे सामने आये और उन्हें वापिस अंदर जाने के लिए कहा तो वह सभी हैरान हो गये.
वापिस अपनी कोठरियो में बंद होने के लिए ये बहुत जल्दी था. कभी-कभी तो वार्डन कि झिड़किओं के बावजूद भी सूरज छिपने के काफी समय बाद तक वह बाहर रहते थे. लेकिन इस बार वह न केवल कठोर बल्कि दृढ़ भी था. उसने ये नहीं बताया कि क्यों. उसने सिर्फ ये कहा,"ऊपर से आर्डर है."
बन्दियो को चरत सिंह की आदत पड़ चुकी थी. वह उन्हें अकेला छोड़ देता था और कभी भी ये नहीं जांचता था कि वे क्या पढ़ते हैं. हलांकि चोरी छुपे अंग्रेजों के खिलाफ कुछ किताबें जेल में लाई जाती थी,उन्हें उसने कभी ज़ब्त नहीं किया था. वह जानता था कि बंदी बच्चे नहीं थे. वे सियासत से गहरा ताल्लुक रखते थे. किताबें उन्हें जेल में गड़बड़ी फ़ैलाने के लिए उकसांयेगी नहीं.
उसकी माता पिता जैसी देखभाल उन्हें दिल तक छू गयी थी. वे सभी उसकी इज्ज़त करते थे और उसे 'चरत सिंह जी' कह कर पुकारते थे. उन्होंने अपने से कहा कि अगर वह उनसे अंदर जाने को कह रहा था तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी. एक-एक करके वह सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपनी-अपनी कोठरियो में चले गये.
जिस तरह से वह अपनी सलाखों के पीछे से झांक रहे थे, वे अब भी हैरान थे. तभी उन्होंने देखा कि बरकत नाई एक के बाद एक कोठरियो में जा रहा था. उसने फुसफुसाया कि आज रात भगत सिंह और उसके साथियो को फांसी चढ़ा दिया जायेगा. उन्होंने (बंदी) ,उससे कहा कि क्या वो भगत सिंह का कंघा, पेन, घडी या कुछ भी उनके लिए ला सकता था ताकि वे उसे यादगार के तौर पे अपने पास रख सके.
हमेशा मुस्कुराने वाला बरकत आज उदास था. वह भगत सिंह की कोठरी में गया और एक कंघा व पेन लेके वापिस आया. सभी उस पर कब्जा करना चाहते थे. १७ में से २ ही किस्मत वाले थे,जिन्हें भगत सिंह की वह चीज़े मिली.
वे सभी खामोश हो गये; कोई बात करने के बारे में सोच तक नहीं रहा था. सभी अपनी कोठरियो के बाहर से जाते हुए रास्ते पर देख रहे थे, जैसे कि वह उम्मीद कर रहे थे कि भगत सिंह उस रास्ते से गुज़रेंगे. वे याद कर रहे थे कि एक दिन जब वह (भगत सिंह) जेल में आये तो एक राजनैतिक बंदी ने उनसे पूछा कि क्रांतिकारी अपना बचाव क्यों नहीं करते. भगत सिंह ने जवाब दिया,उन्हें 'शहीद' हो जाना चाहिए,क्योंकि वे एक ऐसे काम की नुमाइंदगी कर रहे है जो कि सिर्फ उनके बलिदान के बाद ही मजबूत होगा, अदालत में बचाव के बाद नहीं. आज शाम वे सभी क्रान्तिकारियो की एक झलक पाने के लिए बेकरार थे. लेकिन वे शाम की उस ख़ामोशी में, अपने कानो में एक आवाज सुनने का इंतज़ार करते रह गये.
फांसी से २ घंटे पहले, भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता को उनसे मिलने की इजाज़त दे दी गयी. उनकी दरख़ास्त थी कि वह अपने मुवक्किल की आखरी इच्छा जानना चाहते है और इसे मान लिया गया. भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे पीछे घूम रहे थे, जैसे की पिंजरे में एक शेर घूम रहा हो. उन्होंने मेहता का एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वह उनके लिए 'दि रैवोल्यूशनरी लेनिन' नाम की किताब लाये थे. भगत सिंह ने मेहता को इसकी ख़बर भेजी थी क्योंकि अख़बार में छपे इस किताब के पुनरावलोकन ने उनपर गहरा असर डाला था.
जब मेहता ने उन्हें किताब दी वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास ज्यादा वक़्त नहीं था.मेहता ने उनको पूछा कि क्या वो देश को कोई सन्देश देना चाहेंगे. अपनी निगाहें किताब से बिना हटाये, भगत सिंह ने कहा-''साम्राज्यवाद खत्म हो और इन्कलाब जिंदाबाद''
मेहता-"आज तुम कैसे हो?"
भगत सिंह-"हमेशा की तरह खुश हूँ."
मेहता-"क्या तुम्हे किसी चीज़ की इच्छा है?"
भगत सिंह-"हाँ! मैं दोबारा से इस देश में पैदा होना चाहता हूँ ताकि इसकी सेवा कर सकूँ."
भगत सिंह ने उनसे कहा कि पंडित नेहरु और बाबू सुभाष चन्द्र बोस ने जो रूचि उनके मुकद्दमे में दिखाई, उसके लिए उन दोनों का धन्यवाद करें. मेहता राजगुरु से भी मिले, उन्होंने कहा," हमें जल्दी ही मिलना चाहिए." सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वे जेलर से कैरम बोर्ड वापिस ले लें, जो कि कुछ महीने पहले मेहता ने उन्हें दिया था.
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारिओं ने उन्हें बताया कि उन तीनो की फांसी का वक़्त ११ घंटे घटाकर कल सुबह ६ बजे की जगह आज शाम ७ बजे कर दिया गया है. भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ ही पन्ने पढ़े थे.
"क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का वक़्त भी नहीं देंगे?" भगत सिंह ने पूछा. बदले में उन्होंने (अधिकारी),उनसे फांसी के तख्ते की तरफ जाने को कहा.
तीनों के हाथ बंधे हुए थे और वे संतरियो के पीछे लम्बे-लम्बे डग भरते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे.उन्होंने जाना पहचाना क्रांतिकारी गीत गाना शुरू कर दिया:
कभी वो दिन भी आएगा,
कि जब आज़ाद हम होंगे.
ये अपनी ही ज़मीं होगी,
ये अपना आस्मां होगा.
शहीदों की चिताओं पर,
लगेंगे हर बरस मेले.
वतन पर मिटने वालो का,
यही नाम-ओ-निशां होगा.
एक-एक करके तीनों का वज़न किया गया. उन सब का वज़न बढ़ गया था. फिर तीनो नहाये और उन्होंने काले कपड़े पहने, मगर मुंह नहीं ढके.
चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसाया वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले. वे हंसे और कहा, "मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि भगवान को दु:खों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर है. अगर अब मैं उनसे माफ़ी मांगूगा तो वे कहेगें कि, "यह डरपोक है जो माफ़ी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है."
भगत सिंह ने ऊँची आवाज़ में एक भाषण जो कि कैदी अपनी कोठरियो से भी सुन सकते थे:
"असली क्रांतिकारी फौजें गाँवो और कारखानों में है,किसान और मज़दूर. लेकिन हमारे नेता उन्हें नहीं संभालते और ना ही संभालने की हिम्मत कर सकते है. एक बार जब सोया हुआ शेर जाग जाता है, तो जो कुछ हमारे नेता चाहते है वह उसे पाने के बाद भी नहीं रुकता है."
"अब मुझे यह बात आसान तरीके से कहने दे. आप चिल्लाते है 'इन्कलाब जिंदाबाद', मैं यह मानता हूँ कि आप इसे दिल से चाहते है. हमारी परिभाषा के अनुसार, जैसे कि एसेम्बली बम्ब काण्ड के दौरान, हमारे वक्तव्य में कहा गया था, क्रान्ति का मतलब है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना और इसकी जगह समाजवाद को लाना.....इसी काम के लिए हम सरकारी व्यवस्था से निबटने के लिए लड़ रहे हैं. साथ ही हमें लोगो को यह भी सिखाना है कि सामाजिक कार्यक्रमों के लिए सही माहौल बनाये. संघर्ष से हम उन्हें सबसे बेहतर तरीके से शिक्षित और तैयार कर सकते है.

"पहले अपने निजीपन को ख़त्म करें. निजी सुख चैन के सपनों को छोड़ दें. फिर काम करना शुरू करें. एक-एक इंच करके तुम्हे आगे बढ़ना चाहिए. इसके लिए हिम्मत, लगन और बहुत दृढ़ संकल्प की जरूरत है. कोई भी हार या किसी भी तरह का धोखा आपको हताश नहीं कर सकता. आपको किसी भी दिक्कत या मुश्किल से हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. तकलीफों और बलिदान से आप जीत कर सामने आयेंगे और इस तरह की जीतें, क्रान्ति की बेशकीमती दौलत होती है......."

सूली बहुत पुरानी थी, मगर हट्टे -कट्टे जल्लाद नहीं. जिन तीनों आदमियो को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी, वे अलग-अलग लकड़ी के तख्तों पर खड़े थे, जिनके नीचे गहरे गड्डे थे. भगत सिंह बीच में थे. हर एक के गले पर रस्सी का फंदा कस कर बाँध दिया गया. उन्होंने रस्सी को चूमा. उनके हाथ और पैर बंधे हुए थे. जल्लाद ने रस्सी खींच दी और उनके पैरो के नीचे से लकड़ी के तख्ते हटा दिए. यह एक ज़ालिम तरीका था.
उनके शरीर काफ़ी देर तक शूली पर लटकते रहे. फिर उन्हें नीचे उतारा गया और डाक्टर ने उनकी जाँच की.उसने तीनों को मरा हुआ घोषित कर दिया. जेल के एक अफसर पर उनकी हिम्मत का इतना असर हुआ कि उसने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. उसे उसी वक्त नौकरी से निलंबित कर दिया गया. उसकी जगह ये काम एक जूनियर अफसर ने किया. दो अंग्रेज़ अफसरों ने, जिनमे से एक जेल का सुपरिंटेंडेंट था फांसी का निरीक्षण किया और उनकी मृत्यु को प्रमाणित किया.
अपनी कोठरियो में बंद कैदी शाम के धुंधलके में अपनी कोठरियो के सामने गलियारे में किसी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे. पिछले दो घंटे से वहां से कोई नहीं गुजरा था. यहाँ तक कि तालो को दुबारा जांचने के लिए वार्डन भी नहीं.
जेल के घड़ियाल ने ६ का घंटा बजाया जब उन्होंने थोड़ी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज़ और जाने पहचाने गीत, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" की आवाज़ सुनी. उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, "माएं रंग दे बसंती चोला".  इसके बाद वहाँ 'इन्कलाब जिंदाबाद' और 'हिन्दुस्तान आज़ाद हो' के नारे लगने लगे, सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे.उनकी आवाज़ इतनी जोर से थी कि वह भगत सिंह के भाषण का कुछ हिस्सा नहीं सुन पाए.
अब,सब कुछ शांत हो चुका था. फांसी के बहुत देर बाद, चरत सिंह आया और फूट-फूट कर रोने लगा. उसने अपनी ३० साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थी लेकिन किसी को भी हँसते-मुस्कुराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा की उन तीनों ने किया था. मगर कैदियों को इस बात का अंदाजा हो गया कि उनकी बहादुरी-गाथा ने अंग्रेज़ी हकूमत का समाधि-लेख दिया था.

"उसे ये फ़िक्र है हरदम नया तर्ज-ए-जफा क्या है.
हमें ये शौंक है देखे सितम की इन्तहां क्या है.
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की खुश्बू,
ये मुश्त-ए-खाक है फानी,  रहे न रहे."

Saturday, September 18, 2010

हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

दास्तान-ए-हज़ार रंग

डाकिये की ओर से : 
{इस स्क्रिप्ट का बहुत छोटा अंश 
होली के अवसर पर  
सोचालय पर गंगा-जामुनी सभ्यता शीर्षक नाम से लगाया था..... लेकिन लगा कि तबियत से महफ़िल जमानी हो तो बैरंग से अच्छा प्लेटफार्म कौन है !
 
इसे बोलकर पढ़िए, एक नशे से कम नहीं है ये, यकीन जानिये... कम्पोजिट कल्चर का मतलब जान जायेंगे आप.}
*****




``जिस तरफ भी चल पड़े हम आबला पाया निशौक
खार से गुल और गुल से गुलिस्तां बनता गया``

सफर तो दिलचस्प उसी वक्त होता है जब कोई हमसफर भी हो तो आईये हम और आप सफर पर निकलें जो दिलचस्प भी हो और सबक आमोज भी।

इस सफर में एक जादू नगरी भी मिलेगी जहां मन्दिर भी है और मिस्जदें भी लेकिन दोनों लड़ते झगड़ते नहीं। जहां मुल्ला भी है और पण्डित भी लेकिन एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए। यहां हसीनाओं की टोलियां भी मिलेंगी और आशिकों की जमघट भी। शायर भी मिलेगें और गवैये भी। नाचने वाले भी मिलेंगे और नचाने वाले भी। 

सफर है शर्त मुसाफिर नवाज हूं तेरे
हजार हा शजरे सायादार राह मिल गये

अंगरेजी कल्चर को हमारे यहां के हमारे बुजुर्ग अपने कल्चर के लिए डिबेलेटेटिंग समझते थे, नुकसानदेह समझते थे। उनका अपना कल्चर था। वो कहते थे वो बहुत अच्छा। जिसमें कि भारतीयता थी यानी कि वो ईरान-तेहरान का कलचर नहीं था, अवधी कलचर था, जिसमें हिन्दू अशआर बहुत ज्यादा थे। जिसमें कि जैसे हमारे यहां गीत बड़ा खास हुआ करता था सोहर एक गाया जाता है जबकि औरत जबकि एक कन्साइनमेंट में होती है, जच्चाखाने में। जब बच्चा पैदा होता है। तब सोहर क्या था ? अल्ला मियां हमरे भैया का दियो नन्दलाल। ऐ मेरे अल्लाह! मेरे भाई को भगवान कृष्ण जैसा बेटा दे। अब ये मुसलमान घराने का गाना है। 

-आनन्द भवजे मील बैंठी... आरे लगाये मनावै -

हजरत बीबी कह रही हैं कि अली साहब नहीं आये हैं। सुगरा तोते से कह रही हैं और अगर वो कहीं न मिले, ढूंढने जाओ कहीं न मिलें तो वृन्दावन चले जाना।

है सबमें मची होली अब तुम भी ये चर्चा लो।
रखवाओ अबीर ए जां और मय को भी मंगवा लो।
हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लोटिया लो।
हम तुमको भिगों डालें तुम हमको भिंगो डालो।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत फलियां।
है तर्ज जो होली की उस तर्ज हंसो बोलो।
जो छेड़ है इस रूत की अब तुम भी वही छेड़ो।
हम डालें गुलाल ऐ जां तुम रंग इधर छिड़को
हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

मौलाना हसरत मोहानी वो हैं शायर उर्दू के गजल गो शोहवा में जिनके अहमियत बहुत ज्यादा है यानी इकबाल के बाद जिन लोगों ने गजलें वगैरह लिखी हैं, गजलें लिखीं हैं शायरी की है उनमें बहुत अहम नाम है मौलाना हसरत मोहानी का। एक नया रंग, गलल में दिया है मौलाना ने। तो एक शायर की हैसियत से उनका रूतबा बहुत बदन है। मजहबी आदमी थे नवाज रोजे के पाबन्द, कादरीया सिलसिले के मुरीद लेकिन ये ईमान था उनका कि किसी के मजहब को न बुरा कहना न ये समझना कि वो बुरा है। अपना मजहब अपने साथ दूसरा मजहब उनके साथ। सिर्फ यही नहीं बल्कि जितने और रिचुअलस् थे मसलन ये कि हज करने को हर साल जाया करते थे। ये खुसुसियत ये थी कि मौलाना में ये कि वो कृष्ण जी को नबी समझते थे और बड़े मौतकीत थे और अपना हज कहते थे मेरे हज मुकम्मल नहीं होता जब तक कि मैं वापस आ के मथुरा और वृन्दावन में सलाम न करूं। तो वहां से आ के पहले पहुंचते थे मथुरा फिर वृन्दावन वहां सलाम करते थे और फिर बेइन्तहा कतरात और रूबाइयां कृष्ण जी के बारे में उनके मौजूद हैं। 

गोकुल ढ़ूंढ़यो, वृन्दावन ढ़ूंढ़यो... कन्हाई मन तोशे प्रीत लगाई। 

ये पूरी एक बिलीफ ये थी कि हर मजहब एक कल्चर एक्जूट करता है। चाहे वो आपका मजहब हो और चाहे वो मेरा। और उस कल्चर से हम सब फैज़ियाब होते हैं। चाहे वो आप हिन्दू का कल्चर हो चाहे मेरे मुसलमान का कल्चर हो। आखिर में दोनों में जाके एक मिलन होता है जिसको कि हम एक कम्पोजिट कल्चर कहते हैं। 

एक ही जमाने में दो बहुत दिलचस्प शिख़्सयतें दक़न में नुमाया होती हैं । एक तो गोलकुण्डे का ये बादशाह कुल-ए-कुतुबशाह और एक बीजापुर का बादशाह इब्राहिम आदिल शाह। जो जगत्गुरू कहलाता है और नवरस उसकी इक किताब है। ये नवरस जो है ये मौसिकी की, संगीत की बहुत बुनियादी किताब उसने ये डाली है। उसमें सारे राग-रागिनीयों वगैरह-वगैरह हैं और बहुत तफसील से सारा जिक्र है और इसलिये वो जगतगुरू कहलाये। 

किसी को ये नहीं मालूम है कि इब्राहिम आदिल शाह जो कि राजा है बीजापुर का उसने एक किताब लिखी किताब-ए-नवरस उसका बिवाचा वो शुरू होती है सरस्वती वन्दना से। 

अब लोग ये भूल जाते हैं कि कल्चर और मजहब दो अलग चीजें हैं लेकिन कल्चर मजहब से पैदा होता है। मजहब का कल्चर पर असर होता है। कलचर का मजहब पे असर होता है। 

तो ये इब्राहिम आदिल शाह ने जब सरस्वती वन्दना से अपनी किताब किताब-ए-नवरस की इबतदा की तो वो हिन्दू नहीं हो गया था वो सिर्फ ये कह रहा था कि ये कल्चर मुझे बड़ा अच्छा लगता है। वो कल्चरल डायमेंशन की तरफ जा रहा था। नमाज पांच वक्त की पढ़ता था। 

इसी तरह से मैंने आपको बताया कि मैं भीमसेन जोशी से मिलने गया पुणे। तस्वीर लगी हुई है अब्दुल करीम खां साहब की। गंगू बाई हंगल से मिलने गया तस्वीर लगी हूई है अब्दुल करीम खां साहब की। मलिक अर्जुन मंसूर वहां अल्ला दिया खां साहब, मांझे खां साहब। तो ये जो एक कम्पोजिट एलीमेंट था हमारी म्यूजिक में वो  उससे मुझे बड़ा-बड़ा असर उसका पड़ा कि इसमें कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं था। 

गालिब अपनी पेंशन लेने के लिये कलकत्ते जा रहे थे। कहीं घोड़े पे गये, नाव पे गये ,पैदल गये, पैलिनक्वीन पे गये, डोली में गये, फीनस में गये तो बार्ज पे गंगा में जा रहे थे बनारस बहुत अच्छा लगा सबसे बड़ी नज्म उसकी जो है चराग-ए-दैर मन्दिर का दीया फारसी में वो बनारस के बारे में हैं -

``इबादत खाना-ए- नाखूिशयांस्त हमाना काबैह हिन्दूस्तानस्त`` 

यहां के लोग शंख से खूबसूरत आवाज पैदा करते हैं। गंगा उस खूबसूरत औरत की तरह है जो कि गंगा के आईने में अपनी सुबह अपनी शक्ल सुबह-शाम-रात देखती है ये सचमुच हिन्दुस्तान का काबा है और ये सिर्फ गालिब ने नहीं इकबाल ने-

`है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए- हिन्द``

`लबरेज़ है शराब-ए-हकीकत से जाम-ए- हिन्द
सब फलसफी है खिता-ए-मगरिब के राम-ए-हिन्द
ये हिन्दीयों के फिकरे फलक रस का है असर
रफ्त में आसमां से भी उंचा हे बाम-ए-हिन्द
इस देस में हुए हैं हजारों मलक सरिस्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया मे नाम-ए-हिन्द
है राम के वज़ूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द

 मसलन शेख अली हज़ीम ईरान से आये। बनारस में आके उन्होंने अपना पड़ाव डाल दिया वहीं रह गये और ऐसे ऐसे शेर कहे बनारस के ऊपर कि मैं बनारस छोड़ के जा नहीं सकता। यहां का हर आदमी मुझे राम और लक्ष्मण का बेटा दिखाई देता है। पांचो वक्त की नमाज़ पढ़ते थे, रोज़ा रखते थे लेकिन इन चीजें को ...

मीर अनीस ने मर्सिया लिखे वाकया-ए-कर्बला पे। चुन्नी लाल दिलगीर मुसलमान नहीं थे। सरवांटी सेंटर खुल रहा है यहां पर। सरवांटी एक बहुत बड़ा राइटर है स्पेन का। जिसने कि डॉनकिओटे लिखा। अब डॉनकिओटे का सरवांटीज का जो यहां पे उसी से मुतासिर होके 19 सेंचुरी में जो किताब लिखी गई फसाना-ए-आज़ाद उसके आर्थर का नाम किसी को मालूम हो तो वो था पण्डित रतन नाथ शरशार। 20वीं सदी के बेहतरीन शायर। रघुपति सहाय, फिराक गोरखपुरी। तो लोग समझते हैं उर्दू मुसलमानों की ज़बान है। ऐसा है नहीं। बेपनाह हिन्दू शायरों का कॉन्ट्रीबीयूशन है।

कहती थी बानो इलाही हो मेरे वारिस की खैर,
क्यों गिरी जाती है मेरे सर से चादर बार-बार

ये गजल का शेर यानी तगज्ज़ुल जो इनट्रोड्यूज़ किया गया वाक्या-ए-कर्बला में जिसको कि रिवायत के कहती है कि मीर अनीस ये शेर पढ़ते थे और सर धुनते थे और इसकी अहमियत और कुछ नहीं है ये सिर्फ एक ऐसे अजीमुश्शान शायर का शेर है जिसका नाम था चुन्नु लाल दिलगीर। मीर अनीस से मीर ख़लीक के जमाने के और ऐसे बहुत से शायर हुए।

``क्या सिर्फ मुसलमान के प्यार हैं हुसैन
चर्ख-ए-नव-ए-बशर के तारे हैं हुसैन
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर कौम पुकारेगी, हमारे हैं हुसैन``

-यूं फातिमा करती थी बयां हाय हुस्ना
 मज़नुब हुसैना..... मजनूब हुसैना-


गंगा-जमुनी तहजीब जो हम आजकल बात करते हैं कि साहब ये ज़बान है। जब आज़ाद पाकिस्तान, ईरान, अमेरिका, ओस्लो किसी सेमिनार में खड़े होते थे और मेरे दोस्त-शायर इनकार नहीं करेंगे इस हकीकत से कि आहादी स्कोट करते थे अराबी में पुराने कीम की आयतें पढ़ते थे ज़बानी, संस्कृत के लोक पढ़ते थे तो लगता था कि हां ये उस तहजीब का नुमाइन्दा है जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं। 

बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहां कॉमन वंरिशप है। साउथ में सबसे बड़ा टेंपल जो हैं तीन हैं-तिरूपति, गुरूवायु और सबरीमाला। सबरीमाला पंबा नदी के ऊपर जाइये तो भगवान विश्णु और शिव की एक देन है-लॉर्ड अयप्पा। वहां पे वो मन्दिर है, वहां बेपनाह लोग जाते हैं... बड़ा खूबसूरत, मैं गया हूं लेकिन वहां दर्शन करने से पहले वावर स्वामी एक मुसलमान पीर है वहां जाके पहले एक पीर से एक ताबीज़ लेते हैं लोग फिर जाते हैं वहां। 

अब जो ये रायट्स जब हुए गुज़रात में तो इसमें फय्याज खां की कब्र इन लोगों ने जा के खोद दी। अब मैंने कहा इन कमबख्तों को ये नहीं मालूम कि राग परज में मनमोहन ब्रज के रसिया जो कि भगवान कृश्ण के बारे में है फय्याज खां से ज्यादा खूबसूरत किसी ने नहीं गाया। अहमदाबाद में एक कब्र थी-पुलिस चौकी के बिल्कुल सामने वो थी वली दक़नी की। अपना आतंकी आये और उन्होनें उनको डिस्ट्रॉय कर दिया क्योंकि साहब एक मुसलमान की कब्र थी, इन बेवकूफों को ये नहीं मालूम था कि ये वो शायर है जो कि जो इस तरह सूरत के उपर इससे अच्छा किसी ने लिखा नहीं, अहमदाबाद के बारे में उससे खूबसूरत नज्में किसी ने लिखी ही नहीं और शायर कहता है- कहता है कि -

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है``, मेरे यार का कूचा जो है वो काशी जैसी पवित्र नगरी जैसा है।

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है,
जोगिया दिल, वहां का बासी है``
  
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