Wednesday, August 22, 2012

पैकेज


डाकिए की ओर से: हाल ही में मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी से गुज़र रहा था और मन्नू की विनम्रता के आगे निहाल था। लेकिन मेरी समस्या दूसरी थी। उसमें जहां जहां उनके पति राजेन्द्र यादव की बुराईयां, झूठ और गलतियां सामने आ रही थी मुझे न जाने क्यों राजेन्द्र यादव के प्रति दिल में एक हमदर्दी पैदा होती जा रही थी। कुछ तो है उनमें खास ऐसा मुझे लगा और आगे चलकर यही मन्नू ने भी लिखा। दूसरों की जिंदगी में झांकने की बीमारी पैदाइशी लेकर आया हूं सो हर पेचीगदी और उलझी हुई चीज में माथा खपाना आदत हो गई है। यह वैसा ही है जैसा लव ट्रेंगल में आप रूचि लेते हैं। कई बार यह त्रिकोण जिंदगी और इसी परिस्थितियां बनाती हैं तो कई बार अपना स्वभाव और आदतें।

वैसे हिन्दी साहित्य में राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी एक मिसाल लगते हैं जहां राजेंद्र ने पूरा जीवन ही साहित्य को समर्पित किया वहीं मन्नू ने दोनों फ्रंट यानि परिवारिक जिम्मेदारी और लेखन कार्य दोनों मोर्चे पर जमकर लड़ीं। इन दोनों की जोड़ी डाकिए को इसलिए भी आकर्षित करती है क्योंकि दोनों ही ने लेखन में ईमानदारी का दामन थामे रखा। आश्चर्य यह भी होता है कि दोनों के पर्याप्त पाठकवर्ग होने के बावजूद इनके रिश्तों की खटास कागज़ पर भी सम्मानित तरीके से आई और मर्यादित तरीके से दोनों ने अपना पक्ष भी रखा। सार्वजनिक तौर पर भी एक दूसरे का सम्मान किया। इससे उनका यह जीवन भी साहित्य की एक अच्छी और स्वस्थ विधा में शामिल हो गई। इसे एक उपलब्धि भरी गर्वित लेखकीय यात्रा कह सकते हैं।

कहीं से बहुत ही अस्पष्ट छपाई में राजेन्द्र यादव लिखित मुड़ मुड़ के देखता हूं का एक टुकड़ा हाथ लगा। उसमें कई कंफेशन हैं और कई चिंताएं और सवाल भी जो डाकिए के उधेड़बुन से मेल खाती लगीं। आप जानते हैं सबसे अच्छी और प्रिय किताब वही होती है जो हमें वैसे ही मनःस्थिति से मेल खाती लगती है। हमें जानी हुई बात ही बताती है। सो आपसे बांट रहा हूं। भरी जुकाम में पढ़ी गई एक सीधी सपाट रीडिंग में कई विराम की गलतियां होंगी कई उतार चढ़ाव की सो अग्रिम क्षमा के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत है :-



और अब मन्नू भंडारी की बीबीसी के साथ बातचीत के एक हिस्से को बीबीसी पर ही सुनी जा सकती है : यहाँ

Monday, August 13, 2012

एक कविता सुरजीत पातर की..

अब घर को लौटना बहुत मुश्किल है..
कौन पहचान पायेगा हमें..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और
आँखों में कोई चमक है..
किसी ढह चुके घर से आती है रोशनी सी..

डर जायेगी मेरी माँ..
मेरा पुत्र..मुझसे बड़ी उम्र का..?
किस साधू का श्राप लगा है इसे..?
किस जलन की मारी ने कर दिया जादू टोना..
डर जाएगी मेरी माँ..
अब घर को लौटना अच्छा नहीं...

इतने डूब चुके सूरज..
इतने मर चुके खुदा..
जीती जागती माँ को देख कर..
उसके या खुद के प्रेत होने का होगा भ्रम..
जब मिलेगा कोई दोस्त पुराना..
बहुत याद आयेगा अपने अंदर से..
मर चुका मोह..
रोना आयेगा अपने पर और फिर याद आयेगा..
आँसू तो रखे रह गये मेरे दूसरे कोट की जेब में..

जब हाथ रखेगी सर पर मेरे ईसरी..
देगी असीस कोई..
किस तरह बताऊंगा मैं..
कि इस सर में छुपे हुए है ख़्याल किस तरह के..
अपनी ही लाश ले जाता आदमी..
पति की चिता पर खाना पकाती कोई हैमलिट
जाड़ों में लोगो की चिता की आग सेंकने वाला खुदा..
जिन आँखों से देखे है मैंने दुखांत..
किस तरह मिलाऊँगा ऑंखें..
अपने बचपन की तस्वीर से..

शाम को जब मढ़ी का दिया जलेगा..
गुरद्वारे शंख बजेगा..
वह बहुत याद आयेगा..
वह कि जो मर गया..
वह कि जिस की मौत का..
इस भरी नगरी में सिर्फ़ मुझको पता है..

अगर किसी ने अब मेरे मन की तलाशी ले ली..
तो रह जाउंगा बहुत अकेला ..
किसी दुश्मन देश के जासूस की तरह..
अब घरों में बसना आसान नहीं..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और...

(मूल पंजाबी से अनुदित)
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