Sunday, July 19, 2015

चिट्ठियें दर्द फ़िराक़ वालियें

गेब्रियल गरसिआ मार्क्वेज़  के उपन्यास "क्रॉनिकल ऑफ़ ए डेथ फोरटोल्ड"  के कुछ अंश......



वह जैसे दोबारा जी उठी थी। वह मुझे बताती है "मैं उसके लिए पागल हो चुकी थी...दिमाग़  ने सोचने की शक्ति जैसे खो दी थी। आँखे बंद करती तो उसे देखती। उसकी सांसों की आवाज़ समंदर के शोर में भी सुन सकती थी। आधी रात को बिस्तर में उसकी देह की लौ  मुझे नींद से जगा देती थी।"
उस पहले हफ्ते में एक भी पल उसे चैन नहीं मिला था। फिर उसने उसे पहली चिट्ठी  लिखी। यह शिकायत से भरी आम सी चिट्ठी थी, जिसमे उसने उसे होटल से बाहर निकलते वक्त देखने के बारे में बताया था और यह शिक़वा किया था कि उसे कितना अच्छा लगता अगर वह भी एक नज़र उठा कर उसे देख लेता। वह बेकार ही चिट्ठी के जवाब का इंतज़ार करती रही। दो महीने इंतज़ार करके थक कर उसने एक और चिट्ठी लिखी। यह भी ठीक पहले जैसी औपचारिक थी। वह उसे इतनी कठोरता और बेदर्दी दिखाने के लिए धिक्कारना चाहती थी। छह महीने में उसनें छह चिट्ठियां लिखी, पर एक का भी जवाब नहीं आया। मगर उसे तसल्ली इस बात की थी कि कम से कम चिट्ठियां उसे मिल तो रहीं हैं, उस तक पहुंच तो रही ही हैं न।

 अपनी नियति के लिए वह स्वयं जिम्मेदार थी और यह बात उसे समझ आ गयी थी कि प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू  हैं। वह जितनी चिट्ठियां लिखती, उसके अंदर की अंगारों सी व्याकुलता उसे उतनी ही जलाती। परन्तु एक पीड़ादायक नफ़रत वह अपनी माँ  के लिए महसूस करती। उसे देखना ही उसे परेशान कर देता। माँ को देखती तो उसे वह याद आ जाता। पति से अलग रह कर उसकी ज़िंदगी जैसे-तैसे गुज़र रही थी। वह साधारण नौकरानी की तरह मशीन पर कढ़ाई करती, कपड़े के टूलिप्स और कागज़ के पंछी  बनाती रहती। जब माँ सोने चली जाती, वह उसी कमरे में सुबह होने तक वह चिट्ठियां लिखती रहती, जिनका कोई भी भविष्य नहीं था। उसका देखने का नज़रिया अब पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गया था, वह पहले से ज्यादा रौबदार और अपनी मर्जी की मालकिन बन गयी थी। अपने सिवा किसी का हुक्म नहीं मानती थी, न ही अपने जूनूँ के इलावा किसी और की मुलाज़मत उसे मंज़ूर थी। वह हर सप्ताह आधा वक़्त चिट्ठियां  लिखती रहती। वह हँसते हुए कहती "मुझे कई बार पता ही नहीं चलता कि क्या लिखूं, पर मेरे लिए यह बहुत था कि उस तक मेरी चिट्ठियां पहुंच तो रही हैं।" पहली चिट्ठियां उसने एक पत्नी की तरह से लिखी, फिर किसी प्रेमिका की तरह छोटे-छोटे संदेश लिखे। कई बार खुशबूदार कार्ड्स भेजती, कई बार व्यस्तता की बातें और कई बार मुहब्बत से भरी लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिखती। आखिर में उसने ऐसी चिट्ठियां लिखी जो एक परित्याग की गयी पत्नी के गुस्से से भरी हुई थीं। वह मनगढ़ंत बीमारी की बातें बता कर उसे वापिस बुलाना चाहती थी।
एक रात जब वह किसी वजह से खुश थी, उसने चिट्ठी लिखी और उस पर सियाही की दवात गिरा दी। उसे फाड़ देने की बजाय उसमें पुनश्च जोड़ देती है, कि अपने प्रेम के सबूत में तुम्हें अपने आँसू भेज रही हूँ। वह उसे याद कर-कर के इतना रोती,  कि कई बार थक कर अपना ही मज़ाक उड़ाने लगती। छह बार पोस्ट मास्टरनी बदल चुकी थी और हर नई पोस्टमास्टरानी  के साथ मेल-मिलाप करने में छह बार उसे परेशानी उठानी पड़ी। सिर्फ एक चीज जो उसके साथ नहीं हुई, वह थी इन सब से थक कर हार मान लेना। परन्तु वह उसके इस प्रेम, इस जूनून  के प्रति संवेदनशून्य ही रहा। उसका यह लिखना ऐसे था, जैसे वह किसी ऐसे व्यक्ति को लिख रही है, जो कोई कहीं है ही नहीं। जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
दस साल बीत चुके थे। एक तूफ़ान भरी सुबह में वह इस विश्वास के साथ उठी कि रात वह इसके बिस्तर पर अनावृत सो रहा था। तब उसनें एक बेचैनी भरी बीस पन्नों की चिट्ठी लिखी। जिसमें बिना शर्म वह बातें लिखती है, जो उस मनहूस रात से ही उसके दिल में दबी हुई हैं। वह उसे उन घावों के बारे में लिखती है, जो वह उसकी देह पर छोड़ गया था और जो दिखाई देते हैं। उसकी भाषा के तीखेपन की बात करती है, उसकी देह के कुण्ड को सींचे जाने की बात करती है। शुक्रवार को पोस्टमास्टरानी कढ़ाई करने आई, तो उसने उसे वह चिट्ठी दी। उसे लगता था कि यह चिट्ठी उसके सभी दुखों का अंत कर देगी। यह निर्णायक चिट्ठी होगी। पर हमेशा की तरह इसका भी कोई जवाब नहीं आया। तब से लेकर अब तक उसने लिखते वक़्त कभी नहीं सोचा कि वह क्या लिख रही है, किसे लिख रही है। दिशाहीन सी वह सत्रह साल तक लिखती रही।
मध्य अगस्त के किसी दिन वह सहेलियों के साथ हमेशा की तरह कढ़ाई कर रही थी, कि किसी के आने की आवाज़ दरवाज़े पर सुनी, परन्तु उसने नज़रें उठा कर नहीं देखा कि  कौन आया है। यह कोई गठे हुए बदन वाला व्यक्ति था, जिसके सिर के बाल झड़ रहे थे और जिसे पास की चीज़े देखने के लिए चश्में की जरूरत थी। परन्तु यह वह था। हे ईश्वर! यह तो वही था। वह भी उसे उसी तरह से पहचानने की कोशिश कर रहा था, जैसे वह उसे। वह सोच रही थी कि क्या उसके अंदर इतना प्रेम बचा होगा कि वह उसके भार को संभाल सकेगी। उसकी कमीज़ पसीने से भीगी हुई थी। जैसा उसे पहली बार मेले में देखा था। उसने वही बेल्ट  पहनी हुई थी, वही चांदी  की सजावट वाला जीन का बिना सिला झोला था। वह कढ़ाई करने वाली लड़कियों को आश्चर्य से भरा छोड़ उसकी तरफ बढ़ा और अपना जीन का झोला उसकी कढ़ाई की मशीन पर रखा दिया । 
उसने कहा"मैं आ गया हूँ।"
उसके पास एक कपड़ों का सूटकेस था और ठीक वैसा ही दूसरा  सूटकेस २००० चिट्ठियों से भरा था, जो उसने उसे लिखी थी। सारी  चिट्ठियां तारीख के अनुसार रंगीन रिबन से पुलिंदों में बंधी हुई थी।  उनमें से एक भी चिठ्ठी कभी खोली नहीं गयी थी। 

Wednesday, July 23, 2014

संवदिया

डाकिये की ओर से : अरसे से इस कहानी को खोज रहा था और ये गच्चा दिए जा रही थी. दोस्तों से इस पर नज़र रखने को कहा था लेकिन नहीं मिली। इंटरनेट पर तो नहीं ही मिली, कई किताबों से भी गायब थी. अपने स्कूली दिनों में इसे पहली बार बेमन से पढ़ना हुआ था. तब मछली थे और पानी की सतह पर आकर बस बुलबुले मारते थे और जाने क्या तलाशते थे और ये मीठे-मीठे आटे की गोली के रूप में जीभ से लगी लेकिन हलक में फंस गयी तब से रेणु नाम की इस बंसी पर टंगा हूँ. पढ़ना वो जो जिया हुआ लगे. हाट में सब्जी का थैला लिए भिन्डी तौलवाते अचानक से स्ट्रक करे.

*****


Photo: Symbolic
हरगोबिन को अचरज हुआ - तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहां का कुशल संवाद मंगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?

हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भांति उसने वातावरण को सूंघकर संवाद का अंदाज लगया। ...निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चांद-सूरज को भी नहीं मालूम हो! परेवा-पंछी तक न जाने!

‘‘पांवलागी बड़ी बहुरिया!’’

बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आंख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा... बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है! जहां दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहां आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर झटक रही है। इन हाथों में सिर्फ मेंहदी लगाकर ही गांव की नाइन परिवार पालती थी। कहां गए वे दिन? हरगोबिन ने एक लंबी सांस ली। 

बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दखल किया। फिर, तीनों भाई गांव छोड़कर शहर जा बसे। रह गयी अकेली बड़ी बहुरिया। कहां जाती बेचारी! 

भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? .... बड़ी बहुरिया की देह से जवेर खींच-खींच कर बंटवारे की लीला हुई, हरगोबिन ने देखी है अपनी आंखों से द्रौपदी-चीरहरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बंटवारा किया था, निर्दयी भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

गांव की मोदिआइन बूढ़ी न जाने कब से आंगन में बैठकर बड़बड़ा रही थी - ‘‘उधार का सौदा खाने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूंगी।’’ 
बड़ी बहुरिया ने कोई जवाब नहीं दिया। 

हरगोबिन ने फिर लम्बी सांस ली। जब तक यह मोदिआइन आंगन से नहीं टलती, बड़ी बहुरिया हरगोबिन से कुछ नहीं बोलेगी। वह अब चुप नहीं रह सका, ‘‘मोदिआइन काकी, बाकी-बकाया वसूलने का यह काबुली कायदा तो तुमने खूब सीखा है!’’

‘काबुली कायदा’ सुनते ही मोदिआइन तमककर खड़ी हो गई, ‘‘चुप रह, मुंहझौंसे! निमोंछिये...!

‘‘क्या करूं काकी, भगवान ने मूंछ-दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलज़ार दाढ़ी...!

‘‘फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूंगी।’’

हरगोबिन ने जीभ बाहर निकालकर दिखलाई। अर्थात् - ‘‘खींच ले।’’ 

...पांच साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गांव आता था और मोदिआइन के ओसारे पर दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय जोर-जुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार लेनेवालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गांव में नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गयी। ...काबुली क्या, काबुली बादाम के नाम से भी चिढ़ने लगी मोदिआइन! गांव के नाचवालों ने नाम में काबुली का स्वांग किया था: ‘‘तुम अमारा मुलुम जाएगा मोदिआइन? अम काबुली बादाम-पिस्ता-अकरोट किलायगा...!’’

मेदिआइन बड़बड़ाती, गाली देती हुई चली गई तो बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन से कहा, ’’हरगोबिन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न ?

‘‘कहां?’’

‘‘मेरी मां के पास!’’

हरगोबिन बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आंखों में डूब गया, ’’कहिए, क्या संवाद?’’

संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकियां लेने लगी। हरगोबिन की आंखें भी भर आईं। ...बड़ी हवेली की लछमी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।’’

‘‘और कितना कड़ा करूं दिल?’’ ...मां से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूंगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी, लेकिन यहां अब नहीं... अब नहीं रह सकूंगी। ...कहना, यदि मां मुझे यहां से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बांधकर पोखरे में डूब मरूंगी। ...बथुआ साग खाकर कब तक जीऊं ? किसलिए.... किसके लिए?’’

हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देवर-देवरानियां भी कितने बेदर्द हैं। ठीक अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएंगे। दस-पंद्रह दिनों में कर्ज-उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएंगे। फिर आम के मौसम में आकर हाजिर। कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बंद करके चले जाएंगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते... राक्षस हैं सब!

बड़ी बहुरिया आंच के खूंट से पांच रूपए का एक गन्दा नोट निकालकर बोली, ‘‘पूरा राह खर्च भी नहीं जुटा सकी। आने का खर्चा मां से मांग लेना। उम्मीद है, भैया तुहारे साथ ही आवेंगे।’’

हरगोबिन बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, राह खर्च देने की जरूरत नहीं। मैं इन्तजाम कर लूंगा।’’

‘‘तुम कहां से इन्तजाम करोगे?’’

‘‘मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूं।’’

बड़ी बहुरिया हाथ में नोट लेकर चुपचाप, भावशून्य दृष्टि से हरगोबिन को देखती रही। हरगोबिन हवेली से बाहर आ गया। उसने सुना, बड़ी बहुरिया कह रही थी, ‘‘मैं तुम्हारी राह देख रही हूं।’’

संवदिया! अर्थात् संवादवाहक!

हरगोबिन संवदिया! ...संवाद पहुंचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना, सहज काम नहीं। गांव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचार और पेटू आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गांव-गांव संवाद पहुंचावे, उसको और क्या कहेंगे? ...औरतों का गुलाम। ज़रा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्द को भी भला मर्द कहेंगे? किन्तु, गांव में कौन ऐसा है, जिसके घर की मां-बहू-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुंचाया है। ....लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह। 

गाड़ी पर सवार होते ही हरगोबिन को पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। एक करूण गीत की भूली हुई कड़ी फिर उसके कानों के पास गूंजने लगीः

‘‘पैयां पड़ूं दाढ़ी धरूं....
हमरी संवाद लेले जाहु रे संवदिया या-या!...’’

बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसके मन में कांटे की तरह चुभ रहा है - किसके भरोसे यहां रहूंगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूंटे से बंधी भूखी-प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुःख झेलूं?

हरगोबिन ने अपने पास बैठे हुए एक यात्री से पूछा, ‘‘क्यों भाई साहेब, थाना बिहपुर में सभी गाड़ियां रूकती हैं या नहीं?’’

यात्री ने मानो कुढ़कर कहा, ’’थाना बिहपुर में सभी गाड़ियां रूकती हैं।’’

हरगोबिन ने भांप लिया यह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का है। इससे कोई बातचीत नहीं जमेगी। वह फिर बड़ी बहुरिया के संवाद को मन ही मन दुहराने लगा। ...लेकिन, संवाद सुनाते समय वह अपने कलेजे को कैसे संभाल सकेगा! बड़ी बहुरिया संवाद कहते समय जहां-जहां रोई है, वहां भी रोएगा!

कटिहार जंक्शन पहुंचकर उसने देखा, पन्द्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई जरूरत नहीं। गाड़ी पहुंची और तुरन्त भोंपे से आवाज़ अपने-आप निकलने लगी - थाना बिहपुर, खगड़िया और बरौनी जानेवाली यात्री तीन नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं। गाड़ी लगी हुई है।

हरगोबिन प्रसन्न हुआ-कटिहार पहुंचने के बाद ही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुंचकर किस गाड़ी में चढ़ें और किधर जाएं, इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।

गाड़ी बदलने के बाद फिर बड़ी बहुरिया का करूण मुखड़ा उसकी आंखों के सामने उभर गयाः ‘हरगोबिन भाई, मां से कहना, भगवान ने आंखें फेर ली, लेकिन मेरी मां तो है... किसलिए... किसके लिए... मैं बथुआ की साग खाकर कब तक जीऊं ?’

थाना बिहपुर स्टेशन पर जब गाड़ी पहुंची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गांव में आया है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गांव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गांव छोड़ चली आवेगी। फिर कभी नहीं जाएगी!
हरगोबिन का मन कलपने लगा - तब गांव में क्या रह जाएगा? गांव की लक्ष्मी ही गांव छोड़कर चली आवेगी! ...किस मुंह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजर कर रही है। ...सुननेवाले हरगोबिन के गांव का नाम लेकर थूकेंगे, कैसा गांव है, जहां लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुःख भोग रही है।

अनिच्छापूर्वक हरगोबिन ने गांव में प्रवेश किया।

हरगोबिन को देखते ही गांव के लोगों ने पहचान लिया - जलालगढ़ गांव का संवदिया आया है!... न जाने क्या संवाद लेकर आया है!

‘‘राम-राम भाई! कहो, कुशल समाचार ठीक है न?’’

‘‘राम-राम भैया जी। भगवान की दया से सब आनन्दी है।’’

‘‘उधर पानी-बूंदी पड़ा है?’’

बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पहले हरगोबिन को नहीं पहचाना। हरगोबिन ने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बहिन का समाचार पूछा, ’’दीदी कैसी हैं?’’

‘‘भगवान की दया से सब राजी-खुशी है।’’

मुंह-हाथ धोने के बाद हरगोबिन की बुलाहट आंगन में हुई। अब हरगोबिन कांपने लगा। उसका कलेजा धड़कने लगा - ऐसा तो कभी नहीं हुआ?

...बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आंखें! ...सिसकियों से भरा हुआ संवाद! उसने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता को पांवलागी की। 

बूढ़ी माता ने पूछा, कहो बेटा, क्या समाचार है?’’

‘‘मायजी, आपके आर्शीवाद से सब ठीक है।’’

‘‘कोई संवाद?’’

‘‘एं ? ...संवाद ? ...जी, संवाद तो कोई नहीं। मैं कल सिरसिया गांव आया था, तो सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूं।’’

बूढ़ी माता हरगोबिन की बात सुनकर कुछ उदास-सी हो गई, तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?’’

‘‘जी नहीं, कोई संवाद नहीं। ...ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर मां से भेंट-मुलाकात कर जाऊंगी।’’ बूढ़ी माता चुप रही। हरगोबिन बोला, ‘‘छुट्टी कैसे मिले! सारी गृहस्थी बड़ी बहुरिया के ऊपर ही है।’’

बूढ़ी माता बोली, "मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहां अब क्या रह गया है? ज़मीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली....!’’

‘‘नहीं, मायजी। जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। टूट भी गई है, तो आखिर बड़ी हवेली ही है। ‘सवांग’ नहीं है, यह बात ठीक है। मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गांव ही परिवार है। हमारे गांव की लछमी है बड़ी बहुरिया। ...गांव की लछमी गांव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद्द करते हैं।’’

बूढ़ी माता ने अपने अपने हाथ हरगोबिन को जलपान लाकर दिया, ‘‘पहले थोड़ा जलपान कर लो, बबुआ।’’
जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है- भूखी, प्यासी...! रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानों सामने आकर बैठ गई...कर्ज-उधार अब कोई देते नहीं। ....एक पेट तो कुत्ता भी पालता है। लेकिन, मैं ?....मां से कहना...!!

हरगोबिन ने थाली की ओर देखा - भात-दाल, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड़ अचार।... बड़ी बहुरिया बथुआ साग उबालकर खा रही होगी। 

बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘क्यों बबुआ, खाते क्यों नहीं?’’

‘‘मायजी, पेट भर जलपान जो कर लिया है।’’

‘‘अरे, जवान आदमी तो पांच बार जलपान करके भी एक थाल भात खाता है।’’

हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया।

संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किन्तु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है। ...यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? ...नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा- अक्षर-अक्षर: ‘मायजी, आपकी एकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी!... बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी...!’

रात-भर हरगोबिन को नींद नहीं आई।

आंखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही-सिसकती, आंसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल को कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही-सही संवाद पहुंचाना। वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए बूढ़ी माता के पास जा बैठा। बूढ़ी माता ने पूछा, ‘‘क्या है बबुआ, कुछ कहोगे?’’

‘‘मायजी, मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गए।’’

‘‘अरे इतनी जल्दी क्या है! एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।’’

‘‘नहीं, मायजी, इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा में मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आऊंगा। तब डटकर पंद्रह दिनों तक मेहमानी करूंगा।’’

बूढ़ी माता बोली, ‘‘ऐसा जल्दी थी तो आए ही क्यों! सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूंगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूड़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।’’

चूड़ा की पोटली बगल में लेकर हरगोबिन आंगन से निकला तो बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, राह खर्च है तो?’’

हरगोबिन बोला, "भैयाजी, आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।’’

स्टेशन पर पहुंचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक का टिकट ही वह खरीद सकेगा। और यदि चौअन्नी नकली साबित हुई तो सैमापुर तक ही। ...बिना टिकट के वह एक स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा खून गया।

गाड़ी में बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहां आया था? क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को ज्या जवाब देगा?

यदि गाड़ी में निरगुन गाने वाला सूरदास नहीं आता, तो न जाने उसकी क्या हालत होती! सूरदास के गीतों को सुनकर उसका जी स्थिर हुआ, थोड़ा -

...कि आहो रामा!
नैहरा को सुख सपन भयो अब,
देश पिया को डोलिया चली...ई...ई....ई,
माई रोओ मति, यही करम गति...!!

सूरदास चला गया तो उसके मन में बैठी हुई बड़ी बहुरिया फिर रोने लगी - ‘किसके लिए इतना दुःख सहूं ?’
पांच बजे भोर में वह कटिहार स्टेशन पहुंचा। भोंपे से आवाज़ आ रही थी- बैरगाछी, कुसियार और जलालगढ़ जाने वाली यात्री एक नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं। 

हरगोबिन को जलालगढ़ स्टेशन जाना है, किन्तु वह एक नम्बर प्लेटफार्म पर कैसे जाएगा? उसके पास तो कटिहार तक का ही टिकट है। ...जलालगढ़! बीस कोस! बड़ी बहुरिया राह देख रही होगी। ... बीस कोस की मंजिल भी कोई दूर की मंजिल है? वह पैदल ही जाएगा। 

हरगोबिन महावीर-विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तक वह मानो ‘बाई’ के झोंके पर रहा। कसबा शहर पहुंचकर उसने पेट भर पानी पी लिया। पोटली में नाक लगाकर उसने सूंघा: अहा! बासमती धान का चूड़ा है। मां की सौगात-बेटी के लिए। नहीं, वह इससे एक मुठ्ठी भी नहीं खा सकेगा। ....किन्तु वह क्या जवाब देगा बड़ी बहुरिया को!

उसके पैर लड़खड़ाए। ...उंहूं, अभी वह कुछ नहीं सोचेगा। अभी सिर्फ चलना है। जल्दी पहुंचना है, गांव। ...बड़ी बहुरिया की डबडबाई हुई आंखें उसको गांव की ओर खींच रही थीं - ‘मैं बैठी राह ताकती रहूंगी!...’
पन्द्रह कोस! ...मां से कहना, अब नहीं रह सकूंगी।

सोलह...सत्रह...अठ्ठारह...जलालगढ़ स्टेशन का सिग्नल दिखाई पड़ता है... गांव का ताड़ सिर ऊंचा करके उसकी चाल को देख रहा है। उसी ताड़ के नीचे बड़ी हवेली के दालान पर चुपचाप टकटकी लगाकर राह देख रही है बड़ी बहुरिया- भूखी-प्यासी: ‘हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया...या...या...या!!’

लेकिन, यह कहां चला आया हरगोबिन? यह कौन गांव है? पहली सांझ में ही अमावस्या का अंधकार! किस राह से वह किधर जा रहा है? ...नदी है? कहां से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत है। ....ये झोंपड़े हैं या हाथियों का झुण्ड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहां भटक गया... इस गांव में आदमी नहीं रहते क्या? ...कहीं कोई रोसनी नहीं, किससे पूछे? ...वहां, वह रोशनी है या आंखें? वह खड़ा है या चल रहा है? वह गाड़ी में है या धरती पर....?

‘‘हरगोबिन भाई, आ गए?’’ बड़ी बहुरिया की बोली या कटिहार स्टेशन का भोंपा बोल रहा है?
‘‘हरगोबिन भाई, क्या हुआ तुमको...’’

‘‘बड़ी बहुरिया?’’

हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। सामने बैठी छाया को छूकर बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया?’’

‘‘हरगोबिन भाई, अब जी कैसा है? ...लो, एक घूंट दूध और पी लो। ...मुंह खोलो...हां...पी जाओ। पीयो!!’’
हरगोबिन होश में आया। ...बड़ी बहुरिया दूध पिला रही है?

उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, ''बड़ी बहुरिया। ...मुझे माफ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। ...तुम गांव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी मां, सारे गांव की मां हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूंगा। तुम्हारा सब काम करूंगा। ...बोलो, बड़ी मां ...तुम गांव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो....!!’’

बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुठ्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। ...संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी गलती पर पछता रही थी!

                                                                                                                     - फणीश्वरनाथ रेणु

Tuesday, March 4, 2014

फीदेल के नाम चे का पत्र

फीदेल,
            इस क्षण मैं कई बातें स्मरण कर रहा हूं - जब मैं मारिया एंटोनिया के घर पर आपसे मिला, जब आपने मुझे आने का परामर्श दिया और तैयारियों से संबंधित वे सारे तनाव आज मेरे स्मृति-पटल पर नाच रहे हैं।
    एक दिन उन्होंने पूछा था कि मृत्यु के वरण करने पर किसे शापित किया जाए और तथ्य की वास्तविक संभावना ने हम सभी को प्रभावित किया था। बाद में हम अच्छी तरह समझ गए कि क्रांति में व्यक्ति विजय प्राप्त करता है या मृत्यु को प्राप्त होता है, यदि वह वास्तविक है। और कई साथी विजय-मार्ग पर वीर-गति को प्राप्त हुए।
    आज प्रत्येक वस्तु कम नाटकीय लगती है, क्योंकि अब हम और अधिक परिपक्व हैं। लेकिन तथ्यों की पुनरावृत्ति होती है। मैं अनुभव करता हूं कि मैं अपने कर्तव्य के उस भाग को पूर्ण कर चुका हूं, जिसने मुझे क्यूबाई क्रांति से उसी के क्षेत्र में बांध रखा था और अब मैं आपसे, अपने साथियों से, अपने लोगों से जो वस्तुतः मेरे भी अपने सगे हैं, सभी से विदा लेता हूं।
    मैं दल के राष्ट्रीय नेतृत्व में अपनी स्थितियों, अपने मंत्री, अपने मेजर के पद और अपनी क्यूबाई नागरिकता को त्यागने की घोषणा करता हूं। अब कोई विधि नियम मुझे क्यूबा से नहीं बांधता। केवल वे बंधन जो दूसरी प्रकृति के हैं- तोड़े नहीं जा सकते, जबकि पदों को तोड़ा और छोड़ा जा सकता है।
    अपने अतीत का स्मरण करते हुए, मेरा विश्वास है कि मैंने यथेष्ट गौरव और निष्ठा के साथ क्रांतिकारी विजयों को संगठित करने में भरपूर योगदान किया है। मेरी गंभीर असफलता यही थी कि सीरा माइस्त्रा के प्रथम क्षणों से ही मैंने आप में और आधिक विश्वास नहीं किया और नेता तथा क्रांतिकारी के रूप में आपके गुणों को यथेष्ट शीघ्रता से नहीं समझा।
    मैंने एक शानदार जीवन बिताया है और आपके साथ उस गौरव का अनुभव किया है, जो हमारी जनता के कैरीबियन संकट के समय उन शानदार किंतु चिंतापूर्ण दिनों से संबंधित हैं।
    उन दिनों आप जैसे प्रवीण राजनीतिज्ञ वस्तुतः बहुत कम हुए। मुझे इस बात का भी अभिमान है कि मैंने बेहिचक आपका अनुगमन किया, आपकी चिंतनपद्धति को अपनाया और खतरों तथा सिद्धांतो के विषय में आपके दृष्टिकोण को यथार्य रूप में समझा।
    संसार के अन्य राष्ट्र भी मेरे नम्र प्रयत्नों की मांग करते हैं। मैं उस कार्य को कर सकता हूं जो क्यूबा के प्रधान होने के उत्तरदायित्व के कारण आपके लिए निषिद्ध हैं। और अब समय आ गया है कि जबकि हमें एक दूसरे से विदा ले लेनी चाहिए।
    मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यह सब प्रसन्नता और दुःख के मिश्रित भावों के साथ कर रहा हूं। मैं यहां अपने सृजक की पवित्रतम आशाओं तथा अपने सर्वाधिक प्रियजनों को छोड़ रहा हूं। मैं उस जनता को छोड़ रहा हूं, जिसने अपने पुत्र की तरह मेरा स्वागत किया। इससे मुझे गहरी पीड़ा पहुंचती है। मैं संघर्ष के अग्रिम स्थलों में उस विश्वास को ले जा रहा हूं, जो मैंने आपसे सीखा। जहां कही भी हो- मैं साम्राज्यवाद के विरूद्ध लड़ने के लिए अपनी जनता के अदम्य क्रांतिकारी उत्साह और पवित्र कर्तव्यों को निभाने की भावनाओं को भी अपने साथ ले जा रहा हूं - यह सोचकर मुझे प्रसन्नता होती है और विछोह की गहरी पीड़ा को झेलने का साहस प्राप्त होता है।
    मैं एक बार और घोषित करता हूं कि मैंने क्यूबा को अपने उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है, केवल एक बात को छोड़कर जो उसके उदाहरण से उत्पन्न होता है। यदि मेरा अंतिम क्षण मुझे अन्य आकाश के नीचे पाता है तो मेरा अंतिम विचार इस जनता और विशेषतः आपके संबंध में होगा। मैं आपकी शिक्षा और आपके उदाहरण के लिए कृतज्ञ हूं और मैं अपने कार्यों के अंतिम परिणामों में प्रति विश्वासपात्र बनने का प्रयास करता रहूंगा।
    मैं अपनी इस क्रांति की वैदेशिक नीति से संबंधित समझा जाता रहा हूं और मैं उसे ज़ारी रखूंगा। मैं जहां भी रहूं, एक क्यूबाई क्रांतिकारी के उत्तरदायित्व को अनुभव करता रहूंगा और तदनुरूप आचरण करूंगा। मुझे इस बात का कोई खेद नहीं कि मैं अपने बच्चों और पत्नी के लिए कोई संपत्ति नहीं छोड़ गया हूं। मुझे प्रसन्नता है कि ऐसा हुआ। मैं उनके लिए कोई मांग नहीं करता, क्योंकि मैं जानता हूं कि राज्य उनके व्यय और शिक्षा के लिए यथेष्ट प्रबंध करेगा।
    मैं आपके और अपनी जनता से बहुत कुछ कहना चाहूंगा, लेकिन अनुभव करता हूं कि यह सब अनावश्यक है। मैं जो कुछ कहना चाहता हूं, शब्द से अभिव्यक्त करने में असमर्थ हैं और मैं नहीं सोचता कि बेकार की मुहावरेबाजी का कोई मूल्य है।
सदा विजय के मार्ग पर! मातृभूमि या मृत्यु!
अपनी संपूर्ण क्रांतिकारी भावना के साथ मैं आपका आलिंगन करता हूं।
                                                                                                                                                 - चे
अप्रैल, 1965

[यह पत्र है उस महान हुतात्मा का! वह जो क्रांति के लिए जनमा, क्रांति के लिए जिया और क्रांति के लिए मर मिटा। अन्याय, परपीड़न और शोषण की दुर्द्धर्ष शक्तियों के विरूद्ध अनथक, अनवरत संघर्ष में जिसने त्याग और बलिदान का सर्वश्रेष्ठ आदर्श उपस्थित किया। क्यूबाई क्रांति के नेता और प्रधान फीदेल कास्त्रो के नाम इस पत्र से उसका जो स्वरूप उभरता है, वह विगत और वर्तमान के सभी क्रांतिकारियों से कितना भिन्न, कितना अनूठा है- इस पत्र का प्रत्येक शब्द उस स्वरूप को मुखर करने में स्वतः सक्षम है।]

साभार : क्रांतिदूत चे ग्वेरा

Wednesday, September 18, 2013

गाँठ


डाकिए की ओर से:    बहुत कम फिल्में आत्मसंवाद का मौका देती है। गाइड उनमें से एक है। कहीं कहीं से उसकी स्क्रिप्ट मिली तो आपके लिए अपना ही पसंदीदा हिस्सा लगा रहा हूं। कभी- कभी मन होता है कि कुछ अनोखे स्क्रिप्टों के अनछूए पहलू से रू-ब-रू करवाऊं जिसमें स्लमडाॅग मिलेनियर के पटकथा लेखक सिमोन बुफाॅय का एक सीन को लिखना किस कदर कठिन था। मुझे लगता है दुनिया की सारी समस्याएं मेरे साथ ही है और सारी समस्याओं में आलस्य काॅमन है। बहरहाल.... तनाव की इस महीन-बारीक डोर पर गौर फरमाएं....

***

INT.- NALINI’S BUNGLOW- NIGHT

Rosy is sitting in front of the mirror, applying make up.
Raju is sitting next to her.
 
RAJU

Rosy, ye doori hatai nahi jaa sakti hai?
 
ROSY
Koshish karo..
 
RAJU
Koshish karne aaa hu madat nahi karogi?
 
ROSY
Mujhe tumse koi gilah nahi hai Raju
 
She gets up and walks to the other side of the room.
 
RAJU
Yahi toh gilah hai mujhe ki tumhe koi gilah nahi.
 
(gets up and follows her)
 
Mein chahta ho ki tum roo, chillao,
gaali do mujhe. Beshak ek do
thappad bhi maro lekin kuch aisa
karo jisse lage ki tumhe meri parva
hai.
Itni meherbani toh tumne Marco pe
bhi ki thi..
 
She unties her hair.
She sits on the bed.
 
ROSY
Ek gilah sa bann gaya hai dil ke
charo taraf. Koi nishana waha tak
nahi pohochta ab. Na sukh ka na
dukh ka..
 
She Lies on the bed.
 
ROSY
(contd.)
Mere taraf se tum bilkul azad ho
Raju. Balki mujhe khushi hai ki
tumhe khushi haazil karne ke tarike
aa gaye..
 
Raju sits on the bed, leans on top of her.
89.
RAJU
Matt door hatao Rosy..
Rosy gets up immediately.
 
ROSY
Please Raju, mein bohot thak gayi hu.

Raju tries to come close.
 
RAJU
Meri bahon mein so jao aaj, mere
kandhe par sar rakh kar. Ek zamaana
tha tumhari thakan mit jaya karti
thi iss tarah
He pulls her closer to him.
 
ROSY
Kya karr rahe ho! Chodo mujhe.
She gets of the bed and sits on a stool next to it.
 
Raju is still holding her hand.
 
Raju gets of the bed, kneels, putting his head on her
shoulder.
 
RAJU
Koi nayi baat nahi mere haato se
tumhe iss tarah pakadna. Achanak ye
parayapan kyu hai, ye nafrat kyu
hai? Humara pyar chala gaya? Kya
kasoor ho gaya mujhse?

She pushes him away and gets up. Raju still doesn’t let go
of her hand. Pulls her back, making her sit on the stool
agai n. Raju digs his face in her lap.
 
RAJU
(contd.; desperately begging)
Tum kahogi toh mein sharab chod
dunga, jua chod dunga, apne saare
dosto ko chod dunga, sari duniya
chod dunga lekin ek baar kehdo ki
mujhe tumse pyar hai..sirf tumse.
Uske baad mein tumhe kabhi tang
nahi karunga, kabhi pass nahi
aaunga..Rosy Rosy Rosy..

90.
ROSY
(pushing him away)
Please Raju..
Gets up and walks away.
 
ROSY
Chale jao Raju. Warna mujhe bahar
jaana padega

Raju walks out of the room. Rosy latches the door once he
leaves.
 
CUT TO
INT.- NALINI’S BUNGLOW- NIGHT- CONTINIOUS

It is a stormy night. Mani rushes inside the house. He is
carrying the papers which Raju threw at him earlier.
Raju is sitting in the huge living room, on the floor,
drunk.
 
RAJU
Aao Mani, aao.
 
MANI
Ji aapne kaha tha kaam show ke baad
karenge.
 
RAJU
Apne liye waha se ek glass utha
lao..
 
MANI
(going through the file)
Ji nahi, ye thoda kaam karke mein
chalunga..
 
RAJU
Arre bhai lao toh..Kya tum bhi
humare saath baith ke d baatein
karna pasand nahi karte ho?
 
MANI
Aap mujhe sharminda kar rahe hai..
Mani puts the file away and goes and gets himself a glass.
 
MANI
(while walking)
Kya baat hai sir, aaj aap akeli pee
rahe hai..
 
91.
RAJU
Baatein karne ke liye itna taras
raha tha, ki socha, thodi pee kar
apne aap se kuch kahunga...
Mani comes back to the table with his glass.
 
RAJU
(contd.)
Mani, mein kuch chid chidasa ho
gaya hu. Kabhi ghusse mein bura
bhala keh jaya karu toh bura mat
manna..
 
MANI
(holds his ears)
Meri kya majaz, Sir.
 
RAJU

Zindagi bhi ek nasha hai dost.
Jabhi chadta hai tabhi poocho mat
kya aalam rehta hai..
Lekin jab utarta hai....
 
"Din dhal jaye...raat na jaye.."
 
Raju sings, leaning on a chair.
Mani takes the bottle out of his hand, Mani looks upstairs
at Rosy’s room.

Rosy lies awake n the bed, looking at the latched door.
Raju continues to sing.

Rosy tries to not listen to him by putting a pillow over her
ears.

As Raju looks outside at the rain, he remembers the time
when He nad Rosy were happy together.
Rosy gets up from the bed and digs her face in the pillow,
crying.

A smile dawns Rosy’s face.
Rosy’s room is now empty, The latch open. Rosy steps out of
the room.
 
Mani leaves.

Rosy looks at Raju, who is leaning against the staircase.
Rosy sits on the stairs. Their hands touch. Rosy is crying.
 
92.
Raju walks away from the stairs, Rosy goes to Raju and keeps
her hand on his arm.
 
EXT.- NALINI’S BUNGLOW- DAY

Rosy walks out of the bunglow, her dressman carrying her
costumes. She notices Raju, sitting on the porch, dressed as
a guide.
 
ROSY
Raju, ye kaisa mazzak hai?
 
RAJU
Mazzak hota toh kya baat thi! Na
mehel bante Na mehel tutte. Naa
rahe milti, Naa rahe bichadti.
Mazzak toh ye hai Rosy, ki ye
mazzak nahi..
 
ROSY
Ye tamasha karna zaroori hai?
 
RAJU
Jo khud tamasha ban jaye woh
tamasha kya karegi..
Aayiye aapko gadi tak chod du..
He opens the door for her. She sits inside, he rolls down
the windows for her.
 
ROSY
Acha abhi aap jayiye aur kapde
badliye. Mein aapki rah dekh rahi
hu
 
RAJU
Bohot rah dekhi, ek aisi rah pe jo
teri hai guzar bhi nahi..
 
ROSY
Ye achanak kya ho gaya hai tumhe?
Dekho show ka waqt ho raha hai...
 
RAJU
Waqt ho chuka, show ho chuka, dekh
chuke..
 
ROSY
Aaj maloom hota hai ki saath aane
ki niyat nahi..
 
93.
RAJU
Niyat toh thik thi, saath nibhana
hi aaghat hai..
 
ROSY
Raju, jo tum kehna chahte ho mein
samajh gayi. Lekin mera dil dukhane
se pehle apne dil pe haat rakho aur
poocho, kya saara dosh mera hai?
 
RAJU
Bhagwan na kare ki koi tumhara dil
dukhaye...
He closes the Cars door.
 
RAJU
(contd.)
Driver, Memsaab ko theatre le chalo
 

The Car leaves.

***

अब इसी स्क्रीनप्ले को साकार होता हुआ यहां देखिए। अवधि 1:57:00 से 2:06:30


https://www.youtube.com/watch?v=u7gpmBHdMjg

Monday, September 9, 2013

राख से कांच मैला नहीं होता


नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं. वह जीने की सक्रिय कला है. हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें.... हक़ीक़त ही तो नाटक है.....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
  -----चीड़ों पर चांदनी, निर्मल वर्मा (ब्रेख्त के बारे में)

देह कितनी भाषाएं जानती है? इतनी उसकी भंगिमाएं होती हैं जो हम जानते भी नहीं। और कई बार जब लगता है कि अब इससे जुड़ी सारी बातें जान चुके हैं तभी किसी माध्यम में उससे संबंधित एक नया प्रयोग देखते हैं। देखकर हैरान हो जाते हैं और यह चमत्कार सा लगने लगता है।

शनिवार शाम एसआरसी में देह की इसी एक अनोखी भाषा से साक्षात्कार हुआ। नाटक - एन इवनिंग विद लाल देद के माध्यम से। कश्मीरी, हिन्दी, अंग्रेजी की मिली जुले संवाद में यह मीता वशिष्ठ द्वारा एक घंटे का बिना अंतराल सोलो प्रदर्शन था।

चौदहवीं सदी में कश्मीर में एक रहस्यमयी और चमत्कारी लड़की लल्लेश्वरी का प्रादुर्भाव हुआ। कहा जाता कि वह पानी पर चलती है और उसके पैर नहीं भींगते। तेरह बरस में विवाह हुआ।  उसने अपने आध्यात्मिक और गृहस्थ जीवन में भी सामंजस्य बिठाने का भरसक प्रयास किया, मगर असफल रही। उसकी भाषा कविता शिल्प में होती थी।

मीता ने तत्कालीन कश्मीरी पहनावे, शारीरिक भाषा और स्टेज पर प्रकाश के अंधेरे उजाले के मिश्रण से लल्लेश्वरी का अद्भुत दृश्य उकेरा।

परदा उठते ही एक बारीक सी प्रकाश रेखा मंच की सतह से लगभग चार इंच ऊपर पड़ती है। अंधेरे हाॅल में सिर्फ दो आंखे अब-डब करती काश्मीरी बोलती दिखाई जाती है। और जब रोशनी पूरी फैलती है तो अभिनेत्री सर के बल उल्टा लेटी हुई दिखाई देती है।

शुरू के पांच सात मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता। लेकिन धीरे धीरे लगता है जैसे हमसे कोई कुछ खास बातें कहना चाह रहा है। हमारा दिल उससे कनेक्ट होता है और फिर नेटवर्क कट जाता है। हम या तो जुड़ने को फिर से तड़पते हैं या तुड़ने को।

दिन आया, सूरज आया
सूरज गया, चांद रहा
कुछ न रहा तो कुछ न रहा
मगर चित्त न रहा तो रहा क्या



मैं नाची र्निवसना.....
एक जगह जब ऐसा कहा जाता है तो अभिनेत्री अपने माथे पर का फेरन उतार फेंकती है, अपने बाल खोल बिखरा कर झूमकर नाचती है। मुझे लगा कि शायद कला के इस डूबे पल में अगर र्निवस्त्र भी हो जाया जाए तो कथन जस्टिफाई हो जाएगा।



बाद के दिनों में कहते हैं लल्लेश्वरी ने कपड़े पहनने छोड़ दिए। उसकी पहचान का एक एक कपड़ा व्यापारी ने जब उसे एक दिन ऐसे देखा तो उसे एक वस्त्र दिया। लल्लेश्वरी ने उस कपड़े तो बीचोंबीच दो टुकड़े में फाड़ एक दाहिने कंधे और एक बायीं कंधे पर लिया। रास्ते में जो उसे श्रद्धा से देखते या उसके इस रूप को बुरा नहीं मानते तो दायें कंधे पर के कपड़े पर वह एक गांठ बना लेती और जो उसे गालियां देते, बुरी नज़र से देखते तो बायीं कंधे पर के कपड़े पर एक गांठ लगा देती। शाम को उसी कपड़े के व्यवसायी के पास वो दोनों कपड़े का वज़न करवाती है। संयोग से दोनों गांठों का वज़न बराबर निकलता है।

नाटक खत्म होते होते लगा जैसे किसी चीज़ के प्रति सम्मोहित हो रहा हूं, वो कुछ है, पर पता नहीं क्या है।
हाॅल में कम दर्शक थे। मेरे कुछ सवाल थे जो मीता से पूछने थे मगर कृतज्ञता ज्ञापन के बाद वो मंच पर नहीं रूकी और फिर उसके बाद सामने भी नहीं आईं।

शाम ढ़ले जब कमरे पर लौट रहा था तो एक उदासी ने घेर लिया और देर रात तक बुरी तरह उदास रहा।

Tuesday, August 27, 2013

0.01cm Away From Love

डाकिए की ओर से:     कौड़ी भी कई बार यदि थोड़ा महंगा मिले तो कौड़ी के भाव जान पड़ता है। और फिर यदि कोई जिज्ञासा जगाती किताब 50 रूपए सेल के हिसाब से मिलने लगे तो अब इस महंगे हो चले शहर में महीने के बाकी बचे दिनों के लिए औसतन इतने ही रूपए के रोज़ का गुज़ारा निकाल कर भी दिल खुश हो लेता है। प्रगति मैदान में इन दिनों राज्य स्तरीय पुस्तक मेला का आयोजन किया है जो 31 अगस्त तक चलेगी। ये किताब वहीं से मिली। अपनी अंग्रेजी किसी से छुपी नहीं है लेकिन आंखों में तो दम है तजऱ् पर लुगत लेकर बैठें‘गे’ और समझ लें‘गे’। फिलहाल इसी पुस्तक से एक निष्कर्ष आपके लिए पेशे नज्र है, जो दिलदारा नाज़रीन इस तस्वीर से रू-ब-रू हो चुके हैं वे अपने दिल में महफूज़ उन अहसासों से इसका मिलान करे।
***



     It seems that in Chungking Express anyone is only ever 0.01cm away from love, from romance, from truly belonging. At all times, all the characters seem desperately close to having their fantasies, desires and utopian dream fulfilled. But even this tine gap between Cop223 and the Blonde Woman, and Cop 663 and Faye, produces disappointment, despair and a deep yearning/need for the gap to be closed. And yet, paradoxically, when the opportunities emerge for real fleshy connection between the characters, they run away from one another. Cop223 watches TV, eats Chef salads while the woman he has fallen in love with sleeps. It doesn’t seem to cross his mind to get in bed with her, to caress her soft skin, to close the gap. Faye takes flight when confronted by Cop 663 and the now tangible possibility that they will be intimate with one another. She stands him up at the California bar, and makes her way to the ‘real’ California, in effect increasing the gap between them. 

     The core motif that one is only 0.01cm away from love is constructed in a number of ways in the film. Telecommunications provide the gap to converse, to leave messages, to record one’s desires, without being in the exact same, close proximity space as the other person. Chance encounters that don’t quite work out in terms of the precise collision between time and space structure the love affairs in the film. At the beginning of the film, Cop 223 manages to avoid literally falling into/onto the Blonde Woman, asserting the importance of the gap between them. If he had fallen into her arms the sexual outcome between them might have been very different. Faye is seen constantly cleaning, tidying and rearranging Cop 663’s apartment, and yet until the very end of the film, never bumps into him (in his own space!). Goods and food establish or maintain the gap between people. The jilted Cop223 devours his girlfriend’s favorite food because he can no longer have her; the Blonde Woman establishes distance with the drug boss through her commodity disguise (he never gets really close to the real woman, behind the mask); and Cop 663 gets close to Faye through buying the Midnight Express where she used to work.

     However, the sense that one is always in close proximity to love and romance can be seen to be a high positive thing, as if the world is constantly charged by, or at least is on stand-by for the possibility of the intimate encounter. To be always potentially a fraction of a measurement away from someone who you could love forever, is simply electric. Hong Kong provides the potential for this sensuous type of intimacy because of its population density, and diversity in goods, experiences and spaces. 

Chungking Express is a mixed-up film much in the way that the characters are themselves mixed-up (over love, their own identities, desires and needs). In one sense it is clearly influenced by European Art Cinema, and in particular the work of Jan-Luc Godard. In another, it is clearly influenced by (Hollywood) genres, MTV style music videos, and the signs and codes of popular culture more generally. Chungking Express seems to be critical of the influence of goods, brands, and the media on every Hong Kong life; and yet, at the same time, it seems to celebrate the aura of the commodity and the consumption space. Chungking Express pays homage to American culture and yet also shows American culture be hackneyed and empty of any deep, interior meaning (it is ultimately disposable).

Chungking Express seems to be nostalgic for a romantic Hong Kong past of cultural diversity, and fearful of a future under Chinese rule. Chungking Express is a schizophrenic film, full of schizophrenic characters, and diverse and contradictory reference points. But this is what makes the film so fascinating, so thought provoking, so beautifully memorable. One is only ever 0.01cm away from falling love with this film.


Courtesy & ©: auteur
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