Tuesday, March 29, 2011

नवाब काश्मीरी






समाज की एक बाइज्जत शख्सियत ने कहा: "दुनिया के हर सभ्य देश और हर सभ्य समाज में यह नियम प्रचलित है कि मरने के बाद, ख्वाह दुश्मन ही क्यों न हो, उसे अच्छे अल्फाज़ के साथ याद किया जाता है। उसके सिर्फ गुण बयान किए जाते हैं और दोषों पर पर्दा डाला जाता है।"

मंटो न जवाब दिया: "मैं ऐसी दुनिया पर, ऐसे मुहज़्ज़ब मुल्क पर, ऐसे मुहज्जब समाज पर हज़ार लानत भेजता हूं जहां यह उसूल मुरव्वज हो कि मरने के बाद हर शख्स का किरदार और तखख़्खुस लांडरी में भेज दिया जाए, जहां से वह धुल-धुलाकर आए और रहमतुल्लाह अलैह की खूंटी पर लटका दिया जाए। मेरे इसलाहखाने में कोई शाना नहीं, कोई शैम्पू नहीं, कोई घूंघर पैदा करने वाली मशीन नहीं। मैं बनाव-सिंगार करना नहीं जानता। इस किताब (गंजे फरिश्ते) में जो फरिश्ता भी आया है, उसका मुंडन हुआ है और यह रस्म मैंने बड़े सलीके से अदा की है।"

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डाकिए की ओर से: जब यह प्रस्तावना पढ़ी तो ऐज यूजअल कोई असर न हुआ कि यह काम मंटो ही करेगा और सचमुच सलीके से करेगा। फिर जब नवाब काश्मीरी के बारे में दो पन्ने तक तारीफ ही तारीफ पढ़ी तो लग गया था कोई गड़बड़ है। मंटो किसी की भी इतनी तारीफ नहीं करता। गंजे फरिश्ते में उसने बताया है कि किसी को याद करने का तरीका क्या होता है और कैसे किसी की भी यथासंभव खोल खोल खोली जाती है। मिशन बड़ा होता है उसके सामने शख्सियत छोटी हो जाती है। यह अंश सम्पादित कर पेश कर रहा हूँ, चाहता तो था की इस्मत चुगताई वाला पाठ दूँ लेकिन उतना टाइप कर पाना काफी वक़्त लेगा. इसलिए सबसे छोटा किस्सा.

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यूं तो तो कहने को वह एक एक्टर था जिसकी इज्जत अक्सर लोगों की नज़ में कुछ नहीं होती, जिस तरह मुझे महज़ अफसानानिगार समझा जाता है यानि एक फुजूल सा आदमी, पर यह फुजूल सा आदमी उस फुजूल से आदमी का जितना एहतिराम करता था, उतना एहतिराम कोई बेफुजूल सी शख्सीयत किसी बेफुजूल सी शख्सीयत का नहीं कर सकती।

वह अपने फन का बादशाह था। उस फन के मुताल्लिक आपको यहां का कोई वज़ीर कुछ न बता सकेगा। आप किसी चीथड़े पहने हुए मजदूर से पूछ देखिए, जिसने चवन्नी देकर नवाब काश्मीरी को किसी फिल्म में देखा है तो वह उसके गुण गाने लगेगा और वह अपनी ख़ाम ज़बान में आपको बताएगा कि नवाब काश्मीरी ने क्या-क्या कमाल दिखाए हैं। इंगलिस्तान की यह रस्म है कि जब उनका कोई बादशाह मरता है तो फौरन ऐलान किया जाता है ‘बादशाह मर गया है, बादशाह की उम्र दराज़ हो।‘

नवाब काश्मीरी मर गया है - मैं किस नवाब काश्मीरी की दराज़ी-ए-उम्र के लिए दुआ मांगू। मुझे तो उसके मुकाबले में तमाम किरदार निगार प्यादे मालूम होते हैं।

नवाब काश्मीरी से मेरी मुलाकात बंबई में हुई। खान काश्मीरी, जो उसका करीबी रिश्तेदार है, साथ था। बंबई के एक स्टूडियो में हम देर तक बैठे और बातें करते रहे। इसके बाद मैंने उसको अपनी एक कहानी सुनाई। उस पर कुछ असर न हुआ। उसने मुझसे बिला तकल्लुफ कह दिया: ठीक है, लेकिन मुझे पसंद नहीं।

मैं उसकी इस बेबाक तन्कीद से बहुत मुत्तासिर हुआ। 

दूसरे रोज़ मैंने उसे फिर एक कहानी सुनाई। सुनने के दौरान में उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे - जब मैंने कहानी खत्म की तो उसने रूमाल से आंसू खुश्क करके मुझसे कहा: यह कहानी आप किस कंपनी को दे रहे हैं ? भड़वे का रोल मुझे बहुत पंसद है।

नवाब मर्हूम को पहली बार मैंने ‘यहूदी की लड़की‘ में देखा था, जिसमें रतनबाई हीरोइन थी। नवाब, अज़रा यहूदी का पार्ट अदा कर रहा था - मैंने इससे पहले यहूदियों की शक्ल तक नहीं देखी थी। जब मै। बंबई गया तो यहूदियों को देखकर मैंने महसूस किया कि नवाब ने उनका सही, सौ फीसदी चरबा उतारा है। जब नवाब मरहूम से बंबई में मुलाकात हुई तो उसने मुझे बताया कि अज़रा यहूदी का पार्ट अदा करने के लिए उसने कलकत्त में पार्ट अदा करने से पहले कई यहूदियों के साथ मुलाकात की, उनके साथ घंटों बैठा रहा। जब उसने महसूस किया कि वह अज़रा यहूदी का रोल अदा करने के काबिल हो गया है तो उसने मिस्टर बी.एन. सरकार, मालिक ‘न्यू थियेटर्ज‘ से हामी भर ली।

जिन अस्हाब ने यहूदी की लड़की फिल्म देखा हे, वह नवाब काश्मीरी को कभी नहीं भूल सकते। उसने बूढ़ा बनने के लिए और पोपले मुंह से बातें करने के लिए अपने सारे दांत निकलवा दिए थे ताकि किरदार निगाारी पर कोई हर्फ न आए। 

नवाब बहुत बड़ा किरदारनिगार था। वह किसी फिल्म में हिस्सा लेने के लिए तैयार न था जिसमें कोई ऐसा रोल न हो, जिसमें वह समा न सकता हो। चुनांचे वह किसी फिल्म कंपनी से मुआहिदा करने से पहले पूरी कहानी सुनता था। फिर घर जाकर उस पर कई दिन गौर करता था। आइने के सामने खड़ा होकर अपने चेहरे पर मुख्तलिफ जज्बात पैदा करता था - ज बवह अपनी तरफ से मुतमईन हो जाता तो मुआहिदे पर दस्तखत कर देता।

वह खेल देखकर घर आता तो घंटों उसे ड्रामे के याद रहे हुए मुकालमे अपने अंदाज में बोलता।
मुझे याद नहीं, कौन-सा सन था। गालिबन यह वह ज़माना था, जब बंबई की इंपीरियल फिल्म कंपनी ने हिंदुस्तान का पहला बोलता फिल्म -आलम आरा बनाया था। जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो मिस्टर बी एन सरकार ने, जो बड़े तालीमयाफ्ता और सूझबूझ के मालिक थे, ‘न्यू थियेटर्' की बुनियाद रखी। वह नवाब काश्मीरी से अक्सर मिलते रहते थे। उन्होंने नवाब को इस बात पर आमादा कर लिया था कि वह थियेटर छोड़कर फिल्मी दुनिया में आ जाए।

बी एन सरकार, नवाब को अपना मुलाजिम नहीं, महबूस समझते थे। उनका ज़ौक बहुत अरफा व आला था। वह आर्ट के गरवीदा थे। नवाब मरहूम का पहला फिल्म यहूदी की लड़की था। उस फिल्म के डायरेक्टर एक बंगाली मिस्टर अठार्थी थे जो अब दुनिया त्याग चुके हैं। उस टीम में हाफिज जी और म्यूजिक डायरेक्टर बाली थे - उस तिगड़म में क्या कुछ होता था, मेरा ख्याल है, इस मज्मून में जाइज़ नहीं।

मिस्टर अठार्थी ने, जो बहुत पढ़े लिखे और काबिल आदमी थे, मुझसे कहा था - नवाब जैसा एक्टर फिर कभी पैदा नहीं होगा। वह अपने रोल में ऐसे धंस जाता है जैसे दस्ताने में हाथ। वह अपने फन का मास्टर है।

मरहूम की जिंदगी बड़ी पाक साफ थी, उसका एक अज़ीज़ ए एम अम्माद है। उसने मुझे बताया कि नवाब बड़ा तहारत पंसद था। शिया था। कोई काम बग़ैर इस्तिखारे के नहीं करता था। सुन्नी और शिया होने में क्या फर्क है, इसे जाने दीजिए। जब इन दो फिर्कों में लड़ाई झगड़े होते हैं तो इतना समझ में आता है कि उनके दिमागों में मजहबी फुतूर है।

मैं ज्यादा तफ्सील में नहीं जाना चाहता, लेकिन आपको यह इत्तिला देना चाहता हूं जो अभी तक किसी पर्चे में शाया नहीं हुई। उसकी पहली बीवी उसके अपने वतन की थी। उस लड़की से उसकी शादी कब हुई, इसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता। उस बीवी से उसकी कोई औलाद न हुई। जब उस तरफ से नाउम्मीदी हुई तो नवाब ने इधर-उधर किसी दूसरे रिश्ते को टटोलना शुरू किया। आखिर उसने प्रिंस महर कद्र बादशाहे अवध के बड़े लड़के की बेटी से निकाह कर लिया।

जब यह शादी हुई तो घर में कोहराम मच गया। नवाब ने कोई परवा न की। नतीजा इसका यह हुआ कि उसकी पहली बीवी ने खुदकुशी कर ली- अब आप उसे खुदकुशी का मुख्तसर हाल सुन लीजिए:

जब उसकी पहली बीवी को मालूम हुआ कि उसके खाबिंद ने दूसरी शादी कर ली है तो उसने नौकरानी से तोशक मंगवाई। उस पर मिट्टी का तेल छिड़का। इसके बाद अपने तनबदन पर भी यही तेल मला। अपने   कपड़ों को भी उससे मानूस किया। फिर आराम से चारपाई पर लेटी, दियासलाई जलाई और खुद को आग लगा ली और मर गई। नवाब को मालूम ही नहीं था कि उसकी बीवी कोयला बन गई है। वह अपनी दूसरी बीवी के साथ दूसरे घर में था। 

जब नवाब को मालूम हुआ कि वो मर गई है तो उसने उसकी तज्हीज़ो-तकफ़ीन का इंतिजाम किया- बाद में उसे मालूम हुआ कि आखिरी वक्त वह यह वसीयत कर गई थी: मैं अपनी दस हज़ार की इन्शोरेन्स पालिसी अपने खाविंद के नाम करती हूं। इसके अलावा एक सौ साठ तोले सोना भी उनकी तहवील में देती हूं।

नवाब सुनकर बहुत मुताज्जिब हुआ - उसे देर तक मिट्टी के तेल की बू आती रही। 

मैं जब कभी सोचता हूं तो मुझे यूं महसूस होता है कि मैं मिट्टी का तेल हूं, कैरोसीन हूं, नवाब काश्मीरी हूं - काश्मीरी मैं भी हूं लेकिन इतना ज़ालिम नहीं, जितना कि वह था, इसलिए कि उसने सिर्फ औलाद की खातिर अपनी पहली बीवी को खुदकुशी करने पर मजबूर कर दिया। 

मैं भी काश्मीरी हूं। मुझे काश्मीरियों से बहुत मुहब्बत है, लेकिन मैं ऐसे काश्मीरियों से नफरत करता हूं जो अपने बीवियों से बुरा सुलूक करते हैं।

मैं नवाब मर्हूम के फन का काइल हूं। मैं उसे बहुत बड़ा फनकार मानता हूं लेकिन जब भी मैंने उसे स्क्रीन पर देखा, मुझे घासलेट यानि मिट्टी के तेल की बू आई। 

खुदा करे, उसे दोज़ख (नरक) नसीब हो कि वहां वह ज्यादा खुश रहेगा।

Thursday, March 24, 2011

अरूंधति-2



प्रतिवाद के स्वर कम हो रहे हैं, हमने सर्वाइवल का रास्ता चुन लिया है. असहमति की कोई जगह नहीं दिख रही. बल्कि हकीकत यह है कि अब असहमतियों का स्वागत के बहाने अब उनकी शिनाख्त कर उन्हें ठिकाने लगाया जा रहा है. ऐसे में उदय प्रकाश यंत्रणा और असहमति कि भाषा लिख कर सबसे अलग खड़े दिखाई देते हैं. 'अरूंधति' पर 'सोन के रेत में वह पैरों के चिन्ह छोड़ गयी है'... कि पहली कड़ी आप यहाँ भी पढ़ चुके हैं ... आज इसकी दूसरी और आखिर कड़ी... इस कड़ी में दो कवितायेँ हैं.


-1-

नोआखाली के समय मेरा जन्म नहीं हुआ था 
मुझे नहीं पता चंपारण में निलहे मजदूरों को 
इंडिगो कंपनियों के गोरे - मालिकों और उनके देशी मुसाहिबों ने 
किस कैद में रखा
महीने में कितने रोज़ भूखा सुलाया
कितना सताया कितनी यातना दी
उन तारीखों के जो विद्वान आज हवाले देते फिरते हैं मेले - त्योहारों में 
उनके चेहरे संदिग्ध हैं
उनकी खुशहाली मशहूरियत और ताकत के तमाम किससे आम हैं

मैं जब पैदा हुआ उसके पांच साल पहले से 
प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाया जाता था कि मुल्क आज़ाद है 
कि इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के
कि दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल

मैंने रामलीलाओं से बाहर कभी खड्ग असलियत में नहीं देखे न ढाल
साबरमती आज नक्शे में किस जगह है इसे जानते हुए डर लगता है 
रही आज़ादी तो मेरे समय में तो गुआंतानामो है अबुगरेब है 
जलियांवाला बाग नहीं जाफना है 
चैरा-चैरी नहीं अयोध्या और अहमदाबाद है

और यहां से वहां तक फैली हुई तीन तरह की खामोशियां हैं

एक वह जिसके हाथ खून में लथ-पथ हैं 
दूसरी वह जिसे अपनी मृत्यु का इंतज़ार है

तीसरी वह जो कुछ सोचते हुए 
आकाश के उन नक्षत्र को देख रही है जहां से 
कई लाख करोड़ प्रकाश-वर्षों को पार करती हुई आ रही है कोई आवाज़ 

इससे क्या फर्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र 
पवन या पहाड़, पेड़ य पखेरू, पीर या फकीर की 
भाषा क्या है ?

-2-

वहां एक पहाड़ी नदी चुपचाप रेंगती हुई पानी बना रही थी
पानी चुपचाप बहता हुआ बहुत तरह के जीवन बना रहा था
तोते पेड़ों में हरा रंग भर रहे थे 
हरा आंख की रोशनी बनता हुआ दसों दृश्य बनाता जा रहा था

पत्तियां धूप की थोड़ी सी छांह में बदल कर अपने बच्चे को सुलाती
किसी मां की हथेलियां बन रही थीं
एक झींगुर-सप्तक के बाद के आठवें-नौवें-दसवें सुरों की खोज के बाद 
रेत और मिट्टी की सतह और सरई और सागवान की काठ और पत्तियों पर उन्हें 
चीटियों और दीमकों की मदद से 
भविष्य के किसी गायक के लिए लिपिबद्ध कर रहे थे

पेड़ों की सांस से जन्म लेती हुई हवा 
नींद,  तितलियां, ओर और स्वप्न बनाने के बाद 
घास बना रही थी
घास पगडंडियां और बांस बना रही थी
बांस उंगलियों के साथ टोकरियां, छप्पर और चटाइयां बुन रहे थे

टोकरियां हाट, छप्पर, परिवार 
और चटाइयां कुटुंब बनाती जा रही थीं

ठीक इन्हीं पलों में आकाश के सुदूर उत्तर-पूर्व से अरूंधति की टिमटिमाती मद्धिम अकेली रोशनी
राजधानी में किसी निर्वासित कवि को अंतरिक्ष के परदे पर 
कविता लिखते देख रही थी 
उसी राजधानी में जहां कंपनियां मुनाफे, अखबार झूठ, बैंकें सूद, लुटेरे अंधेरा
और तमाम चैनल अफीम और विज्ञापन बना रहे थे

जहां सरकार लगातार बंदूकें बना रही थी

यह वह पल था जब संसार की सभी अनगिन शताब्दियों के मुहानों पर 
किसी पहाड़ की तलहटी पर बैठे सारे प्राचीन गड़रिये 
पृथ्वी और भेड़ों के लिए विलुप्त भाषाओं में प्रार्थनाएं कर रहे थे 
और अरूंधति किसी कठफोड़वा की मदद से उन्हें यहां-वहां बिखरे 
पत्थरों पर अज्ञात कूट-लिपि में लिख रही थी

लोकतंत्र के बाहर छूट गए उस जंगल में 
यहां-वहां बिखरे तमाम पत्थर बुद्ध के असंख्य सिर बना रहे थे

जिनमें से कुछ में कभी-कभी आश्चर्य और उम्मीद बनाती हुई 
अपने आप दाढि़यां और मुस्कानें आ जाती थीं।

Sunday, March 20, 2011

सूबेदारनी

...गतांक से जारी.
कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा - अंतिम भाग


उनकी छुट्टी से वापिस जाने के बाद भी उनका कहना शरीर के अन्दर तक गुदा हुआ जैसा हो गया था... सूबेदारनी बनने की जल्दी सरसराने वाली हुई सारे अंग में, चेतना को भी दबा देने वाली हुई हो ! वो सरसराहट ... होश हवास सब गुम जैसे हो जाने वाले हुए.
फ़िर हो... सास ससुर हर छुट्टी में कहने वाले हुए... जोर भी देने वाले हुए... खासकर देवेन्द्र के हुए से पहले.."बच्चे! इस बहू को भी साल-छह महीने अपने साथ घुमा लाता? इसके साथ की दो-दो, तीन-तीन बार पलटन घूम के आ गयीं हैं... इसका भी मन करता होगा... हमारे हाथ पैर आज भी चलने फिरने वाले हैं... यहाँ की तू फिकर मत कर ! सास तो , "जब तक ये ठेकेदारनी की लड़की नहीं आई थी हमारा काम नहीं चलता था क्या?" भी कह देने वाली हुई. फ़िर 'वो' कोई न कोई बहाना बना के टालते रहे. सिर्फ मुझसे ज़रूर कहते थे,"इजा-बोज्यू को कहने दे. तुझको साथ ले जाऊंगा तो जे. सी. ओ. क्वार्टर में ही-ये मेरा भी प्रण है."
परमेश्वर ! मेरे लिए तो मेरी ज़िन्दगी ही आग लग गयी, कहाँ जे. सी. ओ. फैमली क्वार्टर? सब क्वार्टरों के द्वार ढक गए मेरे लिए परमेश्वर ! सब क्वार्टरों के... ! बच्चे की नींद न टूट जाए, कमुली ने अपना 'रोना' भीतर-भीतर ही दबा दिया.

"हवालदार मेजर चंदर सिंह कारगिल में शहीद" कलेजे को नोच लेने वाली उस खबर की बिजली गिरे चार महीने हो जाते हैं अब. अपर इस्कूल के हेड मास्टर साब ने जब दस बातें इधर उधर की कर के अखबार दिखाया तो चार अक्षर ही दिखने वाले हुए अखबार में-'हवालदार मेजर चंदर सिंह कारगिल में शहीद'. ए हो ! छपे हुए अक्षर भी कैसे यम दूत जैसे खड़े हो जाते हैं सामने में... अक्षरों में भी पूरी चेतना को बहा ले जाने की सामर्थ्य हुई क्या उसी दिन जाना... अक्षर जैसे राक्षश के खून से रंगे दांत... पूरी सृष्टि में महाकाल का हाहाकार हो गया... भादो की अमावस्या का जैसा अन्धकार झप्प छूटा जैसे आकाश से. सूरज की किरणों से अन्धकार बहना उसी दिन देखा... उसी दिन महसूस किया. कण कण सी आँखों में मन-मन के नेत्र उसी दिन से बहने शुरू हुए...
एक डेढ़ महीने तक दुनिया भर का मेला जैसा लगा रहता था. आज ये आ रहे हैं... काल वो आ रहे हैं, इसी में रह पड़े... महीने दो महीने तक तो पर्वत की हवा और गंगा की धारा भी "हवालदार मेजर चंदर अमर रहे" कहती बहीं... सूरज की रोशनी और चाँद की चांदनी "चंदर तेरा यह बलिदान..." कह के ऊऋण हुईं. हवलदार की लाश आए के बाद उनकी अर्थी उठे तक की वो जै-जै (जय-जय) कार आज भी कानों से प्राणों तक गुंजायमान होती रहती है. बस एक कसक हृदय में कठफोड़वे की तरह टकोर मारती रहती है... अब मुझे सूबेदारनी कहो...
साथी-संगीनें कहती हैं हवालदार की लाश पर भी एक ही रोना था मेरा,".. अब मुझे सूबेदारनी कौन बनाएगा? मुझे सूबेदारनी बनाए बिना कहाँ जा रहे हो?"

तीन दिन हो गए उनकी पलटन के सूबेदार रतन सिंह आए हुए थे. बहुत देर तक हवालदार की बातों में ही लगे रहे. सारी दुनिया का उदेग (नैराश्य) जैसे कन्धों में बोझ सा उठा के लाये होंगे... हारे जुआरी जैसे थके-उदास-पिटे... कह रहे थे ससुर जी से,"काका ! चंदर मुझसे कहता था, मेरा कोई दादा (बड़ा भाई) नहीं है रतन दा' फ़िर तुम्हारे मिलने के बाद वो कमी भी पूरी हो गयी.. काका, मेरी तकदीर भी देखो ! आज पहली बार चंदर की देहरी आया भी तो रतन दा, आओ भेटों कहने के लिए भी नही रह गया." प्राणों को चीथड़े कर देने वाली टकटकी लगाने वाले हुए सूबेदार,"बहू, तीन चार दिनों में नायब सूबेदार मिलने वाला था चंदर सिंह को... नायब सूबेदार मिलते ही छुट्टी में आने का प्रोग्राम था उसका.. मुझसे कह रहा था कि घर वालों को भी नहीं बता रखा.बस कंधे में स्टार लगा के धम्म करके खड़ा हो जाना है सूबेदारनी के मुह के सामने.. कहता था, रतन दा ! आज तक मैं कभी वर्दी में घर नहीं गया, न वर्दी में फोटो दी घर वालों को. एक ही प्रण है की आपकी बहू के सामने वर्दी में जाऊँगा तो कन्धों में स्टार लगा के... अब वर्दी में घर जाने का मुहर्त आ रहा है दाज्यू(बड़े भाई). तुम्हारे आशीर्वाद और इष्ट की महर से. कहते कहते जाने- कितने जन्मों का रोना एक क्षण में डाल दिया रतन सिंह ने "... फ़िर क्या कहा जाए बहू कर्मों का?" आगे को आवाज़ ही नहीं रही मुंह में.
क्या कह रहे होंगे रतन सिंह भी? धोती(महिला  द्वारा घर में पहनने वाली साड़ी को कुमाउनी में धोती कहते हैं.) को मुंह में दबा के भागी भीतर को मैं.. भीतर का रोना धरती-आकाश के अंदर  से जैसा फूटा भीतर भगवान के थान (घर में बना छोटा मंदिर) में पहुंच कर... परमेश्वर ! मेरा न ये लोक रहा, न परलोक... मेरा सत धर्म तो नहीं बिगाड़ते परमेश्वर ! सत धर्म तो रहने देते... ऐसा क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का... मेरे लिए तो भगवान ! विधवा होने का रोना नहीं रह गया और सत धरम जाने का संताप बड़ा हो गया...
हवालदार कौनसे जन्म का बैर निभा/चुकता कर गए होंगे? मेरा सत धर्म बिगाड़ कर... हे विधाता? ब्याह तो किया मैंने सूबेदार चंदर सिंह के साथ और विधवा ठहरी मैं हवलदार मेजर चंदर की... तुमने मुझे कहीं का नहीं रख छोड़ा परमेश्वर. ये पाप का बोझा लेकर कहाँ जो मरुँ मैं... कहाँ जो मरुँ...
कम हो रहा ठहरा कहने को अन्वार(देवेन्द्र के लिए) भी रख दिया कोख में, कि ताल-खाई में कूद कर इस पाप लोक से मुक्ति पाना भी मुश्किल कर दिया... हे परमेश्वर... हे विधाता... हे भगवान.. में कहाँ जो मरुँ?
..मेरा प्रायश्चित कैसे होग?



चलते चलते


बेडू पाको बारो मासा...
काफल 

बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

          

भुण भुण दीन आयो,  नरण बुझ तेरी मैता मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

आप खांछे पन सुपारी , नरण मैं भी लूँ छ बीडी मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

अल्मोडा की नंदा देवी, नरण फुल चड़ूनि पाती मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

त्यार खुटा मा कांटो बुड्या, नरणा मेरी खुटी पीडा मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

अल्मोडा को लल्ल बजार, नरणा लल्ल मटा की सीढी मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

Sunday, March 13, 2011

सूबेदारनी

...गतांक से जारी.
कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा -भाग तीन

इनके दोस्त बताते थे कि ब्याह के बाद चन्दर सिंह ने न दिन देखी न रात. खेलते वक्त तो जाने जान ही लगा देते थे. फुटबॉल पहले से कहाँ खेलते थे.. फ़िर ब्याह के बाद ऑफ टाईम में भी दो तीन घंटे फुटबॉल की प्रैक्टिस करते थे कहते हैं उनके साथी. फुटबॉल में जीते कप-मैडल कैसे सज़ा के रखे रहते थे हमारे कमरे में? कहते भी थे," कमला, ये फुटबॉल के नहीं प्रमोशन के मैडल हैं." यूनिट में जो काम होगा सब चंदर सिंह करेगा. एक एक बाद एक छोटे बड़े इम्तिहान भी... ज़ल्दी पास किये... अपने साथियों में सबसे पहले हवालदार लिया...
हवालदार की एक एक तरक्की मेरे सर में ताज रख देती थी. मुझे लगता था अब बनी मैं सूबेदारनी... अब बनी. हर तरक्की में एक साड़ी अलग जो क्या लाते थे, कि ये मेरे प्रमोशन का गिफ्ट है... फ़िर मैंने भी प्रण जैसा कर के रख दी, संभाल के... कि प्रमोशन के गिफ्ट कि साड़ी तभी पहनूंगी जब सूबेदारनी बनूंगी. मुझे ज़ल्दी हुई ज़ल्दी सूबेदारनी बनने को... उन्होंने अपने सामर्थ्य का सबकुछ किया...
काठ का पैर, लोहे का कपाल करके किया... ...फ़िर परमेश्वर मेरा काला चरयो (मंगल सूत्र) पत्थर में रहना था, तो रह गया...
...ए हो ! हवालदार से झूठ थोड़ी न कहा ठहरा मैंने, सूबेदारनी बनना मेरा मेरे प्राण की अभिलाषा है. सूबेदारनी बड़ी-माँ (माँ की बड़ी बहन को कुमाऊं में बड़ी-माँ कहते हैं.) के ठाठ-बाट देख कर ये हौसला कब बड़े-पीपल के जड़ जैसा हो गया मन में मुझे भी ठीक ठीक याद नहीं. मेरे बड़े-पापा बहुत साल रहे फौज में सूबेदार. मेरी बड़ी-माँ से सब 'सूबेदारनी' कहने वाले हुए खुद बड़े-पापा भी. सब आदमी-औरतों में अलग ठाठ थे उनके. देवरानियों-जेठानियों में भी भेंट होगी तो हाथ भर उंचा महसूस होता था. सारे गाँव भर की औरतों में बिल्कुल एक अलग जैसे ठसक हुई उनकी. उनसे डरने वाले भी हुए सब थोड़ी थोड़ी, बहुत मान भरम हुआ उनका आदमी-औरतों सब में. उठना-बैठना, खाना-पीना, लगाना-पहनना सब में एक अलग इस्टाइल हुई उनकी. खाने को भी बैठेंगी तो मानो अफसर-मेस में बैठे रहने वाली हुई ... चार पाँच साल पलटन में भी रही उनके साथ... वहाँ की ऐसी ऐसी बात बताने वाली हुई कि आदमी सुनते ही रह जाए.
दो-तीन बार बड़ी-माँ के साथ मैं भी उनके मायके भी गयी थी. मालाकोट वाले भी बड़ा रोब मानते थे उनका. आमा-बुज्यू (नाना-नानी) भी 'सूबेदारनी-लड़की' कहने वाले हुए. मालाकोट में भी वो 'सूबेदारनी-मौसी','सूबेदारनी-दीदी','सूबेदारनी-बहन'... हुई सबकी.
उनको देख के बच्चों में भी एक उम्मीद जड़ ज़माने वाली हुई "कभी मैं भी सूबेदारनी बनूँगी?" सिर्फ मैं ही नहीं... उनको देख के मेरे और साथी भी सोचने वाले हुए ऐसा. बचपन में एक दूसरे से बात करने वाले हुए कि हम भी सूबेदारनी बनेंगी... जसुली दीदी हमारी कैसी मज़ाक उड़ाती थी इस्कूल आते जाते वक्त,"ए लडकियों ! हम सूबेदार हैं... तुम सब हमारी सूबेदारनियाँ हों... चलो एक लाइन से फौलेन होकर चलो... लेफ्ट..राईट..लेफ्ट..राईट."
जैसे-जैसे ब्याह की उम्र नज़दीक आने वाली हुई ये अभिलाषा और गहरी-गहरी होती गयी. इतनी गहरी कि जब टीका हुआ तब ब्याह होने से ज़्यादा ख़ुशी इस बात कि हुई कि मैं भी सूबेदारनी बन सकूंगी. पलटन वाले के साथ ब्याह क्या पक्का हुआ,टीका लगने के बाद अपनी को सूबेदारनी समझने लग गयी. जब भी हवालदार की सूरत आँखों में घूमती तब-तब कन्धों में दो फुल्ली चमकती हुई दिखने वाली वाली हुई. हो गया कहा ! अबकी छुट्टी में कह रहे थे,"देवेन्द्र की इजा, अब तेरा सूबेदारनी बनने का टाईम नज़दीक समझ... इष्ट देव हों, कुल देवी के आँचल की छाया, बालों की ओट कर देगी तो अगले साल छुट्टी में तेरा चंदर नायब-सूबेदार बन के आएगा.... एक बार नायब-सूबेदार मिलना चाहिए, फ़िर सूबेदार बनने से कोई नहीं रोक सकता मुझे... भगवान चलाये, अगले साल की छुट्टियों में वापिस विद फॅमिली जाऊँगा.
नीद में परलोक पहुंचे देवेन्द्र, सरक के और नज़दीक आ गया था मेरे. "देवेन्द्र की माँ ! मेरा परमेश्वर जानता है, तुझे सूबेदारनी बनाने का वचन क़र्ज़ जैसा नहीं लादा होता मैंने तो आज मैं शायद नायक होता या लांस नायक भी जाने. ये तेरी वाणी का प्रताप है जिसने इतनी जल्दी जल्दी तरक्की करके हवालदार-मेजरी तक पहुंचा दिया तेरे चंदर को. इस्कूल की टीम में फुटबॉल खेलना भी बहुत काम आया समय पर..." पानी जैसे बहने लगे, बस तू भगवान से हाथ जोड़ के विनती करते रह. तेरी प्रार्थना का असर ज़रूर होगा... तो दो बकरियां ले कर पालना शुरू कर दे... जब भी इष्ट देव की कृपा होगी,तो बधाई देने को तैयार हो रहेंगे.
-क्रमशः

An old kumaoni man waiting for his son (Photo courtesy: Threesh Kapoor.


चलते चलते 


जन्म: २० मई, १९०० ई.
निधन: २८ दिसम्बर,१९७७
मूल निवास: स्यूनारकोट, अल्मोड़ा
रचना: वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, चिदंबरा, लोकायतन (महाकाव्य), ज्योत्सना (नाटक), हार(उपन्यास), कुमाँऊनी में एक मात्र कविता:



बुरुंश



सार जंगल में तवी ज क्वे नहाँ रे क्वे नहाँ,
फूलन छे के बुरुंश जंगल जस जली जाँ.
सल्ल छ, दयार छ पईं छ, अंयार छ,
सबनाक फागन में पुग्नक भार छ,
पे त्वी में ज्वानिक फाग छ,
रगन में तयार ल्वे छ, प्यारक खुमार छ.
-सुमित्रानंदन पन्त.

सारे जंगल में तेरे जैसा कोई नहीं रे कोई नहीं, फूलों से कहा बुरुंश जंगल जैसे जल जाता है, सल्ल है, देवदार है, पइयां है, अंयार है (पेड़ों कि किस्में) सबके फाग में पीठ का भार है, फ़िर तुझमें जवानी का फाग है, रगों में तेरे लौ है, प्यार का खुमार है. (बुरुंश कुमाऊं का एक जंगली पेड़ जिसमें रक्तिम पुष्प पल्लवित होते हैं.)

सूबेदारनी

...गतांक से जारी.
कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा -भाग दो
देवेन्द्र के नामकरण होने पर एक हफ्ते की छुट्टी मिली इनको. क्या कहते थे... "कमला तूने बच्चा क्या जन्मा मेरे लिए तो... अब तुझे मेरी याद भी नहीं आएगी... दिन रात तेरे गोद में ही रहूँगा अब. तेरी बाटुली (बाट: रास्ता, बाटुली: राह देखने के सन्दर्भ में) लगाना भी भयंकर मुश्किल होगा अब. अब मैं कितना याद करूँ.. कितना निसास (निः श्वाश) लगाऊं कितना ही रोऊँ तुझे बाटुली नहीं लगेगी अब."
आधे से ज़्यादा चिट्टी भी देवेंद्रे के लिए... क्या क्या स्वप्न जैसे बुनने वाले हुए एक एक आंख्न में... बच्चे को लेकर... जब तक देवेन्द्र पाँच -छह में पहुंचेगा, तब तक हम तुम साथ साथ रहेंगे यहाँ फौजी क्वार्टर में. देवेन्द्र को फौजी स्कूल में पढ़ायेंगे. कभी लिखने वाले हुए, "बीवी तू हौलदार सूबेदार की ही रहेगी मग़र इजा (माँ) तुझे मेजर कर्नल की बनाना है." सारी चिट्ठी देवेन्द्र को लेकर... मेरा नाम बस लिफ़ाफ़े में हुआ. पहले पहले कैसे बदमासी करते थे चिट्ठी में भी "तेरे बगैर हाल ये अच्छा न समझना, मरता हूँ तेरी याद में जिन्दा न समझना. भेजा है जिगर काट के चिट्टी न समझना. ए यार दिल है हाथ में मिट्टी न समझना..." ...और भी जाने क्या क्या. अब वहाँ चले गए हो हवलदार... जहाँ से चिट्ठी भी नहीं आती. जो तुम्हारी चिट्ठियां संभाल के रखी हैं उन्हें पढ़ पढ़ के ही ज़िन्दगी कटनी है बस अब.
पोस्ट मैन रमेश चन्द्र जी का "लाओ बहू ! एक ग्लास गरम गरम दूध, आज चिट्ठी लाया हूँ तुम्हारी." कहना भी स्वप्न हो गया अब. कभी सामने भी पड़ गए मुख छुपा के चले जाते हैं अब. पहले चिट्ठी लायेंगे, दो चार लिफ़ाफ़े भी साथ ही लाने वाले हुए. लो बहू ! चिट्ठी लिखना !!

शादी मेरी लांस नायक चंदर सिंह के साथ हुई. शादी के बाद पहले वो बने नायक और फ़िर हवलदार बने. हवालदार बनने के एक डेढ़ साल बाद हवालदार मेजर भी मिल गया. ब्याह के आठ-नौ सालों में बड़ी ज़ल्दी ज़ल्दी तरक्की ली उन्होनें... ब्याह की दूसरी तीसरी रात होगी... अभी शर्म झिझक भी अच्छे से नहीं खुली हुई. फ़िर भी वचन डाल दिया मैंने,"मैं तुमसे और कुछ नहीं कह रही हूँ, तुम ज़िन्दगी भर मुझे कुछ दो, न दो... कभी एक अक्षर शिकायत कर दी तो ठेकेदारनी की लड़की नहीं कहना मुझे... बस मेरी एक बिनती है की मुझे सूबेदारनी ज़रूर बना देना."
ऊँगली कब हवालदार का सर कुतरने लागी कुछ भी नहीं जाना मैंने. "देखो हो ! सूबेदारनी बनना मेरे आँखों का स्वप्न नहीं .. प्राण की अभिलाषा है." उनका हाथ जाने कितनी ज़ोर से अपने हाथ में दबा लिया मैंने."भगवान ! माफ़ करना मुझे, और तुम भी हो.. कि तुम्हारा नाम ले रही हूँ मैं.. मग़र इतना मैं साफ़ साफ़ कहना चाहती हूँ कि हो तुम लांसनायक पर मैंने ब्याह कर रखा है सूबेदार चंदर सिंह के साथ.अब मेरा लोक-परलोक, मेरा सत-धर्म सब तुम्हारे हाथों में है. अगर साथ फेरों को धर्म पूरा करना जानोगे तो मेरी ये अभिलाषा ज़रूर पूरी कर दोगे... कंधे में दो फुल्ली लगा के मेरी उम्मीद में सरकारी मोहर लगा देना... नहीं तो में प्राण रहते ही मर जाऊँगी."
मेरी चुटिया थाम के मेरा माथा कैसे चट्ट (ज़ेनटली) उठा दिया उन्होंने. आँखों में आँख ऐसे गहरी रोपी मानो गहरे ताल में डुबकी लगायी होगी... "तूने बचन डाल दिया तो तेरा ये वचन मेरे सर में तब तक क़र्ज़ रहेगा जब तक में कंधे में दो स्टार लगा के दो सैल्यूट न ठोक दूं. एक वचन... दो वचन... तीन वचन... हैं कमला, अगर प्राण रहते फौज से रिटायर होऊंगा तो सूबेदार बन के."
तब कहा ! वो दिन था और अबकी छुट्टी से वापिस जाने का तक का दिन... अकेले में मुझे सूबेदारनी कहने वाले हुए हवालदार. वो सूबेदारनी कहेंगे तो प्राण नयी चिड़िया कि तरह लोटने वाले हुए, फुर्र, फुर्र, फुर्र, फुर्र... फुर्र फुर्र. कभी कभी मजाक भी करने वाले हुए,"सूबेदार बनने के बाद एक बार फेरे और लेने हैं, तेरा ब्या सूबेदार चंदर सिंह से करने के लिए... तभी बनेगी तू पक्की सूबेदारनी." बाट मजाक में ज़रूर हुई, पर कहते कहते उम्मीद की फुलवारी हो जाने वाली हुई हवालदार कि देह काया. फ़िर तो दिन दोपहर भी पट्ट (कस के) अंग लगा लेने में भी शर्म-लाज नहीं चित्त में लाने वाले हुए.
तब शर्म की मारी थी... अब कर्म की मारी हूँ... भगवान ! साग़र का ठिकाना हिमालय, क्या कर दिया तुमने मुझे... हवलदार! तो इतनी माया तो नहीं बो जाते हृदय के साग़र में कि रात दिन आंसू का कुल सा बहते रहता है...


-क्रमशः 
Kumaon Regiment: Parakramo Vijayate (Valor Triumphs)
Regimental Centre: Ranikhet, Uttarakhand

2 परमवीरचक्र, 3 अशोक चक्र, 10 महावीर  चक्र, 6 कीर्ति चक्र, 2 उत्तम युद्ध सेवा  मेडल,78 वीर चक्र, 
1 वीर चक्र, 23 शौर्य चक्र, 1 युद्ध  सेवा  मेडल, 127 सेना  मेडल , 2 सेना  मेडल, 
8 परम  विशिष्ट  सेवा  मेडल , 24 अति  विशिष्ट  सेवा  मेडल, 1 PV, 
2 PB, 1 PS,1 AW और 36 विशिष्ट  सेवा  मेडल .





चलते चलते


कोई भी एक छोटा बच्चा ढूंढ लाइए अब कुर्सी में बैठ जाइए. बच्चे को टांगों में रख दीजिये. और उसके छोटे छोटे हाथ अपने हाथों में ले लीजिये. अब झुला झुलाइये उसे... टांग को घुटने से ऊपर नीचे मोड़ते हुए. नींद नहीं आ रही उसे? लोरी सुनाइये...

घुघूती बासूती,
को कर लो ?
बाबू कर ला,
जुगूती जागुती
को कर लो?
इजा कर ली,
म्यर इजा कर ली.

घुघूती बासूती,
जुगूती जागुती
को कर लो ?
बाबू कर ला / इजा कर ली.
भुत भूतौ पाकौ लौ,
दुद भात पाकौ लौ.
दुद भातौ / को खालो?
दुद भातौ / म्यर नानू भाऊ खालो
म्यर भाऊ खालो.

घुघूती बासूती,
जुगूती जागुती
आ निन्नी, जा भूकी
को से लौ?
भाऊ से लौ.

घुघूती बासूती,
जुगूती जागुती
जा भूकी, आ निन्नी
भाऊ से लौ/ भाऊ से लौ.
म्यर भाऊ से लो.

घुघूती बासूती (झुला झुलाना) कौन करेगा? पिताजी करेंगे. जागेगा कौन? माँ जागेगी. मेरी माँ जागेगी. मेरे पिताजी और माँ दोनों मुझे झुला झुलायेंगे और मेरे लिए जागेंगे. भूट-भूट (आवाज़ के साथ) दूध-चावल उबल रहे हैं. कौन जो खायेगा? मेरा बच्चा खायेगा. आ नींद, जा भूख ! कौन सोया है. बच्चा सोया है. मेरा बच्चा सोया है.

Friday, March 11, 2011

दायरा–कैफ़ी आज़मी


रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगेkazmi
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को
इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नये
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गर्मी
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब
कितने अरमाँ है किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब
नब्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल को मामूल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा
इक आदत है जिये जाना भी
क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद
मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की
कोई कहता था समंदर हूँ मैं
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं
अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरान कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में सीमाओं में
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावन ही कोई आ जाता
    - कैफ़ी आज़मी

Thursday, March 10, 2011

रानीखेत की शाम. (उमर अंसारी )


ये रक्से बादे- बहारी, ये शुगले बाद ओ जाम,
तमाम उम्र न भूलेगी रानीखेत की शाम.
फिजाएं जैसे किसी ख़्वाब-ए-जिंदगानी की,
हवाएं जैसे कि लहरें हो बहते पानी की.

कदम कदम पे ये दरख्तों के कांपते साए,
गुमां हो जिन पे कि गेसू किसी ने लहराए.
हसीं शाखों का ये रंग-ओ-हुस्नो रानाई,
तमाम उम्र सरापा तमाम उम्र अंगडाई.

यह शाम और यह कोहसार चांदनी में नहायें,
खड़ी हो जैसे कोई दिलरुबा नकाब उठाये.
चमन-चमन रविश-रविश गुल के ये हँसी मंज़र,
किसी की आँख के डोरे का हो गुमां जिन पर.

यहीं बहार का ठहरा है काफिला शायद.
यहीं से खुल्द का निकाला है रास्ता शायद.
घटा ने उड़ के जो देखी यह खुशनुमा वादी,
तमाम दौलतें मस्ती यहीं पे बरसा दी.

मुकाबिला करे मय क्या यहाँ के पानी का?
ये मैकदा है किसी कि भरी जवानी का.
हवाएं चलती हैं लेके ज़ुलू में मैखाने,
कहीं पे रख दो तो भर जाएँ दिल के पैमाने.

खिलें जो फूल तो नज़रों का रास्ता रोके,
वह निकहतें कि हर एक राहीगार को टोके.
ये जलते बुझते दिए ये सोते जागते बाम,
तुलु होते हुए हर उफ़क से माहे तमाम.

फसन इसका जुदा है हर इक फ़साने से,
नहीं है इसको लगावट कोई ज़माने से.
यहाँ न चश्मे-शाही, न बागें-शालीमार,
ये वो हसीं है नहीं मुस्तआर जिसका सिंघार.

गराँ है संग, गराँ माया भी इसके कँवल,
है ज़र्रा-ज़र्रा यहाँ आप अपना ताजमहल.
न बम्बई है न कलकत्ता और न यह मद्रास,
मिजाज़ ही नहीं इसका की हो ज़माना शनास.

यह रानीखेत है, दीवाने ख़ास-ओ-आम नहीं,
कुलाह-ओ-कज हो किसी का यह वह मकाम नहीं.
तलाश कब से थी यही वह बस्ती है,
यहाँ हयात भी सस्ती, अज़ल भी सस्ती है.

-उमर अंसारी

सूबेदारनी

कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित  कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा -भाग एक

हवालदार मेज़र चंदर अमर रहे, चंदर सिंह जिंदाबाद !! जब तक सूरज चाँद रहेगा - चंदर तेरा नाम रहेगा !!!
गगन गुंजायमान... धरती कम्पायमान कर देने वाली वो जय जय कार आज भी प्रातः कालीन हल्की हल्की ठण्ड जैसे पूरे शरीर में और चित्त में सरसरी कर रही है.
जब भी ज़रा एकांत मिला, सर तकिया में जैसे ही टिकाया आकाश के पंछी की परवाज़ सा मन फुर्र फुर्र वहीँ पहुँच जाता है...
आपकी संपूर्ण काया को झुरझुरी कर दे वो जय जय कार आज भी... बर्रss...
कभी जागरण की असहजता सा... कभी चौमास में गंगा के सुसाट (नदी की दूर से सुनाई देने वाली शान्त-आवाज़) सा...
कभी भंवरे की गुंजन सा... ढक जैसे देती है देह-काया को. चौमास की गंगा जैसे अरकान-फरकन (हिंडोले) पूरे सर से चित्त तक महसूस होती है... धरती से आकाश तक कैसे लौट लौट फ़िर आती थी वो आवाज़ चहुँ दिशाओं में...
..चंदर सिंह अमर रहे ! अमर रहे !! अमर रहे !!!

कलेजे के चीथड़े कर देने वाली अंतिम यात्रा में बड़ी सहायक हुई वो जय जय कार ! वाकई बहुत सहारा मिला... जले में फूंक मारे जैसे हुई वो... नहीं तो आकाश के साथ बिजली ही गिरी हो सर में, बड़ी मुश्किल से संभाला...
हृदय की हाहाकार ...आकाश का हेरना, पाताल का देखना किसके कहते हैं तभी जाना परमेश्वर ! तभी से जाना...

हवालदार मेज़र चंद अमर रहे ! अमर रहे !! हजारों लोगों की वो जय जयकार नहीं फूटती तो कहाँ सह सकते बूढ़े सास ससुर? आखिर प्राण के दो-फाड़ कर देती है वो बिन बादल की बिजली ! "बहू तेरे सर का ताज छूट गया... हमारे बुढ़िया-काल की लाठी छूट गयी. अपने कर्म अपने संग बहू ! भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है? कोई भी नहीं बहू... कोई भी नहीं... यही लिखा के लाये होंगे हम. हाथ की रेखाओं में ऐसी ही आग लागी होगी. दो आँखों की एक ज्योति थी... वो भी नहीं रखी... परमेश्वर !
हमारा कोई कसूर होगा... पिछले जन्म के पाप शायद.... मौत ऐसी भी होती है क्या? दुनियाँ, क्या देख गया मेरा लाल... देख गया..."

जाने कौनसे दूसरे लोक से बोल रहे थे ससुर जी... "चंदर की माँ. मेरे वंश और तेरी कोख को धन्य धन्य कहलाने लायक कर गया री ! चंदर... मरने को तो दुनिया मरती है.कब आए , कहाँ गए कुच्छ पता नहीं चलता! फ़िर ! और एक तेरा बेटा जा रहा है... जुग-जुगांतर रहने वाली छाप छोड़ के..."

कैसा लाल-तमतम(रक्तिम) हो रहा था ससुर जी का मुख," बहू ! चंदर तुझे गृहस्थी की बीच मजधार में ज़रूर छोड़ के गया, सर का सिन्दूर तेरा ज़रूर पोछ गया, लेकिन फ़िर, चाँद-सूरज के साथ रहने वाला काम भी कर गया... गाँव घर में जहाँ भी जाएगी बहू, अच्छे अच्छे सुहागिनों से ऊँचा रहेगा तेरा सर ! बिना बिंदी सिन्दूर के भी... ! इतनी बड़ी मौत को आंसू से बहा के तुच्छ न बना... चंदर मरा नहीं, अमर हो गया... ये मैं नहीं सारी दुनिया कह रही है..."

मर्दों की मर्द निकली मेरी सास भी. उस छाती को भी धन्य धन्य ! कैसे हूंकार मारती थी, " चुप बहू ! एक नेत्र मत बहाना.. एक आंसू मत गिराना... नहीं तो जान लेना हाँ, कहे देती हूँ ! ये आंसू अब चंदर की धरोहर है हमारी आँखों में ... इनको मोती जैसे संभाल के रख.. संभाल के. खबरदार ! जो इन मोतियों को माटी में मिलाया."

ननद को तो भूत झाड़ते है वैसे झाड़ (डांठ) दिया,"खबरदार गोबिंदी... ! रोना ही है तो मेरी देहरी से बाहर जाकर रो... मैं भी जानती हूँ तुझ पर जो बीत रही है. पीठ-पीछे सा भाई हुई तेरा (ऐसा भाई जो तुझको हमेशा पीठ में पीछे लादकर रखता था.). बड़े बड़े होने तक भी तुम उसकी गोद में ही रहती थी... अपने मुंह का ग्रास भी उसके मुंह में डाल देती थी तू भी... फ़िर ! तेरी पीठ का आधार चले गया अभागी. पहले बहू का और देवेन्द्र का मुंह देख ले फ़िर रोना. खाली दहाड़-दहाड़ के इनका कलेजा मत झझकोर."

गोबिंदी के पति और ससुर समेत वहाँ मौजूद सब बड़े-छोटे उनको देखे रह गए,"...बिस्तर में पड़े पड़े बीमारी से नहीं मरा मेरा चंदर... पहाड़ों से गिरकर, नहर में बहकर नहीं मरा, बाघ--भालू के दांतों में भी नहीं लगा... शहीद हुआ कहते हैं... शहीद ! इसकी माटी को आंसुओ से नहीं फूलों से सजाओ. फूलों से..."

कर्नल साहब भी कर रहे थे सुना,"तो इस शेरनी का दूध पिया था चंदर सिंह ने? ऐसी होती है राजपूतनी. मैं तो शहीद से पहले इस शेरनी को सैल्यूट करता हूँ."

जाने कहाँ कहाँ से एकजुट हो गए उतने आदमी? आस पास के दस-बीस गाँव के लोग से लेकर अपर, मिडिल इस्कूल के मास्टर और छात्र तो थे ही, सात मील दूर से इंटर के मास्टर और छात्र भी पहुंचे थे सब... बच्चे भी... बाज़ार से भी डी.एम., एस.डी.ऍम., एस. पी., तहसीलदार, कर्नल साहब, मेजर साहब, फौज की एक पलटन, एम. पी साहब, अमेले साहब और जाने कहाँ कहाँ से छोटे बड़े साहब...


महादेव जी के मंदिर में मेले में भी वैसी भीड़ कभी नहीं देखी. न आब देखा ! ए हो... सबके मुंह से बस एक ही बात... एक ही बाणी... धन्य है ये गाँव, धन्य है हवालदार मेज़र के माँ-बाप, धन्य है चंदर सिंह की हवलदारनी, धन्य है उसका सपूत. तिरंगे में सजाया उसका मृत शरीर भी प्रेत सा कहाँ लगता था, ऐसा ही लगता मानो अभी झट से उठकर तिरंगे को सैल्यूट मारेगा... ठ-ड़ा-क !
हवालदार के माथे तिरंगा और तिरंगे में हवालदार ऐसा दिख रहा था मानो, दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों.
एक दूसरे की मान मर्यादा के पहरू एक दूसरे के काम भी आए फ़िर हो !

जिस दिन देखने के लिए आए थे हवलदार, 'लांस नायक' थे तब. उस दिन से लेकर आज तक कि बात रीठे के दाने जैसी घूमती है आँखों में...
चार लोग आए थे देखने. ब्रह्मण भी था एक. थोड़ी देर इधर उधर की बात करके अपने जीजा और पंडित को किनारे ले जा के खुद ही बोले,"टीका(शगुन) भी आज ही कर दो."
छुट्टियाँ भी कम ही रहती थीं. हबड़-ताबड़ में शादी हुई... टीके के पंद्रह दिन बाद. शादी के बाद शायद बीस इक्कीस दिन की छुट्टी बची थी कुल. उजले (सुख के) चिडयों से दिन जहाँ उड़ते होंगे? टीका लगे से ब्याह होना और ब्याह होने से इनका छुट्टी से वापिस जाना ..पलक झपकना हुआ !
एक हफ्ता तो शादी-बारात और मेहमानों को निपटाने में लग गया. तीन दिन दुर्गुण (कुमाऊँ की शादियों के रीति में बहू मायके जाके दोबारा वापिस आती है) में.
शादी के बाद पूरी छुट्टी भर फुलवारी के भँवरे जैसे ऐसे डोलते थे मेरे चारों ओर कि मैं ही शर्म से मर जाने वाली हुई. मैं खेत जाऊं खेत ! मैं पानी भरने जाऊं अपना भी पानी भरने !
रात को काम निबटा के कमरे में पहुंचने में ज़रा देर हुई दस चक्कर बाहर-भीतर ! पानी से बाहर निकाली गयी मछली से तड़पने वाले हुए मेरे बगैर.
सहेलियां कैसे ठिठोली करने वाली हुई ? "कम्मो के अंग अंग में भी जाने कैसे सरसों उगी है? कैसा गुलाब छाया हुआ है कि चनर सिंह भोरों जैसा घूमता रहता है चारों तरफ़. कमुली खेत से घर को रास्ता लगी नहीं कि घर बैठे ही चनर सिंह देह-गंध महसूस लेते हैं." एक से एक ठिठोली बाज़ , एक से एक बेशर्म , सहेलियां भी तो !
'देवेन्द्र की माँ' तो मैं लड़के के नामकरण के बाद हुई. उससे पहले नाम लेकर बुलाते थे हमेशा.
शादी के पहले-पहल तो सास-ससुर जी के सामने सर उठाना भी मुश्किल. घीसे हुए रिकोर्ड जैसे एक ही रटंत कमला... कमला... कमला...
फ़िर थोड़ी देर आवाज़ नहीं लगायेंगे 'झस्स' (झुरझुरी) जैसी भी होने वाली हुई, कहीं नाराज़ तो नहीं हो गए? दोस्त लोग अकिस मज़ाक बनाते थे?,"कमुली का रंगरूट दिन भर परेड करने मैं ही रहता है... कमला ! लेफ्ट राईट !! कमला ! लेफ्ट राईट !! " कितनी शर्म लगने वाली हुई उस वक्त. फ़िर शर्म जितनी भी लगे... अच्छा भी उतना ही लगता था. दिल में गुदगुदी सी. वहाँ उनके मुख से कमला... यहाँ कानो में मिश्री सी घुले ! छूते थे तो पूरे अंग में बिजली बररर....
सास ससुर की नज़रें बचा बचा के कैसे इशारे कर देते थे... नहीं होने जैसे भी ! एक दिन गोबिंदी जी की नज़र पड़ गयी... कहाँ जाऊं... कहाँ छुपूं ... हो गयी मुझे. जन्म जन्म की ऐसी प्रीत रखने वाले तुमने माया का धागा तोड़ के चले जाने में दो पल नहीं लगाये हवलदार?
-क्रमशः 

Major Som Nath Sharma (1923–1947) 






चलते चलते 


राग:श्याम कल्याण, ताल:चांचर में लयबद्ध अल्मोड़े की  बैठक -होली....


मोहन मन लीनो बंसी नागिन सों
मुरली नागिन सों
केही विधी फाग रचायो .
ब्रिज बांवरो मोसे बांवरी कहत है,
अब हम जानी बांवरो भयो नंदलाल.
केही विधी फाग रचायो.
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
कहत 'गुमानी' अन्त तेरो नहीं पायो.
केही विधी फाग रचायो.
यो होरी -'रंग डार दियो अलबेली मैं.'


-गुमानी पन्त जी की पुस्तक 'रंग डार दियो अलबेली मैं.' से साभार. (संपादक: गिरीश तिवारी 'गिर्दा')

Wednesday, March 2, 2011

एनिमल फ़ार्म

जॉर्ज ऑरवेल द्वारा १९४४ में लिखा उपन्यास एनिमल फ़ार्म जब पूरा हो गया तो कोइ भी प्रकाशक इसे छापने को तैयार नहीं था.बाद में जब ये छपा तो अपने अद्भुत शिल्प के कारण इसने तहलका मचा दिया.२५ जून १९०३ को भारत में  जन्मे जार्ज ऑरवेल की शिक्षा इंग्लॅण्ड में हुई और नौकरी बर्मा पुलिस में की.वह सम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ थे,पुलिस की नौकरी छोड़ के मामूली नौकरियां करते रहे.इन्होने बी बी सी में भी नौकरी की.इनका  असली नाम "एरिक आर्थर ब्लयेर" था.
  एनिमल फ़ार्म एक फैंटेसी से बुनी गयी रोचक काल्पनिक कथा है.कहानी का शिल्प रोचक है.कहानी कहने वाला अज्ञात है.उसकी कहानी में कोई भूमिका नहीं है फिर भी हर बात सटीक करता है. ये उपन्यास १९१७ से १९४३ तक रूस में घटित घटनायों पर आधारित समझा जाता है.खेत साम्यवादी व्यवस्था का प्रतीक है.जानवरों के माध्यम से ये बताना चाहा है सत्ता और नेतृत्व पा लेने से किस प्रकार भ्रष्टाचार फैलता है.अपने ही लोगो को मारा जाता है.(जैसे स्टालिन ने अपनी तानाशाही बनाये रखने के लिए अपने ही लोगों कई लोगों की  हत्या करवा दी) बुद्धिमान जानवर झूठ और छल से सत्ता पर कब्ज़ा जमा लेते हैं.बुद्धि से कमजोर जानवरों को ठगा जाता है.धोखे से शक्ति हासिल करके हर नियम को ताक पर रखा जाता है.जानवरों पर जानवरों के राज की एक विचित्र कहानी ....


  मेजर(सफेद सूअर) सभी जानवरों की एक बैठक में बताता है कि वो जल्दी ही मरने वाला है पर मरने से पहले सबको वो ज्ञान देना चाहता है जो उसने जीवन में अर्जित किया है.वो बताता है कि इंग्लैंड में कोई भी जानवर स्वतंत्र नहीं है.वह गुलामी का जीवन जीते है.उन्हें उतना ही खाने को दिया जाता है जिससे बस साँस चलती रहे.इंसान बगैर उत्पादन किये उपभोग करता है.फिर भी जानवरों पे राज करता है.मेजर कहता है कि मानव जाती को उखाड़ फैंकने के लिए विद्रोह करना होगा.

तीन दिन बाद मेजर मर जाता है.मालिक जोन्स जब रात  नशे में सो जाता है तो स्नोबॉल, नेपोलियन विद्रोह की तैयारी करते हैं.बैठकें चलती रहीं और जानवरों की उम्मीद से कहीं जल्दी और आसानी से विद्रोह हो गया.एक दिन जब जानवरों को शाम तक खाना नहीं मिला तो उन्होंने अपने सींगों से भण्डार का दरवाजा तोड़ दिया.जिसे जो मिला खाने लगा.जोन्स के आदमी जानवरों को कोड़े मरने लगे तो भूखे जानवर उनपर टूट पड़े और उन्हें खदेड़ दिया.विद्रोह संपन्न हुआ .जोन्स को निकाल कर फ़ार्म पर जानवरों का अधिकार हो गया.रस्सियों,
चाबुक आदि चीजों को जला दिया गया.मुख्य गेट पर "मैनर फ़ार्म" की जगह "एनिमल फ़ार्म" लिख दिया गया.स्नोबॉल ने दीवार पर सात नियम लिख दिए-

1. जो  दो पैरों पर चलता है वह दुश्मन है.
2. जो चार पैरों पर चलता है या पंख है, दोस्त है.
3. कोई जानवर कपड़े नहीं पहनेगा. 

4. कोई जानवर  बिस्तर में नहीं सोएगा.
5. कोई जानवर शराब नहीं पिएगा. 

6. कोई जानवर किसी भी दूसरे जानवर को नहीं मरेगा.
7. 
सभी जानवर बराबर  हैं.

गायों को दुहा गया और बाल्टियाँ भर कर ढूध रख कर जानवर स्नोबॉल की अगुवाई में फसल काटने चले गये.लौट कर आये तो ढूध गायब हो गया था.जानवर मेहनत कर रहे थे,पसीना बहा रहे थे पर अपनी सफलता से खुश थे.आशा से ज्यादा परिणाम मिल रहे थे.
प्रत्येक जानवर अपनी क्षमता के अनुसार काम करता था और भोजन का एक उचित हिस्सा पाता था.सूअर खुद काम  नहीं करते थे,बल्कि वह जानवरों को निर्देश देते थे और काम का निरिक्षण करते थे.नेतृत्व उनके पास आ गया था.

हर रविवार स्नोबॉल, और नेपोलियन बड़े खलिहान में सभी जानवरों की एक बैठक का नेतृत्व करते थे.अगले हफ्ते के काम की रूपरेखा तैयार की जाती थी.सूअर ही प्रस्ताव रखते थे,बाकी जानवर केवल मतदान ही करते थे.स्नोबॉल और नेपोलियन बहस में सक्रिय रहते पर दोनों में कम ही सहमति हो पाती थी.एक के प्रस्ताव का दूसरा जरूर विरोध करता.


जानवर साक्षर हो रहे थे.सूअर पढ़ने लिखने में पूरी तरह सक्षम हो गये थे.कुछ अल्पबुद्दि जानवर सात नियम सीख नहीं पाए थे,स्नोबॉल ने सात नियमों को एक सूत्र वाक्य में व्यक्त किया-"चार पैर अच्छा,दो पैर बुरा"
वक़्त बीतने के साथ सूअरों के खुद को पुरस्कार, नियंत्रण में वृद्धि और
अपने लिए विशेषाधिकार बढ़ते ही जा रहे थे.दूध के गायब होने का रहस्य भी जल्दी ही खुल गया.ये रोज सूअरों की सानी में मिलाया जा रहा था.सेबों के पकने पर जानवरों की राय थी की इन्हें आपस में बराबर बाँट लिया जाये लेकिन ये आदेश आया की इन्हें सूअरों के साजो सामान वाले कमरे में पहुँचा दिया जाये.जानवर भुनभुनाये पर सूअर सहमत थे यहाँ तक कि स्नोबॉल और नेपोलियन भी.जानवरों को शांत करने का काम सूअर स्क्वीलर को सौंपा गया-
 
"साथियों!"वह चिल्लाया,"आपको लगता है कि हम लोग ये सब अपनी सुविधा या स्वार्थ के लिए कर रहें हैं?हम में से बहुत तो ढूध और सेब पसंद भी नहीं करते.मुझे खुद ये अच्छे नहीं लगते.इन चीज़ों को हासिल करने के पीछे हमारा मकसद अपने स्वास्थ्य की रक्षा करना है.दूध और सेब(ये विज्ञान द्वारा प्रमाणित है साथियों )में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो सूअरों के लिए लाभदायक हैं.हम सूअर दिमाग़ी कार्यकर्ता हैं.इस फ़ार्म का संगठन और प्रबंधन हमारे ऊपर निर्भर है.हम लोग दिन-रात आपके कल्याण के लिए कार्य कर रहें हैं.हम लोगों का ढूध और सेब का सेवन करना आप लोगों के हित में हैं.क्या आप जानते हैं-अगर हम सूअर अपना कर्तव्य निभाने में विफल रहे,तो क्या होगा?जोन्स वापिस आ जायेगा." 


जानवर कभी नहीं चाहते थे मिस्टर जोन्स वापिस लौटे इसलिए वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं रह गये.नेपोलियन भी नौ नवजात puppies को एक मचान में रख के शिक्षित कर रहा था.
खेती में सुधार के लिए योजनायें बनाई जाने लगी.स्नोबॉल ने पवन चक्की बनाने की घोषणा की नेपोलियन पवन चक्की के खिलाफ था.पवन चक्की को ले कर जानवर बराबर-बराबर बँटे हुए थे.स्नोबॉल ने अपने भाषण से जानवरों को प्रभावित किया एनिमल फ़ार्म की सुखद तस्वीर पेश की.सिर्फ पवन चक्की ही नहीं बिजली से चलने वाली बहुत सी चीजों की बात की.स्नोबॉल के भाषण खत्म होते-होते कोई शंका नहीं रह गयी थी
कि मतदान किसके पक्ष में होगा लेकिन तभी  नेपोलियन के नौ भयंकर प्रशिक्षित कुत्तों ने खेत से स्नोबॉल को खदेड़ दिया उसके बाद वह कभी नज़र नहीं आया.स्नोबॉल की बेदखली के तीसरे रविवार जानवर नेपोलियन की ये घोषणा सुन कर दंग रह गये कि पवन चक्की बनायी जाएगी.

साल-भर जानवर खटते रहे.पर वह खुश थे
कि अपने लिए काम कर रहें हैं दुष्ट और कामचोर इंसानों के लिए नहीं.पवन चक्की बनाने के कम के कारन अन्य जरूरी काम प्रभावित होने लगे थे.नेपोलियन ने पड़ोसी फ़ार्म से व्यापार की घोषणा की.सूखी घास,थोड़ा गेहूं और ज्यादा पैसे के लिए मुर्गियों के अंडे बेचने की बात भी कही.विलिंग्डन के मिस्टर विम्पर ने बिचोला बनना स्वीकार कर लिया.

सूअरों ने मिस्टर जोन्स के फ़ार्म हॉउस को अपना घर बना लिया.वह बिस्तर पर सोने लगे.कलेवर से चौथा नियम नहीं पढ़ा गया तो उसने मुरियल को पढने के लिए कहा कि मुझे बताओ कि क्या चौथे नियम में बिस्तर पे सोने को मना नहीं किया तो मुरियल ने पढ़ा-कोई जानवर बिस्तर में....चादर के ऊपर नहीं सोयेगा.कुत्तों ने उन्हें बताया कि बिस्तर पे सोने के खिलाफ नियम नहीं था बिस्तर का अर्थ है सोने की जगह,देखा जाये तो तिनको का ढेर भी बिस्तर ही है. ये नियम चादर पे सोने से मना करता है जो इंसान ने बनाई है.

एक रात, तेज हवाओं ने पवन चक्की को नष्ट कर दिया. नेपोलियन स्नोबॉल को दोष देता है.

ये बात साफ हो चुकी थी कि बाहर से अनाज की व्यवस्था करनी होगी.नेपोलियन अब शायद ही कभी बाहर आता था.वह फ़ार्म हॉउस में रहता था जिसके बाहर एक कुत्ता हमेशा तैनात रहता था.उसका बाहर निकलना भी एक समारोह की तरह होता.उसे छह कुत्ते घेरे रहते.वह अपना आदेश किसी और सूअर खासकर स्कवीलर के जरिये जारी करता.नेपोलियन ने विम्पर के माध्यम से एक समझौता किया.जिसके अनुसार हर हफ्ते फ़ार्म से ४०० अण्डों की आपूर्ति की जायेगी.


चार दिन बाद, नेपोलियन एक विधानसभा बुलायी जिसमें उसने कई कपट स्वीकार करने के लिए पशुओं को इकट्ठा किया.चार सूअरों को कुत्तों ने स्नोबॉल के संपर्क में रहने के दोष में मार दिया.तीन मुर्गियों को अंडें न देने की बगावत में मार दिया.मृत्युदंड का सिलसिला देर तक चला.कुछ जानवरों को छठा नियम याद आया.मुरियल ने नियम पढ़ा-एक जानवर दूसरे जानवर को अकारण नहीं मारेगा.यह "अकारण"शब्द जानवरों की स्मृति से निकल गया था.अब उन्हें अहसास हुआ कि नियम टूटा नहीं है.

नेपोलियन की  किसानों के साथ बातचीत जारी रही और अंत में मिस्टर पिल्क्ग्टन को लकड़ी बेचने का फैसला किया.गर्मी खत्म होने तक पवन चक्की भी तैयार होने को थी.पवन चक्की की ख़ुशी में जानवर अपनी सारी थकान भूल गये पर वह ये सुन कर हैरान रह गये कि नेपोलियन ने लकड़ी
पिल्क्ग्टन को नही  फ्रेडरिक को बेच दी.नेपोलियन ने पिल्क्ग्टन से उपरी दोस्ती के साथ फ्रेडरिक से भी गुप्त समझोता कर रखा था पर फ्रेडरिक ने लकड़ी के बदले में नकली नकदी नेपोलियन को दी .नेपोलियन ने तत्काल बैठक बुलाई और फ्रेडरिक को मृत्युदंड देने की घोषणा की.अगली सुबह फ्रेडरिक ने लोगो साथ मिल के फ़ार्म पे हमला कर दिया.युद्ध में जानवर जीत तो गये पर बुरी तरह थके और घायल.पवनचक्की भी टूट चुकी थी.जानवरों की मेहनत की आखरी निशानी अब नहीं बची थी.

युद्ध के बाद, सूअरों को फार्म हाउस के तहखाने में व्हिस्की की पेटी मिली.उस रात फ़ार्म हॉउस से जोर-जोर से गाने की आवाज़ आयी.सुबह कोई भी सूअर बाहर नहीं निकला.दूसरे दिन नेपोलियन ने विम्पर को शराब बनाने कि विधि की पुस्तकें खरीद लाने को कहा.कुछ दिनों बाद मुरियल ने महसूस किया कि जानवरों ने एक और नियम सही से याद नहीं रखा.उनके अनुसार पांचवा नियम है-कोई भी जानवर शराब नहीं पिएगा.पर इसमें एक और शब्द वो भूल चुके है.असल में नियम है-कोई भी जानवर ज्यादा शराब नहीं पिएगा.

अप्रैल में,  फ़ार्म हॉउस  एक गणतंत्र घोषित किया गया  और
नेपोलियन राष्ट्रपति के रूप में सर्वसम्मति से चुना गया.एक दिन बॉक्सर पवन चक्की का काम करते हुए गिर गया.नेपोलियन ने उसे विलिंग्डन में पशुचिकित्सा करने के लिए भेजने का वादा किया. कुछ दिनों बाद, एक घोड़े की हत्या करनेवाला अपनी वैन में बॉक्सर को ले जाने लगता है.जानवर वैन के पीछे दौड़ते हैं.कलेवर बॉक्सर को बाहर निकलने के लिए कहती  है.वैन तेज़ हो जाती है पता नहीं बॉक्सर कलेवर की बात सुन भी पाया था कि नहीं.तीन दिन बाद ये घोषणा कि गयी कि बॉक्सर का सर्वोत्तम संभव देखभाल करने के बावजूद अस्पताल में निधन हो गया.
सूअरों के पास अचानक से बहुत सा पैसा कहीं से आ गया था.

वर्षों बीत गये.कुछ ही जानवर ऐसे बचे थे जिन्हें विद्रोह के पुराने दिन याद थे.मुरियल की मौत हो चुकी थी,स्नोबॉल भुला दिया गया था.मिस्टर जोन्स भी मर चुके थे.बॉक्सर को कुछ ही जानवर याद करते हैं.कलेवर बूढी हो गयी है.फ्राम में ढेर से जानवर हैं.फ़ार्म पहले से अधिक व्यवस्थित हो गया है.पवन चक्की आखिरकार बन चुकी है.नयी बिल्डिंगे बन गयी हैं.फ़ार्म समृद्ध हो गया है पर जानवरों के जीवन में कोई तब्दीली नहीं आई सिवाय कुत्तों और सूअरों को छोड़ कर.सूअर अपने पिछले पैरों पर चलने लगे थे.भेड़ों ने गाना शुरू किया-चार पैर अच्छा,दो पैर ज्यादा अच्छा.विरोध करने की गुंजाईश खत्म हो चुकी थी.बेंजामिन ने दीवार पर अब सिर्फ एक ही लिखा हुआ नियम पढ़ के सुनाया-सारे जानवर बराबर हैं पर कुछ जानवर औरो से ज्यादा बराबर हैं.
सूअर काम कराने के लिए चाबुक ले आये.
सूअरों द्वारा स्वयं को अधिक से अधिक विशेषाधिकार देने का पुराना पैटर्न जारी रहा. वे एक टेलीफोन खरीदने वाले थे और पत्रिकाओं की सदस्यता ले रहे थे.वे जोन्स के कपड़े भी पहनने लगे थे.एक रात, नेपोलियन किसानों के लिए एक समझौता भोज आयोजित करता है और ये घोषणा करता है कि फ़ार्म हॉउस को  फिर से"मैनर फार्म" कहा जाएगा .बाहर खड़े जानवर सब देख रहे थे.पहले सुअरों को देखा,फिर इंसानों को,फिर सुअरों को देखा और उसके बाद इंसानों को.

....सूअर और इंसानों में अब कोई फरक नहीं रह गया था....

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