डाकिए की ओर से: चार लम्हा फुर्सत का मिला है, इससे गुरेज नहीं। ये डाकिए का काम भी बड़ा जिम्मेदारी का होता है। आपको क्या पढ़ने को दूं यही सबसे बड़ा सवाल है। अच्छा पढ़ना आपके पहंुच में हैं तो क्यों ना थोड़ी दिमाग मांज लें। बस यही सोचकर... आज की चिठ्ठी। दो भागों में दे रहा हूं। मंटो ने यह निबंध अफसानानिगार और जिंसी मसाइल के नाम से लिखा है। जब उस पर कई मुकदमे चलाकर उसे बुरी तरह परेशान किया गया। आईए पढ़ें उसका बयानः
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मलिक बिल्ंिडग, मेव रोड,
लाहौर।
भाईजान, सलामे-शौक !
ब्रादरम आगा खलिश साहिब का गिरामीनामा परसों मिला था। आपकी अलालत का इल्म हुआ। अल्लाह करे, आप सब अच्छे हों। जब आपको अपनी सेहत का अंदाज़ा है तो इतना काम क्यों करते हैं कि इन दिनों साहिबे-फराश रहते हैं। मुझे लौटती डाक में आनी सेहत की हालत से मुत्तला कीजिए और लिल्लाह इतनी मेहनत न कीजिए कि आप इंजेक्शनों के कांटों में घिरे रह जाएं। अभी बरसों तक आपकी जरूरत है।
लीजिए ‘खैमाम‘, ‘आईना‘ और दीगर मेहरबानों के दम से अदबे लतीफ का सालनामा जेरे दफा 292 ताज़ीराते हिंद और 38 डिफेंस आॅफ इंडिया रूल्ज़, 29 मार्च की शाम को जब्त हो गया। पुलिस ने छापा मारा और सालनामें के बाकी मांदा नंबर ले गई। अभी प्रोपराइटर और एडिटरों की गिरफ्तारी अमल में नहीं आई लेकिन अफवाह है कि हम बहुत जल्द गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। यह जब्ती आपके मज़मून और अफसाने की वजह से अमल में आई है।
अहमद नदीम कासमी
एडिटर अदले-लतीफ
कोई हकीर से हकीर चीज़ ही क्यों नहो, मसाइल पैदा करने का बायस हो सकती है। मसहरी के अंदर एक मच्छर घुस आए तो उसको बाहर निकालने, मारने और आइंदा के लिए दूसरे मच्छरों की रोकथाम करने के मसाइल पैदा हो जाते हैं लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा मसला यानी तमाम मसलों का बाप उस वक्त पैदा हुआ था, अब आदम में भूख महसूस की थी और उससे छोटा मगर दिलचस्प मसला उस वक्त परदा-ए-जहूर पर आया था, जब दुनिया के उस सबसे पहले मर्द की दुनिया की सबसे पहली औरत से मुलाकात हुई थी।
यह दोनों मसले जैसा कि आप जानते हैं, दो मुख्तलिफ किस्म की भूखें हैं जिनका आपस में बहुत गहरा ताल्लुक है - यही वजह है कि हमें इस वक्त जितने मआशरती, मजलिसी, सियासी और जंगी मसाइल नज़र आते हैं, उनके अकब में यही दो भूखें जलवागर हैं।
मौजूदा जंग की खूनीं पर्दा अगर उठा दिया जाए तो लाशों के अंबार के पीछे आपको मुल्कगीरी की भूख के सिवा और कुछ नज़र नहीं आएगा।
भूख किसी भी किस्म की हो खतरनाक होती है। आजादी के भूखों को अगर गुलामी की जंजीरें ही पेश की जाती रही तो इन्किलाब जरूर बरपा होगा। रोटी के भूखे अगर फाके ही खींचते रहे तो वह तंग आकर दूसरे का निवाला जरूरी छीनेंगे। मर्द की नज़रों से अगर औरत की दीदार का भूखा रखा गया तो शायद वह अपने हमजिंसों और हैवानों ही में इसका अक्स देखने की कोशिश करे।
दुनिया में जितनी लानतें हैं, भूख उनकी मां है - भूख गदागरी सिखाती है, भूख जराइम की तरगीब देती है, भूख इस्मत फरोशी पर मजबूर करती है, भूख इंतिहापसंदी का सबक देती है। इनका हमला बहुत शदीद, इसका वार बहुत भरपूर और इसका ज़ख्यम बहुत गहरा होता है। भूख दीवाने पैदा करती है, दीवानगी भूख पैदा नहीं करती।
दुनिया के किसी कोने का मुसन्निफ हो, तरक्कीपसंद हो या तनज़्ज़ुलपसंद, बूढ़ा हो या जवान, उसके पेशे नज़र दुनिया के तमाम बिखरे हुए मसाइल रहते हैं। चुन-चुनकर वह उन पर लिखता रहता है। कभी किसी के हक़ में कभी किसी के खिलाफ।
आज का अदीब बुनियादी तौर पर आज से पांच सौ साल पहले के अदीब से कोई ज्यादा मुख्तलिफ नहीं। हर चीज़ पर नए पुराने का लेबिल वक्त लगाता है, इंसान नहीं लगाता। हम आज नए अदीब कहलाते हैं। आने वाली कल हमें पुराना करके अल्मारियों में बंद कर देगी लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम बेकार जिए, हमने मुफ्त में मग़ज़दर्दी की। घड़ी की सुई जब एक से गुज़र कर दो की तरफ रेंगती है तो एक का हिंदसा मेमसरफ नहीं हो जाता। पूरा सफर तय करके सुई फिर इसी हिंदसे की तरफ लौटती है - यह घड़ी का भी उसूल है और दुनिया का भी।
आज के नए मसाइल भी गुजरी हुई कल के पुराने मसाइल हैं बुनियादी तौर पर मुख्तलिफ नहीं। जो आज की बुराईयां हैं, गुज़री हुई कल ही ने उनके बीज बोए थे।
जिंसी मसाइल जिस तरह आज के नए अदीबों के पेशे नज़र हैं, उसी तरह पुराने अदीबों के पेशे नज़र भी थे। उन्होंने उन पर अपने रंग में लिखा, हम आज अपने रंग में लिख रहे हैं।
मुझे मालूम नहीं, मुझसे जिंसी मसाइल के मुताल्लिक बार बार क्यों पूछा जाता है। शायद इसलिए कि लोग मुझे तरक्कीपसंद कहते हैं, या शायद इसलिए कि मेरे चंद अफसाने जिंसी मसाइल के मुताल्लिक हैं या फिर इसलिए कि आज के नए अदीबों को बाज़ हज़रात जिंसज़दा करार देकर उन्हें अदब, मज़हब और समाज से यक कलम खारिज कर देना चाहते हैं। वजह कुछ भी हो मैं अपना नुक्ता ए नज़र पेश कर देता हूं:
रोटी और पेट, औरत और मर्द - यह दो बहुत पुराने रिश्ते हैं, अज़ली और अबदी। रोटी ज्यादा अहम है या पेट ? औरत ज्यादा जरूरी है या मर्द ? मैं इसके मुताल्लिक कुछ नहीं कह सकता, इसलिए कि मेरा पेट रोटी मांगता है लेकिन मुझे यह मालूम नहीं कि गेहूं भ्ीा मेरे पेट के लिए उतना ही तरसता है जितना की मेरा पेट। फिर भी जब मैं सोचता हूं कि ज़मीन ने गेहूं के खोशों को बेकार जन्म नहीं दिया होगा तो मुझे खुशफहमी होती है कि मेरे पेट ही के लिए वसी ओ अरीज़ खेतों में सुनहरी बालियां झूमती हैं और फिर हो सकता है कि मेरा पेट पहले पैदा हुआ हो और गेहूं की यह बुच्चियां कुछ देर बाद।
कुछ भी हो, यह बात रोज़े-रोशन की तरह अयां है कि दुनिया का अदब सिर्फ इन दो रिश्तों से ही मुताल्लिक है -इल्हामी किताबें भी जिनको आसमानी अदब कहना चाहिए, रोटी और पेट, औरत और मर्द के जज्किरों से खाली नहीं।
सवाल पैदा होता है कि जब यह मसाइल इतने पुराने हैं कि इनका जि़क्र इल्हामी किताबों में भी आ चुका है कि तो फिर क्यों आज के अदीब इन पर खामा फरसाई करते हैं। क्यों औरत और मर्द के ताल्लुकात को बार बार कुरेदा जाता है और बकौल शख्से उरियानी फैलाई जाती है - जवाब इस सवाल का यह है कि अगर एक ही बार, झूठ न बोलते और चोरी न करने की तलकीन करने पर सारी दुनिया झूठ और चोरी से परहेज करती तो शायद एक ही पैगंबर काफी होता - लेकिन जैसा आप जानते हैं, पैगंबरों की फेहरिस्त खासी लंबी है।
हम लिखने वाले पैगंबर नहीं। हम एक ही चीज को, एक ही मसले को मुख्तफिल हालात में मुख्तलिु जावियों में देखते हैं और जो कुछ हमारी समझ में आता है दुनिया के सामने पेश कर देते हैं और दुनिया को कभी मजबूर नहीं करते कि वह उसे कबूल ही करे।
हम कानूनसाज नहीं, मुहतसिब भी नहीं। एहतिसाब और कानूनसाजी दूसरों का काम है -हम हुकूमतों पर नुकताचीनी करते हैं लेकिन खुद हाकिम नहीं बनते। हम इमारतों के नक्शे बनाते हैं लेकिन हम मैमार नहीं। हम मजऱ् बताते हैं लेकिन दवाखानों के मुहतमिम नहीं।
हम जिंसियात पर नहीं लिखते। जो समझते हैं कि हम ऐसा करते हैं, यह उनकी गलती है। हम अपने अफसानों में खास औरतों और खास मर्दों के हालात पर रोशनी डालते हैं किसी अफसाने की हिरोइन से अगर उसका मर्द सिर्फ इसलिए मुतनफ्फिर हो जाता है कि वह सफेद कपड़े पसंद करती है या सादगी पसंद है तो दूसरी औरत को इसे उसूल नहीं समझ लेना चाहिए। यह नफरत क्यों पैदा हुई और किन हालात में पैदा हुई इस इस्तिफ्हाम का जवाब आपको हमारे अफसाने में जरूर मिल जाएगा।
जो लोग हमारे अफसानों में लज्जत हासिल करने के तरीके देखना चाहते हैं, उन्हें यकीनन नाउम्मीदी होगी। हम दांव पेंच बताने वाले खलीफे नहीं। हम जब अखाड़े में किसी को गिरता देखने हैं तो अपनी समझ के मुताबिक आपको समझाने की कोशिश करते हैं कि वह क्यों गिरा था ?
हम रजाई हैं। दुनिया की सियाहियों में भी हम उजाले की लकीरें देख लेते हैं। हम किसी को हिकारत की नज़र से नहीं देखते। चकलों में जब कोई टखयाई अपने कोठे पर से किसी राहगुज़र पर पान की पीक थूकती है तो हम दूसरे तमाशाईयों की तरह न तो कभी उस पर हंसते हैं और न कभी उस टखयाई को गालियां देते हैं। हम यह वाका देख रूक जाएंगे। हमारी निगाहें इस गलीज़ पेशेवर औरत के नीम उरियां लिबास को चीरती हुई उसके सियाह इस्यां भरे जिस्म के अंदर दाखिल होकर उसके दिल पर पहुंच जाएंगी, उसको टटोलेंगी और टटोलते-टटोलते हम खुद कुछ अर्से के लिए तसव्वुर में वही करीह और मुतअफ्फिन रंडी बन जाएंगे, सिर्फ इसलिए कि हम उस वाके की तसवीर ही नहीं बल्कि उसे असल मुहर्रिक की वजह भी पेश कर सकें।
(ज़ारी...)