Sunday, September 5, 2010

जे. कृष्णामूर्ति जी की एक डायरी (अनुवादक: जी. जी. शेख )

साग़र साहब के रोचक धारावाहिक के बीच में क्षेपक सी इस पोस्ट के लिए उनसे एवं पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ, अगली पोस्ट से साग़र सा'ब की रहबरी में फ़िर चल पडेंगे 'मौलाना हसरत मुआनी' जी जीवन यात्रा के सफर में. आज बस 'शिक्षक दिवस' के बहाने के बैठ के थोड़ी देर सुस्ता लें. ;)




जे. कृष्णामूर्ति जी की एक डायरी है मेरे पास जो उन्हें मेरा प्रिय शिक्षक बनती है.
...अनंतकालीन.
उसी डायरी से एक पन्ना...


कार्य की ख़ातिर कार्य करना, यह बिलकुल मुश्किल और लगभग अनिच्छ्नीय लगता है |एक कार्य किसी दूसरे की ख़ातिर करना, उसी पर सामाजिक मूल्यों की रचना हुई है |परिणामतः जीवन विरान बन जाता है | ऐसा जीवन कभी भी पूर्ण व भरपूर नहीं होता |ध्वंसात्मक असंतोष का यह एक कारण है |


संतोष पाना ढंग बिना की वृत्ति है किंतु असंतोष धिक्कार को पुष्ट करता है | स्वर्ग प्राप्ति के लिए समाज के माननीय पुरुषों की मान्यता प्राप्त करना, सदगुणी बनना, यह वृत्ति, बीज बोए बिना बार-बार जोते जानेवाले उज्जड खेत जैसा जीवन को बना देती हैं | किसी अन्य हेतु के लिए कोई भी प्रवृत्ति करना तत्वतः स्वयं से, वास्तविकता से भाग छूटने जैसा है, और यह उलझनें बढ़ाने वाली प्रवृत्ति है |


सत्व की अनुभूति के बिना सौंदर्य नहीं; बाह्य पदार्थों में या भीतरी विचार, वृत्ति और ख्यालों में नहीं; इस विचार और वृत्ति के उस पार सौंदर्य है | यह सत्व ही सौंदर्य है अपितु सौंदर्य का कोई विरुद्ध बिंदु नहीं | प्रगाढ़ता और संवेदनशीलता का शिखर वह सत्व का अनुभव है | शब्दातीत सौंदर्य और संवेदना वह यह है | प्रमाण व गहराई, प्रकाश व छाया, स्थल-काल से सीमित है और सौंदर्य-कुरूपता में जकड़े हुए हैं | पर जो कुछ भी रेखा और आकार से परे हैं, शिक्षण व ज्ञान से परे हैं वही सत्व का सौंदर्य हैं |


देखना महत्वपूर्ण है | हम तात्कालिक वस्तुओं को देखते हैं | तात्कालिक आवश्यकता के मद्देनज़र माज़ी के रंग में रंगा भविष्य देखते हैं | हमारी दृष्टि अति मर्यादित है और हमारी आँखें आसपास कि चीजों को देखने की अभ्यस्त है | दिमाग़ की तरह हमारी दृष्टि भी स्थल-काल से बद्ध है | इस बद्ध आचरण के परे हम कभी नहीं देखते, तफ़तीश नहीं करते | हम संकीर्ण सीमाओं के आरपार, सीमाओं के उस पार कैसे देखे, नहीं जानते | परंतु कोई भी पसंदगी या आश्रय के बिना इन सीमाओं के उस पार गहराई और विस्तृतता से हमें देखना है | अभिप्रायों और मूल्यों की मानवसर्जित सीमाओं के उस पार नेत्रों को विहार करना है और प्रेमातीत स्थितियों का अनुभव करना है |


फिर कोई देव दे न पाए वैसा आशीर्वाद उतरता है |


Credits: 1)Translated by 'GGS'  from 'J.Krishnamurti's diary'
2)Links Courtsy: 'Wikipedia', 'Janmanas Parishkaar Manch'
3)Image: Random Search via 'Google Images.'

3 comments:

  1. शुक्रिया ....इसे शेयर करने के लिए कुछ चीज़े याद दिलाती है .....के कभी हकीक़त भी ऐसी थी.....

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  2. यह दोबारा....तिबारा....चोबारा....पढने के लिए है
    शुक्रिया इसके लिए

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  3. सुबह सुबह दिन बना दिया साहिब... शुक्रिया

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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