Saturday, December 31, 2011

कविता के पन्नों मे नया साल: जेनिफ़र स्वीनी


अभी जब एक साल से दूसरे साल तक सत्ता-हस्तांतरण का वक्त नजदीक आता जा रहा है।ऐसे मे गुनगुनी धूप मे बैठ कर चाय की चुस्कियों के संग गुजर गये साल पर आत्मचिंतन करना सबसे स्वाभाविक और आरामदायक काम होता है। खैर, नया कैलेंडर टांगने से पहले पुराने हो गये इस कैलेंडर पर लगी तमाम उम्मीदों, खुशी, भरोसे, डर, आशंकाओं, कसमों की चिप्पियाँ साल के कुल जमा-हासिल की एक बानगी होती हैं। गुजरते साल के ऐसे ही हासिलों और आने वाले साल से बावस्ता उम्मीदों की इबारत को कविता के चश्मे से परखने की कोशिश हम भी करते हैं। सो आइये अगले कुछ दिनों मे देखते हैं कि कोई कवि वक्त के इस मुकाम को कितनी अलहदा नजरों से परख पाता है। इस सिलसिले मे सबसे पहले पेश है जेनिफ़र स्वीनी की एक अंग्रेजी कविता का हिंदी मे तर्जुमा। अमेरिका की इस युवा कवियत्री को कम उम्र मे ही कई अवार्ड्स से नवाजा जा चुका है। उनके कविता संकलन ’हाउ टु लीव ऑन ब्रेड एंड म्यूजिक’ (पेरुगिया प्रेस) की इस कविता मे जिंदगी की कुल गणित के टुकड़े बिखरे से नजर आते हैं।


बीत गये साल के लिये चंद कतरनें

मैने पाया है कि
औसतन विषम संख्या वाले साल
ज्यादा बेहतर रहे हैं मेरे लिये

मै उस दौर मे हूँ जहाँ मुझे हर मिलने वाला
लगता है उस जैसा
जिसे मै पहले से जानती हूँ

पतझड़ का मौसम बिना हिचकिचाहट के
मुझे धकेल देता है उन चीजों की स्मृतियों मे
जो कभी हुई ही नही मेरी जिंदगी मे

केंचुली बदलता है आसमान
और मुझे नही पता कि इसकी वजह ग्लोबल-वार्मिंग है
या कि वायुमंडल बस खुद को तैयार करता है
कि सह सके और ज्यादा नयी चमकदार यंत्रणायें

मेरे अंदर हिलोरें मारती है
आइसलैंड जाने की बेताब ख्वाहिश

तमाम बुरी चीजों के बावजूद
अभी भी हम भरे हुए हैं विचारों से
जो कि उतने ही संभव हैं
जितने कि वंध्या फ़ल

मुझे सख्त अफ़सोस होता है
कि मुझे ही समझाना होगा
नर्सरी के बच्चों को
कि सूर्यास्त और प्रदूषण के बीच रिश्ता क्या है

और क्या पता है तुम्हे
कि शुक्र-ग्रह पर हमारी उम्र
अभी एक साल से भी कम की होगी

तब यहाँ दो आसमान थे
एक जिसमे भरते थे हम अपनी उड़ान
तो दूसरे मे हम दफ़्न करते खुद को

शुक्र है कि अभी भी
मेरी दिलचस्पी कामुक विलासिता की चीजों मे नही,
मसलन बाथरूम के ऐशो-आराम के सामान

हम साथ-साथ ही हुआ करते थे हर वक्त
कहानी मे

और उसकी शादी के दिन
उसके सीने मे गड़ा पत्थर
कुछ-कुछ तो पिघल सा गया था

कभी-कभी लगता है मुझे
कि जैसे परिंदे उड़ जाते हैं मेरे अंदर से
अनंत की ओर।





(प्रथम चित्र: अमेरिकन कवियत्री- जेनिफ़र के स्वीनी)
(द्वितीय चित्र: The Key -अब्स्ट्रैक्ट-एक्सप्रेशनिज्म के अगुआ ख्यात अमेरिकन पेंटर जैक्सन पोलॉक)

4 comments:

  1. नए-पुराने साल का बहुत बढ़िया अवलोकन ....
    नए साल की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें!

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  2. मुझे हर नये साल में
    कुछ भी जुदा नहीं लगता..
    सब पहले सा ही होता है..
    उसी तरह ३१ दिसम्बर के बाद
    एक जनवरी ..
    जैसे ३१ जनवरी के बाद
    एक फरवरी..
    तो क्या है जो बीत गया..
    लम्हा लम्हा जो बीता..
    उसे एक ही दिन में..
    एक साथ याद कैसे करे..

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  3. This comment has been removed by the author.

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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