Sunday, January 1, 2012

कविता के पन्नों मे नया साल: राबर्ट फ़िशर


यह एक मजेदार अंग्रेजी कविता है राबर्ट फ़िशर की। नेट पर ही कहीं मिली मुझे और पढ़ते हुए बड़ा मजा आया। मुख्यरूप से बाल कविता के कलेवर मे इस कविता की खास बात यह लगी कि यह किसी भी उम्र मे आपके बचपन के विस्मृत तंतुओं को स्पर्श करती है और आपकी एक सहज सी बरबस मुस्कान इस कविता का असल हासिल है। प्रस्तुत है हिंदी तर्जुमा नये साल की अशेष शुभकामनाओं के संग!


नये साल की कसमें: राबर्ट फ़िशर

ठान लिया है मैने
अब से बिल्ली को खिड़की से बाहर नही फ़ेकूँगा
बहन के बिस्तर मे मेढ़क भी नही छोड़ा करूँगा अब
और भइया के जूतों के फ़ीते भी आपस मे नही बाँधा करूँगा
पापा की टीन की छत से नही लगाऊँगा छलांग
बुआ का अगला जनमदिन याद रखूँगा अबकी बार
और हफ़्ते मे एक बार तो जरूर करूँगा अपने कमरे की सफ़ाई
मम्मी के बनाये खाने पर नाक-भौँ भी नही सिकोड़ूँगा
(उफ़्फ़! फ़िर वही बैंगन की सड़ी सी सब्जी!)
मम्मी से तमीज से पेश आऊँगा
अब अपनी नाक नही खोदूँगा, जब तक बस चलेगा
और तह कर के रखा करूँगा अपने कपड़े
कंघी भी करूँगा बालों मे
अब से मैं सीखूँगा ’प्लीज’ बोलना और ’थैंक यू’ भी
(भले ही झूठ-मूठ बोलना पड़े)
अब से चिल्लाना और इधर-उधर थूकना बन्द
और गाली देना तो एकदम बन्द
हर दिन करूँगा अपनी डायरी मे नोट
स्कूल मे सबकी मदद करने की भरसक कोशिश करूँगा
बूढ़ी औरतों को हाथ पकड़ कर सड़क पार करा दिया करूँगा
(भले ही उन्हे नही करनी हो सड़क पार)
तभी सोया करूँगा जब उल्लू सोने जाते हैं
और सुबह चिड़ियों के संग उठ जाया करूँगा
और अपने पीछे से दरवाजा बंद करना याद रखूँगा
अब टूथपेस्ट को एकदम नीचे से दबा कर निकालूँगा पेस्ट
और ऐसी जगह रहूँगा जहाँ मुसीबतें मेरे पास ही ना फटकें
अब सब कुछ नये सिरे से शुरू करूँगा
बदल दूँगा खुद को
एक अच्छा बच्चा बन कर दिखाऊँगा
और अपनी बुरी आदतें हमेशा के लिये छोड़ दूँगा
वैसे यह सब इस साल से शुरू करूँ या अगले साल से?
शुरू करूँ भी या....??

(चित्र: आभार गूगल)

16 comments:

  1. अपने किसी जानने वाले का एक किस्सा याद आया। उसने अपने बच्चे से कहा था कि अगर वो १०० अच्छे काम करेगा तो उसे उसकी कोई मनचाही चीज़ जो मुझे अभी याद नहीं है, वो मिलेगी। वो बच्चा ऎसे ही कुछ काम करता और अपना काउंट भी याद रखता जैसे अपने अच्छे पिता के अखबार मांगने पर अखबार लाकर दे देता... जब सोने को कहा जाता तो चुपचाप सो जाता.. ऊपर लिखे कुछ काम भी शायद .. :)

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  2. पंकज, अपूर्व मुझे याद है जब एक बार बचपन में मुझे टाइफाइड़ हुआ तो नैनीताल में गर्मी के दिन थे, गर्मी के दिन का मतलब हमेशा ही मौज मस्ती, दिल्ली से आये कम्प्रेटिवली अमीर मेहमान, झूले, रोप-वे, दी-मॉल, चौकलेट, कैंडी घूमना, शोपिंग, सोफ्टी, और वो सब कुछ जो अन्यथा असंभव...
    ...गर्मियों की छुट्टियाँ भी.
    पर टाइफाइड़ था, तो सब कुछ वर्जित...
    ...मेरी बहिन बाल सुलभ कौतुहल के चलते जो भी करती उसमें और अधिक रस लेकर, मज़े लेकर करती (उसकी जगह होता तो मैं भी वही करता).
    मेरी उदासियाँ देख कर मेरी माँ ने मुझे एक डायरी लाकर दी, बोली जो कुछ भी वो करती है खाती है, खरीदती है जहाँ भी जाती है तू इसमें नोट करता जा, और वो सब बिलकुल ठीक हो जाने पर तुझे भी मिलेगा...
    मैं रिलीजियसली हर दिन, हर चीज़ उसमें नोट करता गया, मुझे चने की सब्जी पसंद थी तो यहाँ तक कि मैंने ये भी नोट किया कि घर में दो बार उन दिनों चने कि सब्जी बनी. बत्तीस कैंडी, २ फ्रूट एंड नट, तीन बार मॉल-रोड...
    बहरहाल ठीक होना अचानक नहीं होता है, तो मैं इसी उम्मीद मैं था कि शायद अभी मैं उतना ठीक नहीं हुआ जितना की इन सब चीजों की प्राप्ति हेतु होना होता है...
    ...बाकी की कहानी नहीं सुनाऊंगा क्यूंकि वो एक अबला-बच्चे की हृदय विदारक, नए सेमिस्टर में स्वस्थ हो जाने, और 'बड़े लोगों' के प्रति मोह भंग हो जाने की है...
    :-)

    गो कि, तेरे वादे पे जिए हम...

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  3. bacpan mayane fullo ka mousam,titali sa jeevan,nishpap muskrahat ka mousam,lakh daant kha kar bhi agli sharart ko machalne ka moasam,aah vo payara bacpan!!!!!!!!!!!

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  4. गुड वन दर्पण..याद तो हमें भी बड़े सारे किस्से हैं..मगर अब यहा कच्चा पोथा खोल कर अपना मजाक कौन बनवाये..मसलन कैसे एक अदद लड्डू भर की फ़ीस मे हम मोहल्ले भर का सामान लेने बाजार दौड जाते थे..और दस पैसे के लिये ’कन्या-भोज’ भी खा आते थे..एज अ ’लंगूर’ (हाय हाय!! शरम से मै मर क्यो नही गया)...(वैसे यहा कविता वाले मेढ़क जैसे कुछ प्रैंक्स पर बहुत पिटायी भी झेली है वीर-पुरुषों की तरह)..मगर अब वो सब हम बतायेंगे थोडे ही यहाँ..ना पंकज की तरह दूसरों के नाम तले छुपायेंगे..सो तब तक हमें भी सीधे बच्चों मे शुमार किया जाय...

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  5. मतलब कहना क्या चाहते हैं अपूर्व सा'ब आप कि पंकज ने अपनी कहानी किसी और को नायक / खलनायक बनाकर प्रस्तुत कर दी ?

    ऐसे 'सच्चे' इल्ज़ाम लगाते वक्त पंकज के बारे में कुछ तो सोचा होता अपूर्व भाई. पंकज आई फील सॉरी फॉर यू ! नहीं तो 'जानता' तो मैं भी था कि वो आपका कोई 'जानने' वाला कोई और नहीं बल्कि वो है जिसे हम भी 'जानते' हैं. पर अब क्या अब तो सब 'जानते' हैं. :-P :-D

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  6. @दर्पण: ’अबला-बच्चे’ अभी भी हँसी नही रुक रही मेरी..कसम से..कैसी कैसी हृदय-विदारक चीजें बचपन मे झेलनी पड़ी हैं..और पंकज की तरह किसी और के नाम से मोह-भंग की कहानी सुना भी नही सकते ;-)

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  7. ’कन्या-भोज’ भी खा आते थे

    ये भली चलाई आपने...
    ...पर जानते हो एक्सक्यूज़ क्या होता था? ये कि एक गणेश जी को तो पूजना पड़ता है...
    ...लेकिन अगर गणेश जी दो हो जाते थे तो, एक गणेश और दूसरा कार्तिकेय. कई घर तो ऐसे होते थे जहाँ पुरुष बालकों की संख्या स्त्री बालकों से अधिक होती थी...
    और गणेश और कार्तिकेय अपने अस्तित्व के लिए मल्ल युद्ध तक करने को आतुर थे. मारियो का चस्का था, वीडियो गेम ! कई बार गणेशों के बीच संधियों के सफल-असफल प्रयास भी हुए.


    और वो होली में घर घर जाना,

    ...पेट इतना भरा रहता था कि गुजिया फैंक देते थे (क्षमा कर देना हमें, ओ इश्वर ! तब हमें अक्ल नहीं थी ) और पैसे रख लेते थे, वीडयो गेम के वास्ते.

    "एक ही रूपया दिनो छा, गोजा महंगा हेरो छा" (एक ही रूपया दे रहे हो? जानते नहीं गुजिया कितने महंगे हो रक्खे हैं?)

    ...बातें बहुत सी हैं. सारी बेवजह ही हैं, पर बातें जो बेवजह होती हैं वही देर तक याद रह जाती हैं.

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  8. हा हा :-) ’अबला-बच्चे’ हाय तेरी यही कहानी..

    मेरी कहानी होती तो उसका एक किस्सा यूं होता कि मेरे पास एक साईकिल थी और मेरे दोस्त के पास कागज़ के कुछ टुकडे जिनसे वो जाने कौन सा खेल खेलता था और इस तरह खेलता था कि मैं प्रभावित हो जाता (आज भी प्रभावित हो जाने वाली आदत गयी नहीं है ;)) और फ़िर उसे अपनी साईकिल दे देता उन कागज के टुकडों के बदले.. डील इज़ डील यू नो फ़िर बच्चों को अर्थशास्त्र पढाया भी नहीं जाता.. :)

    बेवजह बातों में एक बात ये भी थी कि गाँव में ताई के पास एक संदूक था जिससे वो मिठाई लाने के लिये पैसे निकालकर देती थी। मेरे लिये वो संदूक एक रहस्य ही रहा.. अगर उस वक्त सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की कहानी नहीं पढी होती तो जरूर जासूस गोपीचंद से ’प्रभावित’ होकर उस संदूक के रहस्य का पर्दाफ़ाश कर चुका होता :)

    और वो होली में घर घर जाना
    जाने किसके तो घर से सबकी निगाह बचाते हुये गोल गोल चिप्स अपनी जेब में भरे थे... और बाद में पता चला था कि दीवारों की भी आँख होती है :-( (शरम से मरना भी नहीं आता था न तब जैसे अपूर्व को भी नहीं आता था :P)

    लड्डू वाली कहानी गज़ब है अपूर्व! जस्ट अ वाइल्ड गेस कि आज भी किसी न किसी ’लड्डू’ के लिये/पीछे तुम बाज़ार तो दौड ही जाते होगे.. ;)

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  9. कुंवारी कन्या भोज खाते हुये अपूर्व :-)
    Missing someone's ROFL, LOL...

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  10. कन्या भोज हमने भी बहुत खाए है ...ओर डकारते वक़्त शर्माए भी नहीं......कई बार तो स्कूल टाइमिंग देखकर कन्या भोज के टाइम सेट हुए थे....कुछ किरदार खो गए है शायद सामने आये तो पहचान भी न पाए या पहचानना न चाहे दोनों बाते हो सकती है पर बचपन के उन बरसो में हमने कभी रीजोलुशन नहीं लिए ....टीन बरसो में अलबत्ता कोलेज दिनों में सिगरेट अक्सर कसमो के इधर उधर रही ....पर नाजुक वक्तो में मुई फिर बगल में आ खड़ी हो जाती ओर उन दिनों हर वक़्त "नाजुक "हो जाता था ....जब तक बच्चे रहे अच्छे बच्चे रहे .......बाद के दिनों में अच्छे बुरे के बीच डोलते रहे सिगरेट की तरह ......बुरी आदते बहुत रही पर दिक्कत ये रही उनसे प्यार बहुत था

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  11. बाद के दिनों में अच्छे बुरे के बीच डोलते रहे सिगरेट की तरह ......बुरी आदते बहुत रही पर दिक्कत ये रही उनसे प्यार बहुत था
    प्योर ऑसमनेस सर जी.. फ़्राम द बॉटम ऑफ़ माई हार्ट..

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  12. आ गए जी...हम तो अपना मिसिंग याहू लेकर :) किसी ने बड़े दिल से माँगा था शायद...अरे कुछ और मांग लेते, लड्डू, चवन्नी, गुझिया...जाने क्या क्या...दुनिया के भुख्कड़ यहीं जुटे हैं! हाय लेकिन तुम लोगों की मासूमियत देख कर यकीं नहीं होता की हाय दुनिया कैसे खूंखार बना दिया इन भले बच्चों को!

    इन्हें माफ़ कर देना ओ समय! और तीन बार माफ़ करना कि तीन बार माफ़ करने में आने वाले दो बार की होने वाली शैतानियाँ भी शामिल हैं :)

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  13. अब कुछ मजा आया..पुराने धूल लगे बस्तों मे से शरीफ़ लोगों की शैतानियाँ बाहर झाँकने लगी हैं...जरा और खुलो भाइ लोगों..कोई कुछ कहेगा नही..
    ’कन्या-भोज’ का ऐसा है कि जैसा अपन को याद है कि तब 11 या 13 कुँवारी कन्याओं के एक गोल घेरे मे बैठाया जाता था खाने के लिये..और घेरे के बीचो-बीच अकेला ’लंगूर’ बैठता था..थोड़ा शरमाया..थोडा भूखा सा..थोड़ा लालची सा (अब इस्से परफ़ेक्ट लंगूर भी दिया ले के खोजने पर नही मिलेगा)..मुझे लगता है कि ’सेन्टर-ऑफ़-अट्रेक्शन’ का मुहावरा भी ऐसे ही किसी लंगूर के देख कर लिटरली रचा गया होगा..मगर एक तो उस वक्त कद्दू-की-सब्जी (जो किसी भोज का एसेंशियल पार्ट होती थी..सस्ती भी होती थी ना!) और दूसरा बाद मे मिलने वाली दक्षिणा मेरे जैसे भले बच्चे को भी लंगूरीपन से ओतप्रोत कर देती थी..वैसे वो क्या है ना कि ’कन्या-भोज’ का बिजनेस भी कुछ कुछ माडलिंग-फ़ैशन-बिजनेस जैसा ही है..जहाँ कन्याओं के अपेक्षा ’कुँअर-साहबो’ को काम-ज्यादा-पैसा-कम वाली मजबूरी मे अपनी सेवाये देनी होती हैं (भोज दाताओं को लगता था कि वो भूखे बंदर को खिला कर ही बड़ा अहसान कर रहे हैं..सो बंदर की टाफ़ी-कंपट का खर्चा मार देते थे लोग)..सो एक बार जब हमारे ही सामने सारी ’देवियों’ को चार-चार आने दे कर हमें दस-पैसे थमाये गये..तो इस ’लिंग-भेदी-अन्याय’ से विकल हो कर हम भी वहीं जमीन पर लोट गये..वो तो तुरंत ही हमारी माँगों को बिना शर्त मान लिया गया..वरना अन्नागिरी मे अपना भी पदार्पण पक्का था...
    @पंकज: भाई लड्डू का ऐसा था कि हमारी डिमांडस ज्यादा नही थी..और हमारी ढक्कनगिरी का फायदा उठा कर चतुर-सुजान लोग (मोस्टली मोहल्ले की चाचियाँ-मामियाँ वैगैरह) कम पगार पे ज्यादा काम करा लेते थे..और कभी कभी तो सफ़लतापूर्वक बाजार के सारे काम पूरा कर देने के बाद जब लोग बेरुखी से मुंह फेर लेते थे कि हमारे कुछ देते वहाँ क्षुधातुर-आँखों से देखते खड़े रहने पर भी लोगों का अपने प्रामिस नही याद आते थे..तो फिर भरे कदमों से बाहर जाते वक्त हमको लगता था कि ये दर्द भरे गाने हमारी ही सिचुएशन के लिये लिखे गये हैं मसलन ’तेरी गलियों मे ना रखेंगे कदम, आज के बाद’ और ’ये दुनिया, ये महफ़िल, हमरे काम की नही’ टाइप्स!!..मगर लड्डू का लालच भी बड़ा कम्बखत होता है यू नो!!वही बुरी आदतों से प्यार वाली बात.. :-(
    पूजा: हम लोग तीन बार शैतानी कर के दो बार माफ़ भी कर देते हैं..अब कुछ तो हमारी मासूमियत पर रहम खाइये.. ;-)
    अरे कुछ लोग अभी गायब है कन्फ़ेसन-बक्से से..और अपना वो एक आवारा डाकिया और एक डाकनी कहाँ हैं दोनो..जरा पकड़ो तो..;-)

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  14. एक तो फेस बुक की ऐसी आदत पड़ी हुई है कि 'लाईक' करने के चक्कर में गलती से 'डिलीट' वाले 'डस्ट-बिन' पे क्लिक हो जाता है...
    :-(

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  15. हमारी बात की समरी बस इतनी सी है..
    नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
    या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है :-(

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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