Friday, March 16, 2012

यह कौन नहीं चाहेगा...

डाकिए की ओर से: गलती हुई यह सोचालय पर पोस्ट हो गई। ग़लती का एहसास घंटे भर बाद हुआ। यह हमारी अनामत कब थी? कविता का ट्रीटमेंट अच्छा लगा था, ज्यादा तामझाम भी नहीं। बीच की धुन एक लय को पकड़ती हुई। शुक्रिया हमारे दफ्तर के स्क्रिट रायटर कपिल शर्मा का जिन्होंने यह उपलब्ध करवाई। कवि वीरेन डंगवाल हैं। प्रतिक्रिया कुछ नहीं कि कोरस में गाना अब अच्छा लगता है। गुलाल का शहर याद आता है। और झूम कर वो सीन याद आता है जब पीयूष मिश्रा हमारे दिल की बात बताते हुए सरफरोशी की तमन्ना को रीडिफाइंड करते हैं तो एक एक्सट्रा मग्न होकर ताली बजाता है। अपने कालखण्ड के दुख की जब लत आम जनता को लग जाए तो जश्न मनाना भी क्या अनुकूलन है ! 




5 comments:

  1. ये बढ़िया बात कही आपने, मुझे वो गीत याद आता है , "जैसे दूर देश के टावर में" और वो "महंगाई डायन खाए जात" और "देश मेरा रंगरेज़" वैसे वीरेन डंगवाल जी का एक संग्रह पढ़ा था 'दुष्चक्र में श्रष्टा उसी की कोई कविता है क्या ये?

    ये कौन नहीं चाहेगा....

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    1. haan ye दुष्चक्र में सृष्टा ki hi ek kavita hai..


      http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_27.html

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  2. अरे वाह पंकज जी यह तो आपका बडा ही बढिया ब्लॉग है । कविताएं बहुत सुंदर ।

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  3. सच! ये कौन नहीं चाहेगा....

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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