डाकिए की ओर से: मौके पर सही साथ मिला है। हाल ही में इस्मत आपा की आत्मकथा कागज़ी है पैरहन का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है। हाथी रूपी समाज के सूंड़ में लाल चींटी के रूप में घुसे मंटो और इस्मत एक ही पहलू के दो सिक्के थे। मंटो थोड़ा ज्यादा था। बकौल मंटो कुछ लोग मुझे प्रगतिशील कहते और जो नहीं कह पाते तो इस्मत चुगताई भी। मंटो ने इस्मत को भी बड़े अलहदा ढंग से याद किया है इस दिलचस्पी के साथ कि लोग हमारा नाम यों जोड़ते हैं जैसे बंबई में राजकपूर और नरगिस। बहरहाल खत किसी के नाम लिखे लिखाए हों तो आलसी डाकिया छज्जे पर फेंकने भर से गुरेज नहीं करता। शुक्रिया हिन्दुस्तान समाचार पत्र का जिसने इस्मत चुगताई की आत्मकथा कागज़ी है पैरहन किताब के मार्फत इस्मत आपा की 'लिहाफ' और मंटो की 'बू' पर फहाशी का मुकदमा चला। पेश है वो तस्वीर जो मंटो अपने लक्ष्य को लेकर किस हद तक स्पष्ट था यह ज्ञात होता है। वैसे मेरे एक मित्र सुशील कुमार छौक्कड़ ने जब फेसबुक पर यह संदेश डाला कि "मंटो का सौवां जन्मदिन 11 मई को और कोई हलचल नहीं, अफसोस" तो कार्टूनिस्ट काजल कुमार ने सही लिखा कि "न वोट, न गुट तो मंटो कौन?"
*****
44 में दिसम्बर के महीने में सम्मन मिला कि हमें जनवरी में कोर्ट में हाजिर होना है। सब कह रहे थे जेल-वेल नहीं, बस जुर्माना हो जाएगा। और हम बड़े जोश से लाहौर के लिए गर्म कपड़े तैयार करवाने लगे।
सीमा बहुत छोटी और कमजोर थी और बड़ी ऊंची आवाज से रोती थी। चाइल्ड स्पेशलिस्ट को दिखाया तो उसने कहा, बिल्कुल तन्दुरुस्त है, यूं ही गुल मचाती है। उसे लाहौर की सर्दी में ले जाना ठीक न था। एकदम इतनी सर्दी न ङोल सकेगी। तो हमने बच्चाी को अलीगढ़, सुल्ताना जाफरी की अम्मा के पास छोड़ा और लाहौर रवाना हो गए। देहली से शाहिद अहमद देहलवी और वह कातिब जिन्होंने किताबत की थी, साथ हो गए थे, क्योंकि बादशाह सलामत ने उन्हें भी मुलजिम करार दिया था। यह मुकद्दमा अदबे-लतीफ पर नहीं, बल्कि उस किताब पर चला था, जो शाहिद अहमद देहलवी ने छापी थी। हमें सुल्ताना लेने आ गई। वह उन दिनों लाहौर रेडियो स्टेशन पर काम करती थी और लुकमान साहब के यहां रहती थी। उनकी बड़ी शानदार कोठी थी। बीवी-बच्चाे मैके गए हुए थे, इसलिए बस अपना ही राज था। मंटो भी पहुंच गए थे और पहुंचते ही हमारी खूब दावतें हुईं। ज्यादातर तो मंटों के दोस्त थे, मगर मुङो भी अजूबा जानवर समझकर देखने आ जाते थे। हमारी एक दिन पेशी हुई, कुछ भी न हुआ। बस जज ने नाम पूछा और यह कि मैंने यह कहानी लिखी है या नहीं। मैंने इकबाले-जुर्म किया कि लिखी है। बस। बड़ी ना-उम्मीदी हुई। सारे वक्त कुछ हमारे वकील साहब बोलते रहे। हम चूंकि आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे, कुछ पल्ले नहीं पड़ा। उसके बाद दूसरी पेशी पड़ गई और हम आजाद होकर गुलर्छे उड़ाने लगे। मैं, मंटो, शाहिद तांगे में बैठकर खूब शॉपिंग करते फिरे। कश्मीरी दोशाले और जूते खरीदे। जूतों की दुकान पर मंटो के नाजुक सफेद पैर देखकर मुङो बड़ा रश्क आया। अपने भद्दे पैर को देखकर मोर की तरह मातम को जी चाहा।
‘मुङो अपने पैरों से घिन आती है,’ मंटो ने कहा।
‘क्यों? इतने खूबसूरत हैं।’ मैंने बहस की।
‘मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं।’
‘मगर जनानियों से तो इतनी दिलचस्पी है आपको!’
‘आप तो उल्टी बहस करती हैं। मैं औरत से मर्द की हैसियत से प्यार करता हूं। इसका मतलब यह तो नहीं कि खुद जनाना बन जाऊं।’
‘हटाइए भी जनाने और मर्दाने की बहस को, इनसानों की बात कीजिए। पता है नाजुक पैरोंवाले मर्द बड़े हिस्सास और जहीन होते हैं। मेरे भाई अजीम बेग चुगताई के पैर भी बड़े खूबसूरत हुआ करते थे। मगर..।’
.. लाहौर कितना खूबसूरत था! आज भी वैसा ही शादाब कहकहे लगाता हुआ, बाहें फैलाकर आनेवालों को समेट लेनेवाला। टूटकर चाहनेवाले बे-तकल्लुफ जिंदा-दिलों का शहर, पंजाब का दिल। तब मेरे दिल से बेसाख्ता शहंशाह बर्तानिया के हक में दुआइया कलमे निकलने लगे कि उन्होंने हम पर मुकदमा चलाकर लाहौर में ऐश करने का सुनहरा मौका दिया। हम दूसरी पेशी का बड़ी बेकरारी से इंतजार करने लगे। चाहे फांसी भी हो तो कोई परवा नहीं, अगर लाहौर में हुई तो यकीनन शहादत का रुतबा पाएंगे और लाहौरवाले बड़ी धूम से हमारे जनाजे उठाएंगे। दूसरी पेशी नवम्बर के खुशगवार मौसम में पड़ी, यानी 1946 ई. में। शाहिद अपनी फिल्म में उलङो हुए थे। सीमा की आया बहुत होशियार थी और अब सीमा बहुत मोटी-ताजी और तंदुरुस्त थी। इसलिए मैंने उसे बंबई में छोड़ा और खुद हवाई जहाज से देहली और वहां से शाहिद अहमद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गई। कातिब साहब से बड़ी शर्मिदगी होती थी, वह बेचारे मुफ्त में घसीट लिए गए। बड़े शामोश, मिस्कीन से थे। हमेशा आंखें झुकीं, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर एहसासे-जुर्म एकदम उभर जाता था। मेरी किताब की किताबत में फंस गए। मैंने उनसे पूछा-
‘आपकी क्या राय है? क्या हम मुकद्दमा हार जाएंगे?’
‘मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने कहानी नहीं पढ़ी।’
‘मगर कातिब साहब, आपने किताबत की है।’
‘मैं अलफाज जुदा-जुदा देखता हूं और लिख देता हूं। उनके मानी पर गौर नहीं करता।’
‘कमाल है! और छपने के बाद भी नहीं पढ़ते?’
‘पढ़ता हूं, कहीं गलती तो नहीं रह गई।’
‘अलग-अलग अलफाज!’
‘जी हां!’ उन्होंने नदामत से सर झुका लिया। थोड़ी देर बाद बोले-
‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानेंगी!’
‘नहीं।’
‘आप कियां (के यहां) इमला की बहुत गलतियां होती हैं।’
‘हां, वो तो होती हैं। अस्ल में सीन, से और साद में गड़बड़ा जाती हूं। जो, जाद, जे, जाल में भी बहुत कनफ्यूजन होता है। यही हाल छोटी हे, बड़ी हे और दोचश्मी हे का है।’
‘आपने तख्तियां नहीं लिखीं?’
‘बहुत लिखीं। और मुस्तकिल इन्हीं गलतियों पर बहुत मार खाई मगर..।’
‘दरअस्ल जैसे मैं अलफाज पर ध्यान देता हूं, मानी की तरफ तवज्जह नहीं देता, इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती हैं कि हरूफ पर तवज्जह नहीं देतीं।’
‘ऊंह!’ अल्लाह कातिबों को जीता रखे, वो मेरी आबरू रख लेंगे। मैंने सोचा और टाल दिया।
.. पेशी के दिन हम कोर्ट में हाजिर हुए और वह गवाह पेश हुए जिन्हें यह साबित करना था कि मंटो की ‘बू’ और मेरा ‘लिहाफ फुहश’ हैं। मेरे वकील ने मुङो समझा दिया कि जब तक मुझसे बराहे-रास्त सवाल न किया जाए, मैं मुंह न खोलूं। वकील खुद जो मुनासिब समङोगा करेगा।
पहले ‘बू’ का नंबर आया।
‘ये कहानी फुहश है?’ - मंटो के वकील ने पूछा।
‘जी हां,’ गवाह बोला।
‘किस लफ्ज से आपको मालूम हुआ कि फुहश है?’
गवाह : ‘लफ्ज ‘छाती’।’
वकील : ‘माइ लॉर्ड, लफ्ज छाती फुहश नहीं है।’
जज : ‘दुरुस्त।’
वकील : ‘लफ्ज छाती फुहश नहीं है?’
गवाह : ‘नहीं, मगर यहां मुसन्निफ ने औरत के सीने को छाती कहा है।’
मंटो एकदम से खड़ा हो गया और बोला-
‘औरत के सीने को छाती न कहूं तो क्या मूंगफली कहूं?’
कोर्ट में कहकहा पड़ा। मंटो भी हंसने लगा। ‘अगर मुलजिम ने फिर इस किस्म का छिछोरा मजाक किया तो कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के जुर्म में बाहर निकाल दिया जाएगा या माकूल सजा दी जाएगी।’ मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह समझ गया। बहस चलती रही और घूम-फिरके गवाहों को बस एक ‘छाती’ मिलता था जो फुहश साबित न हो पाता था। ‘लफ्ज छाती फुहश है, घुटना या कुहनी क्यों फुहश नहीं?’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास!’ मंटो भड़क उठा। बहस चलती रही। हम लोग उठकर बरामदे में डगर-डगर करती बेंचों पर जा बैठे। अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाए थे। उन्होंने नफासत से माल्टे खाने की तरकीब बताई। माल्टे को आम की तरह पिलपिलाकर छोटा सा सुराख कर लो और मजे से चूसते रहो। टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गए। माल्टों से पेट भरने के बजाय और शिद्दत से भूख जाग उठी। लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोला दिया। सीमा की पैदाइश के सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी, सारी चर्बी छट गई थी, गुरग्गन खानों का परहेज नहीं रहा था। मुर्गी इतनी कवी-हेकल थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के टुकड़े लग रहे थे। मोटी-मोटी, काली मिर्च छिड़ककर गर्म-गर्म कुल्चों के साथ और पानी की जगह कंधारी अनार का रस। बे-इख्तियार जी से मुकद्दमा चलानेवालों के लिए दुआ निकल रही थी।
..
कोर्ट में बड़ी भीड़ थी। कई असहाब हमें राय दे चुके थे कि हम मुआफी मांग लें। वो जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे। मुकद्दमा कुछ ठंडा पड़ता जा रहा था। ‘लिहाफ’ को फुहश साबित करनेवाले हमारे गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ बौखला से रहे थे। कहानी में कोई लफ्ज काबिले-गिरफ्त नहीं मिल रहा था। बड़े सोच-विचार के बाद एक साहब ने फरमाया कि ये जुमला ‘..आशिक जमा कर रही थीं,’ फुहश है।
‘कौन सा लफ्ज फुहश है? जमा या आशिक? वकील ने पूछा।’
‘लफ्ज आशिक!’ गवाह ने जरा तकल्लुफ से कहा।
‘माई लॉर्ड लफ्ज आशिक बड़े-बड़े शुअरा ने बड़ी फरावानी से इस्तेमाल किया है और नातों में इस्तेमाल किया गया है। इस लफ्ज को अल्लाहवालों ने बड़ा मुकद्दस मुकाम दिया है।’
‘मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी मायूब बात है,’ गवाह ने फरमाया।
‘क्यों?’
‘इसलिए, क्योंकि..ये शरीफ लड़कियों के लिए मायूब बात है।’
‘जो लड़कियां शरीफ नहीं उनके लिए मायूब नहीं?’
‘अ..नहीं।’
‘मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का जिक्र किया है जो शरीफ नहीं होंगी। क्यों साहब, बकौल आपके, गैर-शरीफ लड़कियां आशिक जमा करती हैं?’
‘जी हां।’
‘उनका जिक्र करना फुहाशी नहीं। मगर एक शरीफ खानदान की तालीमयाफ्ता औरत का उनके बारे में लिखना काबिले-मलामत है,’ गवाह साहब जोर से गरजे।
‘तो शौक से मलामत फरमाइए, मगर कानून की गिरफ्त के काबिल नहीं।’
मुआमला बिल्कुल फुसफुसा हो गया।
‘अगर आप लोग मुआफी मांग लें तो हम आपका सारा खर्चा भी देंगे और..’ एक साहब न जाने कौन थे, चुपके से मेरे पास आकर बोले।
‘क्यों मंटो साहब, मुआफी मांग लें! जो रुपए मिलेंगे, मजे से चीजें खरीदेंगे।’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास,’ मंटो ने अपनी मोरपंखी आंखें फैलाकर कहा।
‘मुङो अफसोस है, यह सरफिरा मंटो राजी नहीं।’
‘मगर आप! अगर आप ही..।’
‘नहीं, आप नहीं जानते। यह शख्स बड़ा फित्तीन है। बंबई में मेरा रहना दूभर कर देगा। इसके गुस्से से वह सजा बदजर्हा बेहतर होगी जो मुङो मिलनेवाली है।’ वह साहब उदास हो गए क्योंकि हमें सजा नहीं मिली। जज साहब ने मुङो कोर्ट के पीछे एक कमरे में तलब किया और बड़े तपाक से बोले, ‘मैंने आपकी कहानियां पढ़ी हैं और वो फुहश नहीं। और न ‘लिहाफ’ फुहश है। मगर मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी होती है।’
‘दुनिया में भी गलाजत भरी है,’ मैं मखनी आवाज में बोली।
‘तो क्या जरूरी है कि उसे उछाला जाए!’
‘उछालने से वह नजर आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा सकता है।’
जज साहब हंस दिए।
न मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई। बल्कि गम ही हुआ कि अब फिर लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी।
‘मुङो अपने पैरों से घिन आती है,’ मंटो ने कहा।
‘क्यों? इतने खूबसूरत हैं।’ मैंने बहस की।
‘मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं।’
‘मगर जनानियों से तो इतनी दिलचस्पी है आपको!’
‘आप तो उल्टी बहस करती हैं। मैं औरत से मर्द की हैसियत से प्यार करता हूं। इसका मतलब यह तो नहीं कि खुद जनाना बन जाऊं।’
‘हटाइए भी जनाने और मर्दाने की बहस को, इनसानों की बात कीजिए। पता है नाजुक पैरोंवाले मर्द बड़े हिस्सास और जहीन होते हैं। मेरे भाई अजीम बेग चुगताई के पैर भी बड़े खूबसूरत हुआ करते थे। मगर..।’
.. लाहौर कितना खूबसूरत था! आज भी वैसा ही शादाब कहकहे लगाता हुआ, बाहें फैलाकर आनेवालों को समेट लेनेवाला। टूटकर चाहनेवाले बे-तकल्लुफ जिंदा-दिलों का शहर, पंजाब का दिल। तब मेरे दिल से बेसाख्ता शहंशाह बर्तानिया के हक में दुआइया कलमे निकलने लगे कि उन्होंने हम पर मुकदमा चलाकर लाहौर में ऐश करने का सुनहरा मौका दिया। हम दूसरी पेशी का बड़ी बेकरारी से इंतजार करने लगे। चाहे फांसी भी हो तो कोई परवा नहीं, अगर लाहौर में हुई तो यकीनन शहादत का रुतबा पाएंगे और लाहौरवाले बड़ी धूम से हमारे जनाजे उठाएंगे। दूसरी पेशी नवम्बर के खुशगवार मौसम में पड़ी, यानी 1946 ई. में। शाहिद अपनी फिल्म में उलङो हुए थे। सीमा की आया बहुत होशियार थी और अब सीमा बहुत मोटी-ताजी और तंदुरुस्त थी। इसलिए मैंने उसे बंबई में छोड़ा और खुद हवाई जहाज से देहली और वहां से शाहिद अहमद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गई। कातिब साहब से बड़ी शर्मिदगी होती थी, वह बेचारे मुफ्त में घसीट लिए गए। बड़े शामोश, मिस्कीन से थे। हमेशा आंखें झुकीं, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर एहसासे-जुर्म एकदम उभर जाता था। मेरी किताब की किताबत में फंस गए। मैंने उनसे पूछा-
‘आपकी क्या राय है? क्या हम मुकद्दमा हार जाएंगे?’
‘मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने कहानी नहीं पढ़ी।’
‘मगर कातिब साहब, आपने किताबत की है।’
‘मैं अलफाज जुदा-जुदा देखता हूं और लिख देता हूं। उनके मानी पर गौर नहीं करता।’
‘कमाल है! और छपने के बाद भी नहीं पढ़ते?’
‘पढ़ता हूं, कहीं गलती तो नहीं रह गई।’
‘अलग-अलग अलफाज!’
‘जी हां!’ उन्होंने नदामत से सर झुका लिया। थोड़ी देर बाद बोले-
‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानेंगी!’
‘नहीं।’
‘आप कियां (के यहां) इमला की बहुत गलतियां होती हैं।’
‘हां, वो तो होती हैं। अस्ल में सीन, से और साद में गड़बड़ा जाती हूं। जो, जाद, जे, जाल में भी बहुत कनफ्यूजन होता है। यही हाल छोटी हे, बड़ी हे और दोचश्मी हे का है।’
‘आपने तख्तियां नहीं लिखीं?’
‘बहुत लिखीं। और मुस्तकिल इन्हीं गलतियों पर बहुत मार खाई मगर..।’
‘दरअस्ल जैसे मैं अलफाज पर ध्यान देता हूं, मानी की तरफ तवज्जह नहीं देता, इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती हैं कि हरूफ पर तवज्जह नहीं देतीं।’
‘ऊंह!’ अल्लाह कातिबों को जीता रखे, वो मेरी आबरू रख लेंगे। मैंने सोचा और टाल दिया।
.. पेशी के दिन हम कोर्ट में हाजिर हुए और वह गवाह पेश हुए जिन्हें यह साबित करना था कि मंटो की ‘बू’ और मेरा ‘लिहाफ फुहश’ हैं। मेरे वकील ने मुङो समझा दिया कि जब तक मुझसे बराहे-रास्त सवाल न किया जाए, मैं मुंह न खोलूं। वकील खुद जो मुनासिब समङोगा करेगा।
पहले ‘बू’ का नंबर आया।
‘ये कहानी फुहश है?’ - मंटो के वकील ने पूछा।
‘जी हां,’ गवाह बोला।
‘किस लफ्ज से आपको मालूम हुआ कि फुहश है?’
गवाह : ‘लफ्ज ‘छाती’।’
वकील : ‘माइ लॉर्ड, लफ्ज छाती फुहश नहीं है।’
जज : ‘दुरुस्त।’
वकील : ‘लफ्ज छाती फुहश नहीं है?’
गवाह : ‘नहीं, मगर यहां मुसन्निफ ने औरत के सीने को छाती कहा है।’
मंटो एकदम से खड़ा हो गया और बोला-
‘औरत के सीने को छाती न कहूं तो क्या मूंगफली कहूं?’
कोर्ट में कहकहा पड़ा। मंटो भी हंसने लगा। ‘अगर मुलजिम ने फिर इस किस्म का छिछोरा मजाक किया तो कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के जुर्म में बाहर निकाल दिया जाएगा या माकूल सजा दी जाएगी।’ मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह समझ गया। बहस चलती रही और घूम-फिरके गवाहों को बस एक ‘छाती’ मिलता था जो फुहश साबित न हो पाता था। ‘लफ्ज छाती फुहश है, घुटना या कुहनी क्यों फुहश नहीं?’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास!’ मंटो भड़क उठा। बहस चलती रही। हम लोग उठकर बरामदे में डगर-डगर करती बेंचों पर जा बैठे। अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाए थे। उन्होंने नफासत से माल्टे खाने की तरकीब बताई। माल्टे को आम की तरह पिलपिलाकर छोटा सा सुराख कर लो और मजे से चूसते रहो। टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गए। माल्टों से पेट भरने के बजाय और शिद्दत से भूख जाग उठी। लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोला दिया। सीमा की पैदाइश के सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी, सारी चर्बी छट गई थी, गुरग्गन खानों का परहेज नहीं रहा था। मुर्गी इतनी कवी-हेकल थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के टुकड़े लग रहे थे। मोटी-मोटी, काली मिर्च छिड़ककर गर्म-गर्म कुल्चों के साथ और पानी की जगह कंधारी अनार का रस। बे-इख्तियार जी से मुकद्दमा चलानेवालों के लिए दुआ निकल रही थी।
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कोर्ट में बड़ी भीड़ थी। कई असहाब हमें राय दे चुके थे कि हम मुआफी मांग लें। वो जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे। मुकद्दमा कुछ ठंडा पड़ता जा रहा था। ‘लिहाफ’ को फुहश साबित करनेवाले हमारे गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ बौखला से रहे थे। कहानी में कोई लफ्ज काबिले-गिरफ्त नहीं मिल रहा था। बड़े सोच-विचार के बाद एक साहब ने फरमाया कि ये जुमला ‘..आशिक जमा कर रही थीं,’ फुहश है।
‘कौन सा लफ्ज फुहश है? जमा या आशिक? वकील ने पूछा।’
‘लफ्ज आशिक!’ गवाह ने जरा तकल्लुफ से कहा।
‘माई लॉर्ड लफ्ज आशिक बड़े-बड़े शुअरा ने बड़ी फरावानी से इस्तेमाल किया है और नातों में इस्तेमाल किया गया है। इस लफ्ज को अल्लाहवालों ने बड़ा मुकद्दस मुकाम दिया है।’
‘मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी मायूब बात है,’ गवाह ने फरमाया।
‘क्यों?’
‘इसलिए, क्योंकि..ये शरीफ लड़कियों के लिए मायूब बात है।’
‘जो लड़कियां शरीफ नहीं उनके लिए मायूब नहीं?’
‘अ..नहीं।’
‘मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का जिक्र किया है जो शरीफ नहीं होंगी। क्यों साहब, बकौल आपके, गैर-शरीफ लड़कियां आशिक जमा करती हैं?’
‘जी हां।’
‘उनका जिक्र करना फुहाशी नहीं। मगर एक शरीफ खानदान की तालीमयाफ्ता औरत का उनके बारे में लिखना काबिले-मलामत है,’ गवाह साहब जोर से गरजे।
‘तो शौक से मलामत फरमाइए, मगर कानून की गिरफ्त के काबिल नहीं।’
मुआमला बिल्कुल फुसफुसा हो गया।
‘अगर आप लोग मुआफी मांग लें तो हम आपका सारा खर्चा भी देंगे और..’ एक साहब न जाने कौन थे, चुपके से मेरे पास आकर बोले।
‘क्यों मंटो साहब, मुआफी मांग लें! जो रुपए मिलेंगे, मजे से चीजें खरीदेंगे।’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास,’ मंटो ने अपनी मोरपंखी आंखें फैलाकर कहा।
‘मुङो अफसोस है, यह सरफिरा मंटो राजी नहीं।’
‘मगर आप! अगर आप ही..।’
‘नहीं, आप नहीं जानते। यह शख्स बड़ा फित्तीन है। बंबई में मेरा रहना दूभर कर देगा। इसके गुस्से से वह सजा बदजर्हा बेहतर होगी जो मुङो मिलनेवाली है।’ वह साहब उदास हो गए क्योंकि हमें सजा नहीं मिली। जज साहब ने मुङो कोर्ट के पीछे एक कमरे में तलब किया और बड़े तपाक से बोले, ‘मैंने आपकी कहानियां पढ़ी हैं और वो फुहश नहीं। और न ‘लिहाफ’ फुहश है। मगर मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी होती है।’
‘दुनिया में भी गलाजत भरी है,’ मैं मखनी आवाज में बोली।
‘तो क्या जरूरी है कि उसे उछाला जाए!’
‘उछालने से वह नजर आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा सकता है।’
जज साहब हंस दिए।
न मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई। बल्कि गम ही हुआ कि अब फिर लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी।
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आभार : हिंदुस्तान