Monday, August 13, 2012

एक कविता सुरजीत पातर की..

अब घर को लौटना बहुत मुश्किल है..
कौन पहचान पायेगा हमें..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और
आँखों में कोई चमक है..
किसी ढह चुके घर से आती है रोशनी सी..

डर जायेगी मेरी माँ..
मेरा पुत्र..मुझसे बड़ी उम्र का..?
किस साधू का श्राप लगा है इसे..?
किस जलन की मारी ने कर दिया जादू टोना..
डर जाएगी मेरी माँ..
अब घर को लौटना अच्छा नहीं...

इतने डूब चुके सूरज..
इतने मर चुके खुदा..
जीती जागती माँ को देख कर..
उसके या खुद के प्रेत होने का होगा भ्रम..
जब मिलेगा कोई दोस्त पुराना..
बहुत याद आयेगा अपने अंदर से..
मर चुका मोह..
रोना आयेगा अपने पर और फिर याद आयेगा..
आँसू तो रखे रह गये मेरे दूसरे कोट की जेब में..

जब हाथ रखेगी सर पर मेरे ईसरी..
देगी असीस कोई..
किस तरह बताऊंगा मैं..
कि इस सर में छुपे हुए है ख़्याल किस तरह के..
अपनी ही लाश ले जाता आदमी..
पति की चिता पर खाना पकाती कोई हैमलिट
जाड़ों में लोगो की चिता की आग सेंकने वाला खुदा..
जिन आँखों से देखे है मैंने दुखांत..
किस तरह मिलाऊँगा ऑंखें..
अपने बचपन की तस्वीर से..

शाम को जब मढ़ी का दिया जलेगा..
गुरद्वारे शंख बजेगा..
वह बहुत याद आयेगा..
वह कि जो मर गया..
वह कि जिस की मौत का..
इस भरी नगरी में सिर्फ़ मुझको पता है..

अगर किसी ने अब मेरे मन की तलाशी ले ली..
तो रह जाउंगा बहुत अकेला ..
किसी दुश्मन देश के जासूस की तरह..
अब घरों में बसना आसान नहीं..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और...

(मूल पंजाबी से अनुदित)

3 comments:

  1. सही ही हुआ नहीं मिलने गया पिताजी से अबकी । उनको भी 'उस एक की' मौत की इत्तला देनी पड़ती ख़ामख़्वाह ।

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  2. ख़ामख़्वाह खुद से उलझना ठीक नहीं....

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  3. अपनी ही लाश ले जाता आदमी..
    पति की चिता पर खाना पकाती कोई हैमलिट जाड़ों में लोगो की चिता की आग सेंकने वाला खुदा..

    ReplyDelete

जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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