Tuesday, July 27, 2010

एक भूमिका और रिल्के का पहला ख़त

   यूरोप के विएना शहर की सन्‌ 1888 के पतझड़ की एक शाम।

  बलूत के पेड़ तले झड़ती पत्तियों के बीच एक कमजोर और दुबला सा लड़का उदास बैठा हुआ था। अपने कुल तेरह साल के जीवन के धूसर से रंगों के बीच उलझा, हताश। अपने ही अनबुझ सवालों से परेशान, कि आखिर जिंदगी उससे चाहती क्या है? वो अपनी जिंदगी से क्या चाहता है? ..और उसके माँ-बाप क्या चाहते हैं उससे? पिता, जो फ़ौज की नौकरी पूरी लगन से करने के बावजूद कोई खास ओहदा हासिल नही कर पाये थे, अपने बेटे को फ़ौज का बहुत बड़ा ऑफ़िसर बनाना चाहते थे। वहीं अभिजात्य संस्कारों वाली माँ अपनी पहली संतान जो कि बेटी थी, के असमय गुजर जाने से इतना व्यथित रहती थीं, कि अपने बेटे को एक लड़की की तरह रखती थीं। यहाँ तक कि उसका बचपन लड़कियों वाले पहनावों और लड़कियों वाले नामों के साथ बीता था।


   अपने पिता की प्रछन्न महत्वाकाँक्षा के बोझ तले वह ग्यारह साल की उम्र मे ही घर से बहुत दूर वियेना की उस मिलिट्री अकादमी मे पहुँचा दिया गया था, जो कि अपनी कठिन जीवन-शैली और कठोर अनुशासन के लिये प्रख्यात था। मगर उसके कच्चे मन की मिट्टी सैन्य-प्रशिक्षण की दहकती भट्ठी मे तप कर एक आर्मी ऑफ़िसर मे ढल जाने के लिये नही बनी थी। उसका संवेदनशील मन तो तितलियों के सतरंगे परों, सुबह के शर्माये गालों की लाली या घास की नोक पर उनींदी पड़ी ओस के दिवास्वप्नों मे ही रमा रहता था। नतीजन अकादमी का कठोर अनुशासन उसके कृशकाय शरीर और उससे भी नाजुक मन को चक्की सा पीसे डाल रहा था। अपनी दमतोड़ कोशिशों के बावजूद भी वह शारीरिक कार्य-कलापों, खेल-कूद, कसरत जैसे विषयों मे हर बार फ़िसड्डी रहता था। गुस्सैल शिक्षकों की निरंतर डाँट-फटकार और खिल्ली उड़ाते साथियों के बीच वह बहुत एकाकी होता जा रहा था, खुद के भीतर गुम (हाँ, और यहतारे जमीं परसे करीब सवा सौ साल पहले की बात है) और ऐसे दमघोंटू माहौल मे उसे बस एक चीज का हारा मिला, कविता का। उदासी के गहन क्षणों मे उसकी कापियों के पिछले पन्ने तमाम अनगढ़ और कच्ची कविताओं से भर जाते थे। उसके सारे सुख-दुःख, अनगिन शिकायतें, सारा अवसाद, तमाम अकेलेपन के आँसू शब्दों मे ढल कर कविता के रास्ते बहने लगते थे। और अकादमी के कठोर प्रशिक्षण की जितनी असफ़लता, जितनी उपेक्षा और निराशा उसके शरीर को बीमार और जिंदगी को तकलीफ़देह बनाती जाती थी, उतना ही उसका मन साहित्य और किताबों मे रमता जाता था।


  खैर, अकादमी के पाँच कष्टकर सालों की असफ़लता और उसकी खराब होती तबियत के बीच जब पिता को यह समझ गया कि उसका बेटा फ़ौज की कठोर जिंदगी के काबिल नही है, तब हार कर उन्होने उसे अकादमी से निकाल लिया। आगे की पढ़ाई करते हुए अगले कुछ सालों मे वह तमाम यूरोप की खाक छानता रहा। अपनी जिंदगी के उन्ही सवालों की तलाश मे, कि आ्खिर उसका प्रारब्ध कहाँ है! मगर जिंदगी तो उस सवाल का जवाब पहले ही चुन चुकी थी। साँझ के उस टिमटिमा्ते तारे को बीसवी सदी के साहित्यिक आकाश के सबसे चमकदार सितारों मे से एक होना था।


   यहाँ हम बात कर रहे हैं रेनर मारिया रिल्के की, जो जर्मन भाषा के सबसे प्रतिभाशाली और विख्यात साहित्यकारों मे माने जाते हैं। एक ऐसा कवि जो अपने साहित्य मे, अपनी कविताओं मे जीता था, अपनी कविताओं के लिये जीता था। एक कवि जिसमे कविताएँ जीती थीं, साँस लेती थीं। रिल्के अबुझ मानवीय संवेदनाओं के ऐसे कुशल चितेरे थे, जिनकी कविताएँ हमारे अंतर्मन के सबसे गहरे धरातल को स्पर्श करती हैं, मन के सबसे अँधेरे कोनों मे रोशनी करती हैं। उनकी कविताएँ एक उत्सुक बच्चे की तरह आस-पास की हर चीज के बारे मे सवाल करती हैं, दुनिया के बारे मे, प्रकृति के बारे मे, ईश्वर के बारे मे, हमारे होने के बारे मे। मगर कविूताओं के केंद्र मे सृष्टि का सबसे मूलभूत भाव होता है, प्रेम। एक सूफ़ियाना किस्म का प्रेम, जिसमे से यह सृष्टि आकार लेती है और उसी मे विलीन हो जाती है।


    रिल्के के मिलिट्री अकादमी के वक्त के करीब बारह वर्षों के बाद 1902 मे फिर एक बार अकादमी के उसी बलूत के पेड़ के नीचे एक लड़का उदास सा बैठा है। हाथ मे अपनी कविताएँ लिये, जो कि पत्रिकाओं से खारिज हो कर वापस गयी थी। उसके सामने भी भविष्य की यही उलझन है, कि क्या वो फ़ौज का सम्मानित और ओहदेदार भविष्य चुने, जिसके लिये वह अकादमी मे भर्ती हुआ है, या फिर कविता का रास्ता चुने, जो उसके मन के लिये अधिक तुष्टिदायक और आत्मा के करीब है? और ऐसे मे अपने प्रोफ़ेसर के द्वारा उसे पता चलता है रिल्के का नाम, जो कि पंद्रह वर्ष पहले इसी जगह पर इन्ही परिस्थितियों और सवालों से गुजर चुके थे। बस फिर फ़्रैंज कापुस नाम का वह लड़का अपनी सारी उलझनें ख़त मे लिख कर और अपनी कुछ कविताओं के साथ रिल्के को भेज देता है। उस ख़त को पढ़ कर रिल्के को उस लड़के मे अपना पंद्रह साल पहले का अक्स नजर आता है। निराशा और अनिश्चितता के गहरे भँवर मे फ़ँसे लड़के का मार्गदर्शन करना उनको अपना दायित्व महसूस होता है। और वे अपना स्नेहपूर्ण मगर ईमानदार प्रत्युत्तर उसको भेज देते हैं। फिर तो ख़तो-क़िताबत का यह सिलसिला चल निकलता है। और नतीजन सामने आती है रिल्के के दस अविस्मरणीय पत्रों की वह अद्भुत श्रंखला, जो रिल्के के निधन के बाद उसी फ़्रैंज कापुस के प्रयासों से पुस्तकाकार रूप मे प्रकाशित हुए, ’लेटर्स टु यंग पोएट नाम से।


   यह दस पत्र विश्व-साहित्य की वह अनमोल धरोहर हैं, जिनकी प्रासंगिकता इनके लिखे जाने के एक सदी बाद भी और ज्यादा बढ़ती ही गयी है। साहित्य, कला, प्रेम, एकाकीपन, आस्तिकता, दर्शन, जीविका जैसे तमाम जरूरी विषय हर वक्त की पीढ़ी के लिये उतने ही प्रासंगिक होते हैं। इसीलिये जिंदगी के ऐसे तमाम पहलुओं पर रोशनी डालते हुए यह पत्र सौ सालों के बाद भी उतने ही प्रेरणाप्रद, उतने ही मार्गदर्शक हैं, जितने कि कभी फ़्रैंज कापुस के लिये रहे होंगे। इन्हे पढ़ते हुए हम खुद अपनी जिंदगी के तमाम मुश्किल सवालों के जवाब इन ख़तों के जरिये तलाश पाते हैं। इन ख़तों के बहाने इस जीनियस के विचारों को पढ़ते वक्त यह यकीं कर पाना मुश्किल होता है कि यह एक सिर्फ़ सत्ताइस साल के युवा कवि के विचार हैं।


   रिल्के के बारे मे हम दोबारा कभी भी ढेरों बाते करेंगे, फ़िलहाल बैरंग विचारों को पनाह देते इस ब्लॉग की शुरुआत हम रिल्के की इसी पत्र-श्रंखला के सबसे पहले ख़त से कर रहे हैं। इसका अंग्रेजी अनुवाद जॉन बुर्न्हम ने किया था, जिसको अनगढ़ हिंदी मे आपके सामने रखने का एक कच्चा प्रयास किया गया है। अगर वक्त ने साथ दिया तो श्रंखला के दूसरे पत्रों को भी साझा करने की कोशिश करूँगा, फिलहाल देखते हैं रिल्के का फ़्रैंज को पहला पत्र जो उन्होने उस युवा कवि को जवाब देते वक्त तब लिखा था, जब फ़्रैंज ने उन्हे अपनी कविता, आलोचना और जीवन संबंधी दुविधाएँ खत मे अपनी कुछ कविताओं के साथ लिख भेजी थीं। रिल्के का यह ख़त एक नवोदित कवि-मन की उलझन ही नही वरन्आज के युवा की कैरियर संबंधी तमाम दुविधाओं को सुलझाने मे भी मदद करता है।

रेनर मारिया रिल्के का पहला पत्र फ़्रैंज कापुस के नाम

पेरिस
17 फ़रवरी 1903
मान्यवर

   आपका पत्र मुझे कुछ दिन पहले ही मिला था। इसमे आपने मुझ पर जो प्यार भरा विश्वास जताया है, इसके लिये मैं आपका बेहद शुक्रगुजार हूँ। मैं इससे ज्यादा क्या कहूँ? मैं आपकी कविताओं की शैली पर कोई टिप्पणी नही कर सकता हूँ; आलोचना मेरे स्वभाव का हिस्सा नही है। किसी कला-कर्म के लिये आलोचनात्मक शब्दों से ज्यादा गैरजरूरी कुछ भी नही होता। क्योंकि अक्सर वो कोई दुर्भाग्यपूर्ण गलतफ़हमी ही पैदा करते हैं, कभी कुछ कम या कभी ज्यादा। चीजें अक्सर उतनी स्पष्ट नही होतीं, जितना आसान कि लोग आमतौर पर उन्हे मान लिया करते हैं, ही उनको व्यक्त कर पाना इतना सरल ही होता है। देखा जाय तो हमारी तमाम अनुभूतियाँ अक्सर अभिव्यक्ति के दायरे के बाहर होती हैं, हमारे शब्दों की दुनिया से परे। और उन सबसे भी ज्यादा शब्दातीत चीज होती है कला, या कला-कर्म, जिनका रहस्यमय अस्तित्व हमारे तनिक से जीवन से बहुत ज्यादा लम्बा होता है।

    शुरुआत मे ये सारी बातें कह देने के बाद अब मैं आप से यह बोल पाने की हिमाकत कर सकता हूँ, कि आपकी रचनाओं की अभी कोई अपनी व्यक्तिगत शैली नही है। फिर भी उनमे कुछ बेहद निजी भावों को व्यक्त कर पाने की एक मूक सी अंतर्निहित चाह झलकती है। खासकर आपकी आखिरी कविता ’My Soul' मे मैने यह बात महसूस की है। जिसमे आपका कोई अंदरूनी भाव खुद को व्यक्त करने के लिये, शब्दों मे ढल पाने के लिये व्याकुल है। ऐसे ही आपकी खूबसूरत कविता ’To Leopardi' मे भी कुछ है, कोई महानता के निकट का एकाकी सा भाव, पूर्णता की हद तक पहुँचने को बेकरार। मगर फिर भी आपकी रचनाएँ स्वयं मे स्वतंत्र नही हैं, सो उत्कृष्टता की हद तक नही पहुँच पाती हैं। आखिरी वाली और लियोपार्डी वाली भी नही। साथ मे भेजे अपने स्नेहिल पत्र मे आप भी अपनी उन कमियों का जिक्र करना और उन्हे स्वीकार करना नही भूले हैं; जिन्हे मैं आपकी कविता पढ़ कर महसूस तो कर सकता था, मगर शायद शब्द नही दे पाता।

  आपने पूछा है कि आपकी कविताएँ अच्छी हैं या नही। आप अन्य लोगों से भी यह बात पूछ चुके हैं। आप दूसरों की कविताओं से भी इनकी तुलना करते रहते हैं। आपने इन्हें प्रकाशकों के पास भी भेजा है। और जब कुछ प्रकाशकों ने इन्हे खारिज कर दिया तो आप काफ़ी निराश भी हुए। अच्छा, जब आपने मुझे इतनी इजाजत दे दी है कि मैं आपको सलाह दे सकूँ तो मैं आपसे एक बात ही कहूँगा: यह सारी चीजें तुरंत बंद कर दीजिये। अपने काम के मूल्यांकन के लिये अभी आप बाह्य-जगत को और दूसरे लोगों की ओर देख रहे हैं। आपको ऐसा नही करना चाहिये। आपको कोई सलाह नही दे सकता, कोई आपकी मदद ही कर सकता है।

   इसके लिये सिर्फ़ एक ही तरीका है: खुद मे झाँकने का ! उस कारण की तलाश करिये, उस प्रेरक-तत्व की, जो आपको लिखने के लिये बाध्य करता है। उसे इस कसौटी पर परखिये: क्या उस प्रेरणा की जड़े आपके हृदय के सबसे गहरे कोनों तक पहुँचती हैं? क्या यह बात आप यकीन के साथ कह सकते हैं कि अगर आप को लिखने दिया जाय तो आप जीवित नही रह पायेंगे? और सबसे ज्यादा, रात के सबसे शांत प्रहर मे आप खुद से यह सवाल करें कि क्या आपके लिये लिखना इतना ही जरूरी है? फिर इस सवाल का सच्चा जवाब अपने भीतर की गहराई मे जा कर तलाशिये। और अगर इस सवाल का जवाब आप एक विश्वास भरेहाँमे पाते हैं, तब अपनी जिंदगी को इसी जवाब के इर्द-गिर्द तैयार कीजिये। अब यह आपके जीने की वजहों मे शामिल हो जाती है। आपकी जिंदगी, अपने सबसे सामान्य और उपेक्षणीय पलों मे भी इसी जरूरत की गवाह और इसी उत्कट लालसा की निशानी होगी|

   अब खुद को प्रकृति के नजदीक लाने की कोशिश करें। कल्पना करें कि आप इस स्रष्टि के पहले मनुष्य हैं। अब आपने जो देखा है, जो अनुभव किया है उसे अपने शब्द दीजिये। लिखिये कि आपने क्या हासिल किया है, क्या खोया है। और हाँ, प्रेम कविता मत लिखें, कम से कम शुरुआत मे तो नही। क्योंकि वो एक बड़ी चुनौती की तरह होती हैं। अपनी उन व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्द देने के लिये बहुत काव्य-कौशल चाहिये, लेखनी मे परिपक्वता चाहिये। खासकर तब, जब इस बारे मे पहले ही इतना बेहतरीन और इतना ढेर सारा लिखा जा चुका है। आपको सामान्य और चलताऊ विषयों से सावधान रहने की जरूरत है। बल्कि आप उन चीजों को पकड़िये जो आपकी रोजमर्रा की जिंदगी मे घुली होती हैं; जैसे अपने दुःख, अपनी ख्वाहिशें, आते-जाते ख्यालात, और सबसे ज्यादा तमाम चीजों की खूबसूरती मे आपकी आस्था। यह सब आपको लिखने की विषय-वस्तु देंगे। ऐसी चीजों का उल्लेख अपनी उत्साहपूर्ण, मौन एवं एकनिष्ठ ईमानदारी से करें। अपने आसपास की चीजें, अपने सपनों के दृश्य-चित्र, अपनी स्मृतियों के संकेत, इन सब चीजों का इस्तेमाल स्वयं को अभिव्यक्त करने मे करें।

   अगर आपको ऐसा लगता है कि आपकी रोजमर्रा की जिंदगी मे कुछ भी ऐसा महत्वपूर्ण नही है, जिसका जिक्र किया जा सके; तो इसका दोष जिंदगी को नही वरन्खुद को दीजिये। खुद पर कुसूर दीजिये कि जीवन की इस अतुल संपदा को बरत पाने भर का कवित्व आपके भीतर नही पाया है। एक स्रजनशील कलाकार के लिये कहीं भी दरिद्रता नही होती, कोई भी चीज महत्वहीन नही होती, कुछ भी निरर्थक नही होता है। जैसे मानो कि आप अगर किसी जेल मे भी हैं, जहाँ की दीवारें बाहरी दुनिया की सारी हलचलों को आप तक पहुँचने से रोक लेती हैं; तब भी क्या अपने बचपन की अमूल्य स्मृतियों की अथाह संपदा आपके पास नही है? अपना ध्यान उसकी ओर केंद्रित करें। विगत अतीत की उन विस्मृत संवेदनाओं को जगा्यें। आपका विश्वास बढ़ेगा। और आपके एकाकीपन का दायरा विस्तृत हो कर आपके घर जैसा हो जायेगा, एक शांत सी भोर के मानिंद। ऐसा कि तमाम दुनियावी शोर दूर से ही दबे-पाँव गुजर जायेगा, आपको परेशान किये बिना।

   इस तरह आपके आत्ममुखी होने से, अपने अंदर की दुनिया मे डूब जाने से, अगर कविता जन्म लेती है; तब आपको किसी से यह पूछने की जरूरत नही महसूस होगी कि वो अच्छी है या नही। तब आपको पत्रिकाओं के प्रकाशकों की राय भी जरूरत नही होगी। क्योंकि तब आप उस कविता मे अपनी खुद की आवाज सुन सकेंगे, अपनी जिंदगी का अक्स देख सकेंगे। यही आपके जीवन की नैसर्गिक निधि होगी। कला तभी श्रेष्ठ होती है, जब वह किसी जरूरत से जन्म लेती है। उसका यह उसका यह उद्गम, यह प्रयोजन ही कला की मूलभूत कसौटी होता है, और कोई नही।

   इसलिये मेरे प्यारे दोस्त, मैं आपको सिर्फ़ यही एक सलाह दे सकता हूँ, अपने अंदर झाँकिये और अंतस्के उस स्रोत की गहराई मापिये जहाँ से जिंदगी की जड़ें फूटती हैं। इसी स्रोत मे आपको अपने इस सवाल का जवाब मिलेगा, कि क्या लिखना आपकी जरूरत है! इस उत्तर को स्वीकार कीजिये, बिना तर्क किये, चाहे आपको यह कैसा भी लगे। और क्या पता शायद आप के सामने यही स्पष्ट हो जाये कि आप लिखने के लिये बने हैं। यदि ऐसा हो तो अपनी इस नियति को स्वीकार कीजिये, इसके भार को वहन्कीजिये और इसकी महानता को भी, किसी सम्मान की अपेक्षा किये बिना। एक स्रजनशील कलाकार के अंतर्जगत मे उसकी अपनी एक दुनिया होती है, उसे सारी चीजें वहीं तलाशनी होती हैं, या फिर उस प्रकृति मे जो उसके जीवन का मूल आधार रही है।

  यह संभव है कि अपने भीतर उतरने के बाद, और अपने अंतस्के निविड़ एकांत को तलाश लेने के बाद भी आप यह महसूस करें कि आपको लेखन-कर्म से विरत होना होगा। जैसा कि मैने कहा था कि यदि लेखन-कर्म आपके जीवित रहने का कारण नही बन जाता है तो आपको लेखन से विरत ही रहना चाहिये। मगर फिर भी आत्मलीन होने की यह प्रक्रिया, जिससे गुजरने की गुजारिश मैने आपसे की है, आपके लिये व्यर्थ नही जायेगी। क्योंकि तब आपका जीवन अपने लिये और ज्यादा अनुकूल मार्ग चुन सकेगा। जो आपको समृद्धि और विकास की ओर ले जायेंगे, जिनकी अकथनीय कामना मैं आपके लिये करता हूँ।

   इसके अतिरिक्त मैं आपसे क्या कहूँ? मुझे लगता है कि सारी जरूरी बातें अपने महत्व के हिसाब से कही जा चुकी हैं। अपनी विकास-प्रक्रिया मे आप पूरी गंभीरता और संयम के साथ आगे बढ़ते रहें, बस यही मेरा मंतव्य था। लेकिन आपका यह विकास बाधित हो सकता है, अगर आप बाह्यजगत की ओर देखते हैं; अगर आप अपने उन सवालों के जवाब बाहरी दुनिया मे तलाशते हैं। वो सवाल, जिनके जवाब शायद आपका अंतर्मन समय के सबसे मौन प्रहर मे आपको दे सके।

   आपके खत मे प्रोफ़ेसर होरासेक का जिक्र देख कर मुझे निहायत ही खुशी मिली। उनके जैसे विद्वान मगर विनम्र व्यक्ति के लिये मेरे मन मे अच्क्षुण श्रद्धा है। क्या आप मेरी भावना उन तक पहुँचा सकेंगे? यह उनकी विनम्रता ही है कि अभी भी वो मेरा स्मरण करते हैं, और मैं उनका कृतज्ञ हूँ।

  मैं आपकी कविताएँ आपको लौटा रहा हूँ, जो आपने मुझ पर विश्वास कर के भेजी थीं। मुझमे बिना शर्त हार्दिक आस्था दिखाने के लिये आपका शुक्रिया कहते वक्त मै अभिभूत हूँ। इसीलिये मैने और अपनी पूरी ईमानदारी और सामर्थ्य से खुद को आपके लिये एक अजनबी से ज्यादा उपयोगी साबित हो पाने कोशिश की है।
आपका
रेनर मारिया रिल्के

14 comments:

  1. आमद सुखद है ......हसीन भी....पिछले दिनों से मूड कुछ उदास सा है ...ओर उदासी में अच्छा पढने की तलब ज्यादा होती है ......शुक्रिया इस कोने को देने के लिए ....रिल्के के ये ख़त पहले पढ़े हुए है ....किसी बंगाली दोस्त ने मेल किये थे ....तब एक सरसरी सी निगाह मारी थी....आज तसल्ली से पढ़ा है ....

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  2. ओर हाँ गूगल कुछ एरर दिखा रहा है .फोलोवर वाले पन्ने पे ......जरा दुरस्त करो भाई लोगो.....

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  3. बैरंग नहीं जा रहा हूँ..

    ख्याल अच्छा है.. और हेडर भी.. उम्मीद है कई और अनुवाद मिलेंगे.. अभी जल्दी में हूँ.. बस शुभकामनाये देने आया था..

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  4. काश ! ख़त बैरंग लौट आये होते
    मैं बदलते मौसमों का मुंह न देखता.

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  5. पहली बार यह खत और आपका ब्लॉग पढ़ा है.
    कमाल है दोनों ही अच्छे लगे. :-)

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  6. अगली पोस्ट का इंतज़ार ……

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  7. This comment has been removed by the author.

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  8. सचमुच यह बहुत ही उम्दा पोस्ट है, उम्मीद है और भी अच्छा पढ़ने को मिलता रहेगा

    मनोज खत्री

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  9. आशा करता हूँ कि इस खजाने में बहुमूल्य साहित्यिक रत्न यूँ ही जुड़ते रहेंगे....

    इसे पढ़कर साहित्यिक भूख और बढ़ गयी है ....आई वांट मोर एंड मोर

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  10. यूरोप के विएना शहर की सन्‌ 1888 के पतझड़ की एक शाम।

    बलूत के पेड़ तले झड़ती पत्तियों के बीच एक कमजोर और दुबला सा लड़का उदास बैठा हुआ था। अपने कुल तेरह साल के जीवन के धूसर से रंगों के बीच उलझा, हताश। अपने ही अनबुझ सवालों से परेशान, कि आखिर जिंदगी उससे चाहती क्या है? वो अपनी जिंदगी से क्या चाहता है? .....शुरुआत में ही ऐसा लगा मानो कोई अनुवादित साहित्यिक कहानी है.बड़ी खूबसूरती से आप ने कहानी की अदा में रचना लिखी है जो इसे रोचक बना रही है....

    अनुवाद करना इतना आसान काम नहीं होता .आमतौर पर ऐसी चीज़े कुछ हद तक बोरिंग होती है या किसी खास मूड की दरकार होती है.लेकिन यहाँ कथ्य पूरी तरह गठित है.कही रूकावट कथ्य में नहीं न ही भाषा कहीं खटकती है .अनुवादित होने पर भी भाषा कठिन नहीं आसानी से समझ आ रही है :).जहाँ तक उपयोगिता का सवाल है तो अनुवाद सभी पाठको के लिए फ़ायदेमंद लगता तो है.पत्र में अपनी बात कहने का ढंग बेहद रोचक है रिल्के कहता है कि आलोचना मेरे स्वभाव का हिस्सा नही है और बहुत सधे ढंग से कम से कम आलोचनात्मक शब्दों का प्रयोग करते हुए अपनी बात सामने रखता है.पहले वो कहता है कि मैं आपकी शैली पे टिप्पणी नहीं करना चाहता फिर वो कहता है कि आपकी रचनाओं की अभी कोई अपनी व्यक्तिगत शैली नही है इस तरह से वो आलोचना न करते हुए भी आलोचना करता जाता है.वो यह भी कहता है कि प्रेम कविता मत लिखें, कम से कम शुरुआत मे तो नही फिर दूसरी तरफ वो कहता है कि एक स्रजनशील कलाकार के लिये कहीं भी दरिद्रता नही होती, कोई भी चीज महत्वहीन नही होती, कुछ भी निरर्थक नही होता है। जैसे मानो कि आप अगर किसी जेल मे भी हैं, जहाँ की दीवारें बाहरी दुनिया की सारी हलचलों को आप तक पहुँचने से रोक लेती हैं; तब भी क्या अपने बचपन की अमूल्य स्मृतियों की अथाह संपदा आपके पास नही है? यहाँ वो बेचारे नये नये लेखक को परेशान कर रहा है :)वैसे ये नया लेखक कुछ हड तक किस्मतवाला था कि उसकी कविता कि समीक्षा सही में की गयी नहीं तो पाठक आपस में ही वाद विवाद करके संतुष्ट हो जाता है.लेखक या पत्रिका तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने की उसकी कोशिश आलस्य या (अगर वो खुद भी लेखक है )तो उसके आत्म-सम्मान को गवारा नहीं होती.बहुत अधिक जोश आने पर व्यक्तिगत पत्रों तक ही बात समाप्त हो जाती है.लेकः और लेखक या लेखक और पाठक की बात में और लोग हिस्सा ले सके ये अवसर ही नहीं आता.
    आप ने अनुवाद किया ये इक अच्छी चीज़ है क्यूंकि अक्सर पाठको को ऐसे पत्र और ऐसी आलोचनाये जिनपर ध्यान देना चाहिए हमारे यहाँ इकतरफा ही रह जाती है.
    बढ़िया अभिवियक्ति बधाई

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  11. इस सुंदर से नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  12. इन दस पत्रों को नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने छापा है । बेहद प्रभावी और प्रवाहपूर्ण मौलिक-सा अनुवाद किया है राजी सेठ ने !
    इनकी प्रस्तुति का आभार !

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  13. आज सागर साहब आपने मेरी शाम बना दी है...और अब पुरी पढ़ लेने दो मुझे..बीच में मत आओ मेरे...........!

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  14. adhut! Rilke ko padhne jaise roz ka niyam hai mera. Bahut sundar anuvaad hai :)Aur aap bahut achha kaam kar rahe hain ye.

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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