मौलाना हसरत मुआनी
{Part-1}
तो हम पहुंचे मौलाना हसरत मुआनी के पास- अब मौलाना हसरत मुआनी कहते हुए, पता नहीं हमारी नौजवान नस्ल वाले कभी नाम सुना भी होगा या नहीं मौलाना हसरत का। मौलाना हसरत मुआनी वो हैं शायर उर्दू के गज़ल गोशोनामे जिनकी अहमियत बहुत जियादा है। यानि इक़बाल के बाद जिन लोगों ने गज़लें वगैरह लिखी हैं, शायरी की है उनमें बहुत अहम नाम है मौलना हसरत मुआनी कि एक नया रंग, ग़ज़ल में, दिया है मौलाना ने। तो एक शायर की हैसियत से उनका रूतबा बहुत बुलन्द। लेकिन वो एक शायर से ज्यादा एक बहुत बड़े सियासतदां थे, सियासतदां का मतलब वो हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए जद्दोजेहद करना इमान समझते थे। अगर आप न करें जद्दोजेहद तो आपका इमान नहीं है। अजी हमेशा से बहुत दिलचस्प जिन्दगी रही उनकी, यहां पढ़ने आए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी- तो सुना है हुलिया ये था कि रंगीन पाजामा होता था और बगल में पानदान रखते थे। तो लड़कों ने उनका नाम रख दिया था ख़ाला जहान लेकिन उन कोई असर नहीं पड़ा उस वक्त। यहां हर साल एक नुमाईश लगती है, अलीगढ़ में। वहां एक 10 पैसे 12 पैसे की बांसुरी उन्होंने खरीद ली थी, बांसुरी से इश्क, हमेशा से ही... पता नहीं क्या था, वो बांसुरी बजाया करते थे अपना, अब लोग बोर हो रहे है, परेशान हो रहे हैं, कि हम पढ़ रहे हैं और ये आ गया है आदमी ये बांसुरी बजाता है। तो चले जाते थे। तो पखाने में बैठ जाते थे जब बजाना होता था। पखाने में पहुंच जाते थे तो वहां बजाया करते थे। लोगों ने कहा कि ये क्या ? अरे ये जो पंजाबी डग्गे जो हैं ये क्या जानें मौसिकी क्या होती है, बजाने नहीं देते तो मैं यहां आके बजा लेता हूं भई। तो अलग टेढ़ी किस्म के आदमी थे। यहां मुशायरा किया मौलाना हसरत ने- बहुत कामयाब मुशायरा हुआ लेकिन उसमें ऐसे शायर भी थे जैसे रामपुर के एक शायर गए थे गुस्ताख, दिलचस्प शायर, अच्छे शायर, मज़ाहिया शेर कहते थे। किसी ने रिर्पोट की प्रिंसिपल मॉरीसन अंग्रेज़ था। उसने रिर्पोट कर दी कि मौलाना ने मुशायरा किया कि बहुत अफसीन बहुत फ़ोहश किस्म के शेर बहुत पढ़े गए। उसने इनको बुलाया, क्या हुआ ? तो उसने कहा कुछ नहीं, कोई फोहश शेर नहीं पढ़ा गया। अच्छे शेयर पढ़े गए कुछ भी नहीं। कहने लगे कि नहीं... तुम लोगों के अखलाक़ तो हैं, तुम लोग समझते नहीं कि अखलाक़ क्या होता है। मौलाना ने तलब के जवाब दिया कि आपका अखलाक़ क्या अलग होगा। हमारा अखलाक़ अलग है, हम इसको बुरा नहीं समझते, आप बुरा समझा करें। उसने फौरन उनको.. कॉन्फ्रेंस की अपने लोगों की और इनको एक्सपेल कर दिया गया कि अच्छा इम्तिहान दे लीजिए लेकिन आपको एक्सपेल किया जाता है। तो ये एक्सपेल हो गए।
उसी जमाने में एक इन्होंने एक पर्चा निकाला, उर्दू-ए-मौअल्ला सारी जिन्दगी भर निकालते रहे। पैसा जेब में एक नहीं, लेकिन पर्चा वो बहराल निकलता रहा। और उसी में सारी कार्यवाहियां इस किस्म की छपती रहीं। वो जहां भी गए, अलीगढ़ की जेल में खैर... जब जेल में थे तो मजबूरी थी, अलीगढ़ की जेल में बहुत रहे। इसी कारण कि agitation के सिलसिले में, गिरफ्तार हो जाते थे, और हमेशा सज़ा होती थी चक्की पीसने की। Regrisim Prison तो उसमें चक्की पीसनी पड़ती थी बहुत से कैदी थे कुछ अपना... हिसाब-किताब करके कैदियों से कि तुम पीस दिया करो हमारे हिस्से का राशन फलाना फलाना.... मौलाना के साथ ये हो ही नहीं सकता था सारा... जितना गेहूं लाकर रखा गया, जितना चना लाकर रखा जाए सारा पीस डालते थे हाथों में गट्टे पड़ गए, खून बहने लगा कोई फर्क नहीं पड़ता मौलाना पीसते जाते थे। शेर कहा था इसी पर `है मशके शुकन जारी चक्की की मशक्कत भी- एक तुरफा तमाशा है हसरत की तबीयत भी` तो मौलाना तिलक के बड़े कायल थे। गांधी के खिलाफ तिलक, गांधी तो उस वक्त ज्यादा नहीं थे। दूसरे जो मॉडरेट थे कांग्रेस के अन्दर थे उनके खिलाफ और तिलक extremis उनके हिमायत में बड़ी नज़में लिखी हैं तिलक की हिमायत में इन्होंने- मौलाना के एक चीज़ और थी वो दिलचस्प आदमी थे, इनमे कुछ, एक तो ये था कि हर साल बहुत ही मज़हबी आदमी थे, नमाज़ रोजे़ के पाबन्द, कादरिया सिलसिले के मुरीद, लेकिन ये इमान था उनका कि किसी के मज़हब को बुरा कहना और न ये समझना कि वो बुरा है अपना मजहब अपने साथ उसका मज़हब उसके साथ। सिर्फ यही नहीं बल्कि जितने और रिचुअल थे मसलन हज़ करने वो हर साल जाया करते थे। हर साल हज करके आ रहे हैं तो एक दफ़ा मैंने मौलाना से पूछा कि मौलाना ये एक दफा हज होता है दो दफ़ा हज होता है आप हर साल क्यों जाते हैं ? कहने लगे कि आपा समझते नहीं हैं, नाक से... मिनमिना के बोला करते थे बहुत पतली सी आवाज थी। आप समझे नहीं हैं ये एक इंटरनेश्नल गैदरिंग होती है। जिसमें तरह तरह के मसायल आते हैं और मैं अपनी बात कहता हूं। मैं अपनी बात समझाने की कोिशश करता हूं लोगों को- फिर वापस आते में या जाते में किसी हसीना को देख लेते थे तो उस पर शेर जरूर कहते थे कभी वो कबरिस की हसीना होती थी कभी इटली की हसीना होती थी- उसपे वो साफ साफ शेर... कबरिस की हसीना से जो मुलाकात हुयी तो हम कितना उनसे मुत्तासिर हुए मैं चुपके से उनके बालों को उनके प्यार कर लिया- फिर वो बच्चों की तरह चीजें मौलाना किया करते थे। एक खुसूसियत ये थी मौलाना की कि वो कृष्ण जी को नबी समझते थे और बड़े मौतकित्त थे- और अपना हज़, कहते थे मेरा हज मुक्कमिल नहीं होता जब तक मैं वापस आके मथुरा और वृन्दावन में सलाम न कर लूं। तो वहां से आके पहले पहुंचे थे मथुरा, वृन्दावन और वहां सलाम करते थे और फिर बेइन्तहा कतात और वहाईयां कृष्ण जी के बारे में उनकी मौजूद हैं। हसरत मुआनी की, उनका ये भी था, एक दिलचस्प करकत वो करते थे वो ये कि नमाज फौरन वो दो मिनट में खत्म कर देते थे। लोग कहते कि अभी हमने शुरू भी नहीं किया अभी अलहम पर पहुंचे हैं और तुम... नमाज भी खत्म हो गई तुम्हारी, वो कहते थे कि देखिए आप ख़त लिखते हैं तो बिसमिल्लाह पूरा लिखते हैं क्या करते हैं ? कहने लगे 786 लिखते हैं न आप। क्यों ? इसलिए कि आपने बिसमिल्लह इर्र रहमान रहीम को हुरूफ़ को बदल दिया अपने नम्बर्स में। यानि 786 में कहने का मतलब है कि बिसमिल्लाह इर्र रहमान ऐ रहीम। तो नमाज में जितनी सूरते हैं जितनी आयतें पढ़नी होती हैं सबके नम्बर उसके निकाल लिए हैं इसी हिसाब से और वो नम्बर पढ लेता हूं तो आयत हो जाती है पूरी तो नमाज होत जाती है मेरी। इस किस्म की चीजें मौलाना में बहुत ही कीन्स थे।
(...जारी )
एक अनजानी गली की सैर कराने का शुक्रिया
ReplyDeleteआनंद आया पढ़ कर हसरत मोआनी जी के बारे में.
ReplyDeleteवल्लाह !!! खूब जमेगी महफ़िल जब जमा होगे तीन यार ....गज़ब चीज़ लाये हो ....
ReplyDeleteपाखाने में मौसिकी..! ये होता है जुनूनी आदमी..
ReplyDeleteचाल ढाल रंग पहनावे से लग ही गया कि ये समां डेवलप करने वालो में से है.. सोचा था बैरंग पे आये हो कही बैरंग ही ना लौटा दो.. पर जानी सागर तू तो आदमी मुस्तैद निकला..
बड़े दिलचस्प किस्से लाते हो सागर मियाँ....
ReplyDeleteखुदा यूँ ही तुमसे नेक काम करवाए
एक गुस्ताखी चाह्ता हूं. अलीगढ के मोहन कस्बे की वाशिन्दगी थी मौलाना की। इसी वजह उनका नाम हसरत मोहानी था। यह मेरी जानकारी है कदाचित गलत हो ।
ReplyDeleteइनसे वाबस्ता दो एतिहासिक वाकये भी है सागर जिनका जिक्र लाजिम होगा, पहला मोलाना साह्ब पहले इंसान थे जिन्होने complete independence का concept दिया था ।
और दूसरा जब भगत सिंह लाहोर छोड कर जा रहे थे तो मौलाना साहब ने ही उन्हे देखा और रोका था पर भगत सिंह ने बेरुखी दिखायी। इससे मौलाना साहब आहत हुये और भगत को जाने से नही रोका.
सत्य
@Satya.... a vagrant said..
ReplyDeleteसत्य!
आपकी जानकारी निहायत…
…
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सही है जनाब! मौलाना का सही नाम हसरत 'मोहानी' ही दर्ज मिलता है हर तवारीख़ी रिसाले - क़िताब में।
एक और मामूली सी बात …
कि ग़ुलाम अली साहब की गाई मशहूर ग़ज़ल जो 'निक़ाह' फ़िल्म में भी शामिल की गयी थी - इन्हीं जनाब हसरत 'मोहानी' साहब की "चुपके-चुपके रात दिन…"
हाँ, हाँ, वही - वही…
सागर मियाँ रूमान के शहन्शाह के पान और पीक और पाख़ाने की मौसीकी के ज़िक्र पर ज़ोर इसीलिए दे रहे हैं कि उन्हें लगा होगा कि ये बात तो हर किसी को मालूम ही होगी क़िब्ला।
अब भया यों कि मौलाना के बाद जो रूमान का शाहज़ादा आया उसका नाम ठहरा अहमद फ़राज़ और सो हमेशा रहा दर-ब-दर ख़ानाबदोश सो उसका भी ज़िक्र कभी सुनेंगे सागर की ज़ुबानी।
आपकी जानकारी एकदम दुरुस्त सत्य जी, और सीबीएसई की पुस्तकों में भी और बिपिन चन्द्रा की पुस्तक में भी - और भी तमाम तारीख़ के माहिरों के बयान से तस्दीक होती है आपकी बात की। "पूर्ण स्वराज" मौलाना की ही अवधारणा थी जो लोकमान्य बाल गंगाधर तिळ्क के साथ जुड़ कर पाएदार हुई।
भगत सिंह कानपुर में जहाँ ठहरा करते थे - वो अड्डा देखना चाहेंगे आप?
मेरी पक्की और ज़ाती जानकारी में है वो जगह, वहीं जहाँ भगतसिंह ही नहीं - आज़ाद भी अक्सर आने वालों में थे। और आज वहाँ कोई निशान भी बाक़ी नहीं है, मगर अभी तक उस मकान का नक्शा वैसा ही है जिसे देख कर यकीन हो जाए कि हाँ! कभी यहाँ भी क्रान्तिकारियों का अड्डा रहा होगा - अपनी ख़ुसूसियात के चलते।
मौलाना का भी कानपुर से ता'ल्लुक रहा है, 'नीरज' का भी - दोनों अलीगढ़ के करिश्माई कवि-शायर…
ख़ैर, बात निकलेगी तो फिर …
सागर का शुक्रिया एक बार फिर से…
@himanshu mohan
ReplyDeleteजरुर सुखनवर साहिब. जब कभी कानपुर आना हुआ तो आपसे राबता करुंगा उस तवारीखी मकान को देखने के लिये। सागर मियाँ को भी खींचे ले चलेंगे ।
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