Friday, January 7, 2011

नियाजी के आंसू


डाकिये की ओर से : इतिहास रोमांचित करता है.  जब बच्चे थे देशभक्ति के अलावा कुछ नहीं सुहाता था. आँखें फाड़-फाड़ कर सुनते थे और सुनना चाहते थे कि उस परिस्थिति में हमारी सेना ने क्या कदम उठाये थे? 1971 में गाजी को कैसे डुबाया गया था ? 


और... फ्रंटलाइन कवरपेज पर का वो चित्र...  सियाचिन की सर्दी में वर्दी का हत्थे चढ़ाये एक सिक्ख...



बंगलादेश के गठन के बुनियाद में हमारी तत्कालीन सैन्य रणनीति के बारे में एक जानकारी..
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मैं फिर से उस इमारत में घुसा। आत्मसमर्पण का दस्तावेज पढ़ा जा रहा था। नियाजी के गालों पर आंसू लुढ़क आए थे। उन्होंने कहा, ‘आपसे किसने कहा कि मैं सरेंडर कर रहा हूं? आप यहां सिर्फ सीजफायर और कदम वापसी के संदर्भ में गुफ्तगू के लिए आए हैं। मैंने यही प्रस्ताव किया था।’ वहां पर मौजूद दूसरे सैन्य अधिकारी भी अपनी आपत्तियां जताने लगे। राव फरमान अली ने ‘संयुक्त कमांड’ के आगे समर्पण का विरोध किया।

समय बीत रहा था, इसलिए मैं नियाजी को एक कोने में ले गया। मैंने उनसे कहा कि यदि आपने आत्मसमर्पण नहीं किया, तो मैं आपके व आपके परिवार तथा दूसरे सजातीय अल्पसंख्यकों की हिफाजत की जिम्मेदारी नहीं ले सकूंगा, लेकिन यदि आपने ऐसा किया, तो मैं उन सबों की सुरक्षा सुनिश्चित करूंगा। मैंने उन्हें इस बात पर फिर से सोचने को कहा और अपनी बात एक बार फिर दोहराई कि यदि आपने समर्पण नहीं किया तो मैं कोई जिम्मेदारी नहीं लूंगा। मैंने यह भी जोड़ा कि आपके पास विचार करने के लिए 30 मिनट हैं और यदि आपने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं युद्ध शुरू करने और ढाका पर बमबारी का आदेश जारी कर दूंगा। इसके बाद मैं प्रेस से मिलने बाहर आ गया।

मैं बेहद चिंतित था। नियाजी के पास ढाका में 26,400 सैनिक थे, जबकि हमारे पास करीब 3,000 सैनिक थे, वह भी करीब 30 मील की दूरी पर। मैं अत्यंत उलझन में था कि नियाजी के इनकार करने की सूरत में मैं क्या करूंगा। एक-दो घंटे में ही अपने साथियों के साथ अरोड़ा के पहुंचने की उम्मीद थी और सीजफायर का वक्त भी खत्म होने वाला था। मेरे हाथों में कुछ भी नहीं था।

बाद में पाकिस्तानी जांच आयोग की रिपोर्ट में लिखा गया था कि ‘जनरल जैकब बाहर टहल रहे थे और शांतिपूर्वक अपनी पाइप पी रहे थे।’ इसके ठीक उलट मैं उस वक्त बेहद चिंतित और तनाव में था। मैंने वहां तैनात पाकिस्तानी संतरी से जब उसके परिवार के बारे में पूछा, तो वह यह कहते हुए फूट-फूटकर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं, जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की।

तीस मिनट के बाद ऑफिस के भीतर पसरी खामोशी से मिलने मैं दाखिल हुआ। आत्मसमर्पण का दस्तावेज मेज पर पड़ा था। मैंने नियाजी से पूछा कि क्या आप इस दस्तावेज को कुबूल करते हैं, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने तीन बार उनसे यही सवाल पूछा। फिर भी वह कुछ नहीं बोले। तब मैंने वह दस्तावेज अपने हाथ में उठाया और उसे ऊपर उठाते हुए कहा, ‘मैं इसे आपकी रजामंदी के तौर पर ले रहा हूं।’ नियाजी के गालों पर अश्रु बहने लगे थे, और वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर सुकून था।

मैं नियाजी को एक तरफ ले गया और बताया कि मैंने रेस कोर्स में लोगों के सामने आपके दस्तखत की व्यवस्था कर रखी है। उन्होंने इसका सख्त विरोध किया। तब मैंने उन्हें कहा कि आपको अपनी तलवार हमें सौंपनी पड़ेगी। नियाजी ने कहा कि मेरे पास कोई तलवार नहीं है, लेकिन मैं अपना रिवॉल्वर सौंप दूंगा। इसके बाद मैंने उनसे कहा कि आपको गार्ड ऑफ ऑनर भी दिलवाना पड़ेगा।

उस वक्त मेरी स्मृतियों में 1945 के जापानी आत्मसमर्पण के बाद का लमहा कौंध गया, जब मैं सुमात्रा द्वीप पर उतरा था, तो उस वक्त जापानियों ने मुझे गार्ड ऑफ ऑनर दिया था। नियाजी ने कहा कि हमारे पास गार्ड ऑफ ऑनर कमांड करने लायक कोई अधिकारी नहीं है। मैंने उनके एडीसी की ओर संकेत करते हुए कहा कि इन्हें कमांड करना चाहिए। मैंने उन्हें सुरक्षा कारणों से अपने हथियार तब तक अपने पास रखने की इजाजत दे दी, जब तक कि हम उन्हें नि:शस्त्र करने की व्यवस्था पूरी नहीं कर लेते।

इसके बाद मैंने उनके ‘चीफ ऑफ स्टाफ’ के साथ आत्मसमर्पण से संबंधित अन्य प्रक्रिया के बारे में बातचीत की। मैं उस समय वायरलेस के जरिये अरोड़ा से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा था, क्योंकि उनसे संपर्क नहीं हो सका था। वह जनरल सगत सिंह को साथ लाने के लिए अगरतला चले गए थे। उसके बाद हम दोपहर के खाने के लिए मेस की तरफ चल पड़े। मेस के बाहर ही ‘ऑब्जर्वर’ के गेविन यंग खड़े थे। उन्होंने अनुरोध किया कि क्या मैं आप लोगों के साथ लंच कर सकता हूं। हम डाइनिंग रूम में पहुंचे। यंग ने अपने अखबार ऑब्जर्वर में ‘द सरेंडर लंच’ शीर्षक से दो पन्नों पर इसके बारे में लिखा था।


लगभग 3.50 बजे मैंने नियाजी से कहा कि आप एयरपोर्ट तक मेरा साथ दीजिए। चूंकि नागरा ने मेरे लिए कोई जीप नहीं छोड़ी थी, सो मैं नियाजी की सरकारी कार में उनके साथ बैठ गया। मुक्तिवाहिनी के लड़ाके उस कार के ऊपर कूद पड़े थे। इससे हमें हवाइअड्डे पहुंचने में थोड़ी परेशानी हुई थी। लगभग 4.30 बजे पांच एम-14 और चार एलॉत्ती हेलिकॉप्टरों के बेड़े में अपने परिजनों व साथी अधिकारियों के साथ अरोड़ा हवाई अड्डे पर उतरे।

अरोड़ा के साथ उनकी पत्नी और वायु सेना व नौसेना प्रमुख थे। लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह और उनके कुछ डिविजनल कमांडर भी आए थे, साथ ही विंग कमांडर खोंडकर भी थे। दुर्भाग्य से उस्मानी नहीं पहुंच सके, क्योंकि जिस हेलिकॉप्टर से वह उड़ान भर रहे थे, उस पर गोला दागा गया था, जिससे वह क्षतिग्रस्त हो गया था।

मैंने तय किया था कि हवाई अड्डे से मैं आखिरी कार में अरोड़ा और नियाजी के साथ निकलूंगा, लेकिन अरोड़ा ने मुझसे कहा कि आप मेरे साथ मेरी पत्नी को आने दें और फिर वह उनकी बगल में बैठ गईं। नियाजी के एडीसी, जिसके पास आत्मसमर्पण के दस्तावेज थे और मैं, दोनों एक ट्रक में हिचकोले खाते हुए रेस कोर्स पहुंचे। चूंकि किसी तैयारी के लिए वक्त बहुत कम था, इसलिए गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करने के बाद अरोड़ा और नियाजी ने मेज पर बैठकर समर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।

मैंने दस्तावेज पर निगाह डाली और उसका शीर्षक पढ़कर भौंचक रह गया, जो यों था- समर्पण दस्तावेज- 4.31 मिनट (भारतीय मानक समय) पर हस्ताक्षरित। मैंने अपनी घड़ी की ओर देखा। वह मुझे 4.55 मिनट का वक्त दिखा रही थी। बहरहाल, नियाजी ने अपना एपलेट उतारा और उससे अपना रिवॉल्वर निकालकर अरोड़ा को सौंप दिया। एक बार फिर उनके गालों पर आंसू बह आए थे।

- - - - - लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ जैकब


लेखक बांग्लादेश युद्ध के प्रमुख रणनीतिकार थे, वे पंजाब और गोवा के राज्यपाल भी रह चुके हैं।
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘ओडेसे ऑन वार ऐंड पीस’ का एक अंश

साभार : दैनिक हिंदुस्तान, दिनाक : 7 जनवरी, 2011(संपादकीय पृष्ठ)

4 comments:

  1. सीना गर्व से एक बार फ़िर चौड़ा हो गया, आभार ।

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  2. सुबह पूरी डिटेल पढ़ी थी.....दैनिक जागरण में ....किताब का इंतज़ार है

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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