नये साल की कसमें
क़सम खाता हूँ दारू और सिगरेट नही छोड़ूँगा
क़सम खाता हूँ जिनसे मै नफ़रत करता हूँ उन्हे नहला दूँगा नीच शब्दों से
क़सम खाता हूँ सुंदर लड़कियों को ताका करूँगा
क़सम खाता हूँ, हँसने का जब भी उचित मौका होगा
खूब खुले मुँह से हँसूगा
सूर्यास्त को देखूँगा खोया-खोया
फ़सादियों की भीड़ को नफ़रत से देखूँगा
क़सम खाता हूँ
दिल को हिला देने वाली कहानियों पर रोते हुए भी संदेह करूँगा
दुनिया और देश के बारे मे दिमागी बहसें नही करूँगा
बुरी कविताएँ और अच्छी कविताएँ लिखूँगा
कसम खाता हूँ समाचार-पत्र संवाददाताओं को नही बताऊँगा
अपने विचार
कसम खाता हूँ अंतरिक्ष-यान मे चढ़ने की इच्छा नही करूँगा
क़सम खाता हूँ क़समें तोड़ने का अफ़सोस नही करूँगा।
इसकी गवाही मे हम दस्तख़त करते हैं
(चित्र: शुंतारू ताकीनावा
पेंटिंग: अट्ठारहवी सदी के प्रतिनिधि चित्रकार कत्सुशिका होकुसाई की ’विलेज ओन थे सुमिदा रिवर’
आभार-गूगल)
पेंटिंग: अट्ठारहवी सदी के प्रतिनिधि चित्रकार कत्सुशिका होकुसाई की ’विलेज ओन थे सुमिदा रिवर’
आभार-गूगल)
मैं कनखियों से ही देखूंगा दूसरी औरतों को. जिससे तुम्हें गुमां रहे, "सब मर्द एक से नहीं होते." और हर गुरूवार को हमेशा के लिए सिगरेट छोड़ दिया करूँगा. जिससे तुम्हें ये गुमां भी रहे, "सब इश्वर भी एक से नहीं होते."
ReplyDelete:)
कुरु कुरु स्वः (Highly Recommended) पढ़ रहा हूँ, कई सारे 'Pause' उसमें भी बताये हैं. :)
बहुत ख़ूब...
ReplyDeleteहज़ारों कसमें ऎसी कि हर एक कसम पर दिल निकले ;)
ReplyDeleteइसी पर एक कविता याद आ गयी। :-) किसने लिखी है ये याद नहीं:
ReplyDeleteबेहद मामूली हैं मेरी इच्छायें
एक कप दूध,
सिरहाने मनचाही पुस्तकें,
कमरे में महकती अगरबत्तियां,
कुछ प्रसिद्ध चित्रकारों के चित्र,
खिडकी से झांकता हरी घासवाला लॉन,
लॉन में फ़ूलों से लदी क्यारियां और ताड के कुछ पेड
बेहद मामूली हैं मेरी इच्छायें
फ़िर भी अगर ईश्वर मुझे सुख देना चाहता है
तो उसे मेरे लिये एक और सुख की व्यवस्था करनी पडेगी
कि उन ताडो से मेरे छ: सात दुश्मन जरूर लटकतें दिखायी दें
सही है कि हमें अपने दुश्मनों को माफ़ कर देना चाहिये
मगर तभी जब उन्हे फांसी पर लटकाया जा चुका हो,
बेहद मामूली है मेरी इच्छायें॥
!दर्पण: कोई शक नही कि आपकी कसमे हमेशा हमारे इमेजिनेशन्स को भी अगले लेवल तक ले जाती हैं..मगर हम कसमों के टूटने की कसम ही खाते हैं..
ReplyDelete@ पंकज..शुक्रिया..मस्त है..अगर हमें कुत्तों जैसी महारथ मिली होती तो कविता सूँघ के राइटर की पतलून का पाँयचा खींच लाते..मगर ऐसी विशिष्टताओं के अभाव मे आप ही लेखक का नाम-पता खोद कर लाओ कहीं से.. :-)
वाह !!
ReplyDeleteऐसी ही एक निराली नज़्म नये साल पर फैज़ साहब ने भी लिखी थी -
ऐ नये साल बता, तुझमें नया-पन क्या है
हर तरफ खल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रखा है
रोशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर बात वही
आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं
अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किसे मालूम नहीं बारह महीने तेरे
जनवरी, फ़रवरी और मार्च में पड़े सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी
तेरा मन दहर में कुछ खोएगा कुछ पाएगा
अपनी मियाद बसर कर के चला जाएगा
तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखौं ने देखे हैं नये साल कई
बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारक़बादें
ग़ालिबन भूल गये वक़्त की कड़वी यादें
तेरी आमद से घटती उम्र जहाँ में सब की
"फ़ैज़" ने लिखी है यह नज़्म निराले ढब की
मैं कनखियों से ही देखूंगा दूसरी औरतों को. जिससे तुम्हें गुमां रहे, "सब मर्द एक से नहीं होते." vaah!
ReplyDelete