Thursday, November 1, 2012

तुग़लक़ : एक रिपोर्ट


दिनांक 28 अक्टूबर को फिरोजशाह कोटला किले में गिरीश कर्नाड का लिखा नाटक तुग़लक़ का मंचन पूरे धूमधाम से हुआ। मैंने इसका फस्ट डे फस्ट शो देखा। प्रकाश व्यवस्था और मंच सज्जा देखकर ही लगा जैसे इसे राज्य सरकार का समर्थन हासिल है। राज्य सरकार की मंशा थी कि पिछले साल संपन्न हुए अंधा युग की तर्ज पर तुगलक को भी पेश किया जाए। इस प्रसिद्ध नाटक का मंचन पिछले चालीस साल से हो रहा है। इस बार इसका निर्देशन भानु भारती ने किया। उम्दा कलाकारों की ज़मान ने अपने अभिनय से समां बांध दिया। तुग़लक़ के रूप में यशपाल शर्मा ने बेहद उम्दा अदाकारी की, हालांकि पोस्टर पर मैं उन्हें पहचान नहीं पाया था। कुल चार स्टेज बांधे गए थे जिनमें पहला वज़ीरों की आम गोष्ठी के लिए था। दूसरा मंच राजमहल का था जहां तुगलक अपने राजनीतिक निर्णयों के साथ साथ खुद को ज्यादा व्यक्त कर पाता था। यहीं से पता लगता था कि तुगलक अपनी रियाया को लेकर बहुत ही संवेदनशील था और उनसे बहुत प्यार करता था। वो भावुक भी था और कविता न करते हुए कवि की तरह सपने देखता था। तीसरा मंच दौलताबाद के राजमहल के गुंबद का था जहां वो नींद न आने की हालत में टहलता था और चैथा आम जनता का था। एक पांचवां छोटा स्टेज भी था जो रास्ते का सूचक था। 

यशपाल शर्मा जहां अपनी बेहतरीन संवाद अदायगी से छाए रहे वहीं उनकी सौतेली वालिदा बनीं हिमानी शिवपुरी अपनी मौजूदगी से छाई रही। नाटक खत्म होने के बाद वहीं हिरोईन थी। दर्शकों ने जम कर उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं।

बात पहले यशपाल शर्मा की। उन्होंने मेरा ध्यान सबसे पहले फिल्म गंगाजल से खींचा था। फिर वेलकम टू सज्जनपुर में उनके बेजोड़ अभिनय से मैं उनका प्रशंसक हो गया और अभी हाल ही में देखी गैंग्स आॅफ वासेपुर में आॅर्केस्ट्रा गायक बन जब वो पूरे इत्मीनान से अपनी उंगलियों पर पांच गिनते हैं तो मन में बिना कोई संवाद के बस जाते हैं। तुग़लक़ में उन्होंने कई जगह साबित किया है कि वो एक उम्दा कलाकार हैं। बहुत ही बुलंद आवाज़ में उन्होंने उर्दू में अपना संवाद कहा है। यह सोच कर मैं बहुत देर गुम रहा कि इस कदर इतने लंबे लंबे कठिन उर्दू अल्फाजों की संवाद अदायगी में कितनी मेहनत रही होगी और इसे आंखों के सामने अभिनय के साथ पेश करना कितना महान काम! उनका उच्चारण भी शानदार रहा। संवाद नाटक के जान होते हैं। और इस नाटक के उर्दू संवाद ध्यान खींच रहे थे। खैर बाद में जब नाटक का ब्रोशर हाथ आया तो उर्दू डिक्टेशन और उच्चारण गुरू में शीन काफ निज़ाम का नाम देखकर तसल्ली मिली। 

यशपाल शर्मा के अभिनय इतनी मांजी हुई है कि वे बोलते बोलते अगर अपना संवाद भूल भी जाएं तो उसे अपनी आवाज़ के उतार चढ़ाव बखूबी संभाल सकते हैं।

अब बात हिमानी शिवपुरी की। उनकी आवाज़ का स्वर ऊंचा है। राजवेश में वे खूबसूरत भी बहुत लगीं। खास कर पल्लू लेने का तरीका और आधे माथे पर मोतियों का अनारकली स्टाइल फिरन। 

तीसरा पात्र जिसने समां बांधा वो थोड़ी देर के लिए ही था। तल्खी से बोलने वाला एक निडर धार्मिक नेता। महज़ एक सीन में ही तुगलक़ से भिड़ने वाला और इस्लाम की व्याख्या करता, जादुई अल्फाज़ परोसता कलाकार। 
नाटक में ताली बजाने का मजबूर करते कई दृश्य थे। हंसने के सीन भी थे। कुछ संवाद जो याद रह गए उनमें यह था -
जब तुग़लक़ पर हमले की साजिश हो रही होती है तो एक कहता है - नमाज़ अता करते वक्त किसी पर हमला करना गुनाह है। 
दूसराः कोई बात नहीं, इस नमाज़ में उसका सर कलम कर देंगे और अगली नमाज़ में खुदा से माफी मांग लेंगें।
साजिश का पर्दाफाश होने पर तुग़लक़ अपनी भर्राई आवाज़ में खीझ कर कहता है- 
इन इबादतों में भी अब साजिश की बू आती है। मुनादी कर दो शहर में कि आज से कोई इबादत नहीं करेगा। हम इबादत के लायक नहीं रहे।
शहर में लूट खसोट और आम जनता की बदहाली पर एक धोबी कहता है - मज़ा तो तब है जो खूले आम लूट करो और लोग कहें हकूमत है। 

तुग़लक़ की नीतियां गलत नहीं थीं। उसकी गलती या यों कहें कि उसकी नीतियों असफल इसलिए रहीं कि बस वो वक्त से बहुत आगे की थीं। तांबे के सिक्के चलाना, मुसाफिरों को बेहतरीन सहूलियत देना, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाना। सारी नीतियां सही थीं और करेंसी रिफाॅर्म तो आज हो ही रहा है। बस वो वक्त माकूल नहीं था। इसलिए वो पगला शासक के नाम से मशहूर हो गया। वो आला दर्जे का ज्ञानी भी था। अंदर की लड़ाई उसे परेशान करती थी जो उसके बेचैन होने का सबब था। उसे रातों को नींद नहीं आती थी। वो रियाया को अपना मुस्तकबिल मानता था। राजा से ज्यादा ऊंचा दर्जा देता था। सियासत को धर्म से अलग रखने का हिमायती था। प्रजा को लेकर वो एक विश्व कवि जैसा ख्यालात रखता था।

नाटक और उसके संवाद यहीं से आम जन मानस से जुड़ जाते हैं जब उनमें ये उधेड़बुन होता है। परिस्थितियां आज भी वहीं हैं। लूट हो रही है और सरकार कहती है लोकतंत्र है। 

कुछ सीन कमाल थे मसलन दिल्ली से दौलताबाद का विस्थापन। पीली रोशनी में मंच के पीछे से चैथे पर सीढि़यों से उतरना एक बेहद कारूणिक प्रसंग था। आज जनता का हाथों में मुड़े तुड़े तसले को ले यह गुहार करना कि राजा - हमें खाने को दो, अंदर से व्यथित करने वाला दृश्य था। 

प्रकाश सज्जा ने थियेटर को जादूई रूप दे दिया था। विभिन्न कोणों से किरदारों पर पड़ता प्रकाश कहानी के साथ साथ पात्रों के मनोभावों को भी बखूबी उकेरता था। जहां मौन भी बोलने लगता है। सभी पात्रों की बाॅडी लैंग्वेज भी अच्छी थी और महीनों की रिहर्सल साफ नज़र आई। फिर भी मुझे तुग़लक़ की ही बाॅडी लैंग्वेज़ में बहुत थोड़ी सी कसर नज़र आई लेकिन यह पूरी तरह नज़रअंदाज़ करने वाली बात है क्योंकि इतने लंबे लंबे संवाद में यह हो जाता है।

थियेटर देखने शीला दीक्षित भी आई थीं और जैसा कि सियासतदानों पर सूट करता है कि वो अपनी उपस्थिति ही दर्ज करवाएंगे वो भी तीन सीन बाद चली गईं। कहते हैं इस नाटक पर सवा तीन करोड़ खर्च आए। कुछ संस्था खफा हैं। वज़ह जायज हैं या नाजायज इसकी तह में नहीं जाना चाहता। हमें ऐसे नाटकों की ज़रूरत है जो 1500 सीटों के बाद भी 800 लोगों को खड़ा कर अपने में बांधे रहे। मैं जितना समझ पा रहा हूं उतना लिख रहा हूं। नाटक और कला पर केंद्रित बातें। 

हमारे देश में नाटकों का भविष्य उज्जवल हो, कला अपना सातवां आसमान छुए। कहने पर पाबंदी न हो और सत्ता जब भी मगरूर हो तो विरोध प्रदर्शन की पूर्ण आज़ादी रहे। जनता मजाज़ का लिखा बुलंद आवाज़ में गाती रहे - बोल अरी ओ धरती बोल! राजसिंहासन डावांडोल।

(तस्वीरें ब्रोशर से ली गयी हैं जो मशीन रूपी स्कैनर से गुज़रने में खराश का शिकार हुईं लेकिन देख कर अनुमान लगाईए कि कैसा भव्य लगता होगा पहले सीन के नीले प्रकाश में बादशाह का शतरंज खेलना और आखिरी सीन में अपने इतिहासकार दोस्त बरनी को खून खराबे और बदहाली से आजि़ज आ दिल्ली लौटने की हिदायत दे उसी नीले प्रकाश में सिंहासन पर ही सो जाना।)

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