Wednesday, September 18, 2013

गाँठ


डाकिए की ओर से:    बहुत कम फिल्में आत्मसंवाद का मौका देती है। गाइड उनमें से एक है। कहीं कहीं से उसकी स्क्रिप्ट मिली तो आपके लिए अपना ही पसंदीदा हिस्सा लगा रहा हूं। कभी- कभी मन होता है कि कुछ अनोखे स्क्रिप्टों के अनछूए पहलू से रू-ब-रू करवाऊं जिसमें स्लमडाॅग मिलेनियर के पटकथा लेखक सिमोन बुफाॅय का एक सीन को लिखना किस कदर कठिन था। मुझे लगता है दुनिया की सारी समस्याएं मेरे साथ ही है और सारी समस्याओं में आलस्य काॅमन है। बहरहाल.... तनाव की इस महीन-बारीक डोर पर गौर फरमाएं....

***

INT.- NALINI’S BUNGLOW- NIGHT

Rosy is sitting in front of the mirror, applying make up.
Raju is sitting next to her.
 
RAJU

Rosy, ye doori hatai nahi jaa sakti hai?
 
ROSY
Koshish karo..
 
RAJU
Koshish karne aaa hu madat nahi karogi?
 
ROSY
Mujhe tumse koi gilah nahi hai Raju
 
She gets up and walks to the other side of the room.
 
RAJU
Yahi toh gilah hai mujhe ki tumhe koi gilah nahi.
 
(gets up and follows her)
 
Mein chahta ho ki tum roo, chillao,
gaali do mujhe. Beshak ek do
thappad bhi maro lekin kuch aisa
karo jisse lage ki tumhe meri parva
hai.
Itni meherbani toh tumne Marco pe
bhi ki thi..
 
She unties her hair.
She sits on the bed.
 
ROSY
Ek gilah sa bann gaya hai dil ke
charo taraf. Koi nishana waha tak
nahi pohochta ab. Na sukh ka na
dukh ka..
 
She Lies on the bed.
 
ROSY
(contd.)
Mere taraf se tum bilkul azad ho
Raju. Balki mujhe khushi hai ki
tumhe khushi haazil karne ke tarike
aa gaye..
 
Raju sits on the bed, leans on top of her.
89.
RAJU
Matt door hatao Rosy..
Rosy gets up immediately.
 
ROSY
Please Raju, mein bohot thak gayi hu.

Raju tries to come close.
 
RAJU
Meri bahon mein so jao aaj, mere
kandhe par sar rakh kar. Ek zamaana
tha tumhari thakan mit jaya karti
thi iss tarah
He pulls her closer to him.
 
ROSY
Kya karr rahe ho! Chodo mujhe.
She gets of the bed and sits on a stool next to it.
 
Raju is still holding her hand.
 
Raju gets of the bed, kneels, putting his head on her
shoulder.
 
RAJU
Koi nayi baat nahi mere haato se
tumhe iss tarah pakadna. Achanak ye
parayapan kyu hai, ye nafrat kyu
hai? Humara pyar chala gaya? Kya
kasoor ho gaya mujhse?

She pushes him away and gets up. Raju still doesn’t let go
of her hand. Pulls her back, making her sit on the stool
agai n. Raju digs his face in her lap.
 
RAJU
(contd.; desperately begging)
Tum kahogi toh mein sharab chod
dunga, jua chod dunga, apne saare
dosto ko chod dunga, sari duniya
chod dunga lekin ek baar kehdo ki
mujhe tumse pyar hai..sirf tumse.
Uske baad mein tumhe kabhi tang
nahi karunga, kabhi pass nahi
aaunga..Rosy Rosy Rosy..

90.
ROSY
(pushing him away)
Please Raju..
Gets up and walks away.
 
ROSY
Chale jao Raju. Warna mujhe bahar
jaana padega

Raju walks out of the room. Rosy latches the door once he
leaves.
 
CUT TO
INT.- NALINI’S BUNGLOW- NIGHT- CONTINIOUS

It is a stormy night. Mani rushes inside the house. He is
carrying the papers which Raju threw at him earlier.
Raju is sitting in the huge living room, on the floor,
drunk.
 
RAJU
Aao Mani, aao.
 
MANI
Ji aapne kaha tha kaam show ke baad
karenge.
 
RAJU
Apne liye waha se ek glass utha
lao..
 
MANI
(going through the file)
Ji nahi, ye thoda kaam karke mein
chalunga..
 
RAJU
Arre bhai lao toh..Kya tum bhi
humare saath baith ke d baatein
karna pasand nahi karte ho?
 
MANI
Aap mujhe sharminda kar rahe hai..
Mani puts the file away and goes and gets himself a glass.
 
MANI
(while walking)
Kya baat hai sir, aaj aap akeli pee
rahe hai..
 
91.
RAJU
Baatein karne ke liye itna taras
raha tha, ki socha, thodi pee kar
apne aap se kuch kahunga...
Mani comes back to the table with his glass.
 
RAJU
(contd.)
Mani, mein kuch chid chidasa ho
gaya hu. Kabhi ghusse mein bura
bhala keh jaya karu toh bura mat
manna..
 
MANI
(holds his ears)
Meri kya majaz, Sir.
 
RAJU

Zindagi bhi ek nasha hai dost.
Jabhi chadta hai tabhi poocho mat
kya aalam rehta hai..
Lekin jab utarta hai....
 
"Din dhal jaye...raat na jaye.."
 
Raju sings, leaning on a chair.
Mani takes the bottle out of his hand, Mani looks upstairs
at Rosy’s room.

Rosy lies awake n the bed, looking at the latched door.
Raju continues to sing.

Rosy tries to not listen to him by putting a pillow over her
ears.

As Raju looks outside at the rain, he remembers the time
when He nad Rosy were happy together.
Rosy gets up from the bed and digs her face in the pillow,
crying.

A smile dawns Rosy’s face.
Rosy’s room is now empty, The latch open. Rosy steps out of
the room.
 
Mani leaves.

Rosy looks at Raju, who is leaning against the staircase.
Rosy sits on the stairs. Their hands touch. Rosy is crying.
 
92.
Raju walks away from the stairs, Rosy goes to Raju and keeps
her hand on his arm.
 
EXT.- NALINI’S BUNGLOW- DAY

Rosy walks out of the bunglow, her dressman carrying her
costumes. She notices Raju, sitting on the porch, dressed as
a guide.
 
ROSY
Raju, ye kaisa mazzak hai?
 
RAJU
Mazzak hota toh kya baat thi! Na
mehel bante Na mehel tutte. Naa
rahe milti, Naa rahe bichadti.
Mazzak toh ye hai Rosy, ki ye
mazzak nahi..
 
ROSY
Ye tamasha karna zaroori hai?
 
RAJU
Jo khud tamasha ban jaye woh
tamasha kya karegi..
Aayiye aapko gadi tak chod du..
He opens the door for her. She sits inside, he rolls down
the windows for her.
 
ROSY
Acha abhi aap jayiye aur kapde
badliye. Mein aapki rah dekh rahi
hu
 
RAJU
Bohot rah dekhi, ek aisi rah pe jo
teri hai guzar bhi nahi..
 
ROSY
Ye achanak kya ho gaya hai tumhe?
Dekho show ka waqt ho raha hai...
 
RAJU
Waqt ho chuka, show ho chuka, dekh
chuke..
 
ROSY
Aaj maloom hota hai ki saath aane
ki niyat nahi..
 
93.
RAJU
Niyat toh thik thi, saath nibhana
hi aaghat hai..
 
ROSY
Raju, jo tum kehna chahte ho mein
samajh gayi. Lekin mera dil dukhane
se pehle apne dil pe haat rakho aur
poocho, kya saara dosh mera hai?
 
RAJU
Bhagwan na kare ki koi tumhara dil
dukhaye...
He closes the Cars door.
 
RAJU
(contd.)
Driver, Memsaab ko theatre le chalo
 

The Car leaves.

***

अब इसी स्क्रीनप्ले को साकार होता हुआ यहां देखिए। अवधि 1:57:00 से 2:06:30


https://www.youtube.com/watch?v=u7gpmBHdMjg

Monday, September 9, 2013

राख से कांच मैला नहीं होता


नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं. वह जीने की सक्रिय कला है. हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें.... हक़ीक़त ही तो नाटक है.....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
  -----चीड़ों पर चांदनी, निर्मल वर्मा (ब्रेख्त के बारे में)

देह कितनी भाषाएं जानती है? इतनी उसकी भंगिमाएं होती हैं जो हम जानते भी नहीं। और कई बार जब लगता है कि अब इससे जुड़ी सारी बातें जान चुके हैं तभी किसी माध्यम में उससे संबंधित एक नया प्रयोग देखते हैं। देखकर हैरान हो जाते हैं और यह चमत्कार सा लगने लगता है।

शनिवार शाम एसआरसी में देह की इसी एक अनोखी भाषा से साक्षात्कार हुआ। नाटक - एन इवनिंग विद लाल देद के माध्यम से। कश्मीरी, हिन्दी, अंग्रेजी की मिली जुले संवाद में यह मीता वशिष्ठ द्वारा एक घंटे का बिना अंतराल सोलो प्रदर्शन था।

चौदहवीं सदी में कश्मीर में एक रहस्यमयी और चमत्कारी लड़की लल्लेश्वरी का प्रादुर्भाव हुआ। कहा जाता कि वह पानी पर चलती है और उसके पैर नहीं भींगते। तेरह बरस में विवाह हुआ।  उसने अपने आध्यात्मिक और गृहस्थ जीवन में भी सामंजस्य बिठाने का भरसक प्रयास किया, मगर असफल रही। उसकी भाषा कविता शिल्प में होती थी।

मीता ने तत्कालीन कश्मीरी पहनावे, शारीरिक भाषा और स्टेज पर प्रकाश के अंधेरे उजाले के मिश्रण से लल्लेश्वरी का अद्भुत दृश्य उकेरा।

परदा उठते ही एक बारीक सी प्रकाश रेखा मंच की सतह से लगभग चार इंच ऊपर पड़ती है। अंधेरे हाॅल में सिर्फ दो आंखे अब-डब करती काश्मीरी बोलती दिखाई जाती है। और जब रोशनी पूरी फैलती है तो अभिनेत्री सर के बल उल्टा लेटी हुई दिखाई देती है।

शुरू के पांच सात मिनट तक कुछ समझ में नहीं आता। लेकिन धीरे धीरे लगता है जैसे हमसे कोई कुछ खास बातें कहना चाह रहा है। हमारा दिल उससे कनेक्ट होता है और फिर नेटवर्क कट जाता है। हम या तो जुड़ने को फिर से तड़पते हैं या तुड़ने को।

दिन आया, सूरज आया
सूरज गया, चांद रहा
कुछ न रहा तो कुछ न रहा
मगर चित्त न रहा तो रहा क्या



मैं नाची र्निवसना.....
एक जगह जब ऐसा कहा जाता है तो अभिनेत्री अपने माथे पर का फेरन उतार फेंकती है, अपने बाल खोल बिखरा कर झूमकर नाचती है। मुझे लगा कि शायद कला के इस डूबे पल में अगर र्निवस्त्र भी हो जाया जाए तो कथन जस्टिफाई हो जाएगा।



बाद के दिनों में कहते हैं लल्लेश्वरी ने कपड़े पहनने छोड़ दिए। उसकी पहचान का एक एक कपड़ा व्यापारी ने जब उसे एक दिन ऐसे देखा तो उसे एक वस्त्र दिया। लल्लेश्वरी ने उस कपड़े तो बीचोंबीच दो टुकड़े में फाड़ एक दाहिने कंधे और एक बायीं कंधे पर लिया। रास्ते में जो उसे श्रद्धा से देखते या उसके इस रूप को बुरा नहीं मानते तो दायें कंधे पर के कपड़े पर वह एक गांठ बना लेती और जो उसे गालियां देते, बुरी नज़र से देखते तो बायीं कंधे पर के कपड़े पर एक गांठ लगा देती। शाम को उसी कपड़े के व्यवसायी के पास वो दोनों कपड़े का वज़न करवाती है। संयोग से दोनों गांठों का वज़न बराबर निकलता है।

नाटक खत्म होते होते लगा जैसे किसी चीज़ के प्रति सम्मोहित हो रहा हूं, वो कुछ है, पर पता नहीं क्या है।
हाॅल में कम दर्शक थे। मेरे कुछ सवाल थे जो मीता से पूछने थे मगर कृतज्ञता ज्ञापन के बाद वो मंच पर नहीं रूकी और फिर उसके बाद सामने भी नहीं आईं।

शाम ढ़ले जब कमरे पर लौट रहा था तो एक उदासी ने घेर लिया और देर रात तक बुरी तरह उदास रहा।

Tuesday, August 27, 2013

0.01cm Away From Love

डाकिए की ओर से:     कौड़ी भी कई बार यदि थोड़ा महंगा मिले तो कौड़ी के भाव जान पड़ता है। और फिर यदि कोई जिज्ञासा जगाती किताब 50 रूपए सेल के हिसाब से मिलने लगे तो अब इस महंगे हो चले शहर में महीने के बाकी बचे दिनों के लिए औसतन इतने ही रूपए के रोज़ का गुज़ारा निकाल कर भी दिल खुश हो लेता है। प्रगति मैदान में इन दिनों राज्य स्तरीय पुस्तक मेला का आयोजन किया है जो 31 अगस्त तक चलेगी। ये किताब वहीं से मिली। अपनी अंग्रेजी किसी से छुपी नहीं है लेकिन आंखों में तो दम है तजऱ् पर लुगत लेकर बैठें‘गे’ और समझ लें‘गे’। फिलहाल इसी पुस्तक से एक निष्कर्ष आपके लिए पेशे नज्र है, जो दिलदारा नाज़रीन इस तस्वीर से रू-ब-रू हो चुके हैं वे अपने दिल में महफूज़ उन अहसासों से इसका मिलान करे।
***



     It seems that in Chungking Express anyone is only ever 0.01cm away from love, from romance, from truly belonging. At all times, all the characters seem desperately close to having their fantasies, desires and utopian dream fulfilled. But even this tine gap between Cop223 and the Blonde Woman, and Cop 663 and Faye, produces disappointment, despair and a deep yearning/need for the gap to be closed. And yet, paradoxically, when the opportunities emerge for real fleshy connection between the characters, they run away from one another. Cop223 watches TV, eats Chef salads while the woman he has fallen in love with sleeps. It doesn’t seem to cross his mind to get in bed with her, to caress her soft skin, to close the gap. Faye takes flight when confronted by Cop 663 and the now tangible possibility that they will be intimate with one another. She stands him up at the California bar, and makes her way to the ‘real’ California, in effect increasing the gap between them. 

     The core motif that one is only 0.01cm away from love is constructed in a number of ways in the film. Telecommunications provide the gap to converse, to leave messages, to record one’s desires, without being in the exact same, close proximity space as the other person. Chance encounters that don’t quite work out in terms of the precise collision between time and space structure the love affairs in the film. At the beginning of the film, Cop 223 manages to avoid literally falling into/onto the Blonde Woman, asserting the importance of the gap between them. If he had fallen into her arms the sexual outcome between them might have been very different. Faye is seen constantly cleaning, tidying and rearranging Cop 663’s apartment, and yet until the very end of the film, never bumps into him (in his own space!). Goods and food establish or maintain the gap between people. The jilted Cop223 devours his girlfriend’s favorite food because he can no longer have her; the Blonde Woman establishes distance with the drug boss through her commodity disguise (he never gets really close to the real woman, behind the mask); and Cop 663 gets close to Faye through buying the Midnight Express where she used to work.

     However, the sense that one is always in close proximity to love and romance can be seen to be a high positive thing, as if the world is constantly charged by, or at least is on stand-by for the possibility of the intimate encounter. To be always potentially a fraction of a measurement away from someone who you could love forever, is simply electric. Hong Kong provides the potential for this sensuous type of intimacy because of its population density, and diversity in goods, experiences and spaces. 

Chungking Express is a mixed-up film much in the way that the characters are themselves mixed-up (over love, their own identities, desires and needs). In one sense it is clearly influenced by European Art Cinema, and in particular the work of Jan-Luc Godard. In another, it is clearly influenced by (Hollywood) genres, MTV style music videos, and the signs and codes of popular culture more generally. Chungking Express seems to be critical of the influence of goods, brands, and the media on every Hong Kong life; and yet, at the same time, it seems to celebrate the aura of the commodity and the consumption space. Chungking Express pays homage to American culture and yet also shows American culture be hackneyed and empty of any deep, interior meaning (it is ultimately disposable).

Chungking Express seems to be nostalgic for a romantic Hong Kong past of cultural diversity, and fearful of a future under Chinese rule. Chungking Express is a schizophrenic film, full of schizophrenic characters, and diverse and contradictory reference points. But this is what makes the film so fascinating, so thought provoking, so beautifully memorable. One is only ever 0.01cm away from falling love with this film.


Courtesy & ©: auteur

Wednesday, August 14, 2013

आत्मकथा


कला क्या है? क्या यह सबके लिए साध्य है? कलाकार कितने सच्चे होते हैं? कितने ही बने हुए। रचनाओं में कितना यथार्य होता है और कितनी कल्पना? कल्पना और भोगा हुआ सच मिला देने पर जो रचना तैयार होती है क्या वह संगी साथी के साथ न्याय कर पाती है? क्या लेखक एक घाघ होता है? एक ही जीवन में कोई कितना बदल सकता है? आज़ादी की लड़ाई के खातिर जेल जाने वाला आदमी आगे चलकर अपने हर काम की कीमत कैसे वसूलने लगता है? संयम क्या है? रचना में निष्पक्ष रहना, अभिव्यक्ति को बचा ले जाना। लेखक क्या पाठकों द्वारा अपनी आत्मकथा के माध्यम से खुद को बहुत ही दुखी जताकर सहानूभूति लेना चाहता है। क्या लेखक का श्रम आत्मकथा के बहाने सिम्पैथी बटोरने के कार्य में निवेश करना है? क्या लेखक लिख कर बदला लेता है ? क्या लेखक के लिए लिखना एक प्रतिशोधात्मक कार्य है, क्योंकि वो यहीं घालमेल कर अपने लोगों से बदला ले सकता है। जो समाज के नज़रों में प्रतिष्ठित है, कैसे वह अपने लोगों के नज़रों में गुनहगार है।

उपरोक्त सवालों से कल शाम गुज़रना हुआ आत्मकथा नाटक के माध्यम से। यह मेरे अब तक के देखे गए नाटक में सबसे महीन, सबसे उम्दा नाटक था। एहसास के धरातल पर संबंधों की गहन पड़ताल करने के साथ साथ लेखकीय कर्म और उपन्यास में समाहित तत्वों पर जिरह करती हुई इस नाटक को लिखा है महेश एलकुंचवार ने। महेश का लिखा यह नाटक कई बातों के लिए सोचने पर मजबूर कर देता है। बुनावट बहुत बारीक है। इंडिया हैबीटैट सेंटर के आधुनिक मंच पर इसे देखना और भी शानदार अनुभव रहा। कुछ नाटक ऐसे होते हैं जहां सिनेमा बैकफुट पर चला जाता है। पूरे नाटक में अभिनय, संवाद, लाइटिंग की टाइमिंग कमाल की रही। रिसर्चर प्रदान्या के मुख पर शिक्षा के लोकतांत्रिक प्रभाव से आए आत्मविश्वास का तेज़ देखने लायक है। वहीं लेखक की पत्नी उत्तरा और उत्तरा की बहन वासंती के संवाद से नारी मन का गहन विषलेषण करती है।
नाटक का प्रभाव इस कदर तारी रहा कि लगा कला प्रश्न भी करती है, उत्तर भी देती है और संवाद भी करती चलती है। इसका इतना तो प्रभुत्व होता ही है कि मालिकाना हक के साथ कुछ बातें निष्कर्षतः बताकर जिज्ञासा शांत करती है। कुछ आपके दिमाग में खाौलने के लिए छोड़ जाती है जो नींद में खलल का बायस बनता है और रात करवट काटते बीतती है।

कहानी यहां है। लेखक राजध्यक्ष और उत्तरा पति पत्नी हैं। लेखक को एस्ट्रोनोमी में भी खासी दिलचस्पी है। नाटक के अंत में लेखक रिसर्चर को आसमान के तारे दिखाता हुआ बताता है कि वो देवयानी तारा मंडल देख रही हो, वो हमसे इतना दूर है कि उसका प्रकाश हम तक आने में बीस लाख वर्ष लग जाते हैं। आज वो तारा अपनी उम्र पूरी कर चुका होगा और उसका प्रकाश हम तक आ रहा है जिससे हमें यह भ्रम होता है कि वो देवयानी तारा आज भी हमारे बीच है। साथ रहने वाले दो लोगों के बीच भी कई बार ऐसी ही दूरी आ जाती है कि उसका प्रकाश तो हम तक आता रहता है लेकिन वो हमारे बीच नहीं रहता। जीवन के हर क्षण को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, तोड़ने की नहीं।

किसी की यादें किस तरह आपको खाती हैं इस सीन को बेहद प्रभावी ढंग से एक सीन में दिखलाया गया है जब मंच पर अंधेरा होता है, एक कोने की मद्धम पीली रोशनी का प्रकाश सिर्फ लेखक के चेहरे पर पड़ रहा है। वह कोई हरकत नहीं कर रहा और उत्तरा और वासंती उनके उपन्यास की पात्र उर्मिला और वसुधा बनकर उसके चारों और घूमते हुए अपने किरदार की छटपटाहट बयान करती है।

यहां एक उत्तरा मारक संवाद कहती है कि हम झूठे लोग अपनी जिंदगी में सच्चे हैं मगर जिस उपन्यास को मानकर पाठक उस किरदार को सच्चा समझ रहा है दरअसल वही झूठा है।

इस पूरे सीन में लाइट के ज़रिए उत्तरा और वासंती पर शरीर पर पीली धारियां रेंगती दिखाई जाती है जिसका संवादों के बीच पड़ता प्रभाव दर्शकों के मन पर रेंग जाता है।

घटनाओं के कई वर्जन होते हैं। उन्हें भी दिखाया गया है। जब लेखक की पत्नी उत्तरा को वासंती के ज़रिए उसके और लेखक के बीच प्रेम संबंधों का पता चलता है तो.....
उत्तरा: वासंती, तुम घर छोड़ कर चली जाओ
वासंती:    नहीं दीदी, मैं आपको छोड़ कर नहीं जाऊंगी
उत्तरा (दुगने तीव्रता से):    वासंती,घर छोड़ कर जाओ
वासंती:    नहीं दीदी
(वासंती के स्वर में याचना और अपने किए पर पछतावा है)
उत्तरा (चीखते हुए):    घर छोड़ कर चली जाओ
यह कहते हुए उत्तरा माचिस की तीली सुलगाती है और उसे वासंती के चेहरे के समीप ले आती है।
वासंती उत्तरा के क्रोध के डर से कांपने लगती है। उसके हथेलियों की उंगलियां आपस में गुंथ जाती हैं, आंखें फट कर चौड़ी हो जाती है और माचिस की लौ में परिणाम का डर वासंती की आंखों में दिखता है।
वासंती:    मैं चली जाती हूं।

....और भाव भंगिमा में डूबे संवाद के मार्फत नाटक सफल हो उठता है।

तो इस तरह आत्मकथा पर यह एक त्वरित प्रतिक्रिया है। यहां यह स्वीकारोक्ति भी है कि कला और संबंधों की पड़ताल में डाकिया का अंतिम पंक्ति लिखे जाने तक का अतिसीमित ज्ञान।

Monday, June 17, 2013

ऑपरेशन थ्री स्टार


एक बार गधी ने पूछा कि ओ गधे इश्क करता है
मैं जानू पक्का तू मुझको घूरे मुझपे मरता है
तो गधे की तो भई खुली लाॅटरी
बोला मेरी जानम, तू एक हुक्म दे, कदमों में तेरे मर जाऊं हरदम
तो गधी ये बोली, मैं तेरा बायोडाटा लूंगी
मैं  thought करूंगी उस पर तभी लाइन क्लियर मैं दूंगी
तो गधा ये बोला बायोडाटा तो मेरा है ऐसा कि
फट जाए बड़े बड़ों की एटम बम के जैसा
मैं पाया जाता चरता हूं
हां मैदानों के अंदर
और साथ पार्लियामेंट की हर एक सीट के बैठा ऊपर
IAS भी मैं हूं आज का
IPS भी मैं हूं
और
देश चलाते उन मदारियों का
सर्कस भी मैं हूं
मिली जुली सरकार बनाता और गधों को लेकर
फिर झाड़ दुलत्ती झगड़ा करता आप में रो रोकर
तो गधी ने दी एक broad smile 
और बोली यूं बल खाकर,
कि हनीमून मनाएंगे इंडिया गेट पर जाकर
उन मरे जवानों को देंगे सेल्यूट कि जो बस कट गए,
जो आंख मूंद कर 100 करोड़ की आबादी से घट गए

मुल्क की ले ली भईया
बात अलबेली भईया
के देखो Nationality 
चीखती मर गई दैया।

बजते डफली और मंच पर तीस से चालीस कलाकारों द्वारा कोरस में गाए जाने वाले इस गीत को लिखा - पीयूष मिश्रा ने।

इंडिया हैबिटैट सेंटर में दिनांक 15 और 16 जून को डारियो फो द्वारा लिखित प्ले 'The Accidental Death of an Anarchist' का मंचन किया गया। मूल इतावली से अंग्रेजी में अडेप्टेशन के बाद इसका हिन्दी रूपांतरण अमिताभ श्रीवास्तव ने ऑपरेशन थ्री स्टार के शीर्षक से किया है।

कहानी पुलिस कस्टडी में होने वाले मौत को लेकर है कि कैसे निर्दोष लोगों को आतंकवादी बता कर पुलिस कभी इनकाउंटर तो कभी आत्महत्या बता कर मामले को रफा दफा करती है। यही वजह है कि बकौल निर्देशक अरविंद गौर - जब हमने यह नाटक गुज़रात में करने की कोशिश की तो इसे बैन कर दिया गया।




Our task as intellectuals, as persons, who mount the pulpit or the stage, and who, most importantly, address to young people, our task is not just to teach them method….. a technique or a style: we have to show them what is happening around us. They have to be able to tell their own story. A theatre, a literature, an artistic expression that does not speak for its own time has no relevance -----– Dario Fo



इसी आधार पर चलते हुए अस्मिता थियेटर गु्रप सही मायने में सीधे जनता से इटरेक्शन करती वाली गु्रप है। जिनके प्ले के मूल में जनसरोकार, करंट अफेयर्स और जन जागरूकता के मुद्दे होते हैं। नाटक के बीच में यह वैसे संवादों को इंसर्ट करती है जिससे पब्लिक की शार्ट टर्म मेमोरी की जंग छुड़ाती है। कम सुविधा और महज पचास रूपए के टिकट में यह बहुत प्रतिबद्ध नज़र आती है। और यही वजह है कि अरविंद कहते हैं - हमने ऐसे ही बीस साल चला लिए।

पीयूष अस्मिता से चार साल जुड़े रहे हैं। और इस नाटक में सनकी जोकि मुख्य पात्र है उसका किरदार वही करते थे। मूल नाटक में गीत नहीं है लेकिन हिंदीकरण में उत्तेजना और जागरूकता जगाने वाला गीत उनसे लिखवाया गया। नाटक के बीच बीच में पीयूष के गीत का प्रयोग किया गया है।

कल सुबह से हो रही बारिश में सारे कलाकारों के पैर सूजे हुए थे, बावजूद इसके उन्होंने बढि़या प्रदर्शन किया। हां लंबे लंबे, जटिल संवाद के कारण सनकी का फमबल मारना अखरा। तीनों पुलिस ने बहुत अच्छा काम किया। पत्रकार बनी शिल्पी के चेहरे पर थकावट साफ ज़ाहिर थी।

एक प्रयोग के तहत यह दिखाया गया किरदार मूल नाटक से हटकर 16 दिसंबर और भागलपुर पुलिस कस्टडी में मौत के बारे में दर्शकों को याद कराना नहीं भूलते। यह जुझारू छवि को दर्शाता। परिणाम का वर्जन - टू जिस तेज़ी से दिखाया गया वो भी प्रभावित करने वाला रहा।

अभी फाइन साॅल्यूशन, लोगबाग, रामकली और चुकाएंगे नहीं (फिर से) वगैरह बाकी हैं।

Saturday, June 15, 2013

लाल क़िले का आखिरी मुशायरा


इज्जत से काम करने जाओ तो नहीं मिलता और गलत रास्ते अख्तियार करो तो बाइज्जत मिलता है। एसआरसी में कल साढ़े सात बजे खेले जाने वाले नाटक का नाम लाल किले का आखिरी मुशायरा था। अब मेरे जैसा आदमी जो न ठीक से हिन्दी सीख सका, न उर्दू का ही विद्यार्थी बन पाया और इस तरह अधकचरा ज्ञान पाया, सो नाम सुनकर ही उत्साहित हो गया। मज़ा तो तब आया जब टॉम अल्टर का नाम देखा। थियेटर में इनका बड़ा नाम है। अदब से टिकट लेने काउंटर पर गया तो जबाव मिला - सॉरी सर। आल टिकेट्स हैव बीन आलरेडी सोल्ड आऊट सर टाईप जैसा कुछ। हरी घास पर मुंह तिकोना हो आया। फिर वही पटना वाले लाइन पर आना पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस तरह के संघर्ष को राष्ट्रीय शब्दावली में जुगाड़ कहते हैं। फिर शुरू हो गई मुहिम गार्ड को पटाने की। कोशिश रंग लाई और जो लाई तो कहां हम ऊपरी माले के बाड़े में प्लास्टिक कुर्सी पर बैठने वाले कौम और कहां एकदम फ्रंट पर तीसरी लाइन में गद्देदार सीट पर उजले साफे में लिपटे रिजव्र्ड पर आसीन हुए। कुछ ही लम्हें बाद लाल मखमली पर्दा जो उठा तो मुखमंडल भी प्रकाशमान हो उठा। देखते क्या हैं कि एक शमां जली हुई है और तीन उजले पर्दे लटके हैं जो नीचे आकर सिमटे हुए हैं। तीन दरबान सावधान विश्राम की मुद्रा में खड़े हैं। ये ऐसे ही डेढ़ घंटे तक रहे। 

मंच पर बारी बारी से कई शायर आते हैं। और फिर इंट्री होती है बहादुर शाह जफर की यानि टॉम अल्टर की। सत्तर साल के बूढ़े जफर को देखते ही अपनी कक्षा नौ की धुंधली सी याद आई जब मास्टर ने सुनाया था -

न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
                               और
न किसी के आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्‍तेग़ुबार हूँ

न जफ़र  किसी का रक़ीब हूँ न जफ़र  किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्‍न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ

तब जफर क्या थे। हिन्दुस्तान का एक बेबस राजा। शायर थे सो शायरी के शौकीन होने के बायस मुशायरा रखते थे। नाटक में दिखाया गया कि आज के मुशायरे का मंच संचालन मिर्जा नौशा यानि ग़ालिब करेंगे और दाग, बालमुकंद, मुंशी, मोमिन और इब्राहिम जौक आदि भी अपनी गज़ल सुनाएंगे। गालिब पर नाटक में समझ में न आने के काबिल शेर कहने का तंज कसा गया। दाग ने गालिब पर ये शेर दागा - 

अपना कहा जो आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा तो तब है जब आप कहें और सब समझे।

चूंकि बादशाह जफर मंच संचालन नहीं कर रहे थे सो शमां अपनी जगह ही रोशन रही और बारी बारी से शायरों के पास नहीं लाई गई। 

जैसा कि उम्मीद थी कि गालिब छा जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने हाजिरजवाबी मंच संचालक की भूमिका निभाई। मसलन जब एक शायर की बारी आती है तो गालिब उसके बारे में कहते हैं - साहब ब्रितानिया सरकार में अफसर हैं। ग्यारह सौ रूपए सालाना की तनख्वाह पाते हैं इतने की ही बाज़ार में मेरे नाम कर्ज हैं। वहां नौकरी और यहां शाइरी। सो साहब जादूबयानी करते हैं। मंच लूटी मोमिन ने।

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले दिन उनको लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

टूटे हाथ से जब मोमिन ये शेर पढ़ते हैं तो और भी शेर और भी मौजू हो उठता है। मोमिन की आवाज़ मधुर और धीमी रखी गई है। वहीं दाग सबसे बुलंद आवाज़ वाले थे। जौक अपने रूतबे के बायस बुलंद रहते थे।

जफर ने जो सुनाया वो तत्कालीन हिन्दुस्तान का हालाते हाज़रा था। उनके बुढ़ापे ने उनकी बादशाहत की बेबसी को और उभारा। 

ऐसा नहीं था कि यह नाटक बहुत रोचक था। बल्कि नाटक अपने कहानी और शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर था। अव्वल जिन्हें उर्दू की थोड़ी भी जानकारी नहीं उनके लिए तो पूर्णतः नीरस था। कई लोग सिर्फ इसलिए बैठे रहे कि शायद सीन बदले और कोई चेंज आए। नाटक में मुशायरे के अलावा और कुछ नहीं था। जबकि होना ये चाहिए था मुशायरे में तब के हालात पर ज्यादा शेर होने चाहिए थे, मुशायरे से कुछ अलग भी होना चाहिए था। नाटक में वैसा कोई तनाव या उत्तेजना भी नहीं थी। बेहद बंधे दायरे में ये नाटक खेला गया। कहने को कहा जा सकता है कि एक रवायत थी जिसे निभाया जा रहा था। लेखक थोड़ी छूट लेते हुए इसे दिलचस्प बना सकता था जिससे नाटक यादगार हो सकती थी। यहां लेखक ये जवाब दे सकता है कि ऐतिहासिक घटनाओं और किरदारों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

पूरे नाटक के दौरान एक बार भी पर्दा नहीं गिरा। एक ही सीन सिक्वेंस डेढ़ घंटे चलना। वहीं चेहरे मंच पर लगातार रहना, थकाता है।

एम सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं जिन्होंने ये नाटक निर्देशित किया। मंच सज्जा अच्छी थी लेकिन लाईटिंग और भी अच्छी लेकिन मेकअप कमाल था। ऐसी कि जिन किरदारों को अन्य नाटक में देखा था उसे अंत तक नहीं पहचान पाया। मसलन ग़ालिब - ये हरीश छाबड़ा थे। 

हां सारे किरदारों के उर्दू उच्चारण दुरूस्त थे। मंच पर जब जफर की इंट्री हुई तो दर्शकों ने नाटक से अलग उनके सम्मान में ताली बजाकर उनका स्वागत किया।

अंत में जफर साहब की बात - शेर वो नहीं जिसे सुनकर वाह निकल जाए, शेर वो जिसे सुनकर आह निकल आए।

नोट :-ऊपर लिखे सारे शेर स्मृति आधारित हैं, सो उनमें गलतियां संभव है।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...