Monday, June 3, 2013

चुकाएंगे नहीं?


नाटक में सबसे इफेक्टिव रंग उसका लोकधर्मी होना लगता है। वैसे तो सारे फ्लेवर ठीक हैं लेकिन अगर नाटक की कहानी और पात्र रोजमर्रा से जुड़े पब्लिक कंसर्न रखती है तो दर्शक उससे सहज की कनेक्ट हो जाती है। लोकधर्मी नाटक पब्लिक को सही मायने में मंच पर घट  रही तात्कालिकता में बहा ले जाने की क्षमता रखता है। दर्शक उस वक्त न सिर्फ उससे गहरा जुड़ाव महसूस करता है बल्कि वह आंदोलित भी हो सकता है।

एक ऐसा ही नाटक कल यानि रविवार को आई एच सी (इंडिया हैबिटैट सेंटर) में अस्मिता थियेटर ग्रुप की ओर से खेला गया। शीर्षक था - चुकाएंगे नहीं? अस्मिता थियेटर इन दिनों अपना ग्रीष्म कालीन समारोह मना रहा है जिसके अंतर्गत मंटो आधारित पार्टिशन, कोर्ट मार्शल, लोग बाग, रास्ते चुकाएंगे नहीं? खेली जा चुकी है। और आपरेशन थ्री स्टार, फाइनल साॅल्यूशन, मोटेराम का सत्याग्रह, एक मामूली आदमी, अंबेदकर और गांधी और रामकली आदि खेले जाने हैं।

चुकाएंगे नहीं मूलतः एक इटैलियन नाटक है जो कि एक राजनीतिक व्यंग्य है जिसे डारियो फो ने लिखा है। डारियो फो को 1997 का साहित्य नोबोल पुरस्कार मिला है। उन्होंने और उनकी अभिनेत्री पत्नी फ्रांका रामे ने मिलकर आम आदमी को केंद्र में रखकर कुछ बेहद चुटीले प्ले लिखे हैं जोकि राजनीतिक व्यंग्य हैं। रामे अभी पांच-छह रोज़ पहले ही हमसे जुदा हुईं सो अरविंद गौड़ निर्देशित यह नाटक उन्हीं की याद में किया गया। अंग्रेजी से इसे हिंदी में अडेप्ट किया था अमिताभ श्रीवास्तव ने।

पहले के दो दृश्यों में मेरा मन नहीं रमा। लगा किसी भी क्षण सीट छोड़ दूंगा। लेकिन जब इसने रंग पकड़ा तो गहरा होता गया। मुख्य नायिका शिल्पी मारवाहा ने गला बैठे होने के बावजूद भी शानदार अभिनय किया। नाटक के अंत में पीली रोशनी में काले लिबास में पूरा थियेटर गु्रप मंच पर डफली बजाते और नारे लगाते उतर आई और अरविंद गौड़ खुद मुखातिब हुए। कुछ बातें भी हुई मसलन उन्होनें कहा कि एक नाटक के टिकट का दाम पांच सौ रूपए होने को कोई मतलब नहीं बनता। इस तरह तो आप इस विधा को दर्शकों से दूर ले जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि हमारा ये अस्मिता थियेटर गु्रप आपको आगामी 21 जून को आने वाली फिल्म रांझना में भी इसी पब्लिक कंसर्न के मुद्दे को उठाती फिल्म के पृष्ठभूमि में यहां वहां दिखेगी।

बाज़ारीकरण और मुनाफाखोरी के आलम में एक आम आदमी और उसका परिवार किस तरह जूझता है इसका चित्रण नाटक में किया गया है। एक सुपर बाज़ार को लूट कर एक मुहल्ले की गृहणी राशन पानी को गोदामों में छुपाती हैं और छुपाए जाने के इस उपक्रम को गर्भवती होने के नाटक कर अंजाम देती हैं। आदर्शवाद और नैतिकतावादी होने का बोझ लिए एक आम आदमी कितनी तहों में पिसता है! कैस नेताओं और बड़े पुलिस अधिकारियों के पास जाते ही समाजिक समीकरण बदलने लगते हैं। इस असंतुष्ट व्यवस्था में भी कई खाए अघाए लोग ऐसे हैं जो चाहते हैं कि यह चलता रहे क्यों आटा अगर 110 रूपए मिल रही है तो उन्हें कहीं से चालीस पचास हज़ार रूपए आ भी तो रहे हैं।

रूपए का अवमूल्यन हुआ है और इससे कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी क्या हो रही है इसका यथार्थ चित्रण किया गया है। रात के सन्नाटे में दो दोस्त मिलकर जबकि मंच पर मद्धिम रोशनी है जब चीनी की बोरी उठाते हैं, उस क्रम में हांफते, पुलिस की डर से गिरते-पड़ते और चीखते हैं तो रोशनी में उड़ रही गर्द को देखकर यकायक दर्शकों में चुप्पी छा जाती है।

जब एक किरदार अपने साथी को हो रहे अन्याय, बढ़ रही महंगाई और अर्थव्यवस्था की पोल खोल रहा होता है तो दरअसल वह हम दर्शकों को आज का इकोनाॅमिक्स बता रहा होता है।

नाटक की कहानी धीरे धीरे इस कदर बांध लेती है कि हर दृश्य के खत्म होने के बाद अगले सीन की उत्सुकता जागती रहती है।

नाटक देखकर मैं सोचने लगा कि हम सुख और सुविधा के कितने आदि हो गए हैं कि अब विरोध करना ही भूल गए हैं।

शिल्पी की इंडिया गेट, जंतर मंतर पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों में और नुक्कड़-नाटकों में उसकी उपस्थिति को लेकर की तारीफ बहुत सुनी थी सो नाटक के बाद मैंने उससे हाथ मिलाया। पीसने से तर उसके चेहरे पर लगता था मोतियों की लडि़या झूल रही हो। हाथ बेहद लचीले थे और बैठे गले से ही अपने होठों को हंसते हुए फैलाकर कहा - थैंक यू सर। मैं शर्मिंदा हुआ और कहा  - सर! नहीं सर नहीं।
उसने कहा - ओ. के. सर ! और हम दोनों हंस पड़े।

1 comment:

  1. जाना एक अच्छे नाटक के बारे में ...आभार...

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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