Tuesday, August 27, 2013

0.01cm Away From Love

डाकिए की ओर से:     कौड़ी भी कई बार यदि थोड़ा महंगा मिले तो कौड़ी के भाव जान पड़ता है। और फिर यदि कोई जिज्ञासा जगाती किताब 50 रूपए सेल के हिसाब से मिलने लगे तो अब इस महंगे हो चले शहर में महीने के बाकी बचे दिनों के लिए औसतन इतने ही रूपए के रोज़ का गुज़ारा निकाल कर भी दिल खुश हो लेता है। प्रगति मैदान में इन दिनों राज्य स्तरीय पुस्तक मेला का आयोजन किया है जो 31 अगस्त तक चलेगी। ये किताब वहीं से मिली। अपनी अंग्रेजी किसी से छुपी नहीं है लेकिन आंखों में तो दम है तजऱ् पर लुगत लेकर बैठें‘गे’ और समझ लें‘गे’। फिलहाल इसी पुस्तक से एक निष्कर्ष आपके लिए पेशे नज्र है, जो दिलदारा नाज़रीन इस तस्वीर से रू-ब-रू हो चुके हैं वे अपने दिल में महफूज़ उन अहसासों से इसका मिलान करे।
***



     It seems that in Chungking Express anyone is only ever 0.01cm away from love, from romance, from truly belonging. At all times, all the characters seem desperately close to having their fantasies, desires and utopian dream fulfilled. But even this tine gap between Cop223 and the Blonde Woman, and Cop 663 and Faye, produces disappointment, despair and a deep yearning/need for the gap to be closed. And yet, paradoxically, when the opportunities emerge for real fleshy connection between the characters, they run away from one another. Cop223 watches TV, eats Chef salads while the woman he has fallen in love with sleeps. It doesn’t seem to cross his mind to get in bed with her, to caress her soft skin, to close the gap. Faye takes flight when confronted by Cop 663 and the now tangible possibility that they will be intimate with one another. She stands him up at the California bar, and makes her way to the ‘real’ California, in effect increasing the gap between them. 

     The core motif that one is only 0.01cm away from love is constructed in a number of ways in the film. Telecommunications provide the gap to converse, to leave messages, to record one’s desires, without being in the exact same, close proximity space as the other person. Chance encounters that don’t quite work out in terms of the precise collision between time and space structure the love affairs in the film. At the beginning of the film, Cop 223 manages to avoid literally falling into/onto the Blonde Woman, asserting the importance of the gap between them. If he had fallen into her arms the sexual outcome between them might have been very different. Faye is seen constantly cleaning, tidying and rearranging Cop 663’s apartment, and yet until the very end of the film, never bumps into him (in his own space!). Goods and food establish or maintain the gap between people. The jilted Cop223 devours his girlfriend’s favorite food because he can no longer have her; the Blonde Woman establishes distance with the drug boss through her commodity disguise (he never gets really close to the real woman, behind the mask); and Cop 663 gets close to Faye through buying the Midnight Express where she used to work.

     However, the sense that one is always in close proximity to love and romance can be seen to be a high positive thing, as if the world is constantly charged by, or at least is on stand-by for the possibility of the intimate encounter. To be always potentially a fraction of a measurement away from someone who you could love forever, is simply electric. Hong Kong provides the potential for this sensuous type of intimacy because of its population density, and diversity in goods, experiences and spaces. 

Chungking Express is a mixed-up film much in the way that the characters are themselves mixed-up (over love, their own identities, desires and needs). In one sense it is clearly influenced by European Art Cinema, and in particular the work of Jan-Luc Godard. In another, it is clearly influenced by (Hollywood) genres, MTV style music videos, and the signs and codes of popular culture more generally. Chungking Express seems to be critical of the influence of goods, brands, and the media on every Hong Kong life; and yet, at the same time, it seems to celebrate the aura of the commodity and the consumption space. Chungking Express pays homage to American culture and yet also shows American culture be hackneyed and empty of any deep, interior meaning (it is ultimately disposable).

Chungking Express seems to be nostalgic for a romantic Hong Kong past of cultural diversity, and fearful of a future under Chinese rule. Chungking Express is a schizophrenic film, full of schizophrenic characters, and diverse and contradictory reference points. But this is what makes the film so fascinating, so thought provoking, so beautifully memorable. One is only ever 0.01cm away from falling love with this film.


Courtesy & ©: auteur

Wednesday, August 14, 2013

आत्मकथा


कला क्या है? क्या यह सबके लिए साध्य है? कलाकार कितने सच्चे होते हैं? कितने ही बने हुए। रचनाओं में कितना यथार्य होता है और कितनी कल्पना? कल्पना और भोगा हुआ सच मिला देने पर जो रचना तैयार होती है क्या वह संगी साथी के साथ न्याय कर पाती है? क्या लेखक एक घाघ होता है? एक ही जीवन में कोई कितना बदल सकता है? आज़ादी की लड़ाई के खातिर जेल जाने वाला आदमी आगे चलकर अपने हर काम की कीमत कैसे वसूलने लगता है? संयम क्या है? रचना में निष्पक्ष रहना, अभिव्यक्ति को बचा ले जाना। लेखक क्या पाठकों द्वारा अपनी आत्मकथा के माध्यम से खुद को बहुत ही दुखी जताकर सहानूभूति लेना चाहता है। क्या लेखक का श्रम आत्मकथा के बहाने सिम्पैथी बटोरने के कार्य में निवेश करना है? क्या लेखक लिख कर बदला लेता है ? क्या लेखक के लिए लिखना एक प्रतिशोधात्मक कार्य है, क्योंकि वो यहीं घालमेल कर अपने लोगों से बदला ले सकता है। जो समाज के नज़रों में प्रतिष्ठित है, कैसे वह अपने लोगों के नज़रों में गुनहगार है।

उपरोक्त सवालों से कल शाम गुज़रना हुआ आत्मकथा नाटक के माध्यम से। यह मेरे अब तक के देखे गए नाटक में सबसे महीन, सबसे उम्दा नाटक था। एहसास के धरातल पर संबंधों की गहन पड़ताल करने के साथ साथ लेखकीय कर्म और उपन्यास में समाहित तत्वों पर जिरह करती हुई इस नाटक को लिखा है महेश एलकुंचवार ने। महेश का लिखा यह नाटक कई बातों के लिए सोचने पर मजबूर कर देता है। बुनावट बहुत बारीक है। इंडिया हैबीटैट सेंटर के आधुनिक मंच पर इसे देखना और भी शानदार अनुभव रहा। कुछ नाटक ऐसे होते हैं जहां सिनेमा बैकफुट पर चला जाता है। पूरे नाटक में अभिनय, संवाद, लाइटिंग की टाइमिंग कमाल की रही। रिसर्चर प्रदान्या के मुख पर शिक्षा के लोकतांत्रिक प्रभाव से आए आत्मविश्वास का तेज़ देखने लायक है। वहीं लेखक की पत्नी उत्तरा और उत्तरा की बहन वासंती के संवाद से नारी मन का गहन विषलेषण करती है।
नाटक का प्रभाव इस कदर तारी रहा कि लगा कला प्रश्न भी करती है, उत्तर भी देती है और संवाद भी करती चलती है। इसका इतना तो प्रभुत्व होता ही है कि मालिकाना हक के साथ कुछ बातें निष्कर्षतः बताकर जिज्ञासा शांत करती है। कुछ आपके दिमाग में खाौलने के लिए छोड़ जाती है जो नींद में खलल का बायस बनता है और रात करवट काटते बीतती है।

कहानी यहां है। लेखक राजध्यक्ष और उत्तरा पति पत्नी हैं। लेखक को एस्ट्रोनोमी में भी खासी दिलचस्पी है। नाटक के अंत में लेखक रिसर्चर को आसमान के तारे दिखाता हुआ बताता है कि वो देवयानी तारा मंडल देख रही हो, वो हमसे इतना दूर है कि उसका प्रकाश हम तक आने में बीस लाख वर्ष लग जाते हैं। आज वो तारा अपनी उम्र पूरी कर चुका होगा और उसका प्रकाश हम तक आ रहा है जिससे हमें यह भ्रम होता है कि वो देवयानी तारा आज भी हमारे बीच है। साथ रहने वाले दो लोगों के बीच भी कई बार ऐसी ही दूरी आ जाती है कि उसका प्रकाश तो हम तक आता रहता है लेकिन वो हमारे बीच नहीं रहता। जीवन के हर क्षण को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, तोड़ने की नहीं।

किसी की यादें किस तरह आपको खाती हैं इस सीन को बेहद प्रभावी ढंग से एक सीन में दिखलाया गया है जब मंच पर अंधेरा होता है, एक कोने की मद्धम पीली रोशनी का प्रकाश सिर्फ लेखक के चेहरे पर पड़ रहा है। वह कोई हरकत नहीं कर रहा और उत्तरा और वासंती उनके उपन्यास की पात्र उर्मिला और वसुधा बनकर उसके चारों और घूमते हुए अपने किरदार की छटपटाहट बयान करती है।

यहां एक उत्तरा मारक संवाद कहती है कि हम झूठे लोग अपनी जिंदगी में सच्चे हैं मगर जिस उपन्यास को मानकर पाठक उस किरदार को सच्चा समझ रहा है दरअसल वही झूठा है।

इस पूरे सीन में लाइट के ज़रिए उत्तरा और वासंती पर शरीर पर पीली धारियां रेंगती दिखाई जाती है जिसका संवादों के बीच पड़ता प्रभाव दर्शकों के मन पर रेंग जाता है।

घटनाओं के कई वर्जन होते हैं। उन्हें भी दिखाया गया है। जब लेखक की पत्नी उत्तरा को वासंती के ज़रिए उसके और लेखक के बीच प्रेम संबंधों का पता चलता है तो.....
उत्तरा: वासंती, तुम घर छोड़ कर चली जाओ
वासंती:    नहीं दीदी, मैं आपको छोड़ कर नहीं जाऊंगी
उत्तरा (दुगने तीव्रता से):    वासंती,घर छोड़ कर जाओ
वासंती:    नहीं दीदी
(वासंती के स्वर में याचना और अपने किए पर पछतावा है)
उत्तरा (चीखते हुए):    घर छोड़ कर चली जाओ
यह कहते हुए उत्तरा माचिस की तीली सुलगाती है और उसे वासंती के चेहरे के समीप ले आती है।
वासंती उत्तरा के क्रोध के डर से कांपने लगती है। उसके हथेलियों की उंगलियां आपस में गुंथ जाती हैं, आंखें फट कर चौड़ी हो जाती है और माचिस की लौ में परिणाम का डर वासंती की आंखों में दिखता है।
वासंती:    मैं चली जाती हूं।

....और भाव भंगिमा में डूबे संवाद के मार्फत नाटक सफल हो उठता है।

तो इस तरह आत्मकथा पर यह एक त्वरित प्रतिक्रिया है। यहां यह स्वीकारोक्ति भी है कि कला और संबंधों की पड़ताल में डाकिया का अंतिम पंक्ति लिखे जाने तक का अतिसीमित ज्ञान।
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