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Wednesday, October 27, 2010

आ कर देखो उस पौधे पर फूल आया है

गुलज़ार मुझे सर्दियों के सुबह पार्क में नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं. कुछ खोना और उसकी कसक किसी ठंढे पल में महसूस  करना... खैर ये तो हुई मेरी यानि डाकिये की बात.. आप के लिए आज ये है. उन्ही की कुछ नज्में...




१.
ठीक से याद नहीं...


ठीक से याद नहीं, 
फ़्रांस में "बोर्दो" के पास कहीं 
थोड़ी-सी देर रुके थे.
छोटे से कसबे में, एक छोटा-सा लकड़ी का गिरजा,
आमने "आल्टर'' के, बेंच था...
एक ही शायद 
भेद उठाये हुए एक "ईसा" की चोबी मूरत !
लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए,
पिघली हुई मोम में कुछ डूबे हुए,
जिस्म पर मेखें लगी थीं
एक कंधे पे थी, जोड़ जहाँ खुलने लगा था
एक निकली हुई पहलु से, जिसे भेद की टांग में ठोंक दिया था
एक कोहनी के ज़रा नीचे जहाँ टूट गयी थी लकड़ी..
गिर के शायद... या सफाई करते.

२.
कभी आना पहाड़ों पर

कभी आना पहाड़ों पर...
धुली बर्फों में नम्दे डालकर आसन बिछाये हैं 
पहाड़ों की ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमे खींचे हैं 
तनाबें बाँध रखी हैं कई देवदार के मजबूत पेड़ों से
पलाश और गुलमोहर के, हाथों से काढ़े हुए तकिये लगाये हैं 
तुम्हारे रास्तो पर छाँव छिडकी है
में बादल धुनता रहता हूँ,
की गहरी वादियाँ खाली नहीं होतीं
यह चिलमन बारिशों की भी उठा दूंगा, जब आओगे.
मुझे तुमने ज़मीं दी थी 
तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
कभी फुर्सत मिले जब बाकी कामों से, तो आ जाना 
किसी "वीक एंड"  पर आ जाओ 

३.
दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम

दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम
उस तरफ से उसने कुछ कहा जो मुझ तक आते-आते
रास्ते से शोर-ओ-गुल में खो गया..
मैंने कुछ इशारे से कहा मगर,
चलते-चलते दोनों की नज़र ना मिल सकी
उसे मुगालता है मैं उसी की जुस्तजू में हूँ 
मुझे यह शक है, वो कहीं
वो ना हो, जो मुझ से छुपता फिरता है !
सर्दी थी और कोहरा था,
सर्दी थी और कोहरा था और सुबह
की बस आधी आँख खुली थी, आधी नींद में थी !
शिमला से जब नीचे आते/एक पहाड़ी के कोने में 
बसते जितनी बस्ती थी इक /बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लाकिट जितनी
नींद भरी दो बाहों जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के,
दो मासूम खुदा सोये थे!

(ताज़ा कविता संग्रह पंद्रह पांच पचहत्तर वाणी प्रकाशन 
और यहाँ राष्ट्रीय दैनिक हिंदुस्तान से  साभार )
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