Wednesday, September 8, 2010

उजाले उनकी यादों के - 3

मौलाना हसरत मुआनी
{Part-3 & Last}


मौलाना.... देखिए क्या-क्या कीन्स थे मौलाना में, मौलाना subtenant के बड़े कायल थे। सियासत में वो conservative नहीं थे- कि भई कांग्रेस में हैं तो कांग्रेस में रहे मुस्लिम लीग में हैं तो मुस्लिम लीग में रहें। जब कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कोंफ्रेंस यानि  formation हुआ कम्यूनिस्ट पार्टी का तो मौलाना वो थे... चेयरमैन reception कमेटी के president थे कम्यूनिस्ट पार्टी की formation वाली conference में मौलाना- कांग्रेस में मौलाना रहे, मुस्लिम लीग में मौलाना रहे। कम्यूनिस्ट पार्टी में मौलाना रहे, सौबियत यूनियन के बहुत मुरीद रहे, सौबियट यूनियन पर बेइन्तहा अशार हैं सौवियत सौवियत सौवियत करते रहते थे। एक दफा उनको लखनऊ में FSU एक Friends of the Saubiyat Union अटैक हुआ हिटलर का सौबियट यूनियन पर तो active हो गई organization एक मीटींग एक conference की जिसमे जवाहर लाल, सरोजिनी नायडू भी आईं। मौलाना भी पहुंचे, उस जमाने में कम्यूनिस्ट पार्टी की लाईन हो गई थी कि हम सौबियट यूनियन पर अटैक हुआ इसलिए ये जंग जो है रूस की जंग हमारी जंग हो गई, हमको उस जंग को support करना चाहिए। पहले तो जंग के खिलाफ थे, तो ये कहते थे कि ये peoples war है तो peoples war को हमको support करना चाहिए। मौलाना के ये बात गले से उतरती नहीं थी कि मैं अंग्रेज के खिलाफ जंग कैसे खत्म कर सकता हूं, छोड़ सकता हूं, अंग्रेज कि खिलाफ लड़ाई लड़नी जरूरी है। कम्यूनिस्ट कहते थे कि अभी नहीं अभी हम रूस के ताहीत कर लें। तो खैर जवाहर लाल ने तकरीर की। सरोजिनी नायडू सदारत कर रहीं थी, उन्होंने तकरीर कि फिर मौलाना को दावत दी गई कि आप तशरीफ़ लाएं। मौलाना खड़े हुए, कहने लगे कि मझसे कहा जाता है कि ये peoples war है peoples war है अरे कहां, अरे साहब, एक भूत पीपल पर बैठा है, एक सर पर बैठा है पीपल के भूत को भगाऊं की सर के भूत को भगाऊं पहले। लफ़्ज़ों से बहुत खेलते थे, जब Crishp Mission आया यहां पर हिन्दुस्तानी आज़ादी के सिलसिले में बड़े सारे मिशन आते रहे न तो यह जो क्रिश्प मिशन था इसके नाम से एक मिशन शुरू हुआ. क्रिश्प मिशन, मौलाना बहुत हंसे, तकरीर करने हम लोगों ने बुलाया कि तक़रीर कीजिए, तक़रीर करने में बोले, I want show good leather and  good soal not crisp, reject, जब सन 1942 में गांधीजी ने Quit India mission शुरू किया तो कहने लगे कि मैंने कहा मौलाना अब तो आप खुश हैं कहने हां अब तो मैंने telegram आज गांधी जी का दे दिया है। क्या मौलाना, क्या गांधी को टेलीग्राम दे दिया है। कहने लगे कि मैंने लिख दिया है कि Congratulations your non-vilance and my vilance मीत.  दोनों में सुलह हो गई। तो मौलाना के पास जब पहुंचे साब तो उन्होंने हमारी दरखवास्त कबूल की- मौलाना के कोई एक दो शेयर तुम लोगों को सुना दें हम अपने एक तो हमने बताया- खैरत का नाम जुनू पड़ गया, जुनू का खैरत जो चाहे कहो हुस्ने करिश्ता साज़ कहे,  ऐ कै नजाम के हिन्द तुझको है दिल से आरज़ू, हिम्मते सरबलन्द है यास का इन्तजात कर मायूस मत होना। इसक खत्म कर दो- हिम्मते सरबलन्द है यास का इन्तजात़ कर- देखिए ये शेयर बड़ा दिलचस्प कहा है इन्होने- हक़ से बाउजरे मसलेहत, वक्त पे जो करे ग़ुरेज़ उसको न पेशवा समझ, उसपे न  ऐतमात कर- यानि ये मसल है कि वक्त में ऐसा है कि मुझे ऐसा करना चाहिए था, इसलिए मैं वहां जेल नही जा सका। जो वक्त पर इस किस्म के मसलेहत कि भई अब मसलेहत अब ऐसी नहीं है। इसलिए छोड़ दो इस तहरीक़ को, ब हक़ से उजरे मसलेहत, वक्त पर जो करे गु़रेज उसको न पेशवा समझ, उसपे न एतमात कर। इसी सलाबत तो character की, मौलाना की आजादी जो थी मौलाना की, सर न झुकाने की जो बात थी- ये बहुत ही लोगों को जाहिर है कि बहुत से लोगों को embrace भी करते थे लोगों को, लेकिन यही चीज़ थी जो मौलाना को इनको हमारे फैज़ अहमद फैज़ ने खराज-ए-अकिदद किया है। 

जैसे हमने बताया था कि मग़दूद मुइनुद्दीन के लिए उन्होंने दो गज़लें लिखी थीं वैसे ही इनके मौलाना के लिए भी, इन्हीं के बहर में, खैर फैज़ ने भी इनके पेश किया है इनके Tribute में, मौलाना के मिजाज में जो सलाबत्त थी जो लोहे की तरह की सख़्ती थी कि हठ नहीं सकते थे अपने लाईन से कभी उसने लोगों मुत्तासिर किया और फिर.... 


एक दिलचस्प वाकया और सुनाएं वहां हैदराबाद में एक Conference हुयी कि तरक्की पसन्द मुसन्नफीन की वहां हमारे दोस्त सिब्तेहसन ने और दूसरे लोगों ने एक resolution  पेश किया कि साहब ये फोहश अफसीन चीजें लिखते हैं और तरक्की पसन्द कहते हैं कि तरक्की पसन्द नहीं होते वो हम उसके तनकीत करते और और उसके मुखालिफत करते हैं ये नहीं होना चाहिए अदब में। उसकी मुखालिफ़त किसने की ? हमारे मौलाना ने, कहने लगे नाजु़क किस्म की चीजों पर बहुत रूहानी किस्म की चीजें इस किस्म की चीजें, को उन्होनें argument दिया कि ये बहुत जरूरी है अगर आप इस किस्म की चीजें निकाल देंगे तो शेयर ही नहीं रह जाएगा लेकिन क्या फायदा कहने से तो थोड़ी बहुत तो opportunity  फराहत होनी चाहिए लेकिन फोहश नहीं होता वो... बल्कि दिल को छू लेने वाला होता है। कानपुर ही वो मुकाम है जहां हम गिरफ्तार हुए उसकी वजह ये हुयी कि जवाहर लाल नेहरू गलिबन गिरफ्तार हुए थे कोई मौका था। 

हां मौलाना के कुछ अशार सुनाए थे न, और उनकी खिदमत में नज़रे पेश किया है, आज के शायर थे हमारे जमाने के जो बड़े शायर जो था फैज़ अहमद फैज़ उन्होंने मौलना की नज़रे अकीदत पेश किया है गज़ल में जो मौलाना की ही गज़ल पर गज़ल कही है उन्होंने। वो दो चार शेयर पढ़के सुनाता हूं। कि किस तरह से लोगों को मौलना ने मुत्तासिर किया था। फैज़ भी उनसे मुत्तासिर हुए हैं।
"मर जाएंगे ज़ालिम की हिमायत न करेंगे
एहराग कभी तरके रवायत न करेंगे 
क्या कुछ न मिलेगा है जो कभी तुझसे मिले थे
अब तेरे न मिलने की शिकायत न करेंगे।
शत बीत गई तो गुजर जाएगा दिन भी, 
हर लहजा जो गुजरी वो हिकायत न करेंगे, 
ये फ़करे दिले जार का, आज़ाना बहुत है, 
शाही न मांगेंगे विलायत न करेंगे। 
हम शेख न लीडर, न मुसाहिब, न सहाफी, 
जो खुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे"

... मौलाना हसरत मुआनी पर फैज़ का ट्रिब्यूट
*****

डाकिये की ओर से: : यह ऑडियो रेकॉर्डिंग को सुनकर लिखा गया है... उर्दू शब्दों की भरपूर गलतियाँ होंगी. तो मुआफी.... और अब फिल्म निकाह का ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ में 'चुपके-चुपके रात दिन... " भी सुन आइये जिसे मौलाना हसरत मुआनी से लिखा है. 

वक़्त-ए-रुखसत अलविदा का लफ्ज़ कहने के लिए,
वो तीरे सूखे लबों का थरथराना याद है.

बेरुखी के साथ सुनना दर्द-ए-दिल की दास्ताँ 
और कलाई में तेरा वो कंगन घुमाना याद है.
(यह दोनों शेर ऑफ़ थे रिकॉर्ड हैं ) साथ बने रहने का शुक्रिया.

4 comments:

  1. शेर भी बढ़िया लगा और जानकारीपूर्ण प्रस्तुति रोचक हैं....

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  2. बुकमार्क करवाने पे आ गए यार तुम तो..

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  3. ताहम... said..
    .
    ये पोस्ट मेरे लिए काफी महत्वपूर्ण, हसरत मोहानी की एक और खासियत रही है कि एक उग्र भाव के क्रांतिकारी होते हुए उन्होंने श्रृंगार साहित्य बहुत लिखा और बेहद संजीदा,संवेदनशील भी।
    ...

    Nishant kaushik

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  4. मौलाना हसरत मुआनी ...एक सरसरी निगाह डालें तो उनके व्यक्तित्व के साथ उसके लेखन में बड़ा विरोधाभास दिखता है, आज़ादी-ऐ-कामिल का झंडाबरदार, और 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना...' का रचनाकार, दोनों एक हो ही नहीं सकते, यकीनन ये दोनों अलग अलग शख्सियत हैं.
    पर.....
    जैसे जैसे आप इनको अधिक जानते हैं (साभार: सागर) वैसे वैसे आप न सिर्फ इनको जानते हैं, ज़िन्दगी का भी एक फलसफाना-तजुर्बा होता है, किसी 'फिनोमिना' का विरोध वास्तव में किसी दूसरे 'फिनोमिना' से प्रेम करना ही तो है. हर पाक-जंग के पीछे, कोई पाक-मकसद होता है. जो देश प्रेम कर सकता है, वो प्रकृति प्रेमी, कला प्रेमी भी होगा ही....
    उदहारण कई हैं. बस यहाँ पर, इनके केस में दोनों ही विपरीत लगता है...
    और यकीनन शिद्दत ज़रूरी है, जो इश्क शिद्दत से करेगा वो नफ़रत (वैसे इसे नफ़रत के लिटरल टर्म्स में न लेवें) भी शिद्दत से करेगा.
    बाकी मेरी तरफ से इतना है, सागर सा'ब ने कहने को कुछ छोड़ा हो तब न...
    "स्पष्ट लिखने वालों के पाठक होते हैं और अस्पष्ट लिखने वालों के समीक्षक (टिप्पणीकर्ता)" -अब्राहम लिंकन



    PS:बैरंग में प्रयोग की गयी सभी ध्वनी, चित्र....
    ...अरे ! ध्वनी हैं कहाँ? बड़ी रिकोर्डिंग विकोर्डिंग करते हो सुना है? एक गाना ही सुना देते, वो निकाह वाला....:-)

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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