डाकिए की ओर से: नहीं इसकी जरूरत नहीं थी लेकिन इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। नींद की दो गोलियां खा कर भी यदि गोधूलि बेला तक जागते रहें तो लानत है विज्ञान की तरक्की पर। ऐसे में केदारनाथ सिंह की कविताएं अच्छी हैं जो कंबल के बाहर निकलते और ठंडे होते पैर को गर्म करती हैं। बहुत बेचैनी में एक बेहतर कविता बहुत जिम्मेदारी से कंधे को कुव्वत देता हैं। तो आभार इसका कि जिसने अक्सर ही शरीर के अंदर विलुप्त होती कुछ प्रजाति को खोज निकाला है।
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पानी एक रोशनी है
इन्तज़ार मत करो
जो कहना हो
कह डालो
क्योंकि हो सकता है
फिर कहने का कोई अर्थ न रह जाए
सोचो
जहां खड़े हो वहीं से सोचो
चाहे राख से ही शुरू करो
मगर सोचो
उस जगह की तलाश व्यर्थ है
जहां पहंचकर यह दुनिया
एक पोस्ते के फूल में बदल जाती है
नदी सो रही है
उसे सोने दो
उसके सोने से
दुनिया के होने का अन्दाज मिल रहा है
पूछो
चाहे जितनी बातर पूछना पड़े
चाहे पूछने में जितनी तकलीफ हो
मगर पूछो
पूछो कि गाड़ी अभी कितनी लेट है !
पानी एक रोशनी है
अंधेरे में यही एक बात है
जो तुम पूरे विश्वास के साथ
कह सकते हो दूसरे से।
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मुक्ति
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूं
मैं लिखना चाहता हूं ‘पेड़‘
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूं ‘पानी‘
‘आदमी‘ ‘आदमी‘ - मैं लिखना चाहता हूं
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं।
साभार: केदारनाथ सिंह की प्रतिनिधि कविताएं।