Friday, May 31, 2013

h.e.p.p.u.l.l.h.a


डाकिए की ओर से: एक अज़ीज़ दोस्त ने बड़ा जेनुइन खरा माल भेजा है। एक्टर श्याम पर मंटो का संस्मरण। फिल्मी दुनिया के इन लोगों पर मंटो ने जो मंज़रनामा लिखा जो आगे चलकर मीनाबाज़ार के नाम से पब्लिश हुआ। इसे पढ़ा है दास्तानगोई वाले महमूद फारूखी ने। साभार: The Big Indian Picture Curtsey: TBIP - http://thebigindianpicture.com

Monday, May 27, 2013

साहेब, बीवी और मंटो


बीती शनिवार इंडिया हेबिटेट सेंटर में सक्षम थियेटर द्वारा ‘साहेब, बीवी और मंटो' खेली गई। इसके तहत मंटो के आओ सिरीज़ में से छह का मंचन किया गया जिसमें आओ ताश खेलें, आओ झूठ बोलें, आओ बहस करें, आओ अखबार पढ़े और आओ चोरी करें शामिल था। मैं थोड़े देर से पहुंचा, नाटक खुले आसमान के नीचे खेला जा रहा था। भीषण गर्मी में जहां लोग नाटक का पम्फलेट लेकर ही उसे पंखा बनाए देख रहे थे वहीं उसकी रिकाॅडिंग कर रही दूरदर्शन का कैमरा भी लगा हुआ था। लगी हुई लाईट्स के कारण सभी के ओठों के ऊपर माथे के किनारे और बाहों पर नन्हीं नन्हीं पसीने की बूंदें हर कुछ देर पर उभर आती थीं।

कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि लगता मंटो भी यहीं कहीं आसपास ही है। उसके नाटक के किरदार बहुत बोलते हैं। नाटक देखते देखते सोचने लगा क्या उसने अपने समय में सोचा होगा कि यहां दिल्ली में ही औसतन हर तीसरे दिन उसका कोई न कोई नाटक खेला जाता है। मंटो ने ये नाटक तब लिखे थे जब आकाशवाणी सिविल लाइन्स में हुआ करती थी। एक ड्रामा उसने अपने आर्टिस्टों के नज़्र की थी। नाटक लिख लिए जाने के बाद उसे कोई कोई अच्छा या बुरा कहने वाला नहीं था सो वह खुद ही नाटक सुनकर उसके गुण और दोष समझा करता था। अपनी फेमस कहानी हतक को उसने उसने शानदार रेडियो नाटक में ढ़ाला है।

कभी कभी लगता है कुछ खास नहीं चाहिए लिखने के लिए। खासकर एक बड़े वर्ग यानि आम जनता का हाले दिल लिखने के लिए जिसमें बस संवदेना भरी हो, जो लोगों के जज्बातों पर दिल का कान लगा कर सुनता है वह राइटर हो सकता है। मगर ऐसा होना ही कठिन है। जो नाटक शनिवार को खेले गए वे मजाहिया नाटक थे, उनमें जुमलों, तुनकमिज़ाजी और टाइमिंग का खेल था, मगर मंटो ने आओ सीरिज़ के बाहर नाटक लिखे हैं वे खासा बेचैनी से भरे हुए हैं। उनको अगर पढ़ें तो वह लगता है जैसे उसने स्टूडियो वालों को नाटक का बनी बनाई शूटिंग स्क्रिप्ट पकड़ा दी हो। अमूमन जब तक नाटक खेले या अभिनीत नहीं किए जाते उसके दमदार होने का पता नहीं चलता। हालांकि कुछ अपवाद हैं जिनमें मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन, तुगलक़ आदि हैं। लेकिन मंटो के नाटक को अगर सिर्फ पढ़ें तो वह साऊंड रिकाॅर्डिस्ट को अच्छे कमांड देता हुआ चलता है जिससे हम पढ़ते वक्त ही घटित होता हुआ सुन पाते हैं। बहरहाल....

किशोर, लाजवंती, नारायण और चोर बने नाटक के निर्देशक सुनील रावत ने अच्छा अभिनय किया। चोर बहुत कोमल हृदय का था मगर उसकी नफीस उर्दू वाले संवाद और उसे डिलीवर करना खासा मेहनत का काम है।

लगे हाथों वहीं दूसरे हाॅल में तारब खान की पेंटिग प्रदर्शनी भी देख आया जो समझ में तो सारी आ गई मगर कुछ प्रभावित नहीं कर सकी। बिना खरीदे पेंटिंग देख कर वहां से खाली हाथ निकलना भी बुरा लगता है। कोई भी पेंटिंग बीस हज़ार से कम की नहीं थी, एक जो थोड़ी सी ठीक लगी अस्सी हज़ार की थी।

Monday, May 20, 2013

Cut...Cut...Cut


खराब काम अच्छे से करना। कट.... कट... कट... का टास्क यही था। मतलब काम इतने खराब तरीके से करो कि डायरेक्टर को हर वाक्य पर कट... कट.... कट.... बोलना पड़े। किरदार की गलतियों से हास्य उभरे और डायरेक्टर की परेशानी दिखे। हम कबाड़ी स्क्रिप्ट राइटर हैं। दो टके के आदमी। लेकिन जब जीवन और करियर ही दांव पर लगा है तो अपनी बेतरतीबी में बेहतरीन हैं। कुछ कुछ जावेद अख्तर के लिखे उस गीत जैसा - हम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जानी, उल्टी सीधी जैसी भी है अपनी यही कहानी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।

कट...कट...कट.... कल एसआरसी में इसी थीम को लेकर खेला गया। पाईरोट्स ट्रूपर्स की लगातार यह दूसरी प्रस्तुति थी सो जो ज्यादातर किरदार जो ग़ालिब इन न्यू डेल्ही में थे वही इसमें भी थे। मगर सीन जुदा, कथन जुदा और अलहदा प्रस्तुति के साथ। एम सईद आलम को छोड़कर जो ग़ालिब बने थे (वे कल टिकट खिड़की पर टिकट काट रहे थे, शायद परसों वाले प्ले के हाऊसफुल जाने से उत्साहित हो गए हों)

हास्य नाटक को साधना बहुत कठिन है। इसके लिए जुमले शानदार होने चाहिए। उनमें नवीनता और ह्यूमर होनी चाहिए। पाईरोट्स के पास अंजू और हरीश छाबड़ा जैसे अच्छे कलाकार हैं। उनके बीच का तालमेल भी बेजोड़ है। भाषा पर भी अच्छी पकड़ है।

नाटक के दो सीन ने खास तौर से प्रभावित किया। दरअसल यह प्रोगात्मक थे। एक सीन पूरा म्यूट एक्सप्रेशन में निकाला गया। और सबसे ज्यादा सुंदर प्रयोग था जब स्टेज को ही कहानी का स्टेज बनाकर नाटक पेश किया जा रहा होता है। मतलब नाटक के अंदर एक नाटक स्टेज पर खेला जा रहा है। और इसके लिए पूरे स्टेज में आधे पर रोशनी की जाती है और एक चौथाई हिस्से को ड्रेसिंग रूम बनाया जाता है। ड्रेसिंग रूम में हल्का अंधेरा है और वहां जो कुछ घट रहा है वह मुख्य मंच पर हो रही घटनाओं पर दहला बैठता है। वहां किरदार अपने नाटक का पार्ट खेलने के लिए तैयार होते, गलतियां करते दिखते हैं और यह भी मुख्य नाटक का ही एक अहम हिस्सा है।

एक संयोग ऐसा पैदा किया गया है कि स्टेज पर जब उनका अपना खेला जा रहा नाटक खत्म होता है तभी मुख्य प्ले की भी समाप्ति होती है। और इसे करने में सारे किरदार अपने नाटक की घटिया प्रस्तुति को शानदार मानकर निर्देशक और लेखक (एम् सईद आलम) को सामने न लाकर खुद ही बारी बारी से अपना परिचय देते चलते हैं। यह प्रयोग भी अच्छा है।

कल के नाटक के दर्शक भी अच्छे थे। वरना तो दुनिया के सारे प्रोजेक्टस् वो थियेटर रूम में फोन पर ही निपटाने का इरादा रखते हैं। ना मीडियम समझते हैं न उनसे मुताल्लिक कोई नोलेज रखते हैं (संदर्भ - ग़ालिब इन न्यू डेल्ही)। कई तो बस इसलिए चले आते हैं कि संडे का दिन है, एम बी ए किया हुआ लड़का है, गर्लफ्रेंड के साथ कोपरनिकस मार्ग से गुज़रना हुआ तो टाइम काटने के लिए थियेटर का टिकट ले लिया और प्ले के दौरान किरदारों के संवाद को रिपीट करना और समझ न आए तो फोन पर बात करना या गर्लफ्रेंड से ही बातें शुरू कर देते हैं।

इस तरह शुरूआती ढ़ीली पकड़ के बाद प्ले ने रफ्तार और लय दोनों पकड़ी और अंत तक आते आते यह छा गया।

Sunday, May 19, 2013

ग़ालिब नई दिल्ली में!

क्या हो जब मिर्ज़ा असदुल्ला खां ‘ग़ालिब’ पुर्नजन्म लेकर अपना महबूब शहर दिल्ली आएं! क्या हो कि जब वह अपनी खास वेशभूषा में मोरी गेट पर अपना माल असबाब लेकर खड़े हों और बस कंडक्टरों को भोगल, आश्रम, निज़ामुद्दीन, बोर्डर चिल्लाता देखें। कैसे लगे उन्हें जब यह पता चले कि अब बल्लीमारान में बस तो क्या एक पूरा आदमी तक नहीं जा सकता। वो ग़ालिब जो एक एक हर्फ के उच्चारण पर किसी से समझौता नहीं करता, बात नहीं करता वो तू, तड़ाक, रे, बे, ले के शहर में आ जाए। वो ग़ालिब जो कई रिक्शा इसलिए छोड़ दे कि चालक उसे सवारी जगह सवार मानने से इंकार कर दे।

लेखक और निर्देशक एम. सईद आलम ने चचा से कुछ ऐसी ही छूट लेते हुए एक काॅमेडी नाटक ग़ालिब इन न्यू डेल्ही का मंचन कल शाम एसआरसी में किया। हमने जब भी ग़ालिब का तसव्वुर किया है जाने अनजाने नसीरूद्दीन शाह का चलना फिरना, उठना, देखना हमारे मन में बसा है। सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं। यह बात उन्होंने ग़ालिब का किरदार निभाकर भी साबित किया। पहले इस किरदार को कई बार टाॅम अल्टर ने निभाया है।

ग़ालिब चलते हैं तो लगता है मुहल्ले की कोई भन्नाई, मिनमिनाई खाला चल रही हो, कि बदन में ऊर्जा तो बहुत भरी हो मगर करने को कोई काम न हो। जैसे जूट के दड़बे में कोई बिल्ली घुस आई हो। बहुत ज्यादा दिमागी और विटी होना भी आम और दकियानूस समाज में सर्वाइवल के लिए खासा मुश्किल पैदा करता है। ग़ालिब यही लगे, रचनात्मकता और तरल बुद्धि के उदाहरण। उच्चारित किया गया हरेक अल्फाज़ का स्पष्ट और बेदाग उच्चारण।

कहानी कुछ इस तरह रही कि जब ग़ालिब अपनी हवेली जाने को नई दिल्ली आते हैं तो पाते हैं यहां सब कुछ बदल चुका है। हर राज्य के लोग यहां आकर रोज़गार कर रहे हैं। किरायों का बोलबाला है। उन्हें एक रूममेट के साथ रूम शेयर करना पड़ता है। पिछले जन्म में वाजिब वजीफा न मिलने का दर्द इस जन्म में भी चला आया है। वो अपनी दीवान को सही इज्जत दिलवाने के लिए लड़ रहे हैं। लोग इसके लिए उनको आज के ज़माने की तरकीबें अपना कर पब्लिसिटी स्टंट करने की सलाह देते हैं।

और इसी क्रम में उजागर होती है आज के असली दिल्ली की हकीकत। लोगों का स्वार्थ, कमीनगिरी, लोगों का उल-जुलूल व्यवहार।

अन्य मुख्य किरदारों ने भी बहुत सही अभिनय किया। रूममेट और पंजाबी आॅटो रिक्शा ड्राईवर बने हरीश छाबड़ा ने अपनी मौलिक अभिनय से दिल जीत लिया। मिसेज चड्ढ़ा बनी अंजू छाबड़ा भी शानदार रही।

लेकिन जो कमाल रहे वो ग़ालिब थे। किरदार को जैसे घोल कर पी गए थे। छोटे छोटे कदमों में बुढ़ापे की थरथराहट में हिलते कांपते स्टेज नापते ग़ालिब। शानदार जुमले उछालते ग़ालिब, लोगों के दुख से सहानुभूति रखते ग़ालिब और तमीज़ से मज़ाक उड़ाते ग़ालिब।

पाईरोट्स ट्रूपस् द्वारा मंचित यह नाटक बहुत सफल रहा। फिर भी इस बेहतरीन नाटक में जो कहीं कहीं सीन में कुछ लम्हे की कमजोरी आई उसमें गालिब का विज्ञापन ऐजेंसी जाना, कुछऐक जगह संवाद में सैफ और करीना के उदाहरण को पेश करना रहा। ये इसके कसावट को कमज़ोर करते हैं। एक स्तरीय नाटक में इन मसाले उदाहरणों से बचा जाना चाहिए।

नाटक का सबसे पहले सीन में पानवाले ने अपने बेजोड़ अदायगी से पूरे क्रम को बांधने की शुरूआत कर दी थी।
स्टेज संवाद और अभिनय का खेल होता है। यहां चुप्पी भी संवाद का हिस्सा होती है। इस पर शरीर की उपस्थिति और लाईट्स भी बोलते हैं। यहां पाॅज का भी महत्व होता है, गौर से देखा जाए तो भवहें उठाने का भी। अभिनय और खासकर हास्य नाटक टाईमिंग और मौलिक एक्सप्रेशन का खेल होता है। दो शब्दों के बीच प्र्याप्त विराम से भी हास्य उपजता है। किरदार और संवाद लेखक ज़हीन हो तो स्तरीय शब्दों के चयन से भी हास्य निकल आता है। ग़ालिब और उनके रूममेट ने ये बखूबी किया है तभी इस हाऊसफुल शो में उनके लिए दर्शकों में कई मिनट कर खड़े होकर तालियां बजाईं। दर्शकों की उन तालियों में शानदार और जीवंत अभिनय के सम्मान में ईमानदारी की खनखनाहट थी।

Thursday, May 2, 2013

जब ज़ुल्मो सितम के कोहे गरां...





1 मई विश्व श्रमिक दिवस के मौके पर कल श्रीराम सेंटर में नादिरा जहीर बब्बर द्वारा लिखित और अनिल शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक सक्कुबाई का मंचन हुआ। मित्र संगठन इन दिनों अपने सालाना प्रदर्शन के तहत पांच दिनों में पांच नाटक का मंचन करेगा। इसी कड़ी में कल सक्कुबाई का प्रदर्शन हुआ। आज प्रेमचंद लिखित बड़े भाई साब खेली जाएगी।

सक्कुबाई मराठी हैं। घर में काम करने वाली बाई। मूल नाम शकंुतलता। नाटक एक घंटे पैंतीस मिनट का है जो कि पूर्णतः एक मोनिका मिश्रा द्वारा एकल प्रदर्शन है। इतने संवाद वो भी मिमिक्री, हाव भाव के साथ याद रखना, इसे काफी कठिनाई से साधना पड़ता है। देखकर लगा लंबी अवधि के एकल प्रदर्शन में अगर कहानी और संवाद कसे हुए न हों तो इस तरह के प्रयोग दर्शकों का मन उखाड़ सकते हैं। यह बोरिंग हो ही सकता है इस तरह के नाटकों पर दोबारा हाथ आजमाना और भी रिस्की  हो सकता है।

सक्कुबाई के रोल में मोनिका मिश्रा ने काबिले तारीफ अंदाज से सबको बांधा। सक्कुबाई में एक बेहद आम सी घर घर काम करने वाली औरत की जीवनी उसी की जबानी सुनाई और दिखाई है। उसे जैसे जैसे अपने अतीत के लोग याद आते हैं वो उसकी आवाज़ में उसकी मिमिक्री भी करती चलती है। इससे देखने में नयापन रहता है और ताजगी आती है। नाटक वन रूम सेट में संपन्न होता है। वो बारिश वाले दिन अपने मालिक के यहां काम करने आई हुई है जहां मालकिन आज नहीं लौटेगी और साहब देर से आएंगे और कल जापान के लिए निकलेंगे। सक्कुबाई को आज वहां कोई काम नहीं है लेकिन उसे जल्दी जाने की अनुमति नहीं मिलती। फिर वो वहीं घर के छोटे मोटे काम करते हुए अपनी स्मृतियां हमसे साझां करती है।

मोनिका मिश्रा अच्छी कलाकार हैं। बोल्ड भी। एक बिहारी होकर मराठी भाषा ओढ़ना भी जीभ की अच्छी कसरत है। नाटक में समाज के लोगों के दोहरे मापदंड को भी अच्छे से दिखाया गया है। शकंुतला की मां भी यही काम करती थी। चैदह साल की उम्र के आसपास उससे उसके छोटे मामा बलात्कार करते हैं। वो और उसकी आई अलग रहने चले जाते हैं। जीवन के संघर्ष चलते रहते हैं। सक्कु की शादी यशवंत से हो जाती है। सक्कु नदी की तरह है। वर्तमान में जीने वाली। जीवन को वैसे का वैसा स्वीकार कर खुश रहने वाली। सक्कु हाड़ तोड़ मेहनत करती है। जो मिलता है उसमें संतुष्ट रहती है। पति प्यार से बात कर ले तो दिलो जां न्योछावर कर देती है। नादिरा का सक्कु को इस चरित्र में लिखना, सक्कु का नायिका होने के कारण थोड़ा अतिरेक भी हो सकता है। यशवंत को आगे चलकर एड्स हो जाता है और अंत में सक्कु और उसकी बेटी साईनी रह जाते हैं।

नाटक का अंत नाटकीय हो गया। साईनी की किताब छपती है और टिपिकल फिल्मी अंदाज में स्टेज पर सक्कु को बुलवाया जाता है। सक्कु वहां साईंनी की कविता पढ़ती है और इससे नाटक खत्म होता है।

अंत में सक्कुबाई, सक्कुबाई सक्कुबाई मराठी गाने पर डांस करती है।

सक्कुबाई समाज में हर जगह है। उसे उसकी सही कीमत नहीं मिलती, न ही सम्मान ही। समाज हिकारत की नज़र से देखता है।

सक्कुबाई फुर्तीली है, कलाकार है। सक्कुबाई नदी है। लहरें है। हर जगह है और गौण है। उनका योगदान अब हमारे घर चलाने भर है इसलिए उनका योगदान नगण्य है।

यही कारण है कि सक्कुबाई अपनी तात्कालिक जीवंतता के कारण लंबे समय तक याद नहीं रहेगी। यह वेग में सरलता से आती तो है लेकिन  जल्दी ही भुला भी दी जाएगी।

इस संगठन के अन्य नाटकों में 3 मई को जाति ही पूछो साधु की, 4 मई को असगर वजाहर लिखित जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्यां नईं और 5 मई को इस संगठन की अंतिम प्रस्तुति ताजमहल का टेंडर खेला जाएगा।

मुझे अभी भी तलाश है एक ऐसे नाटक की जो मेरा दिमाग झकझोर दे।

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