Thursday, May 2, 2013

जब ज़ुल्मो सितम के कोहे गरां...





1 मई विश्व श्रमिक दिवस के मौके पर कल श्रीराम सेंटर में नादिरा जहीर बब्बर द्वारा लिखित और अनिल शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक सक्कुबाई का मंचन हुआ। मित्र संगठन इन दिनों अपने सालाना प्रदर्शन के तहत पांच दिनों में पांच नाटक का मंचन करेगा। इसी कड़ी में कल सक्कुबाई का प्रदर्शन हुआ। आज प्रेमचंद लिखित बड़े भाई साब खेली जाएगी।

सक्कुबाई मराठी हैं। घर में काम करने वाली बाई। मूल नाम शकंुतलता। नाटक एक घंटे पैंतीस मिनट का है जो कि पूर्णतः एक मोनिका मिश्रा द्वारा एकल प्रदर्शन है। इतने संवाद वो भी मिमिक्री, हाव भाव के साथ याद रखना, इसे काफी कठिनाई से साधना पड़ता है। देखकर लगा लंबी अवधि के एकल प्रदर्शन में अगर कहानी और संवाद कसे हुए न हों तो इस तरह के प्रयोग दर्शकों का मन उखाड़ सकते हैं। यह बोरिंग हो ही सकता है इस तरह के नाटकों पर दोबारा हाथ आजमाना और भी रिस्की  हो सकता है।

सक्कुबाई के रोल में मोनिका मिश्रा ने काबिले तारीफ अंदाज से सबको बांधा। सक्कुबाई में एक बेहद आम सी घर घर काम करने वाली औरत की जीवनी उसी की जबानी सुनाई और दिखाई है। उसे जैसे जैसे अपने अतीत के लोग याद आते हैं वो उसकी आवाज़ में उसकी मिमिक्री भी करती चलती है। इससे देखने में नयापन रहता है और ताजगी आती है। नाटक वन रूम सेट में संपन्न होता है। वो बारिश वाले दिन अपने मालिक के यहां काम करने आई हुई है जहां मालकिन आज नहीं लौटेगी और साहब देर से आएंगे और कल जापान के लिए निकलेंगे। सक्कुबाई को आज वहां कोई काम नहीं है लेकिन उसे जल्दी जाने की अनुमति नहीं मिलती। फिर वो वहीं घर के छोटे मोटे काम करते हुए अपनी स्मृतियां हमसे साझां करती है।

मोनिका मिश्रा अच्छी कलाकार हैं। बोल्ड भी। एक बिहारी होकर मराठी भाषा ओढ़ना भी जीभ की अच्छी कसरत है। नाटक में समाज के लोगों के दोहरे मापदंड को भी अच्छे से दिखाया गया है। शकंुतला की मां भी यही काम करती थी। चैदह साल की उम्र के आसपास उससे उसके छोटे मामा बलात्कार करते हैं। वो और उसकी आई अलग रहने चले जाते हैं। जीवन के संघर्ष चलते रहते हैं। सक्कु की शादी यशवंत से हो जाती है। सक्कु नदी की तरह है। वर्तमान में जीने वाली। जीवन को वैसे का वैसा स्वीकार कर खुश रहने वाली। सक्कु हाड़ तोड़ मेहनत करती है। जो मिलता है उसमें संतुष्ट रहती है। पति प्यार से बात कर ले तो दिलो जां न्योछावर कर देती है। नादिरा का सक्कु को इस चरित्र में लिखना, सक्कु का नायिका होने के कारण थोड़ा अतिरेक भी हो सकता है। यशवंत को आगे चलकर एड्स हो जाता है और अंत में सक्कु और उसकी बेटी साईनी रह जाते हैं।

नाटक का अंत नाटकीय हो गया। साईनी की किताब छपती है और टिपिकल फिल्मी अंदाज में स्टेज पर सक्कु को बुलवाया जाता है। सक्कु वहां साईंनी की कविता पढ़ती है और इससे नाटक खत्म होता है।

अंत में सक्कुबाई, सक्कुबाई सक्कुबाई मराठी गाने पर डांस करती है।

सक्कुबाई समाज में हर जगह है। उसे उसकी सही कीमत नहीं मिलती, न ही सम्मान ही। समाज हिकारत की नज़र से देखता है।

सक्कुबाई फुर्तीली है, कलाकार है। सक्कुबाई नदी है। लहरें है। हर जगह है और गौण है। उनका योगदान अब हमारे घर चलाने भर है इसलिए उनका योगदान नगण्य है।

यही कारण है कि सक्कुबाई अपनी तात्कालिक जीवंतता के कारण लंबे समय तक याद नहीं रहेगी। यह वेग में सरलता से आती तो है लेकिन  जल्दी ही भुला भी दी जाएगी।

इस संगठन के अन्य नाटकों में 3 मई को जाति ही पूछो साधु की, 4 मई को असगर वजाहर लिखित जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्यां नईं और 5 मई को इस संगठन की अंतिम प्रस्तुति ताजमहल का टेंडर खेला जाएगा।

मुझे अभी भी तलाश है एक ऐसे नाटक की जो मेरा दिमाग झकझोर दे।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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