Saturday, September 18, 2010

हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

दास्तान-ए-हज़ार रंग

डाकिये की ओर से : 
{इस स्क्रिप्ट का बहुत छोटा अंश 
होली के अवसर पर  
सोचालय पर गंगा-जामुनी सभ्यता शीर्षक नाम से लगाया था..... लेकिन लगा कि तबियत से महफ़िल जमानी हो तो बैरंग से अच्छा प्लेटफार्म कौन है !
 
इसे बोलकर पढ़िए, एक नशे से कम नहीं है ये, यकीन जानिये... कम्पोजिट कल्चर का मतलब जान जायेंगे आप.}
*****




``जिस तरफ भी चल पड़े हम आबला पाया निशौक
खार से गुल और गुल से गुलिस्तां बनता गया``

सफर तो दिलचस्प उसी वक्त होता है जब कोई हमसफर भी हो तो आईये हम और आप सफर पर निकलें जो दिलचस्प भी हो और सबक आमोज भी।

इस सफर में एक जादू नगरी भी मिलेगी जहां मन्दिर भी है और मिस्जदें भी लेकिन दोनों लड़ते झगड़ते नहीं। जहां मुल्ला भी है और पण्डित भी लेकिन एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए। यहां हसीनाओं की टोलियां भी मिलेंगी और आशिकों की जमघट भी। शायर भी मिलेगें और गवैये भी। नाचने वाले भी मिलेंगे और नचाने वाले भी। 

सफर है शर्त मुसाफिर नवाज हूं तेरे
हजार हा शजरे सायादार राह मिल गये

अंगरेजी कल्चर को हमारे यहां के हमारे बुजुर्ग अपने कल्चर के लिए डिबेलेटेटिंग समझते थे, नुकसानदेह समझते थे। उनका अपना कल्चर था। वो कहते थे वो बहुत अच्छा। जिसमें कि भारतीयता थी यानी कि वो ईरान-तेहरान का कलचर नहीं था, अवधी कलचर था, जिसमें हिन्दू अशआर बहुत ज्यादा थे। जिसमें कि जैसे हमारे यहां गीत बड़ा खास हुआ करता था सोहर एक गाया जाता है जबकि औरत जबकि एक कन्साइनमेंट में होती है, जच्चाखाने में। जब बच्चा पैदा होता है। तब सोहर क्या था ? अल्ला मियां हमरे भैया का दियो नन्दलाल। ऐ मेरे अल्लाह! मेरे भाई को भगवान कृष्ण जैसा बेटा दे। अब ये मुसलमान घराने का गाना है। 

-आनन्द भवजे मील बैंठी... आरे लगाये मनावै -

हजरत बीबी कह रही हैं कि अली साहब नहीं आये हैं। सुगरा तोते से कह रही हैं और अगर वो कहीं न मिले, ढूंढने जाओ कहीं न मिलें तो वृन्दावन चले जाना।

है सबमें मची होली अब तुम भी ये चर्चा लो।
रखवाओ अबीर ए जां और मय को भी मंगवा लो।
हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लोटिया लो।
हम तुमको भिगों डालें तुम हमको भिंगो डालो।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत फलियां।
है तर्ज जो होली की उस तर्ज हंसो बोलो।
जो छेड़ है इस रूत की अब तुम भी वही छेड़ो।
हम डालें गुलाल ऐ जां तुम रंग इधर छिड़को
हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

मौलाना हसरत मोहानी वो हैं शायर उर्दू के गजल गो शोहवा में जिनके अहमियत बहुत ज्यादा है यानी इकबाल के बाद जिन लोगों ने गजलें वगैरह लिखी हैं, गजलें लिखीं हैं शायरी की है उनमें बहुत अहम नाम है मौलाना हसरत मोहानी का। एक नया रंग, गलल में दिया है मौलाना ने। तो एक शायर की हैसियत से उनका रूतबा बहुत बदन है। मजहबी आदमी थे नवाज रोजे के पाबन्द, कादरीया सिलसिले के मुरीद लेकिन ये ईमान था उनका कि किसी के मजहब को न बुरा कहना न ये समझना कि वो बुरा है। अपना मजहब अपने साथ दूसरा मजहब उनके साथ। सिर्फ यही नहीं बल्कि जितने और रिचुअलस् थे मसलन ये कि हज करने को हर साल जाया करते थे। ये खुसुसियत ये थी कि मौलाना में ये कि वो कृष्ण जी को नबी समझते थे और बड़े मौतकीत थे और अपना हज कहते थे मेरे हज मुकम्मल नहीं होता जब तक कि मैं वापस आ के मथुरा और वृन्दावन में सलाम न करूं। तो वहां से आ के पहले पहुंचते थे मथुरा फिर वृन्दावन वहां सलाम करते थे और फिर बेइन्तहा कतरात और रूबाइयां कृष्ण जी के बारे में उनके मौजूद हैं। 

गोकुल ढ़ूंढ़यो, वृन्दावन ढ़ूंढ़यो... कन्हाई मन तोशे प्रीत लगाई। 

ये पूरी एक बिलीफ ये थी कि हर मजहब एक कल्चर एक्जूट करता है। चाहे वो आपका मजहब हो और चाहे वो मेरा। और उस कल्चर से हम सब फैज़ियाब होते हैं। चाहे वो आप हिन्दू का कल्चर हो चाहे मेरे मुसलमान का कल्चर हो। आखिर में दोनों में जाके एक मिलन होता है जिसको कि हम एक कम्पोजिट कल्चर कहते हैं। 

एक ही जमाने में दो बहुत दिलचस्प शिख़्सयतें दक़न में नुमाया होती हैं । एक तो गोलकुण्डे का ये बादशाह कुल-ए-कुतुबशाह और एक बीजापुर का बादशाह इब्राहिम आदिल शाह। जो जगत्गुरू कहलाता है और नवरस उसकी इक किताब है। ये नवरस जो है ये मौसिकी की, संगीत की बहुत बुनियादी किताब उसने ये डाली है। उसमें सारे राग-रागिनीयों वगैरह-वगैरह हैं और बहुत तफसील से सारा जिक्र है और इसलिये वो जगतगुरू कहलाये। 

किसी को ये नहीं मालूम है कि इब्राहिम आदिल शाह जो कि राजा है बीजापुर का उसने एक किताब लिखी किताब-ए-नवरस उसका बिवाचा वो शुरू होती है सरस्वती वन्दना से। 

अब लोग ये भूल जाते हैं कि कल्चर और मजहब दो अलग चीजें हैं लेकिन कल्चर मजहब से पैदा होता है। मजहब का कल्चर पर असर होता है। कलचर का मजहब पे असर होता है। 

तो ये इब्राहिम आदिल शाह ने जब सरस्वती वन्दना से अपनी किताब किताब-ए-नवरस की इबतदा की तो वो हिन्दू नहीं हो गया था वो सिर्फ ये कह रहा था कि ये कल्चर मुझे बड़ा अच्छा लगता है। वो कल्चरल डायमेंशन की तरफ जा रहा था। नमाज पांच वक्त की पढ़ता था। 

इसी तरह से मैंने आपको बताया कि मैं भीमसेन जोशी से मिलने गया पुणे। तस्वीर लगी हुई है अब्दुल करीम खां साहब की। गंगू बाई हंगल से मिलने गया तस्वीर लगी हूई है अब्दुल करीम खां साहब की। मलिक अर्जुन मंसूर वहां अल्ला दिया खां साहब, मांझे खां साहब। तो ये जो एक कम्पोजिट एलीमेंट था हमारी म्यूजिक में वो  उससे मुझे बड़ा-बड़ा असर उसका पड़ा कि इसमें कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं था। 

गालिब अपनी पेंशन लेने के लिये कलकत्ते जा रहे थे। कहीं घोड़े पे गये, नाव पे गये ,पैदल गये, पैलिनक्वीन पे गये, डोली में गये, फीनस में गये तो बार्ज पे गंगा में जा रहे थे बनारस बहुत अच्छा लगा सबसे बड़ी नज्म उसकी जो है चराग-ए-दैर मन्दिर का दीया फारसी में वो बनारस के बारे में हैं -

``इबादत खाना-ए- नाखूिशयांस्त हमाना काबैह हिन्दूस्तानस्त`` 

यहां के लोग शंख से खूबसूरत आवाज पैदा करते हैं। गंगा उस खूबसूरत औरत की तरह है जो कि गंगा के आईने में अपनी सुबह अपनी शक्ल सुबह-शाम-रात देखती है ये सचमुच हिन्दुस्तान का काबा है और ये सिर्फ गालिब ने नहीं इकबाल ने-

`है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए- हिन्द``

`लबरेज़ है शराब-ए-हकीकत से जाम-ए- हिन्द
सब फलसफी है खिता-ए-मगरिब के राम-ए-हिन्द
ये हिन्दीयों के फिकरे फलक रस का है असर
रफ्त में आसमां से भी उंचा हे बाम-ए-हिन्द
इस देस में हुए हैं हजारों मलक सरिस्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया मे नाम-ए-हिन्द
है राम के वज़ूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द

 मसलन शेख अली हज़ीम ईरान से आये। बनारस में आके उन्होंने अपना पड़ाव डाल दिया वहीं रह गये और ऐसे ऐसे शेर कहे बनारस के ऊपर कि मैं बनारस छोड़ के जा नहीं सकता। यहां का हर आदमी मुझे राम और लक्ष्मण का बेटा दिखाई देता है। पांचो वक्त की नमाज़ पढ़ते थे, रोज़ा रखते थे लेकिन इन चीजें को ...

मीर अनीस ने मर्सिया लिखे वाकया-ए-कर्बला पे। चुन्नी लाल दिलगीर मुसलमान नहीं थे। सरवांटी सेंटर खुल रहा है यहां पर। सरवांटी एक बहुत बड़ा राइटर है स्पेन का। जिसने कि डॉनकिओटे लिखा। अब डॉनकिओटे का सरवांटीज का जो यहां पे उसी से मुतासिर होके 19 सेंचुरी में जो किताब लिखी गई फसाना-ए-आज़ाद उसके आर्थर का नाम किसी को मालूम हो तो वो था पण्डित रतन नाथ शरशार। 20वीं सदी के बेहतरीन शायर। रघुपति सहाय, फिराक गोरखपुरी। तो लोग समझते हैं उर्दू मुसलमानों की ज़बान है। ऐसा है नहीं। बेपनाह हिन्दू शायरों का कॉन्ट्रीबीयूशन है।

कहती थी बानो इलाही हो मेरे वारिस की खैर,
क्यों गिरी जाती है मेरे सर से चादर बार-बार

ये गजल का शेर यानी तगज्ज़ुल जो इनट्रोड्यूज़ किया गया वाक्या-ए-कर्बला में जिसको कि रिवायत के कहती है कि मीर अनीस ये शेर पढ़ते थे और सर धुनते थे और इसकी अहमियत और कुछ नहीं है ये सिर्फ एक ऐसे अजीमुश्शान शायर का शेर है जिसका नाम था चुन्नु लाल दिलगीर। मीर अनीस से मीर ख़लीक के जमाने के और ऐसे बहुत से शायर हुए।

``क्या सिर्फ मुसलमान के प्यार हैं हुसैन
चर्ख-ए-नव-ए-बशर के तारे हैं हुसैन
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर कौम पुकारेगी, हमारे हैं हुसैन``

-यूं फातिमा करती थी बयां हाय हुस्ना
 मज़नुब हुसैना..... मजनूब हुसैना-


गंगा-जमुनी तहजीब जो हम आजकल बात करते हैं कि साहब ये ज़बान है। जब आज़ाद पाकिस्तान, ईरान, अमेरिका, ओस्लो किसी सेमिनार में खड़े होते थे और मेरे दोस्त-शायर इनकार नहीं करेंगे इस हकीकत से कि आहादी स्कोट करते थे अराबी में पुराने कीम की आयतें पढ़ते थे ज़बानी, संस्कृत के लोक पढ़ते थे तो लगता था कि हां ये उस तहजीब का नुमाइन्दा है जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं। 

बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहां कॉमन वंरिशप है। साउथ में सबसे बड़ा टेंपल जो हैं तीन हैं-तिरूपति, गुरूवायु और सबरीमाला। सबरीमाला पंबा नदी के ऊपर जाइये तो भगवान विश्णु और शिव की एक देन है-लॉर्ड अयप्पा। वहां पे वो मन्दिर है, वहां बेपनाह लोग जाते हैं... बड़ा खूबसूरत, मैं गया हूं लेकिन वहां दर्शन करने से पहले वावर स्वामी एक मुसलमान पीर है वहां जाके पहले एक पीर से एक ताबीज़ लेते हैं लोग फिर जाते हैं वहां। 

अब जो ये रायट्स जब हुए गुज़रात में तो इसमें फय्याज खां की कब्र इन लोगों ने जा के खोद दी। अब मैंने कहा इन कमबख्तों को ये नहीं मालूम कि राग परज में मनमोहन ब्रज के रसिया जो कि भगवान कृश्ण के बारे में है फय्याज खां से ज्यादा खूबसूरत किसी ने नहीं गाया। अहमदाबाद में एक कब्र थी-पुलिस चौकी के बिल्कुल सामने वो थी वली दक़नी की। अपना आतंकी आये और उन्होनें उनको डिस्ट्रॉय कर दिया क्योंकि साहब एक मुसलमान की कब्र थी, इन बेवकूफों को ये नहीं मालूम था कि ये वो शायर है जो कि जो इस तरह सूरत के उपर इससे अच्छा किसी ने लिखा नहीं, अहमदाबाद के बारे में उससे खूबसूरत नज्में किसी ने लिखी ही नहीं और शायर कहता है- कहता है कि -

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है``, मेरे यार का कूचा जो है वो काशी जैसी पवित्र नगरी जैसा है।

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है,
जोगिया दिल, वहां का बासी है``
  
*****

7 comments:

  1. सच में पढ़कर बहुत आनन्द आया … लेकिन सच कहूं तो मुझे लगता है कि अब इस तरह के सेकुलरिज़्म का ज़माना चला गया…

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  2. सागर,
    सच कहूँ तो मजा आ गया यार ये पोस्ट पढकर..
    कैफ़ी साहिब की भी एक नज़्म है जिसका अंत वह इन लाईनों के साथ करते हैं:

    "चंद रेखाओं में सीमाओं में
    ज़िन्दगी कैद है सीता की तरह,
    राम कब लौटेंगे मालूम नहीं,
    काश, रावण ही कोई आ जाता......."

    इसी तहजीब का ही किस्सा थे बिसमिल्लाह खाँ जो बनारस में गंगा घाट पर रहते थे और हमेशा वहीं रहना चाहते थे..

    इसी में आज का कुछ और जोडू तो 'लब पर आती है दुआ बनकर तमन्ना मेरी’ जैसी खूबसूरत प्रार्थना को लिखा है इकबाल ने है तो म्यूजिक जगजीत सिंह ने दिया है.. कभी एक मंच पर आबिदा परवीन और शुभा मुद्गल को ’दमादम मस्त कलंदर’ गाते सुनना..

    बहुत खूबसूरत पोस्ट!

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  3. *किस्सा को हिस्सा पढा जाय...

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  4. बहुत प्यारी और दिल के करीब सी लगने वाली पोस्ट है..पूरी स्क्रिप्ट खुद भी उसी सोंधी महक मे सराबोर है..जिसकी बात यह करती है..विशेषकर जैसा राजनैतिक माहौल तैयार होता जा रहा है आगामी 24 तारीख के मद्देनजर..ऐसी पोस्ट्स आश्वस्तिदायक लगती हैं..काश गंगा-जमुनी स्वाद सबके होठों पर चढ जाय..इश्क की जो रुहानी फितरत मीरा, रजिया या परवीन शाकिर मे फ़र्क नही करती है..उसी की नगरी की बात की गयी है यहाँ पर...जहाँ का हर जोगिया दिल बासी है..
    ऐसे पोस्ट्स ही ’बैंरंग’ की सार्थकता को बयाँ करते हैं....सो सागर साब के लिये बधाई और धन्यवाद दोनो!

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  5. p.s. रजिया तो राबिया पढें!!

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  6. राही मासूम रजा के ’आधा गाँव’ की कुछ पंक्तियाँ शब्दों के सफ़र ब्लॉग से पेशे खिदमत हैं : -

    "कहते हैं कि आषाढ़ की काली रात में तुगलक के एक सरदार सैयद मसूद गाजी ने बाढ़ पर आई गंगा को पार करके गादिपुरी पर हमला किया। चुनांचे यह शहर गादिपुरी से गाजीपुर हो गया। रास्ते वही रहे, गलियां वही रही, मकान भी वही रहे, नाम बदल गया – नाम शायद एक ऊपरी खोल होता है जिसे बदला जा सकता है। नाम का व्यक्तित्व से कोई अटूट रिश्ता नहीं होता शायद, क्योंकि यदि ऐसा होता तो गाजीपुर बनकर गादिपुरी को भी बदल जाना चाहिए था,या फिर कम से कम इतना होता कि हारनेवाले ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ, अहीर, भर और चमार अपने को “गादिपुरी” कहते और जीतनेवाले सय्यद, शेख और पठान अपने को “गाजीपुरी”। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सब गाजीपुरी है और अगर शहर का नाम न बदला होता तो सब गादिपुरी होते। ये नए नाम हैं बड़े दिलचस्प। अरबी का “फतह” हिन्दी के “गढ़” से मे घुलकर एक इकाई बन जाता है। इसीलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद भी पाकिस्तान की हकीकत मेरी समझ में नहीं आती। अगर “अली” को “गढ़” से, “गाजी” को “पुर” से और “दिलदार” को “नगर” से अलग कर दिया जाएगा तो बस्तियां वीरान और बेनाम हो जाएंगी और अगर “इमाम” को “बाड़े” से निकाल दिया गया तो मोहर्रम कैसे होगा ! "

    साभार: http://shabdavali.blogspot.com/2010/06/blog-post_15.html

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  7. चाहे गीता बांचिये, या पढ़िये क़ुरान
    तेरा मेरा प्यार ही, हर पुस्तक का ज्ञान


    हिन्दुस्तान की गंगा- जामुनी संस्कृति को दर्शाती एक बहुत अच्छी पोस्ट... दिल से लिखी हुई सो दिल तक पहुंची भी...

    गंगा- जामुनी संस्कृति के बारे में बात करें तो शायद हमारे लखनऊ से बेहतर उदाहरण और कहीं नहीं मिलेंगे... नवाबों के राज में भी हर धर्म को उतनी ही इज्ज़त और सम्मान दिया जाता था... एक किस्सा सुनते हैं यहाँ का, एक जगह है लखनऊ में अलीगंज, वहाँ एक बहुत ही प्रसिद्ध हनुमान जी का मंदिर है जिसे बनवाया था यहाँ की बेग़म रुबिया ने... जब निकाह के बहुत सालों तक बहुत पूजा पाठ के बाद भी उन्हें संतान नहीं हुई तो लोगों की सलाह पर उन्होंने हुनमान जी के मंदिर में जा के पूजा अर्चना करी और उन्हें संतान की प्राप्ति हुई. उस मंदिर के गुम्बद पे हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक चाँद तारा आज भी देखा जा सकता है और लोग आज भी उसी श्रद्धा से वहाँ पूजा करते हैं.

    इसी आपसी सौहार्द की कड़ी को आगे बढाते हुए नवाब वाजिद अली शाह ने भी उसी मंदिर में जा कर पूजा अर्चना करी थी जब उनकी बहन बेग़म आलिया बहुत बीमार थीं और जब हनुमान जी की कृपा से वो स्वस्थ हो गयीं तब से ले कर आज तक वहाँ जेठ के महीने में बड़े मंगल का मेला लगता है... मेला लगवाने की एक वजह और भी थी उस समय, की गरीबों को रोज़गार मिले और सारी प्रजा सुखी रहे... तो ऐसे थे यहाँ के नवाब... और यहाँ की संस्कृति... आज काफ़ी कुछ बदलता जा रहा है यहाँ भी और पूरे हिन्दुस्तान में भी... वो सौहार्द धुंधलाता जा रहा है... पर हम एक कोशिश को कर ही सकते हैं अपनी तरफ़ से उस संस्कृति को बचाने की.

    जाते जाते, आपने पोस्ट की शुरुआत में फागुन के कुछ रंग बिखेरे थे तो लीजिये हज़रत शाह नियाज़ का ये सूफ़ी कलाम पढ़िये होली पर

    होरी होय रही है
    अहमद जिया के द्वार
    हज़रत अली का रंग बनो है
    हसन हुसैन खिलाड़
    ऎसो होरी की धूम मची है
    चहुँ ओर परी है पुकार
    ऎसो अनोखो चतुर खिलाड़ी
    रंग दीन्यो संसार
    नियाज़ पियाला भर भर छिड़के
    एक ही रंग सहस पिचकार
    होरी होय रही है
    अहमद जिया के द्वार

    -- हज़रत शाह नियाज़


    ये थी हमारी संस्कृति जिसकी पूरी दुनिया कायल थी आज भी है... अब इसे कायम रखना हमारे-आपके, हम जैसे लोगों के हाथ में है... दिल से की गई एक कोशिश की दरकार है बस...

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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