Tuesday, February 28, 2012

अँधेरे वक्त का हिसाब किताब.. विद्रोही सुर का कवि पाश...( ९ सितम्बर १९५० - २३ मार्च १९८८)


उसने महकती शैली में फूलों के गीत नहीं लिखे..उसकी कविता के शब्द गुलाब जैसे नाज़ुक नहीं..पर काँटों जैसे तीखे जरूर है..उसे ये गुमान नहीं था कि उसकी कविता समाज की सभी मुश्किलों का हल कर देगी..
"मुआफ़ करना मेरे गाँव के दोस्तों,
मेरी कविता तुम्हारी मुश्किलों का हल नहीं कर सकती"
१९७८ से १९८८ तक पाश ने कविता नहीं लिखी..१९८२ की डायरी में १३ जून के पन्ने पर लिखते है  "१९७४ में मैंने पता नहीं क्यूँ लिखा था मेरी कविता कभी चुप नहीं होगी...अब मेरी कविता को बहार आए ६ साल हो गये. शायद मेरी ज़िन्दगी में घटनाओं की फितरत बदल गयी है."
कवि पाश हर कवि की तरह सम्वेदनशील हैं, भले वो मानते थे कि कविता जैसी चीज़ उनके पास कम है..पर सम्वेदना हर गीत में, हर बोल में कविता जैसी चीज़ का अहसास दिलाती है...

१- है तो बड़ा अजीब
अगर तेरा गौना नहीं होता
तो तुझे भ्रम रहना था..
कि रंगों का मतलब फूल होता है..
बुझी राख की कोई खुशबू नहीं होती.
तू मुहब्बत को किसी मौसम का 
नाम ही समझती रहती..

तूने शायद सोचा होगा
तेरे क्रोशिये से काढ़े हुए लफ्ज़ 
किसी दिन बोल पड़ेंगे.
या
गंदले पानिओं में भीग न सकेंगे..
बटन जोड़-जोड़ कर बुनी बत्तखों के पर..
तूने कभी सोचा भी नहीं होगा..
गौना दहेज़ के बर्तनों की छन-छन में
पायल की खामोशी का बिना कफन जलना है..
या 
रिश्तों की आग में रंगों का टूट जाना है..
असल में
गौना कभी न आने वाली समझ है..
किस तरह कोई भी गाँव
धीरे-धीरे बदल जाता है "दानबाद" में.
गौना असल में सपनों का पिघल कर
पलंग, पीढ़ी ,झाड़ू में बदलना है..
है तो बड़ा अजीब..
कि हाथों पर पाले सच को,
जरा कच्ची सी मेंहदी से झिड़क देना..
या
हल चलाये खेत में दफन
कुचली हुई पगडण्डी को याद करना..
आज जब कि किनारों पर ही डूब गयी
बटनों वाली बत्तख..
आज भी हादसों के इंतज़ार में बैठी हो तुम,
महिज़ घटनाओं की दीवार के उस पार
जो कभी किसी से फांदी नहीं गयी..

है तो बड़ा अजीब
कि मैं जो कुछ भी नहीं लगता तेरा,
दीवार के इधर भी और उधर भी
मरी हुई और मरने जा रही बत्तखों को उठाये फिरता हूँ..!

 (पंजाब के तमाम गाँवों मे पुरानी रवायत से लड़की गौने मे ही पहली बाद विदा हो कर ससुराल जाती थी!)

२- तू गम न किया कर

तू गम न किया कर,
मैंने अपने दोस्तों से बोलना छोड़ दिया है..
पता है?
वह कहते थे- अब तेरा घर लौट पाना मुश्किल है..
वह झूठ कहते थे न मां,
तू मुझे अब वहां बिलकुल न जाने देना
हम वहां बबलू को भी नहीं जाने देंगे
ये वही लोग है जिन्होंने मुझसे बड़े को
तुझसे जुदा कर दिया था..
तू गम न किया कर
मैं उस अशिम चैटर्जी को 
मूंछों से पकड कर तेरे कदमों में पटक दूंगा.
वह भाई की हड्डियों को जादू का डंडा बना कर
नये लडकों के सिर पर घुमाते है..
तू रोती क्यूँ है माँ
मैं बड़ी बहन को भी उस रास्ते से वापिस ले आऊंगा..
फिर हम सभी भाई बहन
इकट्ठे हो कर पहले जैसे ठहाके लगाया करेंगे.
बचपन के उन दिनों जैसे..
जब तेरी आँखों पर दुपट्टा बांध कर
हम पलंग के नीचे छिप जाते है
और तू हाथ बढ़ा कर.. छु-छु कर हमें ढूंढा करती थी
या बिलकुल पहले जैसे जब मैं 
तेरी पीठ पर चुटकी काट कर भाग जाता था
और तू गुस्से में मेरे पीछे
बेलन खींच कर मारती थी..
मैं टूटा बेलन दिखा-दिखा तुझे बड़ा सताता था..

भाई की याद तुझे बहुत आती है न माँ?
वह बहुत भोला था
एक बार की याद है?
जब वह पेड़ से लकड़ियाँ काटते गिर पड़ा था
बांह टूट गयी थी पर हँसता रहा था..
ताकि तू सदमें से बेहोश न हो जाये
और बहन, तब कितनी छोटी थी
बिलकुल गुड़िया सी..
अब वह शहर जा कर क्या-क्या सीख गयी है
पर तू गम न किया कर..
हम उसकी शादी कर देंगे
फिर मैं और बबलू 
इसी तरह तेरी गोद में 
परियों की कहानी सुना करेंगे
हम माँ..कहीं दूर चले जायेंगे..
जहाँ सिर्फ पंछी रहते है..
जहाँ आस्मां जरा से शामियाने जितना नहीं होगा..
जहाँ पेड़ लोगों जैसे होंगे
लोग पेड़ों जैसे नहीं 
माँ तू गम ना कर..
हम फिर एक बार उन दिनों की ओर लौट जायेंगे..
वहां जहाँ शहर का रस्ता 
एक बहुत बड़े जंगल में से हो कर जाता है...!

5 comments:

  1. कुछ कवियों तक बार बार लौटना होता है... पाश उममें से एक हैं.

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  2. पता नही क्यों..मगर पाश हमेशा से मेरे लिये महज कवि भर या एक शख्सियत भर नही रहे..मेरी जिंदगी मे उनका दख्ल इससे कहीं ज्यादा था..दूसरे तमाम विद्रोही कवि/कलाकारों से अलग उनकी कविता उनकी फिलासफी या आइडियॉलोजी से ज्यादा उनकी अपनी जिंदगी की दस्तावेज थी..उनके शब्दों से आते पसीने की महक उनके बदन के पसीने का हलफ़नामा थी..तो उनकी कविता मे लगे खून के धब्बे उनकी हथेलियों से रिसते हुए खून के होते थे..विद्रोह और सरोकारों के कवि होने के बावजूद उनकी कोई कविता ऐसी नही थी जिसमे कि उनकी अपनी खुरदरी जिंदगी का कोई बेलौस टुकड़ा मौजूद न हो..ऐसी कोई कविता नही है जिसमे हमारे जैसा साधारण पाठक भी अपने सबसे मूलभूत इंसानी जज्बातों का अक्स ना खोज पाये...उनकी कविताओं मे क्रांति किताबी क्रांति नही थी तो उनकी कविताओं का प्रेम भी किताबी ’लव-कोटेशन-मार्का’ प्रेम नही था..उनकी कविता के कैनवस पर बेचैनी से भरी हुई एक गहरी बेबसी और चट्टान जैसा अचल और निडर आशावाद दोनो का कंट्रास्ट एक साथ हर वक्त मौजूद रहता है..गुजर गये सफ़र का नास्टालिजिया और आने वाली मंजिलों के बेचैनी यह दोनों मशालें उनकी हर कविता अपने कंधों पे उठाये फिरती है..जैसे भगत सिंह उनकी जिंदगी से कविता तक हर जगह मौजूद हैं...जिंदगी को ठोकर पर रख कर जिंदगी को भरपूर जीने का ऐसा हुनर किसी किसी को ही आता होगा..

    पाश की पहली वाली गौने वाली कविता पहली बार पढ़ने को मिली और जिंदगी के कोमल सुरों के शोर मे टूटते जानी की यह तल्ख हकीकतबयानी झकझोर देती है..
    सपनों के समंदर की नाजुक लहरों का जिंदगी की कठोर चट्टानों से टकरा कर बिखर जाना जैसे कि-

    "आज जब कि किनारों पर ही डूब गयी
    बटनों वाली बत्तख..
    आज भी हादसों के इंतज़ार में बैठी हो तुम,
    महिज़ घटनाओं की दीवार के उस पार"

    तो तल्ख हकीकत के बावजूद लहरों का अपने अस्तित्व को बचाये रखना ज्यों कि-

    "कि मैं जो कुछ भी नहीं लगता तेरा,
    दीवार के इधर भी और उधर भी
    मरी हुई और मरने जा रही बत्तखों को उठाये फिरता हूँ..!"
    यह उनकी कविता मे एक साथ संभव होते हैं...और यह दीवार वक्त की ठोस अभेद्य दीवार है कि जिसको सिर्फ़ स्मृतियां और उम्मीदें ही पार कर सकती हैं..!! वृहद अर्थ मे देखें तो एक कवि का गौना भी तभी हो जाता है जब उसका किताबी हर्फ़ो के पार की हकीकत की तल्ख और निर्दय दुनिया से साबका पड़ता है...मगर कितने रचनाकार होते हैं जो सपनों के चौका, पीढ़ी और झाड़ू मे बदलने के बावजूद पुराने बटनों के परों वाली बत्तखों के लाश सीने से लगाये हुए उम्र गुजार देते हैं..

    ..और यह दो कातिल लाइने ही पूरी कविता को समराइज कर देती हैं..लगता है कि जैसे कविता भी जिंदगी के
    "हल चलाये खेत में दफन
    कुचली हुई पगडण्डी को याद करना.." ही है..

    दूसरी वाली कविता किसी और अनुवाद मे भी पढ़ी थी..और इतनी हकीकतन और मार्मिक है कि लगता है कि हम भी बबलू, गुड़िया, माँ और कवि के इस परिवार का खामोश हिस्सा है..कि इस परिवार का दर्द हमारा साझा दर्द है और माँ का दुख हमारा साझा दुख...और उस दुनिया की तलाश हमारी साझी तलाश है जहाँ लोग पेड़ो जैसे नही वरन पेड़ लोगों जैसे होते होंगे...
    और हाँ कविता के अनुवाद भी इतने बेहतरीन लगे कि जैसे कविता मूलतः हिंदी मे ही लिखी गयी हो..

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  3. बेहतरीन रचनाएँ...
    सांझा करने का शुक्रिया...

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  4. बहुत सन्दर प्रस्तुति ....बहुत बहुत बधाई...
    होली की शुभकामनायें...

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  5. रूह तक पहुंचकर झकझोर देती हैं पाश की कविताएं..

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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