Tuesday, April 30, 2013

अपनों के बिना कैसा अपना !


रेहन पर रग्घू नाटक का पोस्टर

देह की भाषा क्या होती है? और भंगिमा ? कोई सच्चा कलाकार काठ के खोखले धम धम करते स्टेज पर भी नंगे पैर चले तो नवजात शिशु सा लगता है। चलना वो जो बेआवाज़ हो और देह की भाषा किरदार मुताबिक।

गत शनिवार और रविवार एस आर सी यानि श्रीराम सेंटर में काशीनाथ सिंह द्वारा लिखा गया उपन्यास रेहन पर रघ्घू का मंचन हुआ। वैश्विक उदासीकरण से जूझते इस कहानी का मुख्य पात्र रघुनाथ है जो कि एक कॉलेज में पढ़ाता है. निम्न मध्यमवर्गीय मानसिकता के साथ बढ़ा रघुनाथ अपने बच्चों के फैसलों से बड़ा क्षुब्ध है। वह अंत में इतना दुखी हो जाता है कि खुद को अक्सर निपूता मानने लगता है।

सीन - 1

रघुनाथ अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से मिलने उसके घर पर आता है। और प्रिंसिपल रघुनाथ को बेइज्जती इसलिए करता है कि उसके बड़े बेटे ने जाति से बाहर लाला की बेटी से शादी कर ली। मंच पर रम का रंग है। प्रिंसिपल उसे अपनी बातों की चोट देते हुए रघुनाथ का कुरता खोल कर लुढ़का देता है। समाज का दकियानूस ठेकेदार प्रिंसिपल और उसे मान कर चलने वाला रघुनाथ दोनों के बेजोड़ भाव भंगिमा। सीन इतना टेंस हो जाता है कि दर्शकों में आत्मबोध जागता है और तालियां अपने आप बज उठती हैं।

सीन - 2

उम्रदराज होती बेटी के शादी से इंकार करने के बाद बेहद दुख भरे क्षण में रघुनाथ अपनी पत्नी के करीब आता है और उसे प्यार करने की कोशिश करता है। प्रणय दृश्यों को मंच पर दिखाना ज़रा जटिल है। ऊपर से पड़ती पीली रोशनी में एक दूसरे में गुंथे रघुनाथ और उसकी पत्नी किसी नदी में किनारे खोजते से नज़र आते हैं। एक पल के लिए लगता है वे दोनों एक नाव पर सवार है और दोनों ही पतवार चला रहे हैं। मामला तब गहराता है जब रघुनाथ असफल होता है और अपनी पत्नी के गोद में सर रख कर ज़ार ज़ार रो कर कहता है - मैं बूढ़ा हो गया अब। और पत्नी उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहती है - अब ये सब करने की हमारी उमर नहीं रही।
सवाल उठता है - बुढ़ापा क्या है ? ये यूं अचानक तो नहीं आता? परिस्थितिवश अक्षमता !

सीन - 3
या कि, या कि करते कलाकार और जवाब देता रघुनाथ

कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय' समझिए।

उन्हें हर जगह यही कहा गया और उनका कोई काम नहीं किया गया! उन्हें हर जगह 'हट-हट' और 'दुर-दुर' किया गया। वे उस 'बकरी' या 'गाय' की तरह हैं जो सिर्फ 'में-में' या 'बाँ-बाँ कर सकती है, मार नहीं सकती! यही उनकी छवि है सबके आगे - मिमियाने घिघियानेवाले मास्टर की। यह उनकी छवि नहीं है - यही हैं वे।


सीन - 4

मंच पर गोले में एक रोशनी उतरती है। रघुनाथ अपने दोनों बच्चों से ज़मीन के बारे में फैसला लेने के लिए फोन करता है। एक असरदार प्रयोग के तहत दिखाया जाता है कि रघुनाथ घुटनों के बल बैठा है उसके ठीक पीछे उसका छोटा बेटा खड़ा है, उसके पीछे बड़ा बेटा खड़ा है। ये वे पीढ़ी है जो अपनी ज़मीन के लिए लड़ना नहीं जानती। उसे बेच कर फ्लैट में शिफ्ट हो जाना चाहती है। अनुमान के मुताबिक रघुनाथ को दोनों बेटे ज़मीन बेच डालने की सलाह देते हैं। प्रत्युत्तर में रघुनाथ के आवाज़ में बेबसी साफ झलकती है लेकिन उससे भी ज्यादा झलकता है बड़े बेटे के पीछे मंच के पर्दे पर असामान्य रूप से बेहद काली उन व्यक्तित्वों की काली परछाई जिसके आगे कई रघुनाथें घुटनों के बल आज बैठ गए हैं।

कुछ और भी प्रयोग अच्छे थे मसलन दो आदमी के फोन पर बात करने में एक तीसरे आदमी का स्टेज के बीचों बीच खड़े होकर दोनों ओर बांहें फैलाकर हाथ से फोन का संकेत बनाना।

रघुनाथ के किरदार में मुकेश भाटी ने बेहतरीन काम किया। एक सत्चरित्र मास्टर और विनम्रता और सादगी लिए अपने परिवार को समाज को समर्पित आदमी। कदम कदम पर वक्त और रिश्तों की दुलत्ती खाता जिसे इस भावना को अपने रोम रोम में समाया था कि अपनों के बिना अपना क्या होता है। प्रिंसिपल के रूप में शाहनवाज खान महज एक ही सीन में छा से गए। एक ताबेदार आदमी जब अपने ही घर में किसी को अपमानित करता है तो लोगों के नाम पर अपनी सारी कुंठा अपनी लानतों के रूप में आवाज़ के उतार चढ़ाव से बखूबी उभारा। इसके अलावा अन्य किरदार केंद्र में न होने के कारण साथी कलाकार ही थे जो औसत या उससे कम ही रहे। रोमांस के अंतरंग पलों को सोनल का पात्र निभाने वाली रीना सैनी ने अपने प्रदर्शन से उत्तेजना जगाई। देवेन्द्र राज अंकुर ने उपन्यास का कुशलता से निर्देशन किया है.


आँगन और लान बड़े-बड़े ओलों और बर्फ के पत्थरों से पट गये और बारजे की रेलिंग टूट कर दूर जा गिरी-धड़ाम ! उसके बाद जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो वह पानी की बूँदें नहीं थीं-जैसे पानी की रस्सियाँ हो जिन्हें पकड़ कोई चाहे तो वहाँ तक चला जाय जहाँ से ये छोड़ी या गिराई जा रही हों। बादल लगातार गड़गड़ा रहे थे- दूर नहीं, सिर के ऊपर जैसे बिजली तड़क रही थी; दूर नही, खिड़कियों से अन्दर आँखों में।

इकहत्तर साल के बूँढे रघुनाथ भौंचक ! यह अचानक क्या हो गया ? क्या हो रहा है ?
उन्होंने चेहरे से बन्दरटोपी हटाई, बदन पर पड़ी रजाई अलग की और खिड़की के पास खड़े हो गए !
खिड़की के दोनों पल्ले गिटक के सहारे खुले थे और वे बाहर देख रहे थे।
घर के बाहर ही कदम्ब का विशाल पेड़ था लेकिन उसका पता नहीं चल रहा था- अँधेरे के कारण, घनघोर बारिश के कारण ! छत के डाउन पाइप से जलधारा गिर रही थी और उसका शोर अलग से सुनाई पड़ रहा था !

ऐसा मौसम और ऐसी बारिश और ऐसी हवा उन्होंने कब देखी थी ? दिमाग पर जोर देने से याद आया-साठ बासठ साल पहले ! वे स्कूल जाने लगे थे- गाँव से दो मील दूर ! मौसम खराब देख कर मास्टर ने समय से पहले ही छुट्टी दे दी थी। वे सभी बच्चों के साथ बगीचे में पहुँचे ही थे कि अंधड़, और बारिश और अंधेरा ! सबने आम के पेड़ों के तनों की आड़ लेनी चाही लेकिन तूफान ने उन्हें तिनके की तरह उड़ाया और बगीचे से बाहर धान के खम्भों में ले जाकर पटका ! किसी के बस्ते और किताब कापी का पता नहीं ! बारिश की बूँदें उनके बदन में गोली के छर्रों की तरह लग रही थीं और वे चीख चिल्ला रहे थे। अंधड़ थम जाने-के बाद-जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाँव से लोग लालटेन और चोरबत्ती लेकर निकले थे ढूँढ़ने !

यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिन्दगी क्या ?
और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में हैं।
कितने दिन हो गये बारिश में भीगें ?
कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए ?
कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे ?
कितने दिन हो गये अंजोरियों रात में मटरगश्ती किए ?
कितने दिन हो गये ठंठ में ठिठुर कर दाँत किटकिटाए ?
क्या ये इस लिये होते है कि हम इनसे बच के रहे ? बच बचा के चले ? या इसलिये कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएँ, सिर माथे पर बिठाएँ ?
हम इनसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये हमारे शत्रु है ! क्यों कर रहे है ऐसा ?
इधर एक अर्से से रघुनाथ को लग रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब नहीं रहेंगे और यह धरती रह जाएगी ! वे चले जाएगे और इस धरती का वैभव, उसका ऐश्वर्य, इसका सौन्दर्य- ये बादल, ये धूप, पेड़ पौधे, ये फसलें, ये नदी नाले, कछार जंगल पहाड़ और यह सारा कुछ यहीं छूट जाएगा ! वे यह सारा कुछ अपनी आँखों में बसा लेना चाहते है। जैसे वे भले चल जाएँ आँखें रह जाएगी; त्वचा पर हर चीज की थाप सोख लेना चाहते हैं जैसे त्वचा केचुल की तरह यहीं छूट जाएगी और उसका स्पर्श उन तक पहुँचाती रहेगी !

उन्हें लग रहा था कि बहुत दिन नहीं बचे है उनके जाने में ! मुमकिन है वह दिन कल ही हो, जब उनके लिए सूरज ही न उगे। लगेगा तो जरूर, लेकिन उसे दूसरे देखेंगे-वे नहीं ! क्या यह सम्भव नहीं है कि वे सूरज को बाँध कर अपने साथ ही लिए जाएँ – न रहे, न उगे, न कोई और देखे ! लेकिन एक सूरज समूची धरती तो नहीं, वे किस चीज को बाँधेगे और किस-किस को देखने से रोकेंगे ?
उनकी बाहे इतनी लम्बी क्यों नहीं हो जातीं कि वे उसमें सारी धरती समेट लें और मरें या जिएँ तो सबके साथ !
लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारे जा रहा था- कल तक कहाँ था वह प्यार ? धरती से प्यार की ललक ? यह तपड़ ? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज चाँद थे ! नदी, झरने सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे ! कहाँ थी यह तड़प ? फुर्सत थी इन्हें देखने की ? आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव में आ रही है तो बाहर जिन्दगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?

सच-सच बताओं रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था कि एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका तक फैल जाओगे ? चौके में पीढ़ा पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खाने वाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे ?


वैश्वीकरण के साइड इफैक्ट्स के तहत इन्हीं सवालों और चिंताओं के साथ यह नाटक खत्म होती है और बस में दस रूपए का टिकट लेकर लौटते हुए लगता है अरे यह तो हमारे घर की कहानी थी!

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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