बड़ा विरोधाभास सा लगता है, किसी के जन्मदिन के दिन उसकी शहादत की बातें करना, पर भगत सिंह का जीवन भी तो इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विपरीत लक्षणों में से एक है.
वह एक सच्चे क्रांतिकारी थे,जब उनको फांसी दी गयी वे केवल २३ साल के थे,.जिस तरह बिना किसी डर के जिए-उसी तरह बिना किसी डर के मरे. अब बहुत से क्रांतिकारी इतिहास की किताबो में सिर्फ एक नाम बनकर रह गये है.मगर फांसी के ७९ साल बाद भी भगत सिंह की याद राष्ट्र में ताज़ी है.
उनका कहना था कि भारत की आज़ादी की लड़ाई सतही तौर पर आर्थिक सुधारो की लडाई थी आजादी इन सुधारो के लिए एक मौका देती. बिना गरीबी हटाये आज़ाद भारत सिर्फ नाम के लिए आज़ाद होगा. भगत सिंह एक राज हटाकर दूसरे राज में बदलना नहीं चाहते थे. उन्होंने एक बार अपनी माँ को लिखा था :
भगतसिंह २३ वर्ष की उम्र में ही में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए? है तो ग़ालिब का शे'र पर कयासों और अगर-मगर के बीच में बड़ा सामायिक....
'शहीद भगत सिंह क्रांति में एक प्रयोग' ( कुलदीप नैयर ) का भाग ८ का एक हिस्सा
२३ मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ,जब सुबह के वक़्त राजनैतिक बन्दियो को उनकी कोठरियो से बाहर निकाला जाता था. आम तौर पर वह सारा दिन बाहर रहते थे और सूरज छुपने के बाद ही वापिस अंदर जाते थे. लेकिन आज,जब वार्डन चरत सिंह शाम को करीब चार बजे सामने आये और उन्हें वापिस अंदर जाने के लिए कहा तो वह सभी हैरान हो गये.
वापिस अपनी कोठरियो में बंद होने के लिए ये बहुत जल्दी था. कभी-कभी तो वार्डन कि झिड़किओं के बावजूद भी सूरज छिपने के काफी समय बाद तक वह बाहर रहते थे. लेकिन इस बार वह न केवल कठोर बल्कि दृढ़ भी था. उसने ये नहीं बताया कि क्यों. उसने सिर्फ ये कहा,"ऊपर से आर्डर है."
बन्दियो को चरत सिंह की आदत पड़ चुकी थी. वह उन्हें अकेला छोड़ देता था और कभी भी ये नहीं जांचता था कि वे क्या पढ़ते हैं. हलांकि चोरी छुपे अंग्रेजों के खिलाफ कुछ किताबें जेल में लाई जाती थी,उन्हें उसने कभी ज़ब्त नहीं किया था. वह जानता था कि बंदी बच्चे नहीं थे. वे सियासत से गहरा ताल्लुक रखते थे. किताबें उन्हें जेल में गड़बड़ी फ़ैलाने के लिए उकसांयेगी नहीं.
उसकी माता पिता जैसी देखभाल उन्हें दिल तक छू गयी थी. वे सभी उसकी इज्ज़त करते थे और उसे 'चरत सिंह जी' कह कर पुकारते थे. उन्होंने अपने से कहा कि अगर वह उनसे अंदर जाने को कह रहा था तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी. एक-एक करके वह सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपनी-अपनी कोठरियो में चले गये.
जिस तरह से वह अपनी सलाखों के पीछे से झांक रहे थे, वे अब भी हैरान थे. तभी उन्होंने देखा कि बरकत नाई एक के बाद एक कोठरियो में जा रहा था. उसने फुसफुसाया कि आज रात भगत सिंह और उसके साथियो को फांसी चढ़ा दिया जायेगा. उन्होंने (बंदी) ,उससे कहा कि क्या वो भगत सिंह का कंघा, पेन, घडी या कुछ भी उनके लिए ला सकता था ताकि वे उसे यादगार के तौर पे अपने पास रख सके.
हमेशा मुस्कुराने वाला बरकत आज उदास था. वह भगत सिंह की कोठरी में गया और एक कंघा व पेन लेके वापिस आया. सभी उस पर कब्जा करना चाहते थे. १७ में से २ ही किस्मत वाले थे,जिन्हें भगत सिंह की वह चीज़े मिली.
वे सभी खामोश हो गये; कोई बात करने के बारे में सोच तक नहीं रहा था. सभी अपनी कोठरियो के बाहर से जाते हुए रास्ते पर देख रहे थे, जैसे कि वह उम्मीद कर रहे थे कि भगत सिंह उस रास्ते से गुज़रेंगे. वे याद कर रहे थे कि एक दिन जब वह (भगत सिंह) जेल में आये तो एक राजनैतिक बंदी ने उनसे पूछा कि क्रांतिकारी अपना बचाव क्यों नहीं करते. भगत सिंह ने जवाब दिया,उन्हें 'शहीद' हो जाना चाहिए,क्योंकि वे एक ऐसे काम की नुमाइंदगी कर रहे है जो कि सिर्फ उनके बलिदान के बाद ही मजबूत होगा, अदालत में बचाव के बाद नहीं. आज शाम वे सभी क्रान्तिकारियो की एक झलक पाने के लिए बेकरार थे. लेकिन वे शाम की उस ख़ामोशी में, अपने कानो में एक आवाज सुनने का इंतज़ार करते रह गये.
फांसी से २ घंटे पहले, भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता को उनसे मिलने की इजाज़त दे दी गयी. उनकी दरख़ास्त थी कि वह अपने मुवक्किल की आखरी इच्छा जानना चाहते है और इसे मान लिया गया. भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे पीछे घूम रहे थे, जैसे की पिंजरे में एक शेर घूम रहा हो. उन्होंने मेहता का एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वह उनके लिए 'दि रैवोल्यूशनरी लेनिन' नाम की किताब लाये थे. भगत सिंह ने मेहता को इसकी ख़बर भेजी थी क्योंकि अख़बार में छपे इस किताब के पुनरावलोकन ने उनपर गहरा असर डाला था.
जब मेहता ने उन्हें किताब दी वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास ज्यादा वक़्त नहीं था.मेहता ने उनको पूछा कि क्या वो देश को कोई सन्देश देना चाहेंगे. अपनी निगाहें किताब से बिना हटाये, भगत सिंह ने कहा-''साम्राज्यवाद खत्म हो और इन्कलाब जिंदाबाद''
मेहता-"आज तुम कैसे हो?"
भगत सिंह-"हमेशा की तरह खुश हूँ."
मेहता-"क्या तुम्हे किसी चीज़ की इच्छा है?"
भगत सिंह-"हाँ! मैं दोबारा से इस देश में पैदा होना चाहता हूँ ताकि इसकी सेवा कर सकूँ."
भगत सिंह ने उनसे कहा कि पंडित नेहरु और बाबू सुभाष चन्द्र बोस ने जो रूचि उनके मुकद्दमे में दिखाई, उसके लिए उन दोनों का धन्यवाद करें. मेहता राजगुरु से भी मिले, उन्होंने कहा," हमें जल्दी ही मिलना चाहिए." सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वे जेलर से कैरम बोर्ड वापिस ले लें, जो कि कुछ महीने पहले मेहता ने उन्हें दिया था.
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारिओं ने उन्हें बताया कि उन तीनो की फांसी का वक़्त ११ घंटे घटाकर कल सुबह ६ बजे की जगह आज शाम ७ बजे कर दिया गया है. भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ ही पन्ने पढ़े थे.
"क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का वक़्त भी नहीं देंगे?" भगत सिंह ने पूछा. बदले में उन्होंने (अधिकारी),उनसे फांसी के तख्ते की तरफ जाने को कहा.
तीनों के हाथ बंधे हुए थे और वे संतरियो के पीछे लम्बे-लम्बे डग भरते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे.उन्होंने जाना पहचाना क्रांतिकारी गीत गाना शुरू कर दिया:
चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसाया वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले. वे हंसे और कहा, "मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि भगवान को दु:खों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर है. अगर अब मैं उनसे माफ़ी मांगूगा तो वे कहेगें कि, "यह डरपोक है जो माफ़ी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है."
भगत सिंह ने ऊँची आवाज़ में एक भाषण जो कि कैदी अपनी कोठरियो से भी सुन सकते थे:
सूली बहुत पुरानी थी, मगर हट्टे -कट्टे जल्लाद नहीं. जिन तीनों आदमियो को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी, वे अलग-अलग लकड़ी के तख्तों पर खड़े थे, जिनके नीचे गहरे गड्डे थे. भगत सिंह बीच में थे. हर एक के गले पर रस्सी का फंदा कस कर बाँध दिया गया. उन्होंने रस्सी को चूमा. उनके हाथ और पैर बंधे हुए थे. जल्लाद ने रस्सी खींच दी और उनके पैरो के नीचे से लकड़ी के तख्ते हटा दिए. यह एक ज़ालिम तरीका था.
उनके शरीर काफ़ी देर तक शूली पर लटकते रहे. फिर उन्हें नीचे उतारा गया और डाक्टर ने उनकी जाँच की.उसने तीनों को मरा हुआ घोषित कर दिया. जेल के एक अफसर पर उनकी हिम्मत का इतना असर हुआ कि उसने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. उसे उसी वक्त नौकरी से निलंबित कर दिया गया. उसकी जगह ये काम एक जूनियर अफसर ने किया. दो अंग्रेज़ अफसरों ने, जिनमे से एक जेल का सुपरिंटेंडेंट था फांसी का निरीक्षण किया और उनकी मृत्यु को प्रमाणित किया.
अपनी कोठरियो में बंद कैदी शाम के धुंधलके में अपनी कोठरियो के सामने गलियारे में किसी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे. पिछले दो घंटे से वहां से कोई नहीं गुजरा था. यहाँ तक कि तालो को दुबारा जांचने के लिए वार्डन भी नहीं.
जेल के घड़ियाल ने ६ का घंटा बजाया जब उन्होंने थोड़ी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज़ और जाने पहचाने गीत, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" की आवाज़ सुनी. उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, "माएं रंग दे बसंती चोला". इसके बाद वहाँ 'इन्कलाब जिंदाबाद' और 'हिन्दुस्तान आज़ाद हो' के नारे लगने लगे, सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे.उनकी आवाज़ इतनी जोर से थी कि वह भगत सिंह के भाषण का कुछ हिस्सा नहीं सुन पाए.
अब,सब कुछ शांत हो चुका था. फांसी के बहुत देर बाद, चरत सिंह आया और फूट-फूट कर रोने लगा. उसने अपनी ३० साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थी लेकिन किसी को भी हँसते-मुस्कुराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा की उन तीनों ने किया था. मगर कैदियों को इस बात का अंदाजा हो गया कि उनकी बहादुरी-गाथा ने अंग्रेज़ी हकूमत का समाधि-लेख दिया था.
ये मुश्त-ए-खाक है फानी, रहे न रहे."