डाकिए की ओर से: एक चीज होती है हार्ट लाइन. इसमें एक ही वक्त पर कम से कम दो आदमी एक ही बात सोचते हैं. कुछ दिन पहले हिन्दुस्तान में उदय प्रकाश का साक्षात्कार पढ़ा था कि आज के दौर में आप बिना कुछ किए भी अपने दुश्मन बना सकते हैं।
ये कविता ऐसे ही किसी हार्ट लाइन की बात कहती है। शुक्र है उदयप्रकाश सिर्फ इसे सुन ही नहीं रहे साथ में बोल भी रहे हैं। यहां तीन दी जा रही है, शेष दो अगली बार।
*****
यह कविता इसी तरह लिखी जा रही है, अलग-अलग समय और मूड्स में। यह किसी सूची में शामिल होने के लिए नहीं, अपने समय की चिंता का हिस्सा बनने के लिए लिखी जा रही है। जीवन की अनिश्तिताओं और बिखरावों के बीच। यह किसी भाषा-विशेष की अभिव्यक्ति या उसकी कला-परम्परा का अंग नहीं है। यकीन मानिए, अगर कोई अन्य भाषा मैं इतनी जानता कि उसमें कविता लिख सकूं, तो उसी भाषा में लिखता। कहते हैं, हर कविता सबसे पहले अपने लिए प्राथमिक शर्त की तरह ‘सहानुभूति‘ की मांग करती है, तो यह भी करेगी - उदय प्रकाश
अरूंधति
एक
जेठ की रात में
छप्पर के टूटे खपड़ैलों से दिखता था आकाशा
अपनी खाट पर डेढ़ साल से सोई मां की मुरझाई सफेद- जर्द
तर्जनी उठी थी
एक सबसे धंुधले, टिमटिमाते, मद्धिम लाल तारे की ओर -
‘वह देखो अरूंधति।‘
मां की श्वाल नली में कैंसर था और वह मर गई थी, इसके बाद
उसकी उंगली उठी गई थी आकाश की ओर
कल रात मैंने
फिर देखा अरूंधति को
वैशाली के अपने फ्लैट की छत से
पूरब का अकेला लाल तारा
अपनी असहायता की आभा में
हमारी उम्मीद की तरह कभी-कभी बुझता
और फिर जलता हर बार
साठ की उम्र में भी
मैं मां की अंगुलियां भूल नहीं पाता।
दो
उसका चेहरा
हमारे आंसुओं की बाढ़ में
बार-बार उतराता है
उसके अनगिन खरोंचों में से
हमारे अनगिन घावों का लहू रिसता है
हमारे हिस्से की यातना ने
वर्षों से उसकी नींद छीन रखी है
हमारे बच्चों के लिए लोरियां खोजने
वह जिस जंगल की ओर गई है
वहां से जानवरों की आवाज़ आ रही है
उधर, गोलियां चल रही हैं
उसकी बहुत बारीक और नाजुक
कांपती आवाज़ में हमारी भाषा नई सदी की नई लिपि
और व्याकरण सीखती है
सोन की रेत में वह पैरों के चिन्ह छोड़ गई है
नर्मदा की धार में उसका चेहरा
चुपचाप झिलमिलाता हुआ बहता है
तीन
लुटियन के टीले से कभी नहीं दिखती अरूंधति
वहां अक्सर दिखता है पृथ्वी के निकट आता हुआ
अमंगलकारी रक्ताभ मंगल
या अंतरिक्ष में अपनी कक्षा से भटका कोई
गिरता हुआ टोही खुफिया उपग्रह
रोहतक या मथुरा से देखो तो सूर्योदय के ठीक पहले
राजधानी के ऊपर हर रोज उगता है किसी गंुबद-सा
कोहरे का रहस्यपूर्ण रंगीन छाता
वर्णक्रम के सारे रंगों को किसी डरावनी आशंका में बदलता
संसद या केंद्रीय सचिवालय के आकाश में
नक्षत्र नहीं दिखते, आजमा लो
न सात हल-नागर, न शुकवा, न धुरू, न गुरू
वहां तो चंद्रमा भी अपनी गहरी कलंकित झाइयों के साथ
किसी पीलिया के बीमार-सा उगता है, महीने में कुछ गिनी-चुनी रात
नत्रजन, गंधक और कार्बन में बमुश्किल किसी तरह अपनी सांस खींचता
कभी-कभी आधी रात टीवी चैनल जरूर दिखाते हैं
टूटती उल्काओं की आतिशबाजी
किंग खान और माही के करिश्मों के बाद
दिल्ली से नहीं दिखता आकाश
यहां से नहीं दिखता हमारा गांव-देश, हमारे खाने की थाली,
हमारे कपड़े, हमारी बकरियां और बच्चे
दिल्ली से तो दादरी के खेत और निठारी की तंदूर तक नहीं दिखते
यहां के स्काइस्क्रैपर्स की चोटी पर खड़े होकर
गैलीलियो की दूरबीन से भी
लगभग असंभव है
अरूंधति की मद्धिम लाल
टिमटिमाती रोशनी को देख पाना।
साभार - अहा! ज़िंदगी पत्रिका, जनवरी अंक, 2011
No comments:
Post a Comment
जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.